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तिरंगे का सौदा

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सर्द रात में कोहरे को चीरती हुईं कई गाड़ियाँ, आपस में बतियाती हुईं शहरों की झुग्गियों में कुछ ढूँढ रहीं थी तभी अचानक !

HARIPRAKASHADUBEY_001“अबे गाड़ी रोक, बॉस का फ़ोन आ रहा है I”

ड्राइवर ने कस कर ब्रेक दबा दिया और धमाके के साथ “जी, साहब , कहते ही आदमी फ़ोन सहित

गाड़ी के बाहर I”

“अबे ! यह धमाका कैसा सुनाई दिया, जिन्दा हो या फ्री में खर्च हो गए ?”

“नहीं जनाब, सब ठीक है, लगभग सब काम हो गया है, सारे छुटभैये नेता खरीद लिये हैं!” “अल्लाह ने चाहा तो काफी भीड़ इकठ्ठी हो जाएगी!”

“और झंडे कितने इकट्ठे हुए?”

“साहब पाकिस्तान के हजार हो गए है !”

“और भारत के?” ……..इस सवाल पर गहरा सन्नाटा पसर गया, उधर से फ़ोन पर कड़कती आवाज आती है, अरे*****साँप सूंघ गया क्या?” साले जलाना तो उन्ही झण्डों को है, कुछ तो बोल !”

“जनाब “तिरंगे का सौदा’ नहीं हो पाया, अपने ही धर्म का है साला, मगर मान नहीं रहा है, कह रहा है-‘ चाहो तो गोली मार दो पूरे परिवार को मगर तिरंगे का सौदा नहीं करूंगा !”

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परिचय

हरि प्रकाश दुबे,जन्म तिथि : 20 जून 1973

जन्म स्थान : हरिद्वार , उत्तराखण्ड

शैक्षिक योग्यता: एम.बी.ए.{वाणिज्य प्रशासन में स्नातकोत्तर},फलित ज्योतिष में डिप्लोमा !

व्यवसाय :   वर्तमान में  महर्षि विद्या मंदिर स्कूल समूह के क्षेत्रीय कार्यालय हरिद्वार में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी” के रूप में कार्यरत !

संपर्क: hpdubey@rediffmail.com


ज़िन्दगी की छलाँग

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Zindagi ki chhalang

ज़िन्दगी की छलाँग- कपिल शास्त्री;पृष्ठ-144; मूल्य-330रुपये;प्रथम  संस्करण-2017, प्रकाशक-वनिका पब्लिकेशंस,एन ए-168,गली नं-6, विष्णु गार्ड्न, नई दिल्ली-110018

लघुकथाएँ

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1-रोज़मर्रा

सुरेश नहाते हुए गुनगुना रहा था और सोच रहा था, ‘ये सुचेता है न रोज़ ही कुछ-न-कुछ कमी निकाल देती है। कभी शर्ट ठीक नहीं लग रही, तो कभी मौज़े ढीले हैं, कभी मूँछ छोटी-बड़ी है, तो जूतों पर पॉलिश नहीं। कपिल शास्त्री-फोटोकभी कुछ-कभी कुछ। आज देखता हूँ, कैसे निकालती है। योजनाबद्ध तरीके से चल रहा हूँ अब तक, आगे के सब काम भी ठीक से निपटा सकता हूँ।

—पर आज काम भी बहुत सारे हैं। बेटी की स्कूल फीस भरनी है, क्रेडिट कार्ड का पेमेंट करना है, कार की, मकान की किश्त बैंक में जमा करनी है, बिजली, टेलीफोन का बिल भरना है। साढ़े दस तक बैंक खुल जाते हैं, दस बजे तक हर हाल में घर से निकल जाऊँगा।’

उसने गुसलखाने से निकलते ही गीज़र चालू कर दिया था, टूथ पेस्ट टयूब को पिचकाकर बचे-खुचे पेस्ट को निकालकर ब्रश किया था। शेविंग के बाद आफ्रटर शेव भी लगा लिया था। नहाने के लिए अंडरगारमेंट और तौलिया पहले ही बाथरूम में लटका लिये थे। गरम और ठण्डे पानी को मिलाकर नहाने लायक बना लिया था।

नहाकर निकला तो बगल में पाउडर भी लगा लिया। तौलिया लपेटे-लपेटे ही पूजा भी कर ली। डायनिंग टेबिल पर नाश्ता तैयार था, सो वह भी कर लिया। पेंट-शर्ट पहनने के बाद ऊपर की जेब में मोबाइल, पेन, पढ़ने का चश्मा और गॉगल डाल लिए। पर्स,रुमाल और कुछ खुल्ले पैसे पेंट की जेब में याद से रख लिये। हर जगह बाइक खड़ी करने के लिए लगते ही हैं।

कमर पर हाथ लगाकर टटोला, बेल्ट भी लगा लिया है। घड़ी कलाई पर है। जूते-मोज़े डटा, अपना बैग और हेलमेट उठाया, दीवार पर लटके हुए कई गुच्छों में से बाइक की ही चाबी निकाली— और फिर सुरेश ने सुचेता को आवाज़ दी कि वह जा रहा है, दरवाज़ा बंद कर ले।सुचेता ने अंदर से आवाज़ लगाई, आ रही हूँ। सुरेश निश्चिंत था कि आज तो सुचेता कोई कमी नहीं निकाल पाएगी।

अगले ही पल कमर में साड़ी खोंसे, सुचेता सामने खड़ी थी। वह और दिनों की अपेक्षा शांत थी, लेकिन मुस्कुरा रही थी। सुरेश खुश था कि आज वह आखि़रकार सफल हो ही गया।पर सुचेता की मुस्कुराहट देखकर उससे रहा नहीं गया। बोला, ‘क्या बात है, तुम मुस्कुरा क्यों रही हो?’

सुचेता बोली, ‘एक मिनट रुको’- और वापस अंदर चली गई।

‘अरे यार, मुझे देर हो रही है और तुम हो न कि बस कुछ न कुछ, टोक ही देती हो’- सुरेश झल्लाया।

सुचेता आईना लिये लौटी। सुरेश के हाथ में पकड़ाते हुए बोली, ‘ज़रा इसमें भी तो देख लीजिए, आप कितने सुंदर लग रहे हैं।’

आईने में अपनी शक्ल देखते ही सुरेश बुरी तरह झेंप गया। दरअसल वह आज कंघी करना तो भूल ही गया। उसके बाल चिड़िया का घोंसला हो रहे थे। सुचेता ने  उसकी अगली प्रतिक्रिया का इंतज़ार किए बगैर, अपनी कमर में खुँसा कंघा निकाला,एड़ियाँ उचकाकर थोड़ी ऊपर उठी, सुरेश का सिर झुकाया और बाल सँवारने लगी।

सुरेश ने भी सुचेता के गालों पर हौले से एक मीठा चुम्मा रख दिया।

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2-व्हाइट  कॉलर   जॉब

सुबह-सुबह मुँह अँधेरे ही सैंपल्स से लबालब भरा पच्चीस किलो का डिटेलिंग बैग उठा प्रकाश अपने मैनेजर के साथ जब बस में चढ़ा ,तो वह ठसाठस भरी हुई थी। पीछे वाली लंबी सीट पर भी बत्तीसी जमी हुई थी। एक आध दाँत टूटने के इंतज़ार में वे दोनों वहीं खड़े हो गए। अगला गाँव आने पर एक की जगह खाली हुई तो उसने मैनेजर को बिठा दिया। एक ग्रामीण अपनी कुछ बकरियों को लेकर भी चढ़ गया। एक और गाँव आने पर उसे भी मैनेजर के पास ही जगह मिल गयी। मैनेजर का प्रवचन शुरू हो गया,

‘ऐसे तो नहीं चलेगा! इंटीरियर्स का बिज़नेस बढ़ाना पड़ेगा, रिटेल ऑर्डर बुकिंग बढ़ानी पड़ेगी, प्रेस्क्रिप्शन्स बढ़वाने होंगे, इस साल एक करोड़ का टारगेट ओवर शूट करना ही है, तुम्हें  ज़िम्मेदारी लेनी ही होगी, नए प्रोडक्ट्स तो स्थापित करने ही हैं, पुराने भी डाउन नहीं होने चाहिए।’

डीज़ल, बकरियों की गंध, सड़कों के गड्ढों के उछाल और उसकी बकबक से जी मिचलाने लगा। उसे लगा कोई बिजली की तरह उसके दिमाग़ में घुसकर उसे चार्ज करने की कोशिश कर रहा है और वो मेन स्विच ऑफ कर देना चाहता था। इसी कोशिश में लगा जैसे मध्यमवर्ग और मध्यमवर्ग के बीच ही कैक्टस की दीवार उग आई हो। व्हाइट अलग, कॉलर अलग और जॉब अलग-अलग छितर से गए थे।

बस स्टैंड पर उतरकर दोनों ने मुँह धोकर रुमाल से मुँह पोंछा, चाय पी और जेब में रखी टाई लगाकर, छोटी कंघी से बाल संवारे और तीनों को फिर जोड़ लिया। मुस्कुराते हुए डॉक्टर के कमरे में दाखिल होते हुए अभिवादन किया, ‘वैरी गुड मॉर्निंग सर।’

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3-बॉडी  गार्ड

मोहित जैसे ही काम से घर लौटा, अटका हुआ दरवाज़ा खोलकर, चौके में काम कर रही पत्नी नेहा की खुली हुई घनी काली जुल्फें हटाकर, सुराहीदार गर्दन में प्यार से हाथ फेरते हुए उसे पीछे से अपनी मज़बूत बाँहों में भींच लिया, कामाग्नि भड़काते इस स्पर्श को पाकर उसने भी शरीर ढीला छोड़ दिया और चेहरा उसकी और घुमाकर होंठ अधखुले छोड़ दिए, जिनके मिलते ही मदहोशी के आलम में अभी आँखें मुँदी ही थीं कि तभी अचानक चटाचट-चटाचट पीठ पर पड़ती नन्हीं हथेलियों के दर्द से अरे-अरे करते हुए न चाहते हुए भी छोड़ना पड़ा।

पता नहीं किसी कमरे से दौड़ती हुई बेटी रिंकू आई और इन अप्रत्याशित प्रहारों से अपनी मम्मी को बचाने का प्रयास करने लगी।बढ़ती बच्ची को इन स्पर्शों से शिकायत ही नहीं सख़्त ऐतराज़ भी था। उसे लगता था कि पापा-मम्मी को बेवजह परेशान कर रहे हैं।

मम्मी भी रिंकू का पक्ष लेते हुए शरारत भरे अंदाज़ में बोली, ‘अब मुझ तक पहुँचना, तुम्हारे लिए इतना आसान नहीं है, ये मेरी बॉडी गार्ड है।’

बच्ची ने इस प्रतिष्ठापूर्ण पद से नवाज़े जाने पर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया।

‘अच्छा! तो हमारे प्यार का सबसे बड़ा दुश्मन तो, हमारे घर में ही पल रहा है, वैसे तो तुम दोनों मेरे दो हाथ की हो पर क्या करूँ! मैं भी प्यार के हाथों मज़बूर हूँ, कई बार हार कर खुशी मिलती है।’ मोहित ने शैतानी भरे अंदाज़ में अपनी बात रखी और बोला,’प्यार, ऐसे तो बहुत मुश्किल हो जाएगी, इस कबाब में हड्डी को कुछ समझाओ।’

नेहा ऐतराज़ जताते हुए बोली,’मेरी प्यारी बच्ची को प्लीज़ हड्डी मत बोलो’ और उसे समझाते हुए निर्देश दिए कि अब से जब मैं बोलू, तब ही आक्रमण करना, अन्यथा नहीं।अपने अधिकारों में कमी होते देख रिंकू भी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए बोली, ‘लेकिन जब पापा आपको परेशान करते हैं, तो आप खुद मना नहीं कर सकतीं!’

एक पल को नेहा अनुत्तरित रह गयी मानो बच्ची ने उसे इस षड़यंत्र में शामिल होने पर रंगे हाथ पकड़ लिया हो ।फिर स्वयं मासूम बनते हुए जवाब दिया, ‘क्या करूँ! तेरे पापा मेरे पति भी तो हैं।’

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4-आगंतुक

जनवरी की कड़कड़ाती ठण्डी रात में जब बाज़ार से सामान लेकर लौट रहा था तो आठ दस सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद पहले पड़ाव पर पहुँचते ही, पोर्च में से जहाँ कई दुपहिया वाहन खड़े रहते हैं, कूँ-कूँ की आवाज़ आई। देखा तो एक छोटा गब्दुल्ला-सा पिल्ला गाड़ियों के पीछे छिपने की कोशिश कर रहा था। वो अभी कुछ दिनों पहले ही पैदा हुआ था और अपनी माँ, भाई-बहनों से बिछुड़कर हमारे अपार्टमेंट में पनाह ढूँढ रहा था।

फ़्लैट्स के सभी परिवार अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे और अब यहाँ सिर्फ मैं और वह ही आमने-सामने थे। मैंने अपने दोनों होंठ भींचकर और साँस अंदर खींचकर पुचकार की आवाज़ निकाली तो उसकी कूँ-कूँ बंद हो गई और दो चमकीली आँखें मुझे आशा-भरी निगाहों से देखने लगीं। ऐसी ही आवाज़ मैं अपनी बेटी के लिए निकालता था, जब वो बच्ची थी और जब वह मचलकर रोती थी।

मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा रह गया। दुविधा में था कि ऊपर जाऊँ या नीचे। अगर उसे ऊपर उठा कर ले गया तो श्रीमतीजी का कोपभाजन तो बनना पड़ेगा और अगर उसकी माँ उसे ढूँढते हुए आई तो वह निराश होगी, परंतु यहाँ छोड़ा तो भूख से वो सुबह तक मर जाएगा।

मैं जब उसकी ओर बढ़ा तो वह मुझसे डरकर, घिसट-घिसट कर फिर गाड़ी के पीछे छुपने लगा ;परंतु कमज़ोरी के कारण ज़्यादा दूर नहीं जा पाया। मैंने उसे दूसरे हाथ में उठा लिया।

बेटी ने दरवाज़ा खोला ,तो मेरे साथ आये इस नए आगंतुक को देखकर चौंक गई फिर खुशी से चिल्लाकर मम्मी को बुलाया। बेटी द्वारा उसके आगे परोसी गई दूध की कटोरी वो फौरन ही चप-चपकर पी गया। फिर दूसरी और तीसरी भी, जिसमें पत्नी ने कुछ ब्रेड के टुकड़े भी डाल दिए थे।

मैंने दवाइयों का एक कार्टन निकाला ,जिसमें कुछ पुराने टॉवल बिछा दिए। बेटी ने गौर से देखा और बोली, ‘पापा, ये रो रहा था और ठण्ड से काँप भी रहा था। दूध मिलते  ही वो चैन की नींद सो गया।’ और हम इस नए-नए मेहमान की आवभगत में व्हाट्सएप्प, फेसबुक, टी-वी-सीरियल सब भूल चुके थे।

पत्नी ने तिरछी नज़रों से देखा और कहा, ‘ले तो आए हो, अब तुम ही इसकी गन्दगी भी साफ करना।’

मैंने गहरी साँस ली! बेटी ने मेरी तरफ देखा और हम दोनों मुस्कुराए, जैसे कह रहे हों, ‘शुक्रिया, वह तो हम कर ही लेंगे।’

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5-ज़िन्दगी की छलाँग

भारी उमस के बाद काली घटा छायी,बादल गरजे,बिजली कड़की और बरखा रानी जमकर बरसी।

लोग बारिश रुकते ही घरों, दफ्तरों और फ़ैक्टरियों से निकल लिए थे। वह भी अपनी स्कूटी लेकर निकल लिया। शाम एकदम-से रात में तब्दील हो गयी थी। लौटते समय कॉलोनी की उस सड़क पर वह करीब-करीब अकेला ही था। सोडियम वेपर लैंप की पीली रौशनी में उसने देखा—आने-जाने वाली गाड़ियों से बेपरवाह एक बाल-मेंढक छोटी-छोटी छलाँगें लगाता सड़क के उस पार जाने की कोशिश कर रहा था। उसके, किसी तेज रफ़्तार गाड़ी के नीचे आ जाने की पूरी सम्भावना थी। उसे त्वरित निर्णय लेना था। एक पिद्दी-से मेढक के लिए उसे अपनी रफ़्तार पर लगाम लगानी चाहिए या निकल जाना चाहिए। उसकी पहली दो छलांगें बराबर दूरी की ही थीं। तीसरी छलांग में कुछ भी संभव था। यह कि वो स्कूटी निकलने से पहले पार हो लेता; और यह भी कि घूमते टायरों से टकरा जाता। उछलकर, हवा में रहने के दौरान मेंढक अपनी गति नियंत्रित नहीं कर सकता। वह स्कूटी की कर सकता था; मगर गति और दूरी का तालमेल उसकी तीसरी छलांग के साथ बिठाने में वह चकरा रहा था। फिर भी, उसने मेढक पर बराबर नज़र जमाए रखी। इस छलाँग का पड़ाव ठीक अगले टायर के सामने देखकर उसने दोनों ब्रेक दबा दिए। चीं…ऽ……की आवाज के साथ स्कूटी रुक गई। पूरी कोशिश के बावजूद भी, अगला टायर हल्का-सा छू ही गया। उसके छूते ही मेढक सड़क के उस ओर जा गिरा। एक पल के लिए वह सकते में आ गया। लेकिन तभी, लगभग अचेत हो चुके मेढक में कुलबुलाहट हुई। वह सीधा बैठा और उसने चौथी छलांग लगा दी—जिन्दगी की सबसे बड़ी छलाँग।

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मुखौटे- चरित्रहीन

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मूल हिंदी लघुकथा : मुखौटे  , मराठी अनुवाद : चरित्रहीन

मूल लेखिका      : :डॉ. भावना कुँअर              अनुवादक :डॉ.रश्मि नायर

आज घरमालकाच्या घरी पुजा होती. सालाबादप्रमाणे भाडेकरु मालतीला वाटलं की काकी सांगायला विसरल्या असतील . आज बोलवणार याची खात्री होती. पण ती दारावर उभी, येत जात असलेल्या बायकांच्या पाया पडण्यात व्यस्त होती . ती सर्वात लहानपण होती. कॉलनीतल्या  सगळ्या बायका तीला ओळखत होत्या आणी ती सर्वांची लाडकी होती.  सगळ्या बायका आत गेल्या पण तीला कुणी ही आत बोलवलं नाही.  मालती समजु शकली नाही की काय झालं ? तेव्हा तिच्या कानांत पुजेचे मंत्र स्वर गुंजायमान झाले. ती आपल्या मनांत सहस्त्र प्रश्न घेऊन आपल्या खोलीत गेली. कोण जाणे तीच्या जीवाला  असं काय लागल . दुसरा दिवस उजाडला,तरी ती बाहेर पडली नाही.  तेव्हा दारावर कुणीतरी कडी वाजवली . तीने दार उघडलं,समोर काकी होत्या. मालती त्यांच्या पाया पडली पण आशीर्वाद देण्यासाठी हातच उठले नाही आणि शब्दही तिच्या कानांवर पडला नाही .

तीने जे ऐकले ते एवढेच होते -“मालती तुला वाटल असेल की मी तुला पुजेला बोलवलं नाही पण गेल्यावर्षी बोलवलं होत. मी या वर्षी तुला मुद्दाम बोलवलं नाही कारण गेल्यावर्षी तुझा नवरा तुझ्या बरोबर होता . आता कुणाकडुनतरी ऐकल आहे की त्याला सोडण्यासाठी अर्ज केला आहे. हो मीच तुला सांगितल की  तुझा नवरा एका मुली बरोबर तु नसताना  दोन हप्ते  राहिला. मला माहित आहे की तो चरित्रहीन आहे. पण हा समाज आहे ना, चरित्रहीन पुरुषाला  स्वीकारतो पण बाई खरी आणि किताही चांगली असली तरी बाईलाच दोषी ठरवतो. कॉलनीत सगळेच तुझ्याबद्दल बरं-वाईट बोलत आहे मला माहित आहे की तु चांगली आहे,पण माझा नाईलाज होता . ही पुजा सौभाग्यवतींची होती आणि तु आता सौभाग्यवती राहिली नाही ना बेटा !

ह्या सगळ्या गोष्टी कानांच्या वाटेने जाऊन मनांत बोचत होत्या. मुखावर कडुहास्य होतं.  उशीरा कां होईना एकदा कळुन चुकलं की कसं-कसं आणि काय-काय विचार करतात ही लोक ! एका वेळेस दोन-दोन मुखवटे घालुन कसे मिरवतात ?

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अपने दस दिन–

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“आंटी आप लोग कहाँ जा रहे हैं”- मैंने अपनी बगल में बैठी अपनी सहयात्री से पूछा।ट्रेन अपनी गति से दौड़ रही थी और मैं आलस में सो सोचा थोड़ी गपशप ही की जाए।

“हम…दिल्ली…”

“अच्छा आपकी फैमिली भी है क्या आपके साथ? “मैं आस-पास देखने लगी।

“नहीं हम चार सहेलियां हैं…ये मेरे साथ और दो वो सामनेवाली सीट पर बैठी हैं।”

“आप आ कहाँ से रहे हो?” दरअसल मेरी यात्रा फगवाड़ा से शुरू हुई थी पर मैंने गौर किया कि ये मुझसे पहले से सवार हैं।

“बेटा हम अमृतसर से चढ़े थे।कल अमृतसर पहुँचे थे और दो दिन रुककर दरबार साहिब के दर्शनों के साथ-साथ वाघा बार्डर देखा और आज वापस घर जा रहे हैं।”

“अरे कुछ दिन और रुकना था, वहाँ तो ए. सी. धर्मशालाएं हैं और शहर भी घूमने लायक है।आपको मज़ा आता।”

“ नहीं बेटा पिछले दस दिन से घूम ही रहे हैं अब घर जाने की इच्छा हो रही है।”

“दस दिन से…..कहाँ….अमृतसर में?” मैंने हैरानी से पूछा।

“नहीं, शिमला में”  मैं और वे दोनों हँस पड़ीं।

”दरअसल हम चारों पिछले चालीस वर्षों से दोस्त हैं।हम दोनों स्कूल में एक साथ पढ़ातीं थीं और वो दोनों मेरी कालेज फ्रेंड्स हैं।जब से हम रिटायर हुईं हैं हमने एक बात सोच रखी है कि साल में एक बार घूमने ज़रूर जाएँगी।चारों की पेंशन आती है इसलिए किसी पर आर्थिक बोझ नहीं हैं….इनकी बेटी हमारी टिकटें और आनलाइन होटल बुक करवा देती है।वैसे तो अब हमें भी आ गया है ,सो दिक्कत नहीं होती।साल के तीन सौ पचपन दिन बेटों , बहुओं और पोते-पोतियों को देते हैं पर ये दस दिन हमारे सिर्फ हमारे होते हैं….”और एक बड़ी -सी मुस्कान दोनों के होठों की एक कोर से दूसरी कोर तक ऐसी फैल गई जैसे सुबह की उजियारी किरण…….

-0-karan.vimmi@gmail.com

 

बचत

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सहेजने की आदत उसने  माँ से सीखी थी। माँ हमेशा कहतीं कि थोड़़ी-थोड़ी बचत जब आड़़े वक्त पर काम आती है तब इसकी अहमियत पता चलती है। और सबसे बड़ी बात किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। यही अच्छी गृहिणी की निशानी है। माँ की यह सीख उसने गाँठ में बाँध ली थी। क्या किराना, क्या रुपया- पैसा वह हर चीज में कुछ न कुछ बचत जरूर करती। जरूरत के समय जब यह सब निकालती तो उसे अपने आप पर बड़ा गर्व होता। खुशी मिलती। आँखें चमक उठतीं।

कई दिनों बाद आज फुर्सत मिलने पर उसने पुरानी साड़ियों को ठीक करने का मन बनाया था। कुछ तो उसने कई दिनों से बाहर नहीं निकालीं थीं। एक-एक साड़ी को सहेजते हाथ फेरते उससे जुड़ी स्मृतियाँ उभर रहीं थीं। सोच रही थी महिलाएँ कितनी लालची होती हैं कपड़े-लत्ते, जेवर की। अचानक एक साड़़ी से हजार के दो नोट और पाँच सौ के तीन नोट टप्प से टपक पड़े। आश्चर्य से उसकी आँखें फटी रह गईं। ‘‘अरे‘‘। विस्मय से शब्द फूटे। मुस्कराहट फैल गई। नोट सीधे किए। सहलाए। एक-एक लम्हा याद आया। कैसे थोड़ा-थोड़ा बचत कर छोटे नोटों को बड़े में बदलते उसने जमा किए थे ये रुपये।

अचानक मुस्कराहट और विस्मय निराशा में बदल गए। काश समय रहते देख लिया होता इन्हें…..। नोटबंदी के बाद अब तो ये कागज के टुकड़े हैं। सिर्फ कागज के टुकड़े….। भरी आंखों से आँसू टप्प-टप्प साड़ियों की परतें भिगोने लगे।

-0-gajendra.namdeo@gmail.com

रस्म (एकच शब्द)

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मूल कथा : रस्म                          अनुवाद : एकच शब्द

मूल लेखिका : अनिता ललित                  अनुवादक :डॉ.रश्मि नायर

       भांड पडल्याच्या आवाजाने शिखाची झोप उडाली. तीने घड्याळाकडे पाहिलं आठ वाजले होते. ती गडबडीत उठली . स्वताशीच पुटपुटली “काल आईंनी सांगितल होत, सकाळी लवकर उठायच “चूलपूजा” करायची आहे. शिरा पुरी पण बनवायची आहे आणि मी झोपून राहिली . देव जाणे काय होईल आता ?आई-बाबांना काय वाटेल ? आई रागात तर नसतील ना  हे देवा …

            तीला रडु येत होत. सासर आणि सासुच्या नावाची भीति तिला खुप घाबरवत होती . आजीने पण सांगितल होतं सासर आहे, जरा सांभाळुन रहा. कुणाला काही बोलण्याची संधि देऊ नको . नाहीतर तुला सतत त्यांचे टोमणे ऐकावे लागतील. सकाळी-सकाळी लवकर उठ आंघोळ आटपून साडी नेसून तयार हो. आपल्या सासु सासरेबुआंच्या पाया पड. त्यांचा आशीर्वाद  घे. तुझ्या आई –वडिलांना कोणी काही बोलेल असं काही करु नको .” शिखाच्या कानांत आजीची प्रत्येक गोष्ट घुमत होती.

      कशीबशी धावपळ करुन तयार झाली . घाईत खाली वर साडी नेसली बाहेर निघणार एवढ्यात तिच प्रतिबींब तिला आरश्यात दिसलं, न कपाळाला कुंकु होत न गळ्यात मंगळसुत्र . ती तशीच परत आली आणि पटापट कुंकु लावलं आणि टेबलावरच मंगळसुत्र उचलुन गळ्यात  घालुन ती खोलीच्या बाहेर गेली.

    तिच्या चेहर्यावरुन  दिसत होत की ती गडबडीत आहे. अक्षरश: धावत ती स्वयपाक घरात गेली .थेट तिथे जाऊनच ती थांबली .               

      तीची धांदल पाहून सासुला आश्चर्य वाटले. मग खालुनवरपर्यंत एकटक पाहुन हळुच गालातल्या गालात हसत म्हणाली येग, ये , झोप चांगली झाली की नाही. .? .

 शिखा घाबरतच म्हणाली  हो आई, झोप तर  आली . पण उशीरा आली म्हणुन सकाळी उठायला उशीर झाला, क्षमा करा .

“हरकत नाही. नवीन जागा आहे. होत अस ” सासुबाई म्हणाल्या .

शिखा आश्चर्यचकित होऊन तिच्याकडे पहात म्हणाली “पण शीरा पुरी …?

सासुबाई तिच्याकडे प्रेमाने पाहुन,  शिराच पातेलं तिच्या समोर ठेवलं आणि मधासारख्या गोड आवाजात म्हणाली “हो याला हात लाव.” म्हणजे झालं.

      शिखाने प्रश्नात्मक नजरेने पाहिल. सासु प्रेमाने तीची हनुवटी धरुन म्हणाली ” हे सगळं करायला  आयुष्य आहे. माझी एवढी चांगली बाहुली सारख्या सुनेचे आता हसण्या–खेळण्याचे दिवस आहेत. मी अत्तापासुन तीला स्वयपाक घराच काम  थोडी न करु देणार .तू फक्त आपल्या गोड प्रेमळ हास्याने सर्वांना वाढ. आजच्या प्रथेसाठी एवढंच भरपूर आहे.

      ऐकुन शिखाच्या डोळ्यात अश्रुच आले .तिने मीठी मारली . दाटलेल्या  कंठातुन फक्त एकच शब्द आला  ”  आई  “.

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लुका–छिपी

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[अनुवाद-सुकेश साहनी ]

आओ, हम लुका–छिपी खेलते हैं।

यदि तुम मेरे दिल में छिप जाओगे, तो तुम्हें ढूँढना मुश्किल नहीं होगा ;किन्तु यदि तुम अपने ही मुखौटे के पीछे छुप जाओगे  ,तो किसी भी तुम्हें खोजना निरर्थक होगा।

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हिन्दी-लघुकथा: संरचना और मूल्यांकन

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हिन्दी-लघुकथा को यदि ‘कथा’ का नया, आधुनिक एवं विकसित स्वरूप मान लिया जाए तो लघुकथा की संरचना को भी मुख्यतः दो तत्त्वों में विभाजित करके उसकी तह तक पहुँचा जा सकता है। यथा 1- कथानक (कथा-वस्तु) एवं 2- शिल्प और शिल्प के छः उपतत्त्व हैं-1- चरित्र-चित्रण, 2- कथोपकथन (संवाद), 3- भाषा और शैली, 4- देशकाल (परिवेश), 5- उद्देश्य और 6- शीर्षक ।

1- कथानक (कथा-वस्तु): कथानक को अंग्रेजी में प्लॉट कहा जाता है। अरस्तु के अनुसार कथानक-कार्य का अनुकरण और घटनाओं का संगुम्फन है। कार्यानुकरण में सम्पूर्णता होनी चाहिए । इसमें आदि, मध्य और समापन का होना आवश्यक है। कथानक का रूप ऐसा होना चाहिए कि वह पात्रें के चारित्रिक विकास में उतार-चढ़ाव पैदा कर सके ।

‘कथानक’ के दो भेद होते हैं-सरल और जटिल । सरल कथानक एकोन्मुखी होता है। इसकी भाग्य-विडम्बना में विपर्यय के लिए कोई अवकाश नहीं रहता । जटिल कथानक में अनेक प्रकार के विरोध, विपर्यय आदि दिखाई पड़ते हैं (आधुनिक हिन्दी-आलोचना के बीज शब्द (पृष्ठ 29) । सरल कथानक जिसमें मात्र एक ही घटना होती है और इसका कालक्रम निरन्तर होता है। यही सरल कथानक लघुकथा के लिए होते हैं। लघुकथा कथानक के स्तर पर ही ‘उपन्यास’ और ‘कहानी’ से भिन्न होती है। अतः, लघुकथा हेतु हमें रंजनात्मक सरल कथानक का ही चुनाव करना चाहिए । और वह घटना सत्य-सी आभासित न होकर यथार्थ या यथार्थ के निकट तथा विश्वसनीय होनी चाहिए । यह यथार्थपरकता न मात्र नकारात्मक संदेशरहित हो अपितु इसके विपरीत वह सकारात्मक का दिशा-बोध भी करती हो ।

जीवन में घटता प्रत्येक जीवन्त क्षण लघुकथा का कथानक हो सकता है, बशर्त्ते उसका निरूपण एवं प्रतिपादन इतना सम्प्रेषणीय, चुस्त कसावपूर्ण, क्षिप्र और प्रवाहमान तथा उसका शिल्प कथानक के इतना अनुरूप और सटीक होना चाहिए जैसे किसी मानव की हू-ब-हू तैयार कलात्मक मूर्ति जो अपने बोलने का-सा भ्रम उत्पन्न करती हो । तात्पर्य यह है कि उसमें प्रभावोत्पादकता इतनी जबरदस्त होनी चाहिए कि पाठक सीधा लेखक के उद्देश्य तक पहुँच जाए । इस प्रभावोत्पादकता को उत्पन्न करने में उसकी आकारगत लघुता एवं क्षिप्रता जो भीतर से काफी विस्तार लिए हो, चरमबिन्दु, समापन बिन्दु और शिल्प के महत्त्वपूर्ण उपतत्त्व सटीक ‘शीर्षक’ जो लघुकथा का अभिन्न अंग बनकर उभरे आदि की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

2- शिल्प: शिल्प को अंग्रेजी में ब्तंजि कहते हैं किन्तु साहित्य में यह शिल्प हेतु सटीक शब्द नहीं है । साहित्य में ‘शिल्प’ से तात्पर्य रचना को सौंदर्य प्रदान करने वाला एवं पठनीय बनाने वाला तत्त्व जिसे छः उपतत्त्वों में विभक्त किया जा सकता है।

शिल्प के उपतत्त्व:

1- चरित्र-चित्रण: अक्सर ही एक श्रेष्ठ और आदर्श लघुकथा में भीड़ आदि की स्थिति को छोड़कर दो-तीन या चार पात्रें से अधिक की गुंजाईश नहीं होती । लघुकथा के पात्र हमारे जीवन में आस-पास चलते-फिरते हुआ करते हैं। लघुकथा-लेखकों को अपनी लघुकथा से प्रस्तुत परिवेश के अनुकूल तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से अपने पात्रें के नाम तथा चरित्र को इस हद तक उभारना चाहिए कि उनका जीता-जागता चित्र उसके जीवन-तत्त्वों का चेतन संगठन करते हुए प्रस्तुत कर सके। वह मानव के गुण-दोष, हर्ष-विवाद, विरह-मिलन की अनुभूतियों को परिस्थिति विशेष में अपने पात्रें के जीवनक्रम में रूपायित कर सके। उनके जीवन का चित्रण इतना स्वाभाविक और मार्मिक हो कि वह पाठक के हृदय को कहीं भीतर तक स्पर्श कर सके तथा उनमें दबी जिज्ञासा को जाग्रत कर सके। पात्रें में जूझने की शक्ति तथा संघर्ष (टकराहट या तनाव) आदि को उभारने से पात्र पाठकों के करीब आकर सहानुभूति प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी लघुकथाएँ सार्थक भी होती हैं और पसन्द भी की जाती हैं ।

2- कथोपकथन (संवाद): लघुकथा में कथोपकथन का अत्यधिक महत्त्व होता है। कई लघुकथाएँ तो मात्र कथोपकथन में ही पूर्ण हो जाती हैं। लघुकथा में कथोपकथन के माध्यम से आये पात्रें और उनके चरित्रें तथा परिवेश का वर्णन किये बिना भी उसे सहज वार्त्तालाप के माध्यम से ही लघुकथा के कथ्य को पाठकों तक बहुत ही सहजता से संप्रेषित किया जा सकता है। लघुकथा के पात्र प्रायः अपनी बातचीत के द्वारा ही पाठक को अपने में, अपने अनुकूल, अपनी भावनाओं में बहा ले जाते हैं और यही वह स्थिति है जिससे पाठक प्रभावित होता है। कारण, संवादों में प्रयुक्त एक-एक शब्द और पात्रें द्वारा प्रस्तुत भाषा (जिसे उच्चरित भाषा कहा जाता है) और चरित्रें द्वारा अपनाई गई शैली का जीवन्त, सटीक एवं कालानुकूल होना अनिवार्य है। संवादों में शब्दों का चयन बहुत ही सतर्कता के साथ-साथ यथार्थ के धरातल पर बहुत ही चुस्ती के साथ होना चाहिए । लघुकथा-लेखक को कथोपकथन में पात्र का वर्ग, स्तर, परिवेश, मिजाज एवं उम्र को भी पूरी तरह मद्देनजर रखना चाहिए । यही बातें उस पात्र का चरित्र कहलायेंगी । कथोपकथन में एक बात का ध्यान सदैव रखना चाहिए कि इसके अन्तर्गत वे प्रसंग भी व्यक्त हों जो कथानक की आवश्यकता के अनुसार हों । फालतूपन की कहीं गुंजाईश नहीं होनी चाहिए ।

3- भाषा और शैली: लघुकथा में दो प्रकार की भाषाओं का समानान्तर रूप में उपयोग होता है। पहली तरह की तो वह, जो लघुकथा में लेखक अपनी ओर से कहता है, प्रस्तुत करता है। दूसरी तरह की वह, जो पात्र और पात्रें के चरित्र बोलते हैं/ अभिव्यक्त करते हैं। लघुकथा में दोनों प्रकार की भाषाओं का महत्त्व होता है। लेखक लघुकथा को प्रभावकारी एवं सम्प्रेषणीय बनाने हेतु अपनी मौलिक शैली प्रस्तुत करता है, और यही शैली लेखक की अलग पहचान उपस्थित करती है, बनाती है। किन्तु श्रेष्ठ और बहुत ही स्वाभाविक लघुकथाओं में मेरे विचार से लेखक को अपनी ओर से कुछ नहीं कहना चाहिए, या यों कहिए लेखक की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए जब तक कि वह ‘मैं’ पात्र के रूप में न हो । लेखक को अपनी ओर से तभी कुछ कहना चाहिए जब कथानक या प्रस्तुति की अपरिहार्य माँग हो । लघुकथा के पात्रें के द्वारा ही सब कुछ कहलवाना श्रेष्ठ लघुकथा का एक विशिष्ट गुण होता है। लघुकथा का समापन यदि किसी पात्र के संवाद से होता है तो अपेक्षाकृत वह अधिक सहज एवं प्रभावकारी बन जाती है। कुछ लघुकथाएँ तो संवादों में ही पूरी हो जाती हैं। यह स्थिति कथानक की आवश्यकता पर निर्भर करती है। संवादों वाली लघुकथाओं में निश्चित रूप से उच्चरित भाषा (चरित्रनुकूल भाषा) का ही सटीक उपयोग होता है, होना चाहिए ।

शैली का सामान्य अर्थ साहित्यिक अभिव्यंजना की प्रविधि है। शैली अंग्रेजी के स्टाईल (ैजलसम) शब्द का पर्याय है। शैली का सम्बन्ध पूर्णतः वैयक्तिकता से है। शैली का संबंध केवल साहित्य से ही नहीं होता, बल्कि अन्य कलाओं से भी होता है। शैली अभिव्यक्ति की विशिष्ट शैली पद्धति होती है और अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में लेखक का अपना उद्देश्य, स्वभाव, दृष्टिकोण, जीवन-प्रणाली, आस्था, विश्वास, संदेह आदि व्यक्त होते चलते हैं। यही उसकी अस्मिता है।

शैली के विषय में मेरे विचार से एक बात और जान लेना आवश्यक प्रतीत होता है कि शैली में केवल लेखक का व्यक्तित्व ही नहीं उभरता अपितु समसामयिक लेखन-चिन्तन-प्रणाली का संघर्ष भी साथ-साथ उभरता है। यह संघर्ष (टकराहट या तनाव) जितना तीखा और सान्द्र होगा अभिव्यक्ति भी उतनी ही सशक्त और कालजयी होगी । अन्य साहित्यरूपों की भाँति ही ‘लघुकथा’ में भी शैली की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

4- देशकाल (परिवेश) या वातावरण: लघुकथा में देशकाल का भी महत्त्व है। कारण देशकाल के अनुसार कथानक की प्रस्तुति, संवाद और भाषा का उपयोग किया जाता है। मिथकीय लघुकथाओं को छोड़कर अधिकतर लघुकथाएँ हमारी सभ्यता, संस्कार और संस्कृति तथा वर्तमान संदर्भों से ही जुड़ी होती हैं। और इसी प्रकार की लघुकथाएँ और अधिक पसन्द की जाती हैं। कारण मनुष्य बिना किसी तामझाम के वर्तमान परिस्थितियों से सीधा साक्षात्कार करना चाहता है -उनसे दो-चार होना पसन्द करता है। मिथकीय लघुकथाएँ भी वर्तमान संदर्भों से जोड़कर ही लिखी जाती हैं, प्रस्तुत की जाती हैं। अतः अच्छी लघुकथा लिखते समय देशकाल को भी महत्त्व देना श्रेयस्कर होता है। यही देशकाल इतिहास बनता है तथा तत्काल की सभी स्थितियों से कालान्तर को अवगत कराता है ।

5- उद्देश्य: किसी भी कथा श्रेणी का प्रथम उद्देश्य ‘रंजन’ होता है। जिससे पाठक में रचना के प्रति रुचि एवं जिज्ञासा बनी रहे । लघुकथा में दूसरा उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम अपनी लघुकथा के माध्यम से पाठक को स्थितियों/परिस्थितियों के माध्यम से यह सम्प्रेषित कर दें कि उन्हें क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए । यानी उसमें प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप में कोई ‘मानवोत्थानिक सन्देश’ बहुत ही स्वाभाविक रूप से ध्वनित या आभासित होना चाहिये । वस्तुतः लघुकथा मानव-जीवन सम्बन्धी समस्याओं पर प्रकाश डालती तथा समाधान की और कभी प्रत्यक्ष तो परोक्ष रूप से संकेत भी करती है।

लघुकथा लिखने से पूर्व उद्देश्य के रूप में कथानक भले ही लेखक के मानस-पटल पर बहुत स्पष्ट न हो किन्तु ‘कथ्य’ यानी जिसे रचना के माध्यम से ‘कहना’ है, लघुकथा का उद्देश्य होता है। निरुद्देश्य लघुकथा ही क्या, कोई भी सृजन व्यर्थ की बात है।

यहाँ यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि प्रत्येक लघुकथा में प्रत्येक उपतत्त्व का उपयोग हो ही यह अनिवार्य नहीं है, किन्तु संवाद, भाषा-शैली, उद्देश्य, शीर्षक तो प्रत्येक लघुकथा में आ ही जाते हैं ।

6- शीर्षक: अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा में शीर्षक का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है, कारण यह कि लघुकथा एक लघुकआकारीय एवं क्षिप्र विधा है, जिसमें नपे-तुले शब्दों में ही अपनी बात कहनी होती है, अतः इस विधा में सांकेतिकता एवं प्रतीकात्मकता का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। लघुकथा में उसकी संप्रेषणीयता हेतु वैसे ही सटीक शीर्षक से काम लिया जाता है। तात्पर्य यह कि उसे सारप्रज्ञ होना चाहिए । लघुकथाओं में अनेक ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं कि वे लघुकथाएँ अपने शीर्षक के कारण ही न मात्र श्रेष्ठता का शिखर स्पर्श कर गयीं, अपितु उनकी गणना कालजयी लघुकथाओं में होने लगी । लघुकथा का शीर्षक अपनी रचना से अपेक्षाकृत कहीं अधिक श्रम एवं सोच की माँग करता है।

किसी भी लघुकथा का मूल्यांकन करते समय हमें भाषा एवं देशकाल में यह देखना चाहिए कि इसमें कहीं ‘कालदोष’ तो नहीं है। कालदोष से तात्पर्य यह कि हमारे पात्र एवं उनके संवाद, भाषा-शैली, देशकाल एवं परिवेश के सर्वथा अनुकूल हों। ऐसा न हो कि चर्चा मुगल-काल की हो और भाषा वैदिक काल की या पात्र महाभारत काल के । कालदोष रचना में बहुत बड़ा दोष माना जाता है। ‘कालत्व’ दोष का ध्यान भी रखना चाहिए कि लघुकथा की प्रस्तुति कालांतर न आ जाए यदि ऐसी विवशता आ जाए तो पूर्व दीप्ति (फ्रलैशबैक) शैली का उपयोग करना चाहिए ।

संक्षेप में लघुकथा के रचना-विधान को यों व्यक्त किया जा सकता है, लघुकथा जो विश्वसनीय मानवोत्थानिक कथ्य, प्रासंगिक कथानक, सटीक भाषा और शैली, जीवन्त-संघर्ष, रंजन, संप्रेषणीय प्रस्तुति, हृदयस्पर्शी चरम बिन्दु के साथ-साथ सभी कथा-तत्त्वों, उपतत्त्वों को वर्तमान की ज़मीन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में समाहित किये एक यथार्थवादी/यथार्थवादी-सी रचना के रूप में कोई-न-कोई मानवोत्थानिक संदेश लिए आती है। लघुकथा, कथा का ही आधुनिक और विकसित स्वतंत्र स्वरूप या विधा है। अतः यह समाचार, चुटकुला, लतीफा, रिपोर्टिंग, कहानी में प्रवेश-सा वक्तव्य, गद्य गीत, संस्मरण, दृश्यग्राफी आदि न बन जाये अपितु  इसमें गद्यात्मक कथापन की उपस्थिति अपरिहार्य है।

लघुकथा-मूल्यांकन/समीक्षा/आलोचना/समालोचना करते समय मेरे विचार से सर्वप्रथम यह देखना चाहिये कि वह कहाँ तक प्रभावित करती है या कितनी हृदयस्पर्शी यानी संवेदनायुक्त है ? इसके बाद उसमें मानवोत्थानिक किन्तु नकारात्मकता रहित संदेश ढूँढ़ना चाहिए । इसके बाद शिल्प को देखना चाहिए कि वह कथानक के सर्वथा अनुकूल है या नहीं ? कारण अधिकतर रचनाएँ प्रतिकूल शिल्प के कारण ही अपना प्रभाव खो देती हैं। कथ्य और कथानक के अनुसार आकार को भी देखना चाहिए, कारण आकारगत लघुता और क्षिप्रता भी लघुकथा की एक विशेषता है। रचना सम्प्रेषणीय है या नहीं-यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है। भाषा, पात्र एवं उसके चरित्रनुकूल ही होनी चाहिए। कथोपकथन में एक शब्द भी फालतू नहीं होना चाहिए। फालतूपन से लघुकथा विकृत हो जाती है। कारण इसी फालतूपन के कारण ही कालत्व दोष उत्पन्न होता है और कालत्व लघुकथा का एक दोष है जो लघुकथा को कहानी होने का एहसास कराने लगता है।

मूल्यांकन करते समय शीर्षक पर भी गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। लघुकथा का शीर्षक उसके एक महत्त्वपूर्ण अंग की तरह होना चाहिए न कि मात्र औपचारिकतावश । लघुकथा,लघुकथा ही होनी चाहिए । समाचार की कतरन, दृश्यग्राफी, वक्तव्य, गद्य-काव्य, चुटकुला या कहानी में प्रवेश-सा नहीं । कथ्य प्रासंगिक एवं मानवोत्थानिक होना चाहिए । लघुकथा किसी अन्य कथा-रचना से प्रभावित तो नहीं है? यह देखना भी ज़रूरी है। समीक्ष्य रचना में यदि कोई प्रयोग किया गया है तो यह देखना चाहिए कि वह कितना सार्थक/उपयोगी है और लघुकथा को समृद्ध करता है या नहीं ? प्रयोग ऐसा होना चाहिए जो लघुकथा को लघुकथा ही रहने दे, उसे अन्य विधा में प्रवेश न करा दे ।

व्यंग्य लघुकथा में हो सकता है किन्तु यह लघुकथा की अनिवार्यता कतई नहीं है, यह बात भी ध्यान देने योग्य है। लादा हुआ व्यंग्य लघुकथा को सतही बना देता है। लघुकथा का आकार शब्दों में नहीं, कथानक के अनुसार होना चाहिए । लघुकथा की समीक्षा करते समय कथानक को केन्द्र मानकर चलना चाहिए । मेरे विचार से इन बातों को मद्देनजर रखकर हम किसी भी लघुकथा का मूल्यांकन एवं उसके प्रति न्याय आसानी से कर सकते हैं।

-0-डॉ सतीशराज पुष्करणा,लघुकथानगर’, महेन्द्रू,पटना-800 006 (बिहार),: 829843663, 9006429311

कुरुक्षेत्र में लघुकथा गोष्ठी आयेजित

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राधेश्याम भारतीय
प्रेमचंद जयंती के उपलक्ष्य पर हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच करनाल के तत्वावधान में डा.ॅ ओमप्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान कुरूक्षेत्र में एक लघुकथा गोष्ठी का आयेजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता पूर्व प्रधानाचार्य एवं साहित्यकार डॉं ओमप्रकाश करूणेश ने की। वहीं मुख्य अतिथि बाल मुकुन्द गुप्त सम्मान से सम्मानित रामकुमार आत्रेय की गरिमामय उपस्थित रही। विशिष्ठ अतिथि पटियाला से पहुंचे योगराज प्रभाकर रहे। मंच के संरक्षक डॉ अशोक भाटिया ने सर्वप्रथम कथा सम्राट प्रेमचंद की जयंती पर सबको शुभकामना देते हुए साहित्य में प्रेमचंद जी के योगदान पर प्रकाश डाला। फिर लघुकथा विधा पर भी अपने विचार व्यक्त किए।
कुरुक्षेत्रउपस्थित लघुकथाकार जिनमें अम्बाला से कुणाल शर्मा, नफे सिंह काद्यान, करनाल से सतविन्द्र राणा, मदन लाल, राधेश्याम भारतीय, कुरुक्षेत्र से अरूण कुमार, मनजीत सोनी, निर्मल, कमलेश चौधरी, विनोद धवन, मलखान सिंह, दीपक मासूम हरपाल और सोनीपत से सरोज दहिया सभी ने दो-दो लघुकथाएं पढ़ी। जिसमें एक स्वरचित तो दूसरी वह, जो लेखक को किसी अन्य लेखक की रचना पसन्द थी।
इस अवसर पर विशिष्ठ अतिथि योगराज प्रभाकर ने लघुकथा की विशेषताएं दर्शाते हुए अनेक लेखकों की प्रसिद्ध लघुकथाएं सुनाकर सबको मन मोह लिया।
मुख्यअतिथि रामकुमार आत्रेय ने कहा कि प्रेमचंद साहित्य को मशाल मानते थे जो समाज को रोशनी देती हुई आगे ही आगे बढ़ती है। हर लेखक साहित्य साधना करते हुए अपनी रचना को उस मशाल की तरह बना ले। लेखक की पहचान उसकी रचना से होती है।
अध्यक्ष महोदय ने गोष्ठी में सुनाई गई लघुकथाओं पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की।
मंच संचालन राधेश्याम भारतीय ने किया।
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प्रस्तुति-राधेश्याम भारतीय,नसीब विहार कालोनी,घरौंडा करनाल 132114
मो-09315382236

बेटी व अन्य लघुकथाएँ

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1-पुस्तक-बेटी - Copyबेटी व अन्य लघुकथाएँ : डॉ पद्मजा शर्मा; पृष्ठ :144, मूल्य:200रुपये,प्रकाशक:मिनर्वा पब्लिकेशंस, सेक्टर-डी: प्लाट नं-2 एफ़,भगवती कॉलोनी, पी डब्ल्यू डी चौराहा,जोधपुर ; संस्करण:2016

भूत

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  जब सरपंच गाँव के रामफूल के घर पहुँचे तो देखा कि घर में अफरा- तफरी का माहौल था ।उसकी बहू के बाल बिखरे,तन के कपडे अस्त -व्यस्त,कभी ठहाका तो कभी जोर .जोर से रोना— न समझ आने वाली भाषा में बड़बड़ाना ।इकट्ठा भीड़ बाते कर रही थी –“ ये तो भूत का साया है।”

कुछ  सोचने के बाद सरपंच बोला –“ हाँ भई लगता है -बहू पर भूत का साया है,पर चिंता की कोई बात नहीं। मैं भूत निकालना जानता हूँ”- कहते हुए वह बहू को घसीट कर कोठरी में ले गए । “देख बेटा, मैं तुम्हारे पिता समान हूँ।तुझको जो परेशानी है ,वो मुझको बोल —वरना भूत के लिए तो दाम लगाने होंगे।” ये सुनते ही बहू रोते हुए बोली-“बाबा मैं सारा दिन कोल्हू के बैल की तरह काम करती हूँ ।थककर शरीर चकना चूर हो जाता है —फिर मेरी हिम्मत ही नहीं रहती कि शाम को खेत से चारा ला पाऊँ।”

सरपंच कुछ सोच बहू के सिर पर हाथ रख बाहर आकर बोले –“देखो भाइयो !  मैंने भुत निकाल दिया है।रामफूल के खेत मे जो बरगद का पेड़ है, वहीं से बहू को भूत का साया लगा है ।रामफूल, आगे से बहू उस खेत न जाए, ध्यान रखना ।अन्य कोई भी जा सकता है।बाकी चिंता ना करो,मैंने भूत को गाँव से बाहर निकाल दिया है।

-0-राज बुडानिया;श्रीगंगानगर<मोबा-9414064333

कथादेश में लघुकथा-प्रतियोगिता की पुरस्कृत रचनाओं का प्रकाशन

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कथादेश में लघुकथा-प्रतियोगिता की पुरस्कृत रचनाओं का प्रकाशन कथादेश के अक्तुबर में

सटीक और विश्वसनीय लघुकथाएँ

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हिन्दी  लघुकथा लेखन का रकबा  बढ़ा है, इस बात पर कोई  शक  नहीं, लेकिन  लघुकथा की श्रेष्ठ फसल के  बरअक्स लघुकथा की खरपतवार  गुणात्मक ढंग से  उग रही है, फलस्वरूप आजकल अच्छी लघुकथाओं के  टोटे दिखाई दे रहे हैं। जो गिने-चुने लघुकथाकार  मौजूदा दौर  में भी सटीक और विश्वसनीय लघुकथा लिख रहें हैं,

वे ही  लघुकथाकार  अनुकरणीय होकर लघुकथा का मुद्दा और माद्दा दोनों को  समान रूप से बचाए हुए हैं।कतिपय  लघुकथाएँ जो  बरबस ही मेरा  मन आकर्षित करती है, उनके लघुकथाओं में लघुकथाकार  सेवा सदन प्रसाद की ‘नए साल का विश’, अशोक शर्मा की ‘मुखौटा ‘,श्याम सुंदर अग्रवाल की ‘साझेदार’,विनोद खनगवाल की  ‘प्रदेय के पीछे ‘आदि  सामयिक  महत्व की लघुकथाएँ हैं।बावजूद  इन लघुकथाओं के जिन दो  लघुकथाकार  की  चर्चा  यहाँ पर  कर रहा हूँ उनमें सन्तोष सुपेकर की लघुकथा ‘मुखर होती सिहरन ‘तथा  श्याम बिहारी श्यामल की लघुकथा ‘हराम का खाना ‘भी  मेरी  पसंद में शुमार है, जिसकी चर्चा  मैं यहाँ कर रहा हूँ।

‘ मुखर होती  सिहरन ‘  शीर्षक से  शोभित  संतोष  सुपेकर  की  लघुकथा  का पहला  आकर्षण लघुकथा  को दिया  शीर्षक  ही है ।यह ऐसा  शीर्षक है  जो लघुकथा  के  कथ्य  को अपने  पार्श्व  में छुपाए हुए  है । शीर्षक  की  यही  खूबी पाठकों के  मन पर दस्तक  देती है । चुनान्चे  इससे  पाठक  जिज्ञासावश  जुड़कर  लघुकथा  का आस्वादन  अवश्यमेव  करता ही है ।एक सार्थक  शीर्षक वही है  जो  पाठकों को  कथानक  में दृष्टिसम्पन्नता के साथ  उतरने  का न्यौता  देता मिले।सुपेकर  की लघुकथा का  ‘ मुखर  होती सिहरन ‘शीर्षक  उक्त  आशय में सार्थक है ।

सन्तोष  सुपेकर  की  लघुकथा ‘ मुखर होती सिहरन ‘ समाज  में व्याप्त  उस आशंका  को  रेखांकित  करती  घटित  होती है, कि मेले -ठेले  में प्रायः छोटे  बच्चों के  खो जाने का  भय  बना  रहता है । लघुकथाकार  सन्तोष  सुपेकर  ने इस  समाज  प्रचलित  धारणा में केवल  बच्चे  ही  नहीं बुजुर्गों के भी  मेले  में खो जाने  के सम्भावित  विचार  को  अपनी  लघुकथा ‘मुखर होती सिहरन ‘में स्थापित  करते हुए  प्रस्तुत  लघुकथा  को एक  ऐसा नैसर्गिक आयाम दिया है, जिसकी वजह से  यह लघुकथा  कथ्य  की दृष्टि से स्पष्ट और  वाचाल  हो उठी  है ।

पिता रामकिशन अपने  बच्चों को मेला दिखाने के लिए ले जाने से पूर्व  उनकी  जेब  में अपने  घर  का पता  और  अपना मोबाइल नंबर लिखी कागज की पर्ची  दृष्टिसम्पन्नता की  सोच से उपजे इस आशय के साथ  डाल देता है कि मेले  की भीड़ भरी रेलमपेल  में बच्चे  यदि असावधानीवश  खो जाएँ तो किसी अन्य अपरिचित  की  जागरूकता  के  कारण  उसके  गुमशुदा  हुए  बच्चे उसे  आसानी  से  मिल  सकते हैं ।

लेकिन  प्रस्तुत  लघुकथा में ट्विस्ट तब उत्पन्न होता है जब  मेले में घूमने के लिए  तैयार  हुई  बैठी माँ खुद को लेकर  सोचती है कि आखिर उसके  बेटे रामकिशन ने उसके पास  नाम-पता लिखी ऐसी कोई पर्ची क्यूँकर नहीं छोड़ी ।( बूढ़े -बच्चे  दोनो समान ),जो माँ पहले बेटे  रामकिशन को उसके  बच्चों के मेले में गुम न हो  जाने के आशय को लेकर  नाम पता  और  मोबाइल  नंबर लिखी कागज की पर्ची उनके  जेब  में रखे जाने की बेटे की  जागरूकता से  खुश थी वह अपनी  अवस्था  के चलते  हुए  मेले में खुद के  खो जाने  के सम्भावित विचार  के कारण  बेटे  से यही  सजग व्यवहार  अपने लिए भी अपेक्षित  समझती थी कि  उसका बेटा  रामकिशन उसके  हाथ में भी  नाम -पता  वाली  पर्ची  थमादे।अनपढ़  माँ की सोच में मेले में अपने  खो जाने का भय इस बात से भी पुष्ट था कि इसी मेले में पिछली  बार  उसकी पड़ोसन पार्वती बाई  गुम हो चुकी है ।खुद की  जिंदगी में झांककर  जिस तरह  वृद्ध लोग  चलते हैं ,उनकी इस  अटूट  धारणा को लेकर लघुकथाकार सन्तोष सुपेकर ने अपनी  लघुकथा में वृद्ध जीवन  की विचारगत त्रासदी को  गहराया है ।’मुखर होती सिहरन ‘लघुकथा  अपने कथ्य से इस  बात  का  विस्फोट  करती  मिलती है कि, क्या  वाकई  परिवार में वृद्ध उपेक्षा  के शिकार  हैं ?समाज  में पसर चुके  सघन  भौतिकवादी संकट के कारण  वृद्ध जीवन के  साथ  जो  विसंगतियां जुड़ चुकीं हैं,यह लघुकथा  इस  आशय  का  ध्वनियातमक बोध भी  कराती मिलती है।प्रस्तुत  लघुकथा  का  केंद्र लघुकथा के अंत  में मुखर हुआ  मिलता  है  जब उपेक्षा ,भय,आशंका  इत्यादि  कारकों से गुजर  रही  मां अपने  बेटे  रामकिशन  को  मेले में सबके साथ ने चलने का फैसला या अपना विचार  यह कहकर (खुद के बचाव )प्रकट करती है कि, आजकल के  चोरी -चकारी भरे माहौल  में उसका घर पर रहना जरूरी है ।

लघुकथा ‘मुखर होती सिहरन ‘न केवल  बुजुर्ग  जीवन  में ठहरे  उनके  जीवन  विषयक  कंपकंपाते हृदयविदारक भावों के परिशिष्ट  खोलती है वरन  एकाकी  होते बुजुर्गों के  जीवन  -चक्र  का खाका  भी खींचती प्रतीत  होती है।

-श्याम  बिहारी श्यामल  की लघुकथा ‘हराम का खाना ”गूढ  की  गाढ़ी  चाशनी  में नमक  के  डाले गए  डल्ले की  तरह  एक  ऐसी  हाजिर  जवाबी लघुकथा  है, जो  दोयम दर्जे की औरत  की अस्मिता पर  तंज कसने  वाले पर  खुद  औरत की  ओर से किए जाने वाले  प्रहारों का विस्फोटक विवेचन  करती है । लघुकथाकार श्याम बिहारी  श्यामल  ने  अपनी  लघुकथा का  शीर्षक ‘ हराम का खाना ‘ जिस वैचारिक  परिपक्वता  के साथ  रखा है, यह बड़ा  गौरतलब है ।प्रस्तुत  लघुकथा के शीर्षक की  महत्ता लघुकथा के अंत में मुखर  होती  है  जब एक  कर्मरत स्वाभिमानी  महिला  अपने  पर कीचड़  उछालने  वाले  का मुँह  अपने  सच्चे मगर  सटीक  वचनों से  नोच डालती है ।जो व्यक्ति  कड़ी  मेहनत  से अपनी  रोटी की जुगाड़  में दिन-रात  संलग्न  बना रहता है ऐसे  व्यक्ति  के  निमित्त  ‘हराम का खाना ‘खाने  जैसी  बात  कहना मानवता की कदर घटाने  जैसी  अप्रीतिकर  बात  है ।

श्याम बिहारी  श्यामल की लघुकथा ‘हराम का खाना ‘भारतीय  सांस्कृतिक  मूल्यों का दोहन करती तथा भारत की सदियों पुरानी  व्यवस्थित सामाजिक  परम्परा का अनुगमन  करने  वाली  ऐसी  विश्वसनीय लघुकथा है, जो  समाज  में गलत जानेवाले  वाले  व्यक्ति  को  दिशा -बोध  कराती मिलती है ।

प्रस्तुत लघुकथा का  उनवान गांव में रहने वाले   चमरू नामक व्यक्ति  की नयी – नवेली  पुतोहु को लेकर  चरितार्थ  होता  है।भारतीय मान्यता में शहर या गांव में किसी  के भी घर में विवाहिता बनकर  नई बहू  आती है, तो  सम्बन्धित  घर में उस बहू का ‘ मुँह  दिखाई कार्यक्रम ‘रखा जाता है । ताकि  घर आई नवेली  बहू शहर या  गाँव के हर वर्ग के वाशिंदों से  परिचित हो सके।

गांव के उच्चवर्गीय रघु बाबू  की पत्नी  भी  चमरू की  पुतोहु की  मुँह  दिखाई  की  रस्म  में सम्मिलित होने की  इच्छा  जताती है,  जिसके जवाब में उसका पति  रामबाबू  उसे  चेताता है कि

‘गरीब की बहू को  कोई क्या देखने  जाएगा।’ यह एक तरह का सामाजिक  उलाहना -भाव है जो  समाज में वर्गान्तर का अशोभनीय विचार को जन्म  देता है!

लेकिन  चमरू की  पुतोहु के  मुँह  दिखाई  की  बात  यहीं समाप्त  नहीं होती है, बल्कि  रघुबाबू इससे आगे  भी  गाँव  आईं पुतोहु की मुँह  दिखाई  को लेकर  अपनी  पत्नी को सुझाते हैं कि  गरीब – गुर्गों की  बहू  घर  बैठने  की  नहीं होतीं।

अभी कल ही  गोइंठा या उपले पाथने को या पानी भरने के काम से  घर  से  निकलेगी ।ऐसे में पुतोहु की मुँह दिखाई सहज ही  में हो जाएगी ।

फिर  जैसा कि  रघुबाबू ने सोचा था, ठीक  वैसा ही  घटित  होता है । चमरू की पुतोहु गोइंठा चुनने को अगली सुबह निकलती है ।पुतोहु  अपने  सम्बन्ध में रघुबाबू द्वारा  उनकी पत्नी से  कही गई  नकारात्मक  बात को सुन लेती है और  गांवों में भी  नई पीढ़ी  में पैदा हो चुकी  प्रगति के स्वरों से  मुखरित  होकर  अपने  पर  आए रघुबाबू के  तीव्र कटाक्ष को करारा  जवाब  देती हुई  कहती है कि,  “हम लोग  कोई हराम  की तो खाते  नहीं?”

श्याम  श्यामल  की  यह लघुकथा  तेज़ी के साथ मिट रहे  सामाजिक -संदर्भों के विचारों से  संश्लिष्ट होकर बदलते समाज का मुखौटा  उजागर करती है ।

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1- मुखर होती  सिहरन-सन्तोष  सुपेकर.

पूरा परिवार  मेले  में जाने  की  तैयारी  कर  रहा था ।

बुजुर्ग  माँ भी  तैयार  होकर  बैठी थी । रामकिशन  अपने सात और  चार  वर्ष  के  बच्चों की  जेब में नाम -पता, मोबाइल नंबर लिखी कागज  की पर्चियां रख रहा था, ताकि  विशाल  ,भीड भरे मेले  में वे कहीं खो  जाएं तो  तुरंत  पता  चला सके।

बेटे  की सजगता  देख माँ पहले  तो  खुश हुई,फिर  नर्वस  हो उठी। उपेक्षित हालात  की मारी वृद्धा को एकाएक कुछ याद आ गया, ‘पिछले  साल  इसी  मेले  में पड़ोस  की  पार्वती बाई  गुम हो गई थी  न !उसका आजतक कुछ पता  नहीं चला ।’ अनपढ़  माँ की  सोच  अब सिहरन में बदल  चुकी  थी । ‘क्या उसके घरवालों ने  उसके पास  नाम-पता  लिखी ऐसी कोई  पर्ची  रखी थी,  क्या रामू बच्चों के साथ -साथ मेरे पास  भी  ऐसी कोई  पर्ची  रखेगा? नहीं , शायद  नहीं, बिल्कुल  नही! ” सोचते -सोचते  माँ की  सिहरन  मुखर हो  उठी और उससे  निर्णयात्मक  स्वर फूट पड़ा । ” रामू बेटा मैं मेले  में नहीं जा  रही हूँ।तुम  लोग  ही  हो आओ,वैसे  भी  चोरी -चक्रीय के  जमाने में घर  को एकदम  खाली  नहीं छोड़ना  चाहिए  ।”

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2-हराम का खाना-श्याम बिहारी श्यामल

चमरू की नवोढ़ा पतोहू गोइठे की टोकरी माथे पर लिए सामनेवाली सड़क से जा रही थी। रघु बाबू पर पत्नी के साथ खड़े बतिया रहे थे। उसे देखकर उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘…..देखो, मैंने कहा था न कि इन छोटे लोगों की बहुओं को कोई क्या देखने जाए! वह तो खुद दो–चार दिनों में गोइठा चुनने, पानी भरने निकलेगी ही….!’’

यह बात चमरू की पतोहू ने सुन ली। बात उसे लग गई। बोली, ‘‘….हां, बाबूजी, हम लोग हराम का तो खाते नहीं हैं कि महावर लगाकर घर में बैठी रहूं। काम करने पर ही तो पेट भरेगा!’’ चमरू की पतोहू ने रघु बाबू को सुनाकर कहा और पूरे विश्वास के साथ आगे बढ़ गई।

रघु बाबू खिसियाते–से उसे आते देखते रह गए।

-0-  डॉ.पुरुषोतम दुबे शशीपुष्प  74जे /ए स्कीम नंबर 71 इन्दौर 452009 , मोबाइल नं.9407186940

 

किन्नर ही तो था

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ठाकुर साहेब !! आपको हमारी कसम मत ले जाए इसे, मैंने नौ महीने कोख में पाला इस जीव को,आप कैसे किसी और को दे सकते। हाय री किस्मत ! ब्याह के 10 बरस बाद दिया तो वोह भी ठूँठ! मेरे लिए तो मेरी संतान, मैं कही जंगल में रहकर पाल लूँगी। कम से कम माँ तो कहेगा मुझे,अभी तक बाँझ कहलाती थी,अब तो ना जाने क्या-क्या कहेंगे लोग’-बिलखती ठकुराइन की गोद से चंद घंटे की संतान को ज़बरदस्ती ले जाते हुए ठाकुर भी फूट-फूटकर रो दिए

’‘हम बाप बनकर भी ना बन सके। कैसे रखें इस गोल -मटोल प्यारे से बच्चे को अपने पास, तुम इसे पढ़़ाना’ अच्छा इंसान बनाना। तुमको पैसे की कभी कमी न होगी -कहकर रजनी किन्नर को सौंप आए। आज 28 बरस बाद वह ठूँठ अपने शहर का मेयर बना हुआ हैं। पुराने सब लोग जानते हैं-किसका बेटा हैं। आखिर ऊँचा माथा सुतवाँ नाक खानदानी रुआब वाला चेहरा चुगली कर रहा था टी-वी-पर शपथ कार्यक्रम देखते हुए दो जोड़ी बूढ़़ी आँखें एक दूसरे का हाथ थामे जार-जार रो रही थीं और कोस रही थी समाज को।

-0-,सी/2- 133 , जनकपुरी ,नई दिल्ली 110058


लघुकथाएँ

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1-सेवाभाव

गाड़ी धीरे-धीरे प्लेटफार्म छोड़ रही थी और बाबू जी शीशे से हीक भर बेटे को निहार लेना चाहते थे। समय को कौन जाने? अस्सी पार कर चुके पहले भी छोटे के पास आया करते थे,दोनो लोग। परंतु कभी अकेले वापस न गए थे। लाख समझाते कि स्टेशन तक छोड़ दो बाकि…डायरेक्ट गाड़ी है तो कोई चिंता नहीं। मगर जी आधा हो जाता तथा बेटा घर तक सकुशल पहुँचाने जाता। अब उसके पास समय कहाँ  तमाम भवद्वंद…ऑफिस, संस्थाओं के बुलावे, सोसायटी की मीटिंग्स। घर गाँव छोड़े बीस साल बीत चुके थे। अपनों के लिए बहुत कुछ करने की ख्वाहिशें लेकर सर्विस ज्वाइन की थी। अपनपौ अपने तक सिमट रहा था और जो नये अपने हो रहे थे वे कितने स्थायी, विश्वसनीय….?

नई दुनिया में वह अब नया नहीं था। एडजस्टमेण्ट और कोपअप को आत्मसात् करने की कला इस लाल में निखर रही थी। घर-बाहर दफ्तर और चार भले लोगो में परिस्थिजन्य सुपात्रता प्राप्त कर ली थी; इसलिए कहीं भी उसके प्रति मुखर दशा न होती। आधुनिक आदर्श करेक्टर बाबूजी का यह छोटका।

राजधानी एक्सप्रेस के सेफ क्लास में बिठा देने से श्रवण कुमारीय कर्त्तव्य की इति श्री संपन्न हो रही थी। बाबूजी के पास सामान कुछ विशेष था नहीं। एक कुर्ता-धोती पहनते थे दूसरा बैग में। घर से आते वक्त जरूर, अचार, मेथउरी, चना के साग ओर अमावट से एक झोला भर गया था। बड़ी बहू ने भतीजों के लिए कुछ कपड़ा-लत्ता भी भेजे थे।

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“गजब होइगा, चाय दिहिसि बनावै के?’’

बैरा नाश्ता रख चला गया था। सब कुछ फास्ट और फटाफट निपटाने वाले कब का ब्रेकफास्ट निपटा चुके थे। बाबूजी पहली बार अकेले। उठकर पानी भी न लेत थे मगर अब…। दुबे जी, किरपा को बता आए थे कि अबकी लंबे समय के लिए जा रहे हैं। सुबह-शाम टहलने के यही साथी थे। सुख-दुख इन्हीं से मगर जी न लगा।

पाँच बजे तड़के मिलन की जीवन चर्या शुरू हो जाती। बहू-बेटे मिलकर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करते। दो बेटे….. और इन्हीं में छिकर मारते। डाट-डपट, प्यार दुलार से खटपट-खटपट करते बॉय-बॉय। स्कूल जाने का प्रथम अध्याय संपूर्ण होता। मिलन के पास मिनट-मिनट का हिसाब। योगा और न्यूज एक साथ निपटते। पानी और चाय में गैप हो ही नहीं पाता और ब्रेकफास्ट का अलार्म। बड़ी तेज गति से काम करने की आदत। एक नौकरी करते हुए डॉक्टरेट तक की भारी डिग्रियाँ, समय प्रबंधन का प्रमाण थीं। बाबू जी से बात कम करने की आदत शुरू से ही थी और बहू, ’बहू’ ही।

पेपर रखा है…

खाना खा लीजिए…….

टी वी देख लीजिए…….

मैं मार्केट जा रही हूं……

देख लीजिएगा….

कुछ निश्चित संवाद, निश्चित समय पर ही एकपक्षीय। उनको सुनने समझने का वक्त कहाँ ? यहाँ  शहर में मंगरी-षुक्रवारी बाजार न थी।

कभी-कभी……’पानी लाव, पान कहाँ  है, झोला..रुपइया…हाँ  अउर का रहिगा..’  बाजार की यह लंबी तैयारी उन्हें कुछ बरस पहले ले जाकर खड़ा कर देती। अब करने के लिए कुछ नहीं। सब कुछ उपलब्ध। उनकी पसंद नापसंद पीछे छूट गई थी.. बहुत पीछे। उनके लिए पूरा एक कमरा यहाँ  भी था और बड़े विलास के घर पर भी। दोनों जगह गृह विभाग गृहणियों का था हिमाकत करना…..। टूट से गये थे। एक दिन जब सुबह घूमने गये तो पूरा सामान ऊपर षिफ्ट कर दिया गया। आये तो पोती ने कहा था ’बाबा, आप का आसन ऊपर लगा दिया है। बिस्कुट,नमकीन, चना, गुड़ सब कुछ रख दिया गया है। आपको बार-बार मांगना न पड़े।’ बाबूजी दुखी नहीं हुए थे उन्हें इसका आभस हो गया था। वे ऊपर पदोन्नत कर दिये गये थे। छत पर बैठे रहते….। वहीं खा पी कर पड़े रहते। मिलन और बेटी सुरेखा को रोज एकबार दबी आवाज में ’हालचाल लेना था…।’ बेटों की इच्छाओं, खुषियों को अपना मान लेने का मान समाज में आदर्ष परिवार के रुप में हो रहा था।

एक ही बार कहा था कि लाला टिकट करा दो और मिलन षाम को दफ्तर से लौटते वक्त तत्काल की टिकट ले आया था। बहू निष्चेश्ट थी…। जब अपना खून…..।

खुद पांचवी जमात से आगे स्कूल न देखा था। मगर बच्चों की तालीम में खून पसीना एक कर दिया था। बिटेऊ, हाँ  यही नाम था उकी पत्नी का। ऐसी केमेस्ट्री कि…..। आज तो बात-बात में वाद-विवाद तर्क-वितर्क। एक राम कहेगा दूसरी रहीम। औपचारिकताएं बनावटीपन पति-पत्नी तक में।

‘तुम कबो हियां रहयो कबो हुवां।’

‘तुम कहाँ  जइहो?’

‘हम तो चली जाब…….।’

शायद पूर्वाभास था उन्हें जानलेवा कैन्सर का?

संतोषी,     शान्त , मिलनसार     ,नात-ग्वांत और बाबूजी का ’लाला’ नाम तो कभी लिया ही न था, आते वक्त चुप्प, घुर मुहाँ  विलास।

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’एक रोटी अउर तो एक रुपिया। बिटेऊ घैरि से गरम-गरम रोटियां निकालतीं और  बाप-बेटे में प्रतियोगिता होती। तब मिलन और सुरेखा छोटे-छोटे थे। पता न अब काहे……। एक जबरि कुकुरि और उसी की खिदमत। पहले वाली बात और थी….। बाबू जी गुस्सा पीना सीख गये थे …………………।

‘गुस्सा न होय कबौ। धेरिया-बहुरिया आदमी कै बात तो तरे नहीं धरतीं तो फिरि……। लरिका सुनिहैं तो….। कलह न होय पावै।’

सिर पर काल रुपी कैंसर का इलाज दिल्ली कराने जाते वक्त इत्ता ही तो बोल, बतला पाई थीं।

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बी चवालिस

हाँ  यही है।

डोर टू डोर कूरियर सेवा से बाबू जी का ट्रेन टिकट आ गया था। अगले महीने के उन्तीस का कन्फर्म। मिलन को बाहर जाना था सो छोटी बहू ने फरमान पास कर दिया था कि घर की रखवाली के लिए बाबू जी को बुला लिया जाए।

बाबू जी ने गंगाराम कैलेण्डर में उन्तीस नवंबर पर पर गोला लगा लिया था ताकि जाने की तारीख सबको दिखती रहे।

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2-जंगल जलेबी

चेक वन टू थ्री…….चार्ली…..चार्ली…..चार्ली दिस इज जैक पॉट कालिंग।

सिपाही निर्मल बख्श वायरलेस पर लगातार कॉल दे रहा था बट डेस्टिनेशन से नो रिप्लाई। कमाण्डर नन्हके सिंह का फौलादी ऑर्डर कि उन्हें लेट नाइट डिस्टर्ब न किया जाए। यह उनके रेस्ट का टाइम। हाँ  ’रेस्ट’ यही शब्दावली इनके लिए प्रयोग की जाती है जब ये महँगे सोमरसों से धुत्त हो नाइट इन्ज्वाय करते हैं। सोते तो सिपाही हैं- देश के प्रहरी ! बड़े अधिकारियों के कृते कनिष्ठ उनकी जगह ,जहाँ  इनका नाम पद लिखा होता है- जलेबी बिठा देता है।

निर्मल बख्श पिछले दो महीने से सीमाओं की रखवाली कर रहा है। अगली सुबह अगली जिंदगी। पड़ोसी के भरोसे मौत का भरोसा हर क्षण। देश की इस सरहद पर कोई सैटेलाइट सिस्टम काम नहीं करता। सारी आवृत्तियों पर हैवी जामर। नीचे कार्यालय से जवानों के घर-परिवार से ’ऑल नार्मल’ रिसीव कर इधर भी ’ऑल नार्मल’ तसदीक कर दिया जाता। यह ’ऑल नार्मल’ रुटीन था। प्राब्लम तो उस दिन हुई थी जब हेडक्वार्टर को ऑल नार्मल कनवे कर दिया गया ,मगर उसी दिन लैण्ड स्लाइडिंग और बर्फीले तूफान से तीन जवान….। अगला डिटेल चार्ज लेने पहुँचा था, तो पोस्ट अनमैण्ड ! स्निफर डॉग्स ने बर्फ सूँघकर…मानुष- गंध। और शहीदों का पूरे सम्मान के साथ…….।

नन्हके सिंह ने सर्विस बुक में बहादुरी के कई इंदराज पुख्ता किए थे। तमाम विशेष अलंकरणों के चलते ही उन्हें फ्रंट का चार्ज दिया गया था। जबान से निकला हर लफ्ज…….एक्जीक्यूट और डन। यहाँ  ’नो शब्द’ का अस्तित्व नहीं । सूचनाधिकार का प्रवेश यहाँ  वर्जित। जैसे मर्जी जोतो। जब कभी दिल करता हेलिकॉप्टर से बर्फ का नजारा ले लेते । इसके लिए पेपर्स भरे जाते-इंस्पेक्शन कंप्लीटेड। ’ऐनी प्राब्लम ?’ प्रति उत्तर में सिपाहियों का जवाब ’नो प्राब्लम.. सर।’

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हू कम्स देयर ? कौन है वहाँ …? तीन बार भी पूछने पर कोई जवाब नहीं। सेफ्टी कैच फॉरवर्ड और ट्वन्टी राउण्ड….।

बगल के गांव के गड़रिए भटकी भेड़ों को हेरते-हेरते….। ये न अंग्रेजी जानते थे न हिंदी। निर्मल बख्श माथा पीटकर रह गया।

……पाप का बोझ सबल को नही सताता।

‘शहीद जग्गा सिंह को वीरता चक्र मरणोपरांत।’ गणतंत्र दिवस परेड पर रौबीली कमेन्ट्री।  …..हमारे जाँबाज सिपाही तमाम विषम परिस्थितियों में शत्रु का डटकर मुकाबला करते हैं।

’प्वाइण्ट 235 चौकी पर चार घुसपैठियों ने कमाण्डर नन्हके सिंह पर उस समय धावा बोल दिया जब वे इस चौकी का निरीक्षण करते हुए जवान का वेल्फेयर ले रहे थे। माइनस 20 डिग्री पर तैनात कमाण्डर सिंह ने अपने अदम्य साहस और पराक्रम से तुरंत मोर्चा सँभालते हुए इन्हें वहीं मार गिराया। अपनी बहादुरी का लोहा मनवाते हुए उन्होंने राष्ट्र की एकता-अखण्डता पर आँच न आने दी। उन्हें इस साहस पूर्ण वीरत्व पर महावीर चक्र से सम्मानित किया जाता है। कमाण्डर नन्हके सिंह…।’

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सिपाही निर्मल बख्श की ड्यूटी अब पीस एरिया में लग गई है। गणतंत्र दिवस का सीधा प्रसारण चालू है……….

‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिन्दुस्तान की……………………।’

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3- गुरु

 टोपी बिल्ला आई का, वोट रविन्दर भाई का।

रविन्दर दद्दा आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं।

जेठ माह की की लू में चुनाव प्रचार करते कार्यकर्ता। हलक सूख रहे थे। घंटा भर हो चला था चिल्लाते-चिल्लाते। ’कहाँ  मर गए स्साले……कहे थे ग्यारह तक आ जाएँगे। मोबाइल लगाव तो करन भाई..।’

टॅूऽ….टूँऽ…..बिजी बता रहा है।

’वह देखो गर्दा दिख रही है……’

……….रविन्दर भाई का……साथ हैं।’जोशीली आवाजें गूँजने लगीं। स्कार्पियो, बोलेरो का काफिला। माला-फूल और जय-जयकार।

का करन कइसा चल रहा है इधर….सुने रहन कि कुछ वोट गड़बड़ा रहा है…..आ।आंय….अपै हिसाब से मैनेज करो हाँ । सब लोग आराम से प्रचार करिहैं……कोई कमी न रहै।

पुतान जाव देखि ल्यो……।

जीतेगा भाई जितेगा अबकी रविन्दर जीतेगा।

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ठण्डा पीकर कुछ देर ये लोग शान्त रहे। बाँट-बराव हो गया तो…….।

’मुहर तुम्हारी कहाँ लगेगी….ऊपर वाले खाने में।’

जोर-जोर चिल्लाओ आ ही रही होगी। कही थी बारह एक तक पहुँचेगी।

जागी है भाई जागी है……नारी शक्ति जागी है।

मशीनी रथों से उतरती नारी चिंतक। प्रार्थिनी स्वयं कैसे आतीं। तमाम जगहों पर कैंपेनिंग करनी थी।

सब ठीक है न करन सिंह?

बिलकुल चौकस चल रहा है बहन जी। खाली उधर कटइला पार का कुछ वोट……कर लिया जाएगा…. थोड़ा ध्यान देना पड़ेगा।

माँ और बेटी नारी है अबकी सब पर भारी है।

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’दस-दस रखो अभी बाकी हिसाब बाद में।’ करन सिंह के आदेशानुसार कार्यकर्ता आगे की कार्यवाही में लग गए।

’कम से कम दो घण्टा अब वो कमीने न आएँ,तो ही ठीक है….. थक गए यार…….।

अच्छा! खाली हराम का चाही..चलो..चलो….थोड़ा ….. जोर से…हाँ ….अइसे।

देश का नेता कैसा हो मंत्री चाचा जैसा हो।

मंत्री चाचा की क्या पहचान, पाँचवा खाना फूल निशान।

’……………फूल निशान।…………फूल निशान।…..

सफेद एम्बेसडर में सवार मंत्री चाचा। एस.पी, डी.एस.पी.,  अरोगा-दरोगा मिलाके बीस गाड़ी।

आशीर्वाद-आशीर्वाद..करन…और सब….? बड़ी पब्लिक इकट्ठा किए रहौ लखनऊ से हिंया तक। बड़ी मेहनत कर रहे हो…।

चाचा जो पहिले आप भेजे रहैं ऊ सब तो…..। अभी वोटिंग के पहिले जरूरत पड़ेगी।

’ठीक है…..अभी तो ई सब डीएम, एसपी…. आदमी आएंगे……।

जी चाचा

आशीर्वाद-आशीर्वाद..

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गया…..साला….लुच्चा। चलो आज का निपटान होइगा।

ये कार्यकर्ता नहरिया तक पहुँचे होंगे कि…….

तुम इतने गिर गए करन कि इस तरह कमाई करोगे? नैतिक-अनैतिक सब तरह से….थोड़ा कुल खानदान का ख्याल करते।

निवर्तमान सिविक्स प्रवक्ता वासुदेव अपनी नैतिक शिक्षा से करन की राह गेंस रहे थे।

ना गुरु जी आप लोग बिल्कुल अइसा नहीं सिखाए न ही हमारा संस्कार अइसा है। ये तो हम इन्हीं स्सा…. सबों से सीखे हैं। जीत कर ये भी तो……….।

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4-ई लोग

बड़े दिनों के बाद मिली है ये दारु…………..दे दारु।

दिन भर की झुलसती तपिश को तरावट देते ईंट भट्ठे के मजदूर ’देशी मसाले वाली’ में डूब जाना चाहते थे। ईंटों को खाँचों में ढालने वाले समाज के साँचों से दूर! यहाँ  बाप-बेटे, पुरुष-महिलाएँ भेदभाव से रहित वज्रयानी साधक होते हैं। इनकी संस्कृति दुनियावी तामझामों से बिल्कुल जुदा। आशाओं-आकांक्षाओं से परे है इन का फक्कड़ी जीवन। सिरकी और मोमिया के पारदर्शी घरों में रहने वाले निष्कपट, निरबैर। मन वाणी और कर्म का समरूपी भाव। बातों की खेती में नानक्वालिफाइड। जुदा-बाँट के नाम पर फटे-पैबंद, कथरी-गुदड़ी को तानकर ये घरों की जीरोलाइन तय कर लेते हैं, जिनसे रात-गहराते ही नियतश्रव्य और अश्रव्य भी श्रव्य हो जाता है। सेर भर आटा, आधा पाव दाल, छटांक-आधा छटांक रूपनरायन (तेल), अठन्नी-चवन्नी का मसाला, बीस पैसे की मजदूर बीड़ी और पाँच नए के कम्पट। यही जरूरतें और इनकी आपूर्ति हेतु वहीं बब्बू की दूकान। खरीददारी के शौकीन मालामाल जाते होंगे माल्स में, फिर माथा पच्ची कि क्या कैसे कंज्यूम किया जाय!  यहाँ  अपना विशिष्ट अर्थशास्त्र जब जरूरत तभी दुकान। सरकारें, योजनाएँ टटोलतीं, इनसे क्या…..तो उन्हें क्या! ’नित मारौ नित खाव’ इनके जीवन का उपजीव्य। न वर्तमान की फिकर न भविष्य की चिंता।

गंगा पार कर अमरू मुँह अँधेरे भट्ठा पहुँच गया था। गाँव के कोदई, कुंदरू ने खबर की थी कि आदमी की जरूरत है।

तुम लेट हो गए यही खातिर मालिक बंडई के लोगन का राखि लिहिन।

कोदई, कुंदरू उसे काम पर न रखे जाने से मन मसोसकर रह गए। बियाजू, पैसा लेकर वह बड़ी उम्मीद से यहाँ  आया था। बात-बतकही, टोला-मोहल्ला के हाल-चाल के साथ पीना-खाना हुआ। चुगलखोर घुड़कुवा मालिक को बता आया था कि अमरुवा अकेले आवा है, जनानी नहीं लावा। सो चिरौरी-बिनती, भइया-दादा, वसीला (सिफारिश) से पिरथी लंबरदार काहे पसीजते।

भंड़िया (मटकी), मेहड़िया (बड़े बखारी मटके) सब खाली! घर में रत्ती भर अन्न नहीं! दीया-बाती के लिए परी भर रोशनाई के लाले! एकदम अंधकार में घिरा अमरू का घर और जीवन। मकोइया को समझते देर न लगी कि पिरथी ने उसे क्यों नहीं रखा। मकोइया को एक ही बार देखा था उसने तबसे……। पनियाव (नाश्ता-पानी)  क्या करता पानी पी कर पत्नी के सामने बिफर पड़ा।

बहुत कहा-सुना, मकोइया। मगर पसीजा नहीं….स्ससुर।

कउनो बात नाहीं। रामराखन कोटेदार के पास चले जाते। सुना है कोटा में राशन आवा है। उतरवा आते तो अढ़ैया-पसेरी दे ही देते।

गया था, वहाँ  भी लेकिन कुछ नहीं हुआ। कह रहा था कि तुम हीक भर काम नहीं करते।

गरीब की कौन सुनता है। सारे ऐब तो मजलूमों में होते हैं। कर्मठता, ईमानदारी तो बड़ों की ही पहचान है। गरीबों के भाग्य में करम हैं और अमीरों-शोषकों के हाथ में कर्त्तव्य। पहिले की अनिश्चितता और दूसरे का सीमित दायरा।

सो जाव। सबेरे दीख जाई।

पटइला (साँकल) चढ़ाकर वह सोने का प्रयास करने लगी। परंतु ……। चेहरे पर कालारंग, हाथ में गुप्ती और कमर में रस्सी लटकाए अमरूआ को देख………

कहाँ जा रहे हो पहर रात में?

कोटा लाने…..।

मगर तुम तो कह रहे थे………..

तू सो जा मकोइया……

ईलोग…………..

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5-बगुला

 आचार्य हरगोविन्द ने विषय संबद्ध संकल्पना को टेबल पर रखने का निर्देश षारदा को कई दिन पूर्व दिया था। षोध विषय को न्यास देने में आचार्यजी को पाण्डित्य प्राप्त था। आापकी चरणरज मस्तकपर धारण करने वाले दर्शन निष्णात, विद्यावाचस्पति और विद्यावारिधि की उपाधियों से अलंकृत हो महाविद्याालयों, विष्वविद्यालयों में साहित्य की नव मीमांसा कर रहे थे।

कभी आचार्य जी भी पढ़ते-लिखते थे परंतु अब वे अध्ययन से आगे निकल चुके थे। मुखारविंद से जो उच्चारित होता वही साहित्य में नव प्रतिमानों के रूप में स्थापित हो जाता। विषय कोई भी हो आप सर्वज्ञ, सर्वविषयी विशेषज्ञ। कहीं कोई साहित्यिक जमघट लगता तो भीड़ बटोरने के लिए आचार्य जी का नाम ही पर्याप्त होता। गम्भीरता की पूरी बनावट-बुनावट। एक्जिक्यूटिव श्रेणी और पाँच सितारा सुविधाओं के बिना इनका ज्ञान अर्जित करना दुःसाध्य। पूरे शिक्षा जगत में इनके  आशीष के बिना कोई किसी तरह की आशा नहीं कर सकता था। तमाम सिफारिशों, आग्रहों और शारदा के विनयोपरांत आपने उसे शोध दृष्टि से अनुगृहीत करने की स्वीकृति दी थी।

इधर कुछ दिनों से प्रोफेसर एकनाथ की आत्मकथा की चर्चा पूरे देश में चल रही थी। हिकारत और अमानवीयता का जीवंत दस्तावेज थी यह आत्मकथा। शारदा ने अपने शोध विषय के रूप में इसका चयन कर अध्याय-उप अध्याय का खाका बनाया था।

क्या लिखी है……? इस सब पर हम काम नहीं करा पाएँगे। कोई दूसरा विषय सोचो। पहले सोचो कि साहित्य होता क्या है?

साहित्य मानव की विकासशील प्रवृत्ति के मार्मिक अंशों की कलात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें किसी भी समाज-राश्ट्र की चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब होता है। इसका समाज से अन्तस्संबंध है। विचार चिंतन और विश्लेषणपरक भावों का औदात्यीकरण नाना रुपों में  छायांकित कर वाङ्ममय की विविध विधाओं का विकास होता है। इसके तत्वों में ग्रहणशीलता, कल्पना, भाषा, सौष्ठव और विराट का दर्शन होता है। संकीर्ण, सीमित घटनाएं-परिघटनाएँ साहित्य की कोटि में नहीं गिनीं जा सकतीं। शिल्प, रचनात्मक इहा और सौंदर्य से रहित लेखन प्रलाप नहीं तो क्या है? हृदय-आत्मा का परिष्कार और इन्हें अनहत तक की योगावस्था को पुश्ट करने वाली विधा पर विचार किया जा सकता है। प्रौढ़ ज्ञानवान पण्डित जनों के दिव्य पाण्डित्य, विश्लेषण और निर्धारण के पश्चात् ही कृति को साहित्यिक मान्यता मिलती है। यह सब और ऐसा लेखन   राम-राम…….! साहित्य की यह दुरवस्था!’

शारदा आचार्यजी के क्रोध से अभिज्ञ थी सो तुरंत आज्ञा लेना ही उचित था। दूसरी तरफ इस साहित्यिक कृति के बारे में आचार्य महोदय ने तफतीश की तो मालूम पड़ा कि ऐसी मौलिक रचनाओं पर शोध को प्रोत्साहित करनेवाली संस्थाएँ तथा शोध निर्देशक को मानदेय का प्रावधान है। मौका तो स्वर्णिम था परंतु प्रो. एकनाथ से बात करना आचार्यजी के सामंतशाही अहं को चोट पहुँचाने वाला था। बचपन से जीवन के इस तीसरे पड़ाव तक आचार्यजी खुर्राट सामंती परंपरा के पोषक रहे थे।

सिद्धांतों को स्वार्थानुसार तरमीम कर देने वाला ही विद्वान है। संस्कारवान् होना जड़ता, रूढ़िग्रस्तता नहीं तो क्या है? शब्दों की बाजीगरी से नैतिकता-अनैतिकता की परिभाषा रूप परिवर्तन कर लेती है।

डॉक्टर साहब नमस्कार! …… जी-जी अभी डायलिसिस पर हैं….। हम कह रहे थे आपकी आत्मकथा पर यहाँ विश्विद्यालय ने कुछ कार्य कराने का विचार किया है।

….नहीं-नहीं हम आप मिलकर ही समाज और साहित्य………। हम हम ऐसा नहीं सोचते………………….।’

कॉल कमप्लीट हो गई थी और आचार्यजी का कार्य भी संपन्न हो चुका था।

स्ससुर… एक नमस्कार से लाख रुपइया का मानदेय। समतापरक साहित्य सृजन का पुरस्कार…। आचार्य हरगोविन्द कॉफी हाउस में अपने मित्रों के साथ चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे।

 

मरहम

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अभी बीते परसों से ही जब तीन दिन की छुट्टी हुई तो वह कई दिन से लटके पड़े रसोई की मरम्मत के काम के लिए छुट्टी के पहले दिन से ही एक राजमिस्त्री और एक मज़दूर ढूँढ लाया था। खाली समय था सो बैठकर सुधार कार्य देखता रहा, उसने महसूस किया कि हर थोड़ी-थोड़ी देर पर मिस्त्री और मज़दूर दोनों बीड़ी या चाय के बहाने काम रोक देते। हालांकि तोड़-फोड़ का मलबा फेंकने में वह खुद भी मदद कर रहा था लेकिन शाम होते-होते लगने लगा कि जिस काम को वह एक-डेढ़ दिन का सोच रहा था उसमें तीन से कम नहीं लगेंगे।
दूसरे दिन एक दीवार तोड़ने का काम था सो उसने एक दिन के लिए मज़दूर की छुट्टी कर दी और खुद उसकी जगह काम करने का निश्चय किया, मज़दूर के चेहरे पर मायूसी साफ़ देखी जा सकती थी और मिस्त्री भी नाख़ुश था। दीवार तो तोड़ ली लेकिन उसने महसूस किया कि काम देखने में जितना आसान था उतना था नहीं।
आज तीसरे दिन जब दोपहर के वक़्त दोनों कामगार बीड़ी पी रहे थे और वह दोनों के लिए चाय बना रहा था तभी उसने दोनों को बात करते सुना। मिस्त्री कह रहा था
– काम तो बैंक में अफसर को करत है लेकिन है बड़ो चीस आदमी।
मज़दूर ने अपना दुखड़ा सुनाया
– हाँ भइया, तीन सौ रुपइया बचावे के लाने हमाए पेट पे लात मार दई कल, और कऊँ कामऊ ना मिलो।
– सो परदिया तोड़त- तोड़त पर तो गए हाथन में छाले….
– सोई तो कई गई के ‘जाको काम उसी को साजे, और करे तो….’
दोनों ने ठहाके लगाए, चाय पी और काम में लग गए।

शाम को काम ख़त्म हुआ और वह दोनों को जब तीन-तीन दिन का भुगतान करने लगा तो मज़दूर ने चौंक कर कहा– हम तो दोई दिन काम करे मालिक !
उसने हँसते हुए कहा– मैंने सोचा कि एक दिन को तुम भी छुट्टी की तनख्व्वाह का मज़ा लो, मुलू।

उसने देखा कि मुलू की आँखों में जो चमक थी वह किसी भी हीरे की चमक को मात दे सकती थी। शाम को उसे हथेली के छालों पर मरहम की जरूरत नहीं लगी।

बैठेंगे

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मरीज़ का रिश्तेदार , डॉक्टर के क्लिनिक पर फोन करते हुए-डॉक्टर साहब शहर में हैं?

हाँ ।

किसी मीटिंग में तो नहीं?

ना ।

बैठे हैं ?

हाँ ।

मरीज़ देख रहे हैं?

हाँ ।

मरीज़ का रिश्तेदार , डॉक्टर के चेम्बर के बाहर से फोन करता है-डॉ साहब आ रहे हैं?

नहीं, जा रहे हैं ।

कहाँ ?

अस्पताल ।

हमने पूछा तो आपने कहा कि बैठे हैं।

हाँ, बैठे तो अब भी हैं गाड़ी में। अस्पताल जा रहे हैं ।

वहाँ भी बैठेंगे?

हाँ ।

फिर?

थिएटर में जाएँगे।

कितने घण्टे के लिए?

तीन घण्टे के लिए ।

उसके बाद बैठेंगे?

भाई साहब सवाल थोड़े कम कीजिए और मरीज़ को अस्पताल ले जाइए। ऐसा न हो कि आप वहाँ पहुँचो, पता चले कि डॉक्टर साहब गाड़ी में बैठे हैं और घर आ रहे हैं।

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भूमंडलीकरण के दौर में हमारी सांस्कृतिक चिन्ताएँ

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भूमंडलीकरण के इस दौर में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ  एशिया  के सस्ते श्रम और विस्तृत बाजार को ललचाई नजरों से देख रही है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ  भारत में उत्पादन और व्यापार के लिए तो आ ही रही है साथ में अपनी वर्क कल्चर और पश्चिमी  संस्कृति भी ला रही है। वे हमारी भाषा, वेषभूषा, खान -पान , रहन -सहन को तो प्रभावित करती है , अतिस्वार्थ का बिरवा रोप कर हमारे पारम्परिक सम्बन्धों में जहर भी घोल रही है बच्चों को कैरियर ओरियंटेड बनाकर, देश , समाज और परिवार से भी काट दिया है।

संचार के तमाम साधनों पर ग्लेमरस विज्ञापन देकर उपभोक्ता प्रवृत्ति को बढ़ाया जा रहा है। उच्च जीवन स्तर का अर्थ है अधिक वस्तुओं का अधिक मात्रा में उपयोग करना । इसके लिए कर्ज की व्यवस्थाएँ फैलाई जा रही है , जिसें देश भी डूबे हैं और परिवार भी ।

भूंमडलीकरण लाभ और अधिक लाभ कमाकर करोडों को बेरोजगारी और गरीबी की ओर धकेल रहा है। विरोध के स्वर विकसित देशों  में उभरने लगे हैं ऑकूपाई वॉल स्ट्रीट जैसे प्रदर्शन अमेरिका ही नहीं यूरोप के विकसित देशों  में हो रहे है। लालची लौंडे पर नकेल कसने का काम अब आम जनता कर रही है ।

प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन ने हमारे लिए नये संकट पैदा कर दिए हैं। ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से भूमंडल का ताप बढ़ रहा है। और इस स्थिति को तुरंत न रोका गया तो अगले पचास साल में जलवायु में इतना परिवर्तन हो जाएगा कि उसमें पुनः संतुलन बनाने की संभावना ही समाप्त हो जाएगी । पर्यावरण का प्रश्न  आज के समय का मुख्य प्रश्न बन गया है ; क्योंकि यह अब जीवन -मरण का प्रश्न  हो गया है।

इस दौर में हमारी भाषाएँ लुप्त हो रही है, लोक- गीत, संगीत, नृत्य सभी को आज संरक्षण की जरूरत पड़ रही है इस  दौर  ने हमारे जीवन मूल्यों को प्रभावित किया है , सादगी अब दरिद्रता मानी जाने लगी है बचत करने वाला अब कंजूस हो गया है , मौज करेा की संस्कृति  फैलाई जा रही है , जनता की अरबों -खरबों की कमाई लड़ाइयों और आयुधों में समाप्त हो रही है । क्षेत्रीय ल़ड़ाइयों का खेल खेलकर अमेरिका पूरे विश्व  पर अपनी धौंस जमा रहा है।

फिल्म व टी.वी सितारों , खिलाडि़यों ,मॉडलों को सैलिब्रिटी बनाकर मीडिया जनता के सामने रोज परोस रहा है वे लोग भी सैलिब्रिटी बन गए हैं ,जो पेज 3- पर फोटो सहित उपस्थित होते है एक खोखलापन ग्लेमरस युग में प्रवेश  कर रहा है , जिनके हाथों में डौर है वे जानते है वे क्या कर रहे है , और क्यों कर रहे है।

दुनिया  एक बाजार हो गई है, मुक्त व्यापार का नारा बुलंद है , प्रतिबंध हटाए जा रहे है आत्मनिर्भरता एक बेकार धारणा बनकर रह गई है।

कांक्रिट के जगंल खड़े हो रहे है, जंगल और खेती की जमीन कम होती जा रही है। खेती करना अलाभकारी हो गया है खेती की लागत बढ़ी है; लेकिन लागत के अनुसार फसलों के दाम नहीं मिल रहे , सब्सीडी हटाए जाने का दबाव   है।  किसान कर्जे में डूबे आत्म हत्याएँ कर रहे हैं।

वर्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन, आई एम एफ , वर्ड बैंक और ऐसी  अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ जिन पर   जी-7 देशों  का वर्चस्व है एशिया , अफ्रीका और लेटिन अमेरिकी देशों  के शोषण का सबब बन रहा है।

पूरे विश्व  में प्राकृतिक संपदा की लूट मची है इस लूट के लिए करोड़ों की रिश्वत  दी जा रही है । हाशिए पर पड़े लोगों की परवाह करनेवाला कोई नहीं है। मुख्य धारा की पार्टियाँ  वंचित  लोगों की चिन्ता  नहीं करती है बल्कि वे उच्च वर्ग और मध्यमवर्ग के हितों का ही पोषण करती है।

एक धुव्रीय विश्व  के ग्लोबल विलेज में इस नये साम्राज्यवाद से निपटने की ताकते अभी उभरी भी नहीं हैं समतावादी और समाजवादी सोच के लोग बिखरे पड़े हैं और इस निजाम से निपटने की कोई रूपरेखा नहीं बना पा रहे हैं ।

कुछ व्यक्ति , ग्रुप या स्वतः स्फूर्ति आंदोलन इस महाशक्ति  से कैसे लोहा लेंगे ! वैसे अपने ही अंतविरोधों से यह भर भरा जाए तो बात अलग है आज की मंदी , अगर विश्व  स्तर पर निंयत्रित  नहीं हो पाई तो अर्थ व्यवस्थाएँ चौपट  हो सकती हैं। ऐसे समय में लोगों को सावचेत करने का काम साहित्य कर सकता है।

इस भूमंडलीकरण के एकीकृत गाँव ने उत्पादन वितरण निवेश बेंकिग व बाजार को ही प्रभावित नहीं किया है; बल्कि जीवन शैली और जीवन मूल्यों में भारी बदलाव किया है एषिया के पारम्परिक समाजों में भारी उथल -पुथल मची है। भारतीय समाज में पारिवारिक व सांस्कृतिक मूल्यों को लेकर अत्यधिक लगाव है ; लेकिन पीढ़ी -दर-पीढ़ी इनका क्षरण हो रहा हैं और वैश्विक  नागरिक अन्तर्राष्ट्रीय जीवन शैली और जीवन मूल्यों को अपनाता जा रहा है जो बाजार, व्यक्तिवाद और उपभोक्तवाद को उच्च स्तर पर ले जाते है।

भूमंडलीकरण को संभव बनाने में संचार के साधनों का बड़ा योगदान है , सैटेलाइट , टी.वी. कम्प्यूटर , मोबाइल , फोन , लैपटॉप , और भी गैजेट से है जो संदेशों  को तुरंत -फुरत विश्व  के कोने – कोने तक पहुँचा सकते हैं। ज्ञान का अथाह सागर है इंटरनेट । इंटरनेट पर सब उपलबध है। योग , आयुर्वेद, होम्योपेथी , विज्ञान , तकनीक और तमाम क्षेत्रों का ज्ञान इस ज्ञान कोष में है।  खरीदना हो बेचना हो , लोगों  से  जुड़ना हो , विवाह रचाना हो , फेसबुक जैसी साइट से आन्दोलन तक खड़े हुए है. ‘प्रेमब्लाग’ में सतीश  दुबे बताते है कि इन्टरनेट ने पुराने प्रेमियों को प्रौढ़ावस्था में जोड़ा है , प्रेम की कोपलें फिर फूटने लगी है , ब्लाग के माध्यम से ये प्रेम कथा चलती है ।

‘गुरुदक्षिणा’ (सतीश  दुबे) का नया अंदाज देखिए । शिक्षिका के प्रेम में पड़े शिष्य  ने ‘ऑरकुट पर शिक्षिका की ‘लव मी नाम से प्रोफाइल बना दी। इतना ही नहीं , इस प्रोफाइल में इस शिष्य  ने अश्लील  सूचनाएँ और परिवार के सदस्यों के मोबाइल नम्बर डाल दिए ।नतीजन आने वाले अश्लील फोन से परिवार के लोग परेशान होने लगे । ‘साइबर साहित्य’ (सतीश  दुबे) में पोर्न साइट पर सर्फ करते किशोर , युवा और प्रौढ़ सभी को देखा जा सकता है। लेखक ने इस बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता प्रकट की है ।

इंटरनेट पर चैटिंग  का चस्का लगते क्या देर लगती है। अपने भीतर उछलती उत्तेजना को महसूस करना, प्रौढ़ा के लिए आसान है कि वह अपने को टीन ऐज बताकर अति प्रसन्न है , तो उधर प्रौढ़ पुरुष भी अपने को युवा बताकर ही उससे चैट कर रहा है एक उत्तेजना की खोज में है दोनों। लेकिन एक दूसरे को ‘चीट  करके ही कामोत्तजना का आनन्द लेते है , प्रेमविहीन सेक्स के मजे लेते लोग ‘दर्पण के अक्स’ आभा सिंह में भी मिल जाएँगे।

अन्तरा करवडे की कथा ‘’मानसिक व्यभिचार’ में नेट पर एक दूसरे को फ्लर्ट  करते पात्र मिल जाएँगे। रीता के मेसैंजर पर एक अनजान संदेश  उभरा ‘हैलो ! स्वीटी उसने थोड़ी पूछताछ के बाद रीता को वॉइस चैट के लिए राजी कर दिया । रीता ने लॉग आउट होने की सोची ,लेकिन थोड़े बहुत मजे लेने में क्या हर्ज है । यह सोचकर वह कुछ देर तक चेट करती रही।

इंटरनेट का मंदिर (उमेश  महादोषी ) अंर्तजाल के एक सकारात्मक आयाम को हमारे समक्ष खोलता है । पापा की बीमारी के बारे में नेट पर सर्च करते-करते ऐसे पेशेंट  की बीमारी का पता चला ,जिसके लक्षण पापा की बीमारी से मिलते थे। उस पेशेंट का इलाज अमेरिका के  डॉ.एबॉट ने किया। बेटे ने उसने संपर्क  साधा । उन्होनें बताया कि इस तरह के पेशेंट के बचने की बहुत कम उम्मीद है, अगर आप लोग इजाजत दे, तो मैं  नया परीक्षण करना चाहूँगा  । सौभाग्य से परीक्षण सफल रहा।  माँ ने मत्था टेकते भगवान का आभार प्रकट किया। ‘मां असली कृपा करने वाला भगवान तो इंटरनेट है ,जिसने हमें डॉ.एबॉट से मिलवाया।

भूमंडलीकरण ने विश्व  में लोगों की आवाजाही को बहुत बढ़ा दिया है , उद्योग , व्यापार, व्यवसाय व नौकरी के लिए लोग एक देश  से दूसरे देश  में माइग्रेट हो रहे है। एशिया  के लाखों लोग विकसित देशों  में स्थायी रूप् से बस गए हैं ;ताकि वे उच्च जीवन स्तर का आनन्द ले सके । इसका वृद्ध जनों पर क्या असर पड़ रहा है ,यह लघुकथा लेखकों ने  अपनी रचनाओं में उकेरा है।

माता -पिता लंदन में सैटल्ड दोनों बेटों से मिलने को तरस रहे थे ; लेकिन उन्हें उनकी फिक्र करने का समय कहाँ ! कभी- कभार एक फोन या कुछ पैसे भेज देते । कैंसर ग्रस्त माँ  को देखने कोई नहीं आया , उसके मरने के बारह घंटे बाद छोटा बेटा आया, वह भी तीन दिन बाद ही रिटर्न फ्लाइट से चला गया।  मोबाइल यहीं भूल गया अचानक रिर्कोडेड वॉयस बाक्स का  स्विच दब गया ‘सुना बड़े भैया  माँ  नहीं रही, इंडिया चल रहे हो या नहीं। तू तो सब जानता है ….. एक ‘एग्रीमेंट (मुरलीधर वैष्णव ) करते है , तू माँ  की डैथ पर चला जा , पापा की डैथ पर मैं चला जाऊँगा ।

सफलताएँ तमाम भावनाओं को कुचल देती है । अपने माता पिता के लिए कृतज्ञता का भाव तक नहीं है ‘बर्फ होती संवेदनाए’ (इंदु गुप्ता) में प्रवासी महात्वाकांक्षी बेटे ने घर द्वार बेच कर पिता की व्यवस्था स्थानीय वृद्धाश्रम में कर दी। कभी-कभार फोन , डाक द्धारा स्वेटर , टोपी का उपहार भेज देता। साढ़े चार बरस गुजर गए ,बेटे को न आना था , न आया। पिता चल बसे तो आश्रम वालों ने खबर कर दी। उसके जवाब में बेटे ने मेल भेजा कि छुट्टी मिलना संभव नहीं , कृपया क्रियाकर्म कर दें।  एक विडियो रील बनाकर अत्येंष्टि और वीडियोग्राफी का बिल भेजं दें.

बेटें ने पिता की सम्पत्ति  बेचकर विदेश  में उच्च षिक्षा और वहीं बसने के लिए फ्लेट खरीद कर पिता को विदेश  ले गया कहा अब आप ‘भूमंडल की यात्रा’ (उमेश  महादोषी)  का आनन्द लेते रहे। वहाँ  उसने अपनी पाकिस्तानी दोस्त रूबिया से शादी कर ली , पिता ने कुछ विरोध किया ,तो बेटे ने प्रत्युत्तर दिया -‘आज हम देश  की सीमाओं से ऊपर उठ चुके हैं, न रूबिया पाकिस्तान की बंधुआ है और न मैं हिन्दुस्तान का। हमारा देश  पूरी दूनिया हैउ। इस बीच बंम्बई पर आतंकी हमला होता है , पिता और उनके हमउम्र दोस्त आपस में चर्चा करते हैं। बहू रूबिया उनकी बातें सुन लेती है । मेरे घर में रह कर मेरे ऊपर ही अविश्वास  करते   हो , एक दिन भी नहीं रुकने दूँगी . और उन्हें एअर टिकट देकर भारत भेज दिया । विश्व  यात्राओं के रंगीन सपने की जगह रहने के लिए घर और जीवन यापन की समस्याएँ उनके मुँहहॅं बाए  खड़ी थी।

इंग्लैंड में बसे गोलू के चाचा , दादी की बरसी पर आए; लेकिन चाची और बच्चे परीक्षा का बहाना बना कर वहीँ  रह गए। वे आए, तो अपना मोतियाबिंद का ऑपरेशन  भी करवा लिया, जो काम यहाँ  4 हजार रुपए में हो गया, वहाँ  चार हजार पौंड में होता , चाचू ने इस मौके को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । (अवमूल्यन -अजय गोयल) समझौता (रविन्द्रकान्त) में कम्पनी के ग्लोबल ऑफिस  की इंटीरीयर डेकोरेशन में कम्पनी मालिक के पिता की तस्वीर नहीं रख सकती ।

‘‘मै पिता के सामान के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता ।कोई बात नहीं सर सम्मान आपके घर पहुँचा देते है।

शील  कौशिक  अपनी लघुकथा ‘’हवा के विरुद्ध’  में बताने की कोशिश  करती है कि कुछ लोग हैं, देश , परिवार और भावनाओं की कद्र करते है। मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर बेटा -बहू वापस भारत आने की कह रहे थे। माँ  समझा रही थी बेटा हमारी तरफ से कोई बंधन मत समझना, कल तुम्हारे दिमाग में यह बात आए कि बड़े बेटे को तो अमेरिका सेटेल कर दिया और हमें यहाँ ……….‘हमने आपसे और अपने शहर की मिट्टी से जो पाया है उसे लौटाने की बारी है। वे भारत लौट आते हैं और माता -पिता के साथ रहते हैं।

‘महानगर की डायरी’ मे अंतरा करवडे लिखती हैं- आज परिवार को पति- पत्नी और संतान तक सीमित कर दिया है ।दादा -दादी जैसे परिवार का हिस्सा ही नहीं हो, साथ रहते हुए भी अलग है। पीढ़ियों के अंतराल में जीवन शैली का अंतर साफ झलकता है और उससे उत्पन्न सामंजस्य की समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं. भूमंडल के स्वामी (उमेश  महादोषी) पूरे विश्व से मेधावी व्यक्तियों  को उंचे पेकेज देकर रख लेते है। और काम के अच्छे अवसर प्रदान करते हैं।

संचार के अन्य साधनों जैसे फोन , मोबाइल, टीं.वी. , डीवीडी इत्यादि को लेकर भी लेखकों ने लघुकथाएँ रची है । ‘ब्लैंक कॉल  (हरमनजीत) से परेशान है परिवार के वरिष्ठ जन। लेकिन लड़के -लड़कियाँ  ब्लैंक कॉल का इंतजार ही करते है। लड़के तो लड़के, लड़कियाँ  भी बिगड़ी हुई हैं। टाइम पास के लिए बस मर्दों से ही बातें करती हैं। ‘स्वागत (श्याम सुदंर दीप्ति) कोरपोरेट ऑफिस में काम करने वाली महिला कर्मचारी को भद्दे एसएमएस भेजे जाते हैं।

वैश्वीकरण के दौर में इलेक्ट्रोनिक मिडिया के विभिन्न चैनलों की आपसी प्रतियोगिता और टीआरपी बढ़ाने के लिए खबरों को सनसनीखेज बना देते हैं किसी भी त्रासदी को ‘उत्सव’ (श्याम  सुदंर अग्रवाल) बना देने की कीमिया भी उन्हीं मीडिया वालों की देन है वे अपने सामाजिक दायित्व को भूल कर लाभ पर ही केन्द्रित होते है।

म्यूजिक एलबम के दृश्य में निर्माता का बालक हिरोइन के स्कर्ट को ऊँचा कर जंघा पर लगे टेटू को देखना चाहता है । निर्माता का मानना है कि उसमें अश्लील  कुछ भी नहीं है। वही बालक जब सो रही अपनी माँ का जंघा स्पर्श  कर कहता है -ममा आपका टैटू कहाँ है ।मुझे देखना है तब पति -पत्नी के होश  उड़ जाते हैं। कमाने के लिए इन जिन मूल्यों की रचना करते है। जब वे ही अपने पर उलट कर लौटते हैं तब हमें कैसा लगता है यही दिखाया है नरेन्द्र कौर छाबड़ा की लघुकथा ‘असर’ में।

मीडिया की संवेदनशीलता (हरीश चंद्र वर्णवाल) पर यह कथा व्यंग्य  करती है। पोप जॉन पौल द्धितीय बीमार चल रहे थे, कभी भी भगवान को प्यारे हो सकते है। न्यूज चैनल के लिए यह बड़ी खबर होगी । पोप पर कुछ अच्छे पैकेज पहले से बनाकर रखे जाएँ पैकेज तैयार भी हो गए ;लेकिन पोप मरने का नाम ही नहीं ले रहे फिर एक दिन वे चल बसे आफिस पहुँचा, तब तक तो कई स्टोरी चल चुकी थी। ‘यही तो एक पत्रकार की संवेदनशीलता है।’

भूमंडलीकरण के दौर में प्रतियोगिता मूल मंत्र है हम प्रतियोगिता की जगह सहयोग को मूल्य क्यों नहीं देते?  प्रतियोगिता शीर्ष पर कुछ लोगों को पहुँचाएगी जबकि सहयोग सभी के लिए फायदेमंद रहेगा। इस प्रतियोगिता में बाजी मारने के लिए स्त्री का भरपूर उपयोग हो रहा है ‘बाजार (अरुणकुमार) में दो पीसीओ की दुकानों की प्रतियोगिता को दर्शाया  गया है एक में उसकी सुन्दर बेटी काउंटर पर बैठी है, तो दूसरे पर उसकी पत्नी मनमोहक मुस्कान बिखेर कर ग्राहकों का स्वागत कर रही है।

यही बात सतीश  दुबे ‘माँ  का धर्म’  में कहते हैं मार्केटिंग सेन्टर युवतियों को घर-घर सेलेरी कम कमीशन बेसिस  पर वाशिंग  पाउडर बेचने के लिए नियुक्त कर अपना व्यापार बढ़ाना चाहते हैं ;लेकिन माँ  की  अपनी चिंता है। वह तुरंत नौकरी छुड़वा देती है।

‘खुशफहमी’ (हसन जमाल) इसी प्रतियोगिता दौड़ को दर्शाया  है। ‘क्यों भाई तुम इस कदर तेजी से कहाँ  भागे जा रहे हो? क्या तुझ पर कोई विपदा आन पड़ी है’।

‘जानते नहीं जमाना कितनी तेजी से भाग रहा है’ तुम्हारे आगे कोई नहीं है ।

‘मैं सबसे आगे निकल आया हूँ’ ।

‘लेकिन आपके पीछे भी कोई नहीं है’।

‘क्या सब इतने पीछे रह गए , उफ बेचारे !

यही थीम ‘’अंधी दौड़ (भगीरथ) की है एक बहुत बड़ी भूल  भूलैया है ….. वे भागते है , बेतहाशा  , वे दौड़ते हैं अंधे कोने से टकराते हैं , लहूलूहान होते हैं लेकिन दौड़ जारी है ।

‘क्या हम इस अंधी दौड़ में भागने के बजाय इस भूल -भूलैया को नहीं तोड़ देना चाहिए। एक ने कहा।

‘क्या ऐसा हो सकता है? लेकिन दौड़ फिर भी जारी रहती है।

इस दौड़ पर अमर गोस्वामी भी अपनी कथा ‘हायमालिक’ में प्रश्न  चिह्न लगाते हैं। उसने नोट कमाया , डालर कमाया , पौंड कमाया, बदनामी कमाई और प्रतिष्ठित हुआ .‘स्वीस बैंक में धन जमा करवाया । स्वार्थ की विशाल वेदी के सामने बैठकर अपनी संवेदना , कोमल भावना , परमार्थ साधना सब को स्याह करते हुए कारोबार के नये क्षितिज ढूँढ निकालने के लिए नेताओं , अफसरो और माफिया के आगे पलक-पाँवडे बिछाते -बिछाते एक दिन चल बसे। दरबान कहते हैं- हाय मालिक ! क्या इसी दिन के लिए इतना दंद -फंद किया था । मरना तो तुम्हें इन गरीबों की तरह ही पड़ा।

 

छोटे प्रतियोगिताओं को बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ  प्रतियोगिता से बाहर कर देती है ( भूंमडलीकरण – आनंद)

जब से स्त्रियों को उच्च शिक्षा और ऊंचे पेकेज पर नौकरियाँ  उपलब्ध होने लगी है, लिव इन रिलेशनशिप का चलन चलने लगा है , जहाँ  युवक -युवती बिना शादी के एक ही घर को शेयर करते है। पति -पत्नी की तरह । विवाह और परिवार की संस्था पर प्रश्न  चिह्न लग रहे हैं और हमारे परिवार के लोगों की चिंताएँ साफ झलक पड़ती हैं । तारीख असलम तस्मीन की कथा ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में कविता और आर्मन इसी रिलेशनशिप में थे । आर्यन अमेरिका चला गया और फिर उसने पलटकर नहीं देखा , कविता के पाँव तले की गायब हो गई ,तब साहिल ने हाथ थामने की बात की। लगा जिंदगी फिर पटरी पर आ गई है एक रात लेट नाइट ड्यूटी करके आई ,तो देखा साहिल गलफ्रेंड के साथ मस्तियों में डूबा है। वह अपसेट हो गई । साहिल आश्वस्त  करता है कि साथ रहते हैं और सदा रहेंगे; किंतु किसी के निजी मामलों और सम्बन्धों में दखल नहीं देंगें। उसे लगता है मेरिज तो घरवालों की मर्जी से ही ठीक है। ‘वजूद की तलाश’  (सतीश राज पुष्करणा) में मंदिरा अपने फ्रेंड के साथ 10-12 वर्षो से लिव इन रिलेशनशिप में रह रही थी। अब वह माँ  बनना चाहती है ।उसके पहले वह उससे विवाह करना चाहती है ;लेकिन वह तैयार नहीं होता बस ऐसे ही स्वंतत्र बिंदास जिंदगी जिओ। वह सिंगल मदर नहीं रहना चाहती, कोई तो हो जो जिम्मेदारियों को शेयर कर सके।

बाजार हमारे लिए ‘खुशियों  की सौगात’  (सतीश  कुमार) लाया है , सजे -धजे चमचमाते बाजार हमारे आकर्षण का केन्द्र है , हम ललचाई आँखों से देखते है , अभावग्रस्त पति अपनी पत्नी को बाजार ले जाने से डरता हैं कि कहीं पत्नी साड़ी वगैरह लेने के लिए न कह दें। पत्नी घर की स्थिति समझती है ;लेकिन बाजार की रौनक देखने भर से खुशी मिलती है ,जिसका कोई मोल नहीं ।

फ्री चिप्स (पी. के. राय) कथा मार्कंटिंग टेकनीक पर आधारित है। पोस्टर -बैनरों से लैस कंपनी की प्रचार गाड़ी के इर्द गिर्द एक ही रंग के कपड़ों में सजी-धजी युवतियाँ  डांस कर रही थी । एनांउंसर कह रहा था एक स्लिप पर अपना नाम, पता, कॉन्टेक्ट नम्बर वगैरह भरिए और ले जाइए फ्री चिप्स का पैकेट । अगले ही दिन मोबाइल पर कॉल  आता है ‘मै फला इंश्योरेंस  से बोल रही हूँ  और विभिन्न स्कीमों के बारे में बताती है । दूसरा कॉल  कोंग्रेचुलेशन  आप हमारे लकी ड्रा में चुने गये हैं मार्केट आपको  फाँसने की पूरी तैयारी में है।

बाजार आपको लुभाता है , खरीदने को पैसा नहीं है , कोई बात नहीं क्रेडिट कार्ड तो है , क्रेडिट कार्ड का मकड़जाल व्यक्ति को कर्ज में डूबा कर ‘मकड़ी’ की (सुभाष नीरव)  तरह चूस लेता है।

बाजार क्रांतिकारियों तक का बाजारीकरण कर देता है मॉल में ग्राहकों की भीड़ मक्खियों की तरह भिनभिना रही थी एक लड़का टीशर्ट पहने जिस पर चे का चेहरा छपा था, को देखकर उसकी गर्लफ्रेंड बोली वाउ नाइज  लेकिन ये है कौन, हालीवुड स्टार , लड़का बोला ‘आई डॉन्ट नो बेब , मे बी सम रॉकस्टार। ‘सॉरी डियर चे’ (महेश शर्मा)

नौकरियों में हायर -फायर के सिस्टम में व्यक्ति असुरक्षित और भयग्रस्त जीवन जी रहा है। ‘कवच कुण्डल’ (जसवीर चावला ) में मैंनेजर कर्मचारी को नौकरी से अलग करने का फैसला सुनाते हुए कहते हैं ‘आप सोने के कुडंल है , पर कम्पनी को चुभ रहे हैं। कान में पहनना मुश्किल  है, उतार देना होगा तुरंत ही , मेरे कुछ कहने -सुनने के पहले ही लिफाफा पकडाते हुए मैनेजर ने अपना दायाँ  हाथ मिलाने को बढ़ा दिया । कर्मचारी सोच रहा था, यदि कुंडल एक दूसरे को पकड़ ले तो गेट पर कवच -सी मजबूत दीवार बन सकते है।

लाइफ स्टाइल को बदलने की पूरी तैयारी में है भूमंडलीकरण। कसौटी (सुकेश  साहनी)  में प्रोफशन के अलावा पर्सेनेलिटी टेस्ट के नाम पर इस तरह इस तरह के प्रश्न  पूछे जाते हैं ? विवाहित है  बॉस के साथ सप्ताह से अधिक घर से बाहर रही है, बॉस के मित्रों को ड्रिंक सर्व किया है फ्रेंड्स  के साथ डेटिंग पर गए , चैटिंग करती है, एडल्ट हाट रूम में  जाती है , चैंटिग के दौरान वेब कैमरे के सामने खुद को एक्सपोज किया है।

गरीब घरों के बच्चे भी ‘भूमंडलीकरण (श्रीनाथ) के इस दौर में मॉडल बनने के सपने संजोय रहे है, वे ही घर की जरूरतों की बजाय अपनी दुनिया  में रचे बसे हैं।

हालांकि वैश्वीकरण ने विकासशील देशों की खेती को चौपट  कर दिया है। लेकिन उनसे संबधित रचनाएँ हिन्दी लघुकथा साहित्य में उपलब्ध नहीं है

अबीज (पूरण मुद्गल) में किसान गेहूँ के जीएमएस सीड का उपयोग करता है ।गेहूँ की बाली में बीज फट जाता है ,ताकि इसे बीज के उपयोग में नहीं  लिया जा सके तथा हर बार किसान को नया बीज खरीदना पड़ेगा । पारंपरिक बीज की विभिन्न जातियाँ  अब लुप्त प्राय हो गई हैं। जो कई सदियों से भारत की जलवायु के अनुकूल खेती में उपयोग की जाती थी।

हिन्दी लघुकथा साहित्य ने भूमंडलीकरण के मात्र कुछ आयामों को छुआ भर ही है।इसके विशाल प्रभाव क्षेत्र को समेटने में लघुकथा लेखकों को अपना ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है । भूंमडलीकरण विकास और उच्च आर्थिक वृद्धि दर के नाम पर नई -नई समस्याएँ पैदा कर रहा है उन्हें भी उकेरने की आवश्यकता है। यह एक ऐसा पिरामिड खड़ा कर रहा है। जिसके शीर्ष पर बैठे बीस प्रतिशत लोग आधार पर पड़े 80 प्रतिशत लोगों के लिए जीवन जीने के समुचित साधन उपलब्ध नहीं होने देते । भूमंडलीकरण का मानवीय चेहरा बेनकाब होता जा रहा है। और नीचे के स्तरों पर ट्रिकल डाउन की थ्योरी सफल होती नहीं दिख रही है। ऐसे में नई राहों का अन्वेषण भी जरूरी है।

लघुकथा में लोक मांगलिक चेतना होना जरूरी है

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CHARCHA MEN डॉक्टर रमेश चंद्र की लघुकथाएँ सादगी से भरी हुई है। जैसा उनका सहज जीवन है, वैसी ही उनकी लघुकथाएँ हैं ।उनका जीवन उनकी लघुकथाओं में प्रतिबिंबित होता है। उनकी लघुकथाएं जनपक्षधर हैं ,और लघुकथा में लोक मांगलिक चेतना होना जरूरी है। उसी से जन जागृति आती है। यह बात वरिष्ठ कथाकार सूर्यकांत नागर ने ‘क्षितिज’ संस्था द्वारा आयोजित डॉक्टर रमेश चंद्र के लघुकथा संग्रह ‘ मौत में जिंदगी ‘ के लोकार्पण प्रसंग पर, अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहीं। उन्होंने यह भी कहा कि, लघुकथा को किसी नियमावली में नहीं बाँधा जा सकता। शिल्प के स्तर पर निरंतर प्रयोग हो रहे हैं, और प्रयोग से ही प्रगति होती है।

कार्यक्रम के अतिथि के रुप में खंडवा से पधारे कवि डॉक्टर प्रताप राव कदम ने पुस्तक की लघुकथाओं के शिल्प की तारीफ की, और कुछ महत्त्वपूर्ण लघुकथाओं का ज़िक्र भी किया । डॉक्टर पुरुषोत्तम दुबे ने कहा कि, इन लघुकथाओं में प्रतीकात्मक स्तर पर कई बातें कही गई हैं, और पौराणिक व्यंजनाओं का सशक्त इस्तेमाल किया गया है। उन्होंने’ कबीर का फाइव स्टार होटल ‘ लघुकथा की विवेचना की। डॉक्टर योगेंद्रनाथ शुक्ल ने पुस्तक पर चर्चा करने के साथ ही उन साहित्यिक षड्यंत्रों का जिक्र किया, जो प्रेमचंद को साहित्य से खारिज करने की बात करते हैं । उन्होंने कहा कि आज के लेखकों ने अपनी लाइन बड़ी करने के लिए इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए। पुस्तक पर समीक्षा आलेख में कवि ब्रजेश कानूनगो ने कहा कि, रमेश जी सचमुच मानवीय रिश्तों और मानवीय प्रवृत्तियों से संवेदित होकर सरल रुप से अपनी अनुभूतियों को लघुकथा का स्वरूप देते हैं। उन्होंने कहा कि लेखक एक व्यंग्यकार भी है और जब एक व्यंग्य दृष्टि सम्पन्न लेखक किसी अन्य विधा में अपनी बात कहता है तो वहां भी व्यंग्य के उपस्थित होने की अपेक्षा पाठक को हो जाती है।श्रीमती ज्योति जैन ने लघुकथाओं को सांकेतिक बताते हुए कहा कि, वह कम शब्दों में पुरअसर तरीके से अपनी बात कहती है ।उनकी दो रुपए तथा पेड़ औऱ मनुष्य लघुकथाओं का ज़िक्र करते हुए कहा कि इनमें सांकेतिक माध्यमों का उपयोग किया गया है। डॉ रमेशचंद्र ने अपनी लघुकथाओं का वाचन किया । पुस्तक का लोकार्पण भी किया गया।

कार्यक्रम का संचालन सतीश राठी ने किया ।  कार्यक्रम में सर्वश्री राकेश शर्मा संपादक वीणा, सुरेश उपाध्याय, प्रदीप मिश्र, रजनी रमण शर्मा, हरेराम वाजपेई ,तीरथ सिंह खरबंदा, अशोक शर्मा ,कविता वर्मा ,अश्विनी कुमार दुबे अंतरा करवड़े आदि कई साहित्यकार उपस्थित थे । उज्जैन से साहित्य मंथन संस्था के साहित्यकार रमेश चन्द्र शर्मा एवं मित्रगण भी इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आए थे।

प्रस्तुति- सूर्यकांत नागर

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