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लघुकथाएँ

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अनिल शूर आज़ाद

भूखा

एक पिचके हुए फटेहाल व्यक्ति से धर्माचार्य ने पूछा “तुम हिन्दू हो या मुसलमान?”

धर्माचार्य के हाथ में पकड़ी भोजन की थाली को एकटक ताकते उस व्यक्ति ने उत्तर दिया “मैं भूखा हूँ!”

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राजाज्ञा

पुरानी बात है। किसी देश के तानाशाह ने शहर के मुख्य चौराहे पर अपनी मूर्ति स्थापित करा दी। जनता में मुनादी करा दी गई कि यहाँ से गुज़रने वाले प्रत्येक शख़्स को मूर्ति के समक्ष सिर झुकाना होगा। फरमान नहीं मानने वाले का सिर कलम कर दिया जाएगा। निरीह जनता बेचारी आदेश का पालन करने लगी। इस बीच राजा के विरोधियों को चुन-चुनकर मारा भी जाने लगा।

       एक दिन तानाशाही का एक धुर आलोचक, सैनिकों के हत्थे चढ़ गया। उसपर आरोप मढ़ा गया कि दो वर्ष पहले इसने मूर्ति के समक्ष सजदा नहीं किया था। उसने प्रतिवाद भी किया कि हुजूर, दो वर्ष पूर्व तो मूर्ति ही मौजूद नहीं थी।

लेकिन, कारिंदों ने उसकी एक न सुनी। ‘मूर्ति न सही चौराहा तो था – सिर तुम वहाँ भी झुका सकते थे।’ कहते..उसका सिर, धड़ से अलग कर दिया गया।

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डण्डा

‘‘आज फिर गलत लिखा! बेवकूफ कहीं का! चल बीस बार इसे अपनी कापी में लिख…’’

‘‘नहीं लिखूँगा!’’ उसके स्वर की कठोरता देखकर मैं दंग रह गया।

मैंने पूछा, ‘‘क्यों नहीं लिखोगे?’’

‘‘पिताजी रोज़ दारू पीकर मारते हैं। कहते थे, अब एक महीना पूरा होने से पहले नई कापी माँगी ,तो बहुत मारूँगा….’’ कहते हुए डण्डा खाने के लिए हाथ आगे कर दिया।

मैं उसकी डबडबाई आँखों में झाँकता रहा। मेरा उठा हुआ हाथ जाने कब का नीचे ढरक गया था।

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बड़ी मछली

व्यवसायी पिता ने सरोवर के नीले जल में झाँक रहे अपने पुत्र को अर्थपूर्ण शब्दों में टोका ,”देखा!हर बड़ी मछली ,छोटी मछली को कैसे खा जाती है…”

युवा पुत्र ने पिता की भावनाओं का खंडन करते हुए सरोवर के दूसरे तट पर जल रही चिता दिखाकर कहा,”उधर देखिए!छोटी हो या बड़ी, हर मछली का हश्र यही होता है।”

वातावरण में एक गंभीर ख़ामोशी पसर गई।

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बसेसर बाबू

टिक..टिक..टिक..टिक..।

घड़ी की सुइयाँ रात्रि के मौन को भंग करती हुई आगे बढ़ रही हैं। रात्रि के लगभग साढ़े ग्यारह बजे हैं, लेकिन नींद बसेसर बाबू से अभी कोसों दूर है। इस बीच उनकी बूढ़ी हो रही ऑंखें अंधेरे की कुछ-कुछ अभ्यस्त हो चली हैं। अंधकार के बावजूद कमरे में एक मद्धम सी रौशनी भी है। इसमें वे कमरे में मौजूद एक-एक चीज़ को देख सकते हैं।

कुछ ऐसी ही रौशनी उनके स्मृति-पटल पर भी कार्य कर रही है। बसेसर बाबू का नौकरी के लिए शहर चले आना..फिर नीरू, मोहन और विजय। पहले माता और फिर वृद्ध पिता का गाँव में स्वर्गवास..और उसके बाद तो उन्होने गाँव से बिल्कुल ही सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। गाँव की हवेली बेचकर शहर में इस डेढ़ कमरे का जो जुगाड़ बिठाया तो तबसे डेढ़ कमरा ही चला आ रहा है।

अब तो बच्चे भी बड़े हो चले हैं। नीरू और मोहन तो कॉलेज जाते हैं। विजय अभी मैट्रिक पढ़ रहा है। और परबतिया..सहसा बसेसर बाबू कोहनियों के बल जरा उठकर, अधलेटे-अधबैठे से होकर बड़ी हसरत से परबतिया को निहारते हैं। नून-तेल के झंझटों ने ऐसा उलझाया कि कब उनके और परबतिया के बीच दो-तीन खाटें और आ बिछीं, इसका उन्हें पता ही नहीं चला।

 वे..नीरू,मोहन और  विजय की चारपाइयों के पीछे, दूर कोने में ढीली सी खटिया पर सोई परबतिया को बड़े ध्यान से देखते हैं। क्या यही उनकी बरसों की साथिन है! अचानक कई मधुर यादें उन्हें पुलकित कर जाती हैं; किन्तु अगले ही पल वे उदास हो जाते हैं। वक्त कितना निर्मम है। इंसान को कितना बदल देता है यह। आदमी चाहे लाख शक्तिमान होने का दम भर ले, वक्त के आगे वह खिलौना ही है।

अचानक वह अपने बैड के साथ लगा स्विच ‘आन’ कर देते हैं। सारा कमरा दूधिया प्रकाश से नहा उठा है। किसी अजानी आशंका के वश वे तुरंत स्विच ‘ऑफ’ भी कर देते हैं। शीघ्र ही वे पुन: स्विच ‘आन’ करते हैं। सोई हुई परबतिया दूधिया प्रकाश में कितनी भली लग रही है। वे एक नजर अपने बच्चों पर डालते हैं। दुनिया मानती है बच्चे वृद्ध माता-पिता का सहारा बनते हैं। हुंह…, बकते हैं सबके सब। स्वयं वे कितना सहारा बने अपने मां-बाप का!

 सहसा उनका मन कसैला होने लगा है। उनके हृदय में एकाएक विरक्ति के भाव उमड़ने लगते हैं। फरेब है यह दुनिया। तभी उनकी विचार-शृंखला टूटती है। नीरू ने उन्हे टोका है – ‘पापा, आप सोये नहीं अब तक?’

       ‘बस, सो ही रहा था।’ कहते स्विच ‘ऑफ’ कर वे पुनः सोने का असफल-सा उपक्रम करने लगते हैं। घड़ी की सुइयां अभी भी मंथर गति  से आगे बढ़ रही हैं।

टिक..टिक..टिक..टिक..।

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फ्रीज़

वह गरीबड़ा दीनहीन- सा शख्स आज फिर उनके सामने हाथ जोड़े खड़ा था। वह लगातार तीसरे दिन आया था। मास्साब को उसपर गुस्सा और दया दोनों एकसाथ आए। कुछ पल सोचते रहकर उसे कहा, “तुम्हारी जिद पर तुम्हारे बेटे का एसएलसी निकलवा देता हूँ, पर..जैसा कि तुम्हें कल भी कहा था, मिडसेशन में इसका कहीं दाखिला न हुआ तो जिम्मेदारी तुम्हारी ही होगी। इसे समझ लो एवं यहां एक साइन और कर दो।”

 “जी..” कहते जरा आगे बढ़कर उसने, दरख्वास्त पर हस्ताक्षर जैसा कुछ बना दिया। “कल ग्यारह बजे आकर ले जाना।” कागज सँभालते हुए मास्साब ने आश्वस्त किया।

 बहुत रोकने के बावजूद पाँव छूकर वह बाहर निकला ही था कि मजदूरिन- सी लगने वाली एक महिला, बच्चे का हाथ थामे वहाँ पहुँची। मास्साब ने फ़ौरन लड़के को पहचान लिया। यह वही विनोद था, जिसके ‘स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट’ के लिए उसका पिता आकर, अभी गया था। “मास्साब.. मैं विनोद की माँ हूँ। इसके बाप से मेरा झगड़ा चल रहा है। वह जबरदस्ती इसे अपने साथ, गाँव ले जाना चाहता है। मगर आप..इसका साटिफिकेट मत निकालिए..मेरा आदमी इसे भी ले गया, तो मैं मर जाऊँगी..” कहते वह फफक पड़ी। मास्टरजी अब बुरी तरह हैरान-परेशान थे – क्या करें, किसकी मानें!

       अंततः बच्चे की मां की ओर से भी एक एप्लिकेशन लिखवाई गई। पहली दरख्वास्त के साथ इसे नत्थी कर, केस क्लोज कर दिया गया।

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प्यास

छोटे से उस स्टेशन पर पैसेंजर ट्रेनें ही बस – कुछ मिनट के लिए रुकती थी। मई-जून की बरसती आग में वहाँ पारा पचास के आसपास जा पहुँचता था। वहाँ की परंपरा थी कि तब, नजदीकी गाँव के युवकों की एक टोली रेल यात्रियों को पानी पिलाने के अभियान में जुट जाती थी। राजू सदैव इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता। प्यासों को पानी पिलाने का उसे इतना जुनून था कि ट्रेन चलने के बाद भी दौड़ दौड़कर यात्रियों को पानी पहुँचाने की कोशिश में कई बार वह गिरकर चोटिल हो जाता था।

      आज फिर वह, लाइन के पास बिछे पत्थरों पर गिरकर कई जगह से बुरी तरह छिल गया था। उसके भाई ने दवा लगाते हुए उससे पूछा – “ट्रेन की खिड़की से खाली बर्तन लिए बढ़ा हुआ हाथ देखकर आखिर तुम्हें हो क्या जाता है, जो तुम अपनाआपा भूल जाते हो?”

राजू एकाएक गम्भीर हो गया। खोई- सी उदास आवाज़ में बुदबुदाया – ” माँ का चेहरा मेरे सामने आ जाता है, भैया! शहर के अस्पताल में जब माँ की मृत्यु हुई थी, उससे पहली शाम आइसीयू में माँ ने इशारे से मुझसे पानी माँगा था। पानी लेकर मैं आगे बढ़ा था कि नर्स ने मुझे रोक दिया। बमुश्किल गीला कॉटन ही माँ के होठों पर फेरने दिया था। फिर, अगली सुबह माँ की मृत्यु हो गई थी। मुझे अक्सर लगता है कि आख़िरी समय माँ को.. मैं पानी तक नहीं पिला सका था।” कहते राजू फफक पड़ा।

 परिवेश में सहसा एक मातमी ख़ामोशी पसर गई थी।

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