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Channel: लघुकथा
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रोक-टोक

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“तुम बिट्टू को टोकती क्यों नहीं, उल्टा-सीधा खर्च करता है, बाद में महीने के आखिर में पैसे का रोना रोता है।”                                                                                                    

“तुम क्या कम हो टोकने के लिए, जो मैं भी टोकूँ। देखा नहीं, बहू और बच्चों के सामने जब तुम उसे डाँटते हो, तब कैसा रुआँसा हो जाता है।”                                                   

“क्या करूँ, आदत से लाचार हूँ। मुझ से कुछ भी गलत होते नहीं देखा जाता।”                        

 “मेरी मानो, अगर खुश रहना चाहते हो, तो अनदेखा करना और चुप रहना सीखो।”                  

 “अपने लाड़ले बेटे को भी कभी ऐसे समझाया करो। दो महीने से कह रहा हूँ- ‘ इस बार जूते दिलवा दे, मेरे जूते का तल्ला कब का फट चुका है ‘ लेकिन हर महीने कोई न कोई खर्च बता देता है।”

“बस भी करो, सारे दिन कुढ़ते रहते हो ? कुत्ता हड्डी चिंचोड़ेगा तो अपने ही मसूड़ों का खून पिएगा।” 

“तुम भी बस… कुछ भी बोल देती हो। अच्छा सुनो, ध्यान रखना, कुरियर वाला आएगा। बिट्टू कह रहा था कि उसने एक टोस्टर ऑन लाइन आर्डर किया है। अच्छा, तुम ही बताओ, टोस्टर की क्या जरूरत थी ? ब्रेड को तवे पर सेंक कर भी तो काम चल रहा था, फिर भी नवाबजादे ने ऑर्डर कर दिया, आने दो आज उसकी अच्छे से खबर लेता हूँ।”  

इतने में कूरियर वाला एक पैकेट दे गया। खोल कर देखा तो दंग रह गए, उन्हीं के लिए जूते थे। बिल्कुल वैसे, जैसे वे चाहते थे। पहन कर देखे, तो लगा जैसे मक्खन में पैर दे दिए हों, आराम-दायक और सुन्दर।

आँखें भीग गईं, रूँधे गले से बोले, “अजी सुनती हो, हमारा बेटा हीरा है, हीरा।” 

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