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कमल चोपड़ा की 66 लघुकथाएँ

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     चोपड़ा                                                                     

कमल  चोपड़ा की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल : सम्पादक -मधुदीप,पृष्ठ ; 272, मूल्य : मूल्य: 500 रुपये , संस्करण : 2016,प्रकाशक : दिशा प्रकाशन,138/ 16, त्रिनगर, दिल्ली-110035


सतीशराज पुष्करणा जी की लघुकथाएँ

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हम सबने एक कहावत बहुत बार सुनी होगी-देखन में छोटी लगे, घाव करे गम्भीर- अगर मैं कहूँ कि यह कहावत एक अलग ही अर्थ में लघुकथा की विधा पर बिल्कुल सटीक बैठती है, तो शायद मेरी बात से आप सब भी इत्तेफ़ाक़ रखेंगे। अपने शिल्प और गठन में लघुकथा अपने नाम के अनुरूप भले ही छोटी होती हो, पर कथ्य और भाषा के साथ-साथ पाठकों पर अपना प्रभाव छोड़ने के मामले में यह भी किसी कहानी या उपन्यास सरीखी वृहद कलेवर वाली रचना से उन्नीस नहीं साबित होगी…बस शर्त यह है कि इस विधा को अपनाने वाला इसके सृजन में किसी प्रकार का समझौता या भेदभाव न रखे।

लघुकथा जितनी सशक्त विधा है, उतना ही अपने अस्तित्व के लिए इसे बीच-बीच में संघर्ष भी करते रहना पड़ा है। इसके विरोध में स्वर उठाने वालों ने न केवल इसे छोटीकहानी का नाम दिया, बल्कि इसे कहानी का ही एक कटा-छँटा रूप साबित करने की पुरज़ोर कोशिश की गई। उनके अनुसार लघुकथा लेखकों में धैर्य का अभाव है और अपनी बात को विस्तार से कह पाने की क्षमता में कमी, जिसकी वजह से शीघ्र नाम कमाने की लालसा में लघुकथा सृजन किया जाता है। परन्तु विरोध करने वाले लाख विरोध करते रहें, इसके समर्थकों और साधना में जुटे साहित्यकारों ने हर स्थिति में लघुकथा के उत्थान के लिए अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए इस विधा में अपना रचनाकर्म नहीं छोड़ा।

सच तो यह है कि लघुकथा खुद में एक स्वतन्त्र विधा है। इसमें संवेदना है, साहस है, वैचित्र्य है। एक सशक्त लघुकथा चन्द शब्दों में ही अपने पाठकों में विभिन्न भावनाओं का संचार कर देती है। लघुकथा पढ़ते समय कभी वह आह्लादित होता है, कभी विचलित, कभी किसी पात्र या स्थिति के प्रति घृणा और जुगुप्सा से भी भर उठता है तो कभी उसमें एक तीव्र आत्मविश्वास जाग्रत हो जाता है। हाँ, यह ज़रूर है कि कुछेक ऐसे भी लोग इस क्षेत्र में आए ,जिन्होंने लघुकथा के नाम पर महज फ़िकरेबाज़ी को तरज़ीह देते हुए चुटकुलों या लतीफ़ों को ही लघुकथा बनाकर प्रस्तुत कर दिया। इससे लघुकथा की विश्वसनीयता पर कई तरह के प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। लघुकथा के नाम पर चुटकुले या लतीफ़े परोसने वाले लोग यह नहीं समझ सकते कि लघुकथा का फ़लक इनसे कहीं अधिक विस्तृत और व्यापक है। लतीफ़े गुदगुदाते हैं, जब कि लघुकथा झकझोर डालती है। कुछेक विद्वानों का मानना है कि लघुकथा अनादिकाल से अपने एक अलग ही रूप में हमारे बीच मौजूद रही है-पंचतन्त्र, हितोपदेश, कथा-सरित्सागर और जातक कथाओं के रूप में; जिनके माध्यम से हमारे पूर्वज अपने संस्कार आगे की पीढ़ी में रोपते थे।

इसकी जड़ें भले ही अतीत में रही हों, लेकिन इसका आज का स्वरूप इसकी अपनी स्वतन्त्रा पहचान है, कुछ कहानीकारों को जो लघुकथा लिखने में सक्षम नहीं को छोड़कर लघुकथा की स्वतन्त्रा पहचान से असहमति हो सकती है

वर्तमान समय में हमारे बीच कई ऐसे साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने पूरी लगन और समर्पण के साथ इस विधा के उत्थान में अपना योगदान दिया है। कुछ प्रबुद्ध लेखकों के नाम मुझे याद आ रहे हैं, जिन्होंने इस विधा को अपने सशक्त कलम से सजाया-सँवारा। जिनमें मुख्य रूप से डॉ. शंकर पुणतांबेकर, विक्रम सोनी, सतीशराजपुष्करणा,सुकेशसाहनी ,बलराम, प्रेम गुप्ता ‘मानी,रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’,कमल चोपड़ा, रूप देवगुण, बलराम अग्रवाल, पृथ्वीराज अरोड़ा, सतीश राठी, राजकुमार गौतम, हीरालाल नागर, शराफ़त अली खान, उर्मि कृष्ण,आदि के नाम मुझे याद आ रहे। हालाँकि इनमें से कुछ साहित्यकारों ने साहित्य की अन्य विधाओं में भी बहुत उल्लेखनीय कार्य किया है, परन्तु इससे इनका लघुकथा के प्रति इनकी संलिप्तता को नकारा नहीं जा सकता।

वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में श्री सतीशराज पुष्करणा जी एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी साहित्य की इस विधा की साधना में लगा दी और इसको एक नई ऊँचाई तक पहुँचाया। उनकी अनेकानेक लघुकथाओं में से मेरे सामने कुछ लघुकथाएँ हैं, जिन्हें मैने अपनी अल्प-बुद्धि से समझ कर उन पर कुछ शब्द लिखने का चुनौतीपूर्ण कार्य करने का साहस किया है। आशा करती हूँ कि अपने गुरुजनों के आशीर्वाद से मैं इस कार्य में थोड़ा-बहुत सफ़ल हुई हूँगी।

हम सब इंसान होने के नाते अनगिनत इंसानी दुर्बलताओं से समय-समय पर ग्रसित होते रहते हैं। कभी उन पर विजय पा लेते हैं तो कभी-कभी उनके हाथों पराजित भी हो जाते हैं। पर इंसान होने की सार्थकता तो इसी बात से है कि हम उन दुर्बलताओं के लिए समय रहते चेत जाएँ और उन पर काबू पा लें। ऐसी ही कुछ मानसिक दुर्बलताओं के उभरने और वक़्त रहते चेत कर उन पर सफ़लतापूर्वक विजय प्राप्त करने की अलग-अलग घटनाएँ पुष्करणा जी की कई लघुकथाओं में हमारे सामने अपनी पूरी सार्थकता से प्रस्तुत होती हैं; जैसे- जैसे-‘आग’ शीर्षक लघुकथा में लगभग अध्ेड़ावस्था को पहुँच चुकी एक एक कुँवारी महिला अपने से कई बरस छोटे घर के नौकर के प्रति ही मन में दैहिक खिंचाव महसूस करती है, परन्तु इससे पहले कि वह अधमता की गर्त में गिरे, खुद को सम्हाल लेती है। हालाँकि इस लघुकथा के अन्त में उस महिला का अपने नौकर को दूसरे ही दिन निकाल देने का निर्णय कहीं-न-कहीं उसकी मानसिक इच्छाशक्ति की कमज़ोरी को दर्शा जाता है। इस लघुकथा को पढ़कर पाठक यह भी अन्दाज़ा लगा सकता है कि वह महिला एक बार तो सम्हल गई, पर सम्भवतः भविष्य में वह अपने को न सम्हाल सके।

मन के साँप- लघुकथा भी कुछ ऐसी ही कथा के इर्द-गिर्द बुनी गई है, बस फ़र्क इतना है कि ‘आग’ में एक अविवाहित युवतीका भटकाव है तो इसमें पत्नी के मायके जाने पर एक पुरुष का अपनी नौकरानी के लिए ग़लत भाव आने के बावजूद समय रहते चेत जाने का ज़िक्र हुआ है। ‘आग’ के विपरीत इस लघुकथा का पात्र मुझे ज़्यादा दृढ़ इच्छा शक्तिवाला लगा, क्योंकि वह नौकरानी से अपने कमरे का दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लेने  की ताक़ीद करता है। इससे पाठक के समक्ष एक बात तो पूरी तौर से स्पष्ट हो जाती है कि उसके मन में जो भी दुर्भावना उठी, वह क्षणिक थी और भविष्य में ऐसी किसी परिस्थिति के आने पर वह पहले ही सम्हल जाएगा।

‘मृगतृष्णा’ के मुख्य पात्र एक विधुर अधेड़ है जो अनजाने ही अपने बेटे के लिए आए एक रिश्ते के लिए खुद को ‘लेकर सपने सजा लेते हैं, परन्तु वस्तुस्थिति ज्ञात होते ही सम्हल जाते हैं।

“वह तो ठीक है, पर ज़रा लड़के से भी तो पूछ लो कि उसे कहीं कोई एतराज़ तो नहीं होगा? या फिर…।”

बात को बीच में ही काटते हुए बोले,”अरे! लड़के से क्या पूछना। मरजी मेरी चलेगी या उसकी? बाप मैं हूँ या वह?”

“नहीं यार! फिर भी जिसे जीवन गुज़ारना है, उसकी राय जानना तो बहुत ही ज़रूरी है।”

इतना सुनते ही उन्हें लगा जैसे घड़ों ठण्डा पानी पड़ गया हो और वह दिवा-स्वप्नों की दुनिया से बाहर आ गए।

उपर्युक्त लघुकथा अपने अन्दर एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी समेटे हुए है। एक पुरुष का मनोविज्ञान, जो आमतौर पर एक स्त्राी की मानसिकता से नितान्त भिन्न होता है। एक तरपफ विध्वा हो जाने के पश्चात् सारा जीवन अकेले गुज़ार लेने वाली प्रायः स्त्रिायाँ आमतौर पर अपने पुनर्विवाह की बात करना तो दूर, उसकी कल्पना से भी खुद को दूर रखती हैं, वहीं एक पुरुष अक्सर समान परिस्थितियों में भी अपने पुत्रा की बजाय पहले अपने विवाह की तैयारी शुरू कर देता है।

समस्त पुरुष जाति का प्रतिनिध्त्वि करते शीर्षक के साथ पुष्करणा जी ने ‘पुरुष’ में एक पुरुष के मन की स्वाभाविक चंचलता को इंगित किया है, जो महज दो स्त्रिायों का वार्त्तालाप सुनकर, बिना उन्हें देखे ही उनकी ओर एक अजीब किन्तु सहज आकर्षण महसूस करने लगता है, परन्तु जैसे ही उनमें से एक युवती उसे ‘अंकल’ कहकर सम्बोध्ति करती है, उसे अपनी अवस्था का अहसास होता है और वह बिलकुल शान्त हो जाता है। इस तरह के क्षणिक भटकाव से बहुत सारे पुरुष कभी-न-कभी दो-चार होते हैं, परन्तु ये उनके अन्दर का मर्यादित आत्मबोध् ही होता है, जो वक़्त रहते उन्हें सम्हाल लेता है। इस तरह की परिस्थितियाँ कोई मनोविकार नहीं, बल्कि बहुत सहज-स्वाभाविक मानसिक स्थिति यानी मनोविज्ञान को प्रस्तुत करती हैं।

इन लघुकथाओं के अतिरिक्त इसी तरह के किसी भटकाव और नियन्त्रण को लेकर दो और लघुकथाएँ भी मेरी नज़रों से गुज़री, यथा- अंतश्चेतना, और अमानत का बोध।

हमारे समाज में परिवार का एक बहुत अहम स्थान है, और यह परिवार बनता है पति-पत्नी से…उनसे ही जुड़े अन्य रिश्तों से…। पति-पत्नी के बीच अक्सर विभिन्न मुद्दों पर मतभेद हो जाने के बावजूद उसके मूल में जो आपसी सामंजस्य, प्रेम और दायित्व-निर्वाह की एक कोमल और मीठी-सी भावना होती है, उसकी भी बड़ी खूबसूरत अभिव्यक्ति पुष्करणा जी की कई लघुकथाओं में हुई है, जैसे- आत्मिक बन्धन, जीवन-संघर्ष, बीती विभावरी, मन के अक्स, अपनी-अपनी विवशता, निष्ठा, झूठा अहम, स्वभाव, आकांक्षा ।

इस श्रेणी में पुष्करणा जी की एक लघुकथा ने विशेष रूप से मुझे प्रभावित किया, वह है ‘विश्वास’शीर्षक लघुकथा, जिसमें एक पत्नी का अपने पति के प्रेम पर इतना अटूट विश्वास होता है कि जब उसकी बीमारी से मानसिक रूप से बेहद दुःखी होकर उसका पति उसे दवा के नाम पर ज़हर देने चलता है, तो पत्नी बेहद निश्चिन्तता से ये बात उस पर ज़ाहिर कर देती है कि अगर वो कभी उसे ज़हर भी देगा, तो वो भी वह बेहद खुशी से ग्रहण कर लेगी। पत्नी का अपने ऊपर ऐसा विश्वास देखकर पति को तुरन्त अपनी सम्भावित ग़लती का बोध होता है और वह एक जघन्य कृत्य करने से बच जाता है। आप भी देखिए ज़रा:-

इससे तो अच्छा है-पत्नी को जीवन से ही मुक्त कर दिया जाए। और उसने ज़हर की एक शीशी खरीद ली ।

घर पहुँचा। पत्नी ने लेटे-लेटे मुस्करा कर पूछा,”आ गए?”

“हाँ।” वह बोला,”तुम दवा ले लो।”

“इतनी दवाइयाँ रखी हैं, किसी से भी कुछ लाभ तो नहीं हुआ। मैं नहीं खाऊँगी अब कोई भी दवा।”

पति बोला,”आज मैं तुम्हारे लिए बहुत अच्छी दवा लाया हूँ। इससे तुम अच्छी हो जाओगी ।”

पत्नी पुनः मुस्करई,”तुम नहीं मानोगे। अच्छा लाओ! अब तुम मुझे ज़हर भी दे दो, तो पी लूँगी।”

उसी क्षण पति के हाथ से शीशी छूट कर ज़मीन पर गिर कर चूर-चूर हो गई।

आज हम युवा पीढ़ी को अक्सर उसकी संवेदनहीनता के लिए कोसते हैं। माँ-बाप या अन्य रिश्तों के प्रति इनमें पनप रहे तिरस्कार का वर्णन आज के साहित्य में बहुत प्रचुरता से होता है। ऐसे में बच्चों में माता-पिता के प्रति कर्तव्य-बोध और प्रेम-सम्मान को दर्शाती लघुकथाएँ किसी शीतल, सुगन्धित बयार की तरह मन प्रफ़ुल्लित कर देती है। पुष्करणा जी की इतनी सारी बेहतरीन लघुकथाओं में से इस श्रेणी के अन्तर्गत मुझे दो लघुकथाएँ नज़र आई; यथा-भविष्य निधि, और जीवन ।

‘जीवन’शीर्षकलघुकथामेंबेटियोंकोबेटोंसेकमतरनमानिए, ऐसे एक सन्देश के छुपे होने का भी अहसास मुझे हुआ। बस एक बात खुद भी एक बेटी होने के नाते मुझे खली, कि इसमें किसी बेटी को बेटा समझ कर पालने-पोसने की बात कही गई है। अपने आसपास यह बात हम लोग अक्सर बहुत सामान्य रूप से सुनते और कहते रहते हैं, परन्तु मुझे लगता है कि बेटी को ‘बेटी’ समझकर ही पालना चाहिए…बस उसे दिए जाने वाले अवसर किसी बेटे से कमतर नहों, फिर वो बेटी अपने माता-पिता को किसी ‘बेटे-सा’अहसासनहींकराएगी, बल्कि एक संतान द्वारा माँ-बाप के प्रति निभाए जाने वाले फ़र्ज़ को पूरा करने वाली सिर्फ़ एक औलाद होगी।

“कमाल कर दिया पापा ! आप जब हमें बेटा समझ कर ही पाल-पोस एवं पढ़ा-लिखा रहे हैं तो यक़ीन रखिए…आप निश्चिन्त हो जाइए।” प्रेरणा ने अपने माता-पिता के दुःख पर आशा का फ़ाहा रखा।

“हाँ पापा! दीदी ठीक कह रही हैं। आज लड़का-लड़की में अंतर नहीं है, बल्कि लड़कियाँ लड़कों से अधिक अपने दायित्व को समझती हैं…”

फ्भविष्यनिध्य िमें बूढ़े माँ-बाप की सेवा करते हुए बेटे को अहसास होता है कि कभी उसका भी ऐसा ही वक़्त आएगा,

‘भविष्य-निधि’में बूढ़े माँ-बाप की सेवा करते हुए बेटे को अहसास होता है कि कभी उसका भी ऐसा ही वक़्त आएगा,

जब उसे अपने बच्चों के सहारे और सेवा की ज़रूरत पड़ेगी। वह सोचता है कि यदि वह अभी से अपने बच्चों में ऐसे अच्छे संस्कार रोपेगा, तो उसका खुद का ही भविष्य सुरक्षित होगा।

रिश्ते भी अपने हर रंग-रूप में हमारे आसपास बिखरे होते हैं, कभी कुछ खट्टे, तो कभी कुछ मीठे से…। ऐसे ही खट्टे-मीठे से कुछ रिश्तों की कहानियाँ बुनी गई हैं इन कुछेक लघुकथाओं में- भँवर, जिसमें कुछ मीठे हो सकते रिश्तों के दरमियाँ पनप रही तल्खी है…।

‘समन्वय’ शीर्षक लघुकथा में सिर्फ़ एक ज़िन्दगी ही नहीं, बल्कि सात जन्मों के लिए बँधने वाले शादी के पवित्र रिश्ते का फ़ैसला उससे होने वाली लाभ-हानि का आकलन करने के पश्चात लिया जाता है।

शीशा दरक गया- ऐसे दो मित्रों के आपसी रिश्ते को बयान करता है, जिसमें एक मित्र तो अवसर पड़ने पर अपने मित्र की निस्वार्थ भाव से सहायता कर देता है, पर जब उसी मित्र को मदद की आवश्यकता होती है तो दूसरा मित्र साफ़ तौर पर मना तो नहीं करता, परन्तु उस मदद की वजह से उसे किन परेशानियों का सामना करना पड़ा, यह बात साफ़ तौर पर जता देता है। लघुकथा के मध्य में ही पाठकों को उसकी इस पीड़ा का अहसास हो जाता है:-

“तुम्हें भाभी को नाराज़ करके नहीं आना था। यह मेरा काम था…मैं अकेला ही आ जाता।” बहुत दुःखी मन से उसने स्वप्निल को कहा और सोचने लगा-“स्वप्निल वे दिन भूल गया जब मैं उसके साथ सैंकड़ों बार अपने व्यवसाय, घर-द्वार की चिन्ता किए बिना दो-दो, तीन-तीन दिन उसके साथ कामों के लिए आता-जाता रहा हूँ। इसके लिए कितनी बार पत्नी ने घर में झंझट-बखेड़ा खड़ा किया। मगर मैंने स्वप्निल से कभी इसकी चर्चा तक नहीं की। क्या यह प्यार, मित्रता, समर्पण, भावात्मक लगाव…सब कुछ एकतरफ़ा ही था? क्या यह स्वार्थ नहीं है? क्या यह सम्बन्ध इकहरा नहीं है?”

इस लघुकथा के माध्यम से पुष्करणा जी ने लगभग हर पाठक के मन की किसी न किसी ऐसी याद को ज़रूर छुआ होगा, जब हम तो किसी के लिए भावात्मक रूप से कुछ महसूस करते हुए अपना फ़र्ज़ निभा देते हैं, पर वक़्त पड़ने पर वही इंसान या तो हमसे कन्नी काट लेता है या फिर अपने किए बूँद भर कार्य के लिए गागर भर अहसान जता देता है।

‘नकलीचेहरा’ शीर्षक लघुकथा में हमारे-आपके, सबके जीवन में कभी न कभी खुल कर सामने आने वाली रिश्तों की कटु सच्चाई बड़ी सटीकता से दिखाई गई है। लघुकथा के मुख्य पात्र की पत्नी कैंसर से ग्रसित होकर मृत्यु-शय्या पर पड़ी अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रही होती है और ऐसे में जब वह अपने सगे-सम्बन्धियों के पास किसी सहायता की उम्मीद में जाता है, उसे हर जगह से निराशा हाथ लगती है। पत्नी की मृत्यु के पश्चात वही सब तथाकथित अपने लोग शोक जताने आ जाते हैं।

हमारी ज़िन्दगी के इन तमाम रिश्तों की पोल सी खोलती ये लघुकथाएँ कहीं न कहीं झकझोर देती हैं।

रिश्ते सिर्फ़ खून से ही नहीं बनते। हम स्वयं भी कई रिश्ते चुनते हैं। ये मन से बँधे रिश्ते कभी क्षणिक होते हैं तो कभी जीवनपर्यन्त चलते हैं। कई रिश्तों को तो हम कोई नाम भी नहीं दे सकते, वह या तो दर्द का रिश्ता होता है या इंसानियत का।

इंसान का इंसान से तो कई रिश्ते देखते हैं हम अक्सर, पर एक इंसान और एक मूक जानवर के प्यारे से रिश्ते को दर्शाया गया है-दायित्वबोध- में ।

दो छोटे बच्चों के बीच पनपे एक मासूम से रिश्ते की दास्तान है-सबक- जिसमें दो नन्हें बच्चों के बीच खेल-खेल में हुए झगड़े के कारण दोनो के परिवारवाले आपस में बैर-भाव पाल लेते हैं, जब कि वे बच्चे सब कुछ भूलभाल कर फिर एक ही रहते हैं। इस लघुकथा में माता-पिता को अपने बच्चों से अपनी ग़लती सुधारने की शिक्षा मिलती है।

“फिर भी क्या! झगड़ा तो हम दोनो का था। और हम दोनो ने आपस में कभी बोलना तक बन्द नहीं किया। हम दोनों तो हर रोज़ उसी तरह साथ-साथ खेलते हैं। तो फिर आप बड़े, बिना किसी झगड़े के आपस में बैर-भाव क्यों रखते हैं?”

बच्चे का यह मासूम, लेकिन कितना सार्थक और सटीक सवाल क्या हम सभी को अपने नज़रिये के बारे में एक बार फिर सोचने पर मजबूर नहीं कर देती?

‘माँ’शीर्षकलघुकथामेंट्रेन यात्रा में ठण्ड से बेतरह काँपते एक युवक को जब एक अनजान वृद्धा से ओढ़ने के लिए शॉल मिलती है, तो उसे उस वृद्धा में अपनी माँ नज़र आती है।

वह लगभग चौंकते हुए उठी,”अरे! तुम तो काँप रहे हो।” और उसने झट से सिरहाने रखी अपनी बड़ी सी शॉल निकाली और बहुत ही सहजता से उसकी ओर उछाल दी।

“ले, ओढ़ ले ! काफ़ी ठण्ड है बेटा।”

उसे लगा वह वृद्धा कोई और नहीं उसकी अपनी माँ है। फिर उसके जेहन में विचार कौंधा-“माँ,…माँ ही होती है। उसका कोई एक चेहरा नहीं होता।”

‘उपहार’ शीर्षक लघुकथा में एकगुरु-शिष्य का अनमोल रिश्ता है, जिसमें एक मेधावी छात्रा रंजना को उसके कोचिंग टीचर निर्मल बाबू उसकी सारी फ़ीस लौटा देते हैं, ताकि वह आगे पढ़ सके। सिर्फ़ इस लघुकथा में ही रंजना अपने गुरु के लिए श्रद्धा से नहीं भरती, बल्कि एक पाठक का मन भी समाज में मौजूद ऐसे अध्यापकों के लिए नतमस्तक हो जाता है।

“मैने तुम्हें दस महीने पढ़ाया…दो सौ रुपए की दर से, दो हज़ार हुए…जो रुपये तुमने मुझे दिए…वही नोट ज़्यों के त्यों हैं…। मैं टीचर होने से पूर्व एक आदमी हूँ…पारिवारिक आदमी। मैने गरीबी झेली है…मैं ऐसे बच्चों का दुःख दर्द समझता हूँ…। हाँ, इन पैसों से तुम आगे भी पढ़ाई जारी रख सकती हो…।”

आत्मबल हो तो हम किसी भी परिस्थिति से निपतने, उससे साहसपूर्वक जूझ सकते हैं। कुछ ऐसी ही प्रेरक भावनाओं से ओतप्रोत लघुकथाएँ भी पुष्करणा जी की सशक्त कलम से निकली हैं। मन में ऐसा ही साहस जगाती लघुकथा है-विवशता के बावजूद- जिसमें ट्रेन में कुछ टुच्चे लोगों की अवांछनीय हरकतों को कुछ देर तक निरीहतापूर्वक बर्दाश्त करते रहने के बाद एक युवती किस प्रकार महज अपने आत्मबल के दम पर उनका सशक्त विरोध करके पूरी स्थिति ही पलट देती है, यह निःसन्देह क़ाबिले-तारीफ़ है। पीड़ित युवती में किस तरह बदलाव आता है, ये देखिए:-

धीरे धीरे उस युवती का चेहरा सख़्त होने लगा। उसके मन में यह बात आई कि मैं क्या कुत्तों से भी गई गुज़री हूँ?

यह विचार आते-आतेउसका चेहरा धीरे-धीरे तमतमा उठा और उसने आव देखा न ताव, अपनी पूरी शक्ति से उस थुलथुल व्यक्ति को ऐसा धक्का दिया कि वह बर्थ से नीचे जा गिरा। और वह दहाड़ी,”कमीने! लगता है तुम किसी इन्सान की नहीं, अन्य जीव की सन्तान हो।”

वह इस हमले के लिए तैयार नहीं था। इतने में गाड़ी में चल रहे बन्दूकधारी सिपाही भी आ गए, और उस कोच में बैठे यात्री भी सक्रिय हो उठे।

यही आत्मबल हम -बदलते प्रतिबिम्ब- के रिक्शाचालक में देखते हैं जो किसी भी हाल में अपना रिक्शा चलाने का रोजगार जारी रखने का निर्णय लेता है, तमाम विषमताओं के बावजूद…।

लौटते वक्त उसने निर्णय कर लिया था कि जब दया और विवशता की बैसाखियों पर ही ज़िंदा रहना है, तो फिर भीख मांगना ही क्या बुरा है। किन्तु सोच के इस क्रम में उसका पौरुष जाग उठा था और तत्काल लिए निर्णय के लिए उसने अपने को बहुत धिक्कारा था। सोचते-सोचते वह एकाएक चीख-सा उठा,”नहीं ! मैं दया और विवशता के सहारे नहीं चलूँगा, मैं लडूँगा, संघर्ष करूँगा…इसजीवनसे। आज के बाद मैं बिना अपना अधिकार लिए किसी को नहीं छोडूंगा ।”इस चीख के साथ ही वह एकाएक उठ कर बैठ गया था और उसकी मुट्ठियाँ स्वत: भिंच गई थी । इस समय वह अपने को एकदम हल्का महसूस कर रहा था…बिलकुल तनाव-मुक्त । उसके चेहरे पर संतोष के भाव उभर आए थे ।

‘इक्कीसवीं सदी’ शीर्षक लघुकथा में भी एक युवा इंजीनियर किस प्रकार भ्रष्टाचार से लड़ने का संकल्प लेता है, यह बहुत प्रेरणास्पद है।

अग्रज ने कहा,”देखो ! अब देश में सभी बेईमान हो गए हैं, तो तुम ईमानदार रहकर ही क्या कर लोगे !”

प्रत्युत्तर में इंजीनियर ने बहुत दृढ़ निश्चयी होते हुए कहा, “भैया ! मैं और तो कुछ नहीं कर सकता, किन्तु बेईमानी की इतनी लम्बी गिनती में कम-से-कम एक अपनी गिनती और तो नहीं जुड़ने दूँगा।”

अपना संकल्प व्यक्त करते हुए वह गौरव का अनुभव कर रहा था ।

‘भीतर की आग’ में भी सुदीप नामक पत्रकार अपने आदर्शों से समझौता किए बग़ैर भ्रष्टाचार और दबावों से जूझने का निर्णय लेता है। इस लघुकथा मेंहमलेखक के अन्दर के जुझारूपन और स्वाभिमान की भी थोड़ी सी आग देखते हैं । आज हमारा समाज इस कदर भ्रष्टाचार की दलदल में गले तक डूबा हुआ है कि जिस कलम की ताकत से बड़ी बड़ी तानाशाही का तख्ता पलटा जा सकता है, आज वही कलम चंद नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के हाथों बिक कर किस तरह बेबस कर दी जाती है। ऐसे में सुदीप के माध्यम से पुष्करणा जी ने उन मुट्ठी भर ईमानदार कलम के सिपाहियों में एक अलख जगाने की बहुत अच्छी और सराहनीय कोशिश की है।

‘दिया और तूफ़ान’ में ससुराल में प्रताड़ित होकर माँ के पास आई मेघना अपनी भीषण अस्वस्थता के बावजूद एक दिये को तेज़ हवा में संघर्ष करते देख खुद भी अपने बच्चों के लिए लड़ने का साहस अपने अंदर संजो लेती है।

-दिया जलाया ही था कि ज़ोर से हवा चलने लगी…। मेघना की दृष्टि दीये पर जाकर केन्द्रित हो गई…। वह देखने लगी कि इतनी तेज़ हवा में दीया अपना अस्तित्व बचाने हेतु किस तरह से संघर्ष कर रहा है…। उसे मानो संघर्ष का गुरू-मंत्र मिल गया हो।

हम अक्सर अपने अधिकारों के प्रति तो बहुत जागरुक रहते हैं परन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति बेहद उदासीन होते हैं। फिर चाहे वो कर्तव्य सामाजिक हों या पारिवारिक, पर जब यह उदासीनता एक सषक्त कलम के माध्यम से हमारे सामने आइना रखती है तो बहुत करारा झटका देती है।

‘ख़ुदगर्ज़’  शीर्षक लघुकथा में एक व्यक्ति अपने बच्चों पर गलत असर पड़ने के बारे में फ़िक्रमन्द होकर उनके सामने तो ध्रूमपान नहीं करता, पर वही शख़्स अपने मित्र के यहाँ उसके बच्चों की मौजूदगी में भी सिगरेट पीने के वक़्त एक बार भी नहीं सोचता कि उसके इस आचरण का उन बच्चों पर भी बुरा असर पड़ सकता है। ज़रा देखिए यह किस प्रकार हमारे सामने एक सवाल प्रस्तुत करती है-

उनकी ओर संकेत करते हुए पहले मित्र ने दूसरे को उत्तर दिया,”क्या इन बच्चों को तुम अपने बच्चों-सा नहीं समझते?”

इस उत्तर ने दूसरे को जड़-सा कर दिया।

यह लघुकथा हम सब में अचेतन में ही व्याप्त अपने-पराये की भावना को बड़ी खूबी से प्रदर्शित कर देती है।

ऐसा ही एक करारा तमाचा पड़ता है-उच्छ्लन- शीर्षक लघुकथा के माध्यम से,जिसमें आधुनिकता की अंधी दौड़ में लड़खड़ा रहे एक युवक को मानो होश तब आता है, जब वह अपनी ही बहन केसाथ किसी अन्य युवक के द्वारा वैसा ही व्यवहार करते हुए देखता है, जैसा वह खुद किसी अन्य युवती के साथ करने का इच्छुक था। इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति कुछ देर के लिए पाठक को स्तब्ध-सा करते हुए बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है…”तो क्या हुआ? मैं भी किसी की बहन हूँ, डॉर्लिंग…।”

 

अपने आसपास के जाने-अनजाने लोगों के प्रति हमारा भी कुछ नैतिक कर्तव्य होता है, पर अपने अन्दर के भय के चलते हम उनसे मुँह ही मोड़े रहते हैं। चाहे अन्दर ही अन्दर हमें कितनी भी ग्लानि क्यों न महसूस हो, पर आगे बढ़ कर असामाजिक तत्वों का विरोध करने का साहस हममें नहीं होता। कुछ ऐसी ही कहानी है- नपुंसक- की, जिसमें ट्रेन के डिब्बे में छेड़छाड़ का शिकार हुई महिला की मदद करने कोई आगे नहीं आता।

हमारे समाज में विकास करने का दावा करने वाली सरकारी योजनाएँ और कार्य की असलियत क्या होती है, इस पर से पर्दा उठाती लघुकथा है-परिभाषा- जिसमें बहुत सारे सरकारी स्कूल किस तरह बहुधा सिर्फ़ सरकारी दस्तावेज़ों पर ही चलते हैं, यह बहुत सशक्तता से दर्शाया गया है।

उन्होंने अपने रिश्तेदार से पूछा,”गाँव के दूर वृक्ष के नीचे अकेली यह झोपड़ी किसकी है?”

उत्तर में उन्होंने कहा,”सुनते हैं, यह स्कूल है।”

“कितने बच्चे पढ़ते होंगे इसमें?”

“बच्चे! यही कोई चार-छह बच्चे प्रतिदिन आते हैं, और कुछ देर इधर-उधर खेल-वेल कर अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं।”

“यहाँ के मास्टर साहेब कौन हैं?”

“मास्टर साहेब को तो कभी देखा ही नहीं। तो फिर कैसे पता चलता कि वे कौन हैं?”

“फिर, यह कैसा स्कूल है?”

“सरकारी है!”

इस लघुकथा का सबसे सटीक अन्त मेरे विचार से यही आखिरी डॉयलाग हो सकता था, पर पुष्करणा जी ने इसका अन्त इस पंक्ति से किया है- शिक्षा पदाधिकारी सरकारी स्कूल की परिभाषा सुन कर अवाक् रह गए।

सामाजिक असमानता पर लोगों की कथनी और करनी में हम प्रायः बहुत अन्तर देखते हैं। इसी बात को परिलक्षित किया गया है-हाथी के दाँत- शीर्षक लघुकथा में।

यही सत्य एक और लघुकथा में दिखाया गया है-बदबू-जिसमें एक निम्न जाति वाले से दोस्ती रखने में तो पात्र को कोई एतराज़ नहीं, परन्तु उससे रिश्तेदारी की बात सोचना भी उसे अत्यन्त अपमानजनक प्रतीत होता है। इस एक संवाद ने पूरी मानसिकता की पोल खोल दी है-

“क्या बकते हो तुम! अरे, कभी यह तो सोचा होता…कहाँ हम उच्च जाति के, और कहाँ तुम ! दोस्ती का हर्गिज़ यह अर्थ तो नहीं कि तुम हमारी इज्ज़त से ही खेलने लगो ।”

पुष्करणा जी मानव मन के भी सूक्ष्म विश्लेषक हैं। ‘रंग जम गया’ शीर्षक लघुकथा में एक पहलवान लड़ने की इच्छा न होते हुए भी महज अपनी हँसी उड़ने के भय से मैदान छोड़कर नहीं हट पाता। परन्तु जैसे ही उसे एक अन्य युवक के बीच-बचाव के कारण सम्मानपूर्वक लड़ाई छोड़ने का मौका मिलता है, वह झट से मान जाता है।बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा-वाली कहावत चरितार्थ हो गई। पहलवान भी जैसे चाह रहा हो। पीछे हटते हुए बोला,”तुम बीच में न आ जाते तो आज इसकी ख़ैर नहीं थी।”

हमारा समाज किस प्रकार झूठ के आवरण में छिपे सत्य को देख कर भी अनदेखा कर देता है, उसे बड़ी ही सहजता से-बोफ़ोर्स काण्ड-शीर्षक लघुकथा में दर्शाया गया है। यद्यपि मेरे विचार से इस लघुकथा का शीर्षक कथ्य के हिसाब से कुछ और होता तो ज़्यादा अच्छा होता।

हम अक्सर महसूस करते हैं कि समाज बदल रहा, मंथर गति से ही सही, परन्तु लोगों की सोच भी बदल रही है…और सही दिशा में बदलनी चाहिए भी। एक सजग इंसान की तरह पुष्करणा जी ने भी इस बदलाव को महसूस किया तभी तो उन्होंने ऐसी ही सार्थक पहल की प्रेरणा देती लघुकथा रची है-कुमुदिनी के फूल- जहाँ एक बेटा अपनी विधवा माँ के त्यागों के नीचे कहीं गहरे दब गई उसकी एक इच्छा का सम्मान करते हुए उसके पुनर्विवाह की पहल करता है।

हमारे भारतीय समाज में बच्चों के प्रति दायित्व निर्वाह करते हुए किसी विधुर का पुनर्विवाह करना बहुत सहजता से स्वीकार्य है, वहीं अगर एक स्त्री समस्त कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करते हुए ऐसा सोचने का साहस भी करती है ,तो उसे चारित्रिक रूप से गिरा हुआ मान लिया जाता है। ऐसे में पुष्करणा जी की यह लघुकथा एक ठण्डी बयार की तरह मन को सहला जाती है। समाज की सोच को अपनी कलम की धार से एक नई दिशा देना एक साहित्यकार का प्रथम कर्तव्य होता है, जिसमें अपनी ऐसी लघुकथाओं द्वारा पुष्करणा जी पूरी तौर से खरे उतरे हैं।

एक पुरानी कहावत है- रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई-कुछ-कुछ इसी की याद दिलाती लघुकथा है, बाहर लौटते वक़्त उन्हें अपने ऊपर बड़ी कोफ़्त हो रही थी…नवाबी ख़त्म हो गई मगर फिर भी रुतबा अभी बाकी है…अब चाटो इस रुतबे को और मिटाओ अपनी भूख ।

कभी-कभी परोपकार करने की अपनी स्वभावगत विशेषता के चलते यदि हम किसी का भला करते भी हैं, तो समाज में दिनो-दिन बढ़ती जा रही आपराधिक मनोवृत्ति हमको कितनी दुविधा में डाल देती है, इसका बहुत सशक्त निरूपण किया गया है-उधेड़बुन- में, जिसमें मानवती बारिश में भीग रहे एक अधेड़ व्यक्ति को दयावश घर के बरामदे में बिठा कर चाय-नाश्ता तो करवाती है और कुछ पुराने वस्त्र देती है, ताकि वह ठण्ड से बच सके, परन्तु साथ-ही-साथ घर में अकेली होने के कारण उसे उस अधेड़ से डर भी लगता है। अन्ततः उसे विदा करके ही वह चैन की साँस ले पाती है। लगातार पाठकों को अपने में बाँधे रहने वाली यह लघुकथा एक बार फिर पुष्करणा जी की सूक्ष्म विवेचन दृष्टि की परिचायक है।

कुछ अन्य लघुकथाएँ जो विभिन्न मुद्दों का निर्वहन बड़ी कुशलतापूर्वक करती हैं, उनके नाम कुछ इस प्रकार हैं- वापसी, श्रद्धाजलि, मरुस्थल, सज़ा, टेबल-टॉक, ऊँचाई, महानता, बदलती हवा के साथ, बेबसी, इबादत, बदलता युग, सिला फ़र्ज़, पुरस्कार, रंग, सिफ़ारिश, मास्क लगे चेहरे, लाज, रक्तबीज, काँटे ही काँटे, परिस्थिति, कुंजी, आतंक, हित, दरिद्र, नई पीढ़ी, ज़मीन की शक्ति, स्वाभिमान, काठ की हाँडी, बलि का बकरा, जयचंद, पिघलती बर्फ़, ज़मीन से जुड़ कर, चूक, आकाश छूते हौसले, आदि ।

सही दिशा- शीर्षक लघुकथा समाज के सामने साम्प्रदायिकता से सम्बन्धित एक बहुत बड़ा सवाल उठाती है, जिसका जवाब शायद जानता हर कोई है, पर वक़्त आने पर मानता नहीं। कोई भी संवेदनशील पाठक इसे पढ़ कर कुछ सोचने पर मजबूर अवश्य कर देगा।

…सहायतार्थ सेना आई। टुकड़ियों ने मलबे हटा कर लाशें निकालने के क्रम में ही उस डिब्बे के मलबे को हटाया। देखा- एक ब्राह्मण महाराज लुढ़के पड़े थे, उनके मुँह के ऊपर ही हरिजन का मुँह और बगल में चिर-निद्रा में सोये मौलवी साहब का दाहिना हाथ ब्राह्मण महाराज के दाहिने हाथ में जंजीर की भाँति गुँथा हुआ था।

सबका मिला-जुला रक्त, जाति एवं साम्प्रदायिकता की रूढ़ियों को मुँह चिढ़ता हुआ ठोस हो चुका था।

आज के युग में इंसान किस तरह सिर्फ़ अपना मतलब साधता है और उसके बाद गिरगिट की तरह रंग बदल लेता है, यह हम में से हर कोई कभी-न-कभी अनुभव कर ही चुका है। इसी को दर्शाती लघुकथा है-स्वार्थी- जिसमें अपना काम निकलने तक एक व्यक्ति अपने मित्र का समय तो बड़ी बेशर्मी से बर्बाद करता हुआ उसका काम भी बिगड़वा देता है, पर जब वही मित्र उसका काम हो जाने के बाद उससे रुकने का अनुरोध करता है, तो वह अपना समय बर्बाद होने की बात कहता हुआ बड़ी आसानी से अपना पल्ला झड़ लेता है।

गिरगिटी रंग में रंगी आज की राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधी साँठ-गाँठ का एक अनुपम उदाहरण है-साँप और छुछुन्दर-जिसमें एक नेता द्वारा पाला गया अपराधी भस्मासुर की तरह उसे ही बर्बाद करने पर तुल जाता है और नेता को ही मजबूर होकर उसकी बात माननी पड़ती है।

भ्रष्टाचार सिर्फ़ राजनीति में ही नहीं, बल्कि समाज को नई दिशा देने वाले साहित्य के क्षेत्र में भी अपनी घुसपैठ बना चुका है। ‘छल-छद्म ’शीर्षक लघुकथा में मनुश्री इसी की झलक है, जो अपनी परिचित एक फ़र्ज़ी साहित्यिक संस्था से मिली नकली पुरस्कार राशि उसी संस्था को लौटाने का शिग़ूफ़ा छोड़ के खुद की उन्नति के रास्ते भी खोल लेती है। साहित्य-जगत में अब ऐसी घटनाएँ बहुत आम होती जा रही, जिसने निःसन्देह पुष्करणा जी जैसे साहित्य-साधक को इतना झकझोरा कि एक सशक्त लघुकथा का जन्म हुआ। “संस्था के पास इतना पैसा ही नहीं, वह तो मात्र दिखावा था। इससे मैं राज्यपाल की दृष्टि में एक बड़े साहित्यकार के रूप में आ गई…। सरकारी सम्मान मिलने की जब सूची बनेगी तो राज्यपाल तथा अन्य लोग मेरे नाम की सिफ़ारिश कर सकते हैं।” बेटी की दूर दृष्टि पर पिता को गर्व हो आया। अब उनका क्रोध काफ़ूर हो चुका था और उसका स्थान मुस्कान लेती जा रही थी।

सतीशराज पुष्करणा जी की मौजूदा लघुकथाओं की यदि मैं एक संक्षिप्त विवेचना करना चाहूँ तो हम यही पाएँगे कि उनकी लघुकथाएँ हमारे हृदय के किसी न किसी हिस्से को छूती ज़रूर हैं। उनका रचना-कार्य ज़िन्दगी के महज किसी एक पहलू को स्पर्श नहीं करता, वरन उन्होंने हर विषय पर अपनी कलम की धार पैनी की है। फिर चाहे वो राजनीति हो या सामाजिक भेदभाव, रिश्तों में बसा स्वार्थ हो या गहरा अटल विश्वास, विभिन्न परिस्थितियों से उपजी बेबसी हो या फिर इंसान का आत्मबल, हर किसी का बहुत सटीक वर्णन किया है उन्होंने। इंसानी स्वभाव और उसके मनोविज्ञान की भी बहुत गहरी और सूक्ष्म विश्लेषण-क्षमता पुष्करणा जी की लघुकथाओं में परिलक्षित होती है। कुछ लघुकथाएँ सम्भवतः अपने रचनाकाल की वजह से पुरानी विषय-वस्तु पर आधारित महसूस होती हैं, परन्तु फिर भी उनकी सामयिकता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि पुष्करणा जी नए युग के रंगों से अनजान हों। उनकी कई सारी लघुकथाएँ इस नए ज़माने की विडम्बनाओं को भी हमारे सामने उतनी ही सटीकता और गहराई से प्रस्तुत करती हैं।

कुल मिला कर हम सतीशराज पुष्करणा जी को एक ऐसे समर्पित लघुकथाकार की श्रेणी में रख सकते हैं जिन्होंने कथ्य के तौर पर ज़्यादा नए प्रयोग न करने के बावजूद अपनी रचनात्मकता के साथ समझौता नहीं किया है। कई बार एक बेहद मामूली- सी लगने वाली बात पर भी उन्होंने अपने कसे हुए शिल्प-भाषा-शैली के माध्यम से एक सार्थक लघुकथा हमारे सम्मुख पेश कर दी है, जिसके लिए वे निःसन्देह बधाई के पात्र हैं। इस सन्दर्भ में मुझे उनकी `स्वभाव ’शीर्षक लघुकथा का जिक्र करना उचित प्रतीत होता है, जिसमे लगभग हर इंसान में मौजूद प्रशंसा की चाह का बहुत सहज ढंग से वर्णन किया गया है । बातचीत में प्रयुक्त संवाद बिलकुल वैसे हैं जैसे हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इस्तेमाल करते हैं । पुष्करणा जी ने अपने संवादों की इस सहजता को बरकरार रखने के लिए अंगरेजी के शब्दों का भी प्रयोग करने से गुरेज़ नहीं किया है…। जैसे कि पति-पत्नी के बीच के ये कुछ संवाद:-

अभी बातचीत चल ही रही थी कि ललित बाबू की बीवी ने अपने पति को संबोधित करते हुए कहा, “ज़रामेरे क्लाइंट की एक एप्लीकेशन तो लिख दीजिए, इतने में मैं कोर्ट जाने की तैयारी कर लेती हूँ ।”

पुष्करणा जी की अधिकतर लघुकथाएँ इसी तरह अपने पाठकों के सामने कभी प्रत्यक्ष, तो कभी परोक्ष रूप से कोई न कोई ऐसा सवाल खड़ा कर देता है, जिस पर वह कुछ सोचने पर मजबूर हो जाता है । बस कुछेक लघुकथाएँ थोड़ी सामान्य रचनाएँ कही जा सकती हैं, पर उनकी संख्या नगण्य ही है । उनका लघुकथा संसार बहुत विस्तृत कहा जा सकता है ।

हाँ, यदि वे नई और आधुनिक दुनिया के कुछ नए कथ्य और विषय भी थोड़ा अधिक चुने तो उनके इस अनूठे रचना-संसार में एक पाठक के तौर पर मुझे जो थोड़ी सी कमी खली, वह दूर हो जाएगी…इस बात में लेशमात्र भी संशय नहीं…।

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( सम्पादित रूप)

 

 

 

 

 

 

किलकारी ( पटना) में लघुकथा की कार्यशाला

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बिहार बाल भवन किलकारी ,पटना में 9जून से 12 जून2016को हुई कार्यशाला में लिखी गई लघुकथाओं में से तीन बच्चों क्रमशः प्रियन्त्रा, अतुल रॉय और रौशन पाठक की सुन्दर लघुकथाएँ आज के यानी 15 जून के हिन्दुस्तान में प्रकाशित हैं !

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छोटी चादर

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“मम्मी मेरे पैर चादर से बाहर निकल रहे हैं ,तुम नई ला दो ना…… प्लीज़ । ”

पाँच वर्षीय पुत्र मिंकू भोर पाँच बजे ही नींद से उठकर बैठ गया ,उसने माँ की चादर देखी ,माँ के  पाँव  उनकी चादर के भीतर थे, क्योंकि वे पैरों को पेट की ओर सिकोड़ कर लेटी थीं ।

उसने  माँ का कन्धा स्पर्श कर उन्हें जगा दिया । फिर रुआँसा हो कर बोला –

” मम्मी !  मेरे पैर चादर से बाहर निकल गए हैं  , मच्छर भी  बहुत काट रहे हैं  । तुम नई कद्दर ला दो ना … प्लीज़ अम्मा  । ”

माँ नींद में थी । उन्होंने हाँ , हूँ में जवाब दिया ।

मिंकू की बचपन की चादर वाकई में छोटी हो गई थी । वो उसे ओढ़ता तो उसके पाँव खुल जाते। .. ।

“माँ तुम्हारे  पाँव भी चादर से बाहर आ जाते हैं क्या , ( फिर शिकायती लहज़े में बोला )  “चीटिंग मॉम…तुमने अपने पाँव  मोड़ रखे हैं  ।”

वो धीरे से बिछौने से उतर कर पापा के बिस्तर के निकट चला गया । पापा खर्रांटे लेकर बेसुध सो रहे थे । उनकी चादर उनके पैरों के नीचे गुड़ीमुड़ी हो कर  दबी हुई ज़रा- सी नज़र आ रही थी ।

वो वापस मम्मी के पीछे जा कर लेट गया । माँ ने आँखें खोल कर बेटे मिंकू को देखा और  धीरे से अधखुली आंखौं से देखत हुए मुस्कुरा दी । मन ही मन  में माँ  सोच रही थी ,हमारा बेटा अब समझदार हो गया है ।

दूसरी सुबह  पापा – मम्मी  साथ बैठ कर , घर खर्च का बजट बना रहे थे….उनमें बीच -बीच में बहस होने लगती । आखिर मम्मी ब्रेकफ़ास्ट के बाद बैग ले कर कहीं चली गईं थीं । मम्मी के जाने के बाद पापा ने होम वर्क करवा दिया । मिंकू सहमा सा ,कभी अंदर तो कभी  बाहर घूम रहा था । वो  कुछ गुमसुम था…।

बाहर सड़क पर  टेम्पो रुकने की आवाज़ आई।मम्मी के हाथों में पैकेट थे । माँ ने मिंकू को  रंग बिरंगी बड़ी चादरें  दिखाईं। आज नईं चादरें  देखकर वे तीनों देर तक खुश होते रहे ।

कम से कम  उनके पाँव तो अब  चादर के बाहर नहीं दिखलाई देंगे पर….. ।

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लघुकथाएँ

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1-रंग

 अपनी परिस्थितियों से जूझते हुए आखिरकार सरला ने एक शासकीय विद्यालय में शिक्षिका बनकर अपने दोनों बच्चों की जिम्मेदारी उठाना शुरू कर दी। वक्त गुजरने के साथ आज 20 सालों में दोनों बेटे युवा हो चुके हैं। सरला की पीड़ा अब भी आँखों पर लगे चश्में से झाँकती है, लेकिन अब वह स्वयं को फिर से सजने–सँवारने लगी है और यही परिवर्तन पास–पड़ोस में सुर्खियाँ बनने लगा है।

जब नहीं रहा गया तो एक सहशिक्षिका ने जिज्ञासा के साथ और चटपटे अंदाज में पूछ ही लिया – ‘‘कोई खास बात है ? हर दिन कुछ बदली–बदली सी दिखाई देती हो।’’

एक स्वाभिमानी और निर्भीक मुस्कान के साथ सरला ने केवल इतना ही कहा कि– ‘‘पहले समाज के लिए रंग छोड़े थे, आज बेटों ने मुझे फिर से रंग दिया है। वैसे भी जिस माँ के दो जवान बेटे हो, वह माँ विधवा हो ही नहीं सकती !’’

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 2-विश्वास

 ज्यादा बड़ा वृक्ष नहीं था वह, जिस पर गौरेया ने अपना छोटा सा घोंसला बड़े जतन से बनाया था। उसे देखकर लगता था यह एक आँधी में ही उखड़कर धराशायी हो जाएगा। कुछ शाखों, कुछ कोपलों और कुछ फूलों का गुलदस्ता ही तो दिखाई देता था दूर से।

गौरेया को सबने समझाया भी था कि यह सुरक्षित स्थान नहीं है, लेकिन उसे विश्वास था तो केवल उन जड़ों पर जिससे वह बँधा हुआ था और वह दिन आया जब उसके अपने घोंसले में बच्चे फुदकने लगे तभी मौसम बदला और तूफान ने तेज बारिश की आहट दी। मजबूत वृक्ष उखड़ गए, लेकिन उस पेड़ को कुछ न हुआ जहाँ गौरैया के बच्चे फुदक रहे थे।

और गौरैया के चेहरे पर विश्वास चमक रहा था।

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 3-पापा के मजबूत कंधे

बात इसी दशहरे की है, रावण दहन के लिए मैं और मेरा परिवार दशहरा मैदान गए थे, जहाँ विशालकाय रावण के पुतले को देखने के लिये पूरा शहर इकठ्ठा हुआ था। नन्हें बच्चे अपने पापा के कंधों पर और हाथों पर चढ़कर आतिशबाजी देखकर आनन्दित हो रहे थे। अपने बचपन के दिनों की यादें ताजा कर मुझे भी बड़ा आनन्द आ रहा था, लेकिन तभी न जाने कब इस पूरे जमघट में एक परिवार हमारे सामने आकर खड़ा हो गया। अपने तीन छोटे–छोटे बच्चों के साथ उनकी माँ जो कि पहनावे से गरीब और साधारण शक्लो–सूरतवाली थीं, अपनी गोद में सालभर के बच्चे को उठाए थी एवं अन्य बच्चा जो पापा की उँगली पकड़े हुए था, रो रहा था, क्योंकि वह आतिशबाजी देखना चाहता था। उसके पापा ने उसे गोद में उठा लिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि एक बौने से कद–काठी का वह आदमी जिसे खुद कुछ नजर नहीं आ रहा है, वह अपने नन्हे -से बच्चे को कन्धों पर चढ़ाकर आसमान दिखा रहा है और वह चमक दिखा रहा है ,जिसे वह खुद देख पाने में असमर्थ है।

पापा ऐसे ही होते हैं मजबूत कन्धों वाले।

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 4-रिटायरमेंट

सेवानिवृत्त होते ही घर में समय काटे नहीं कटता। आखिर 35 सालों से समय की पाबंदी और जिम्मेदारियों का दबाव कब रिटायरमेंट ले आया शर्माजी को पता ही नहीं चला! पर अब सारे दायित्व पूरे हो चुके हैं।

एक दिन मन किया कि क्यों ना अपने पुराने कार्यालय जाकर सबसे यूँ ही मिल आएँ! समय हवा के झौंकों–सा होता है। एक कर्मचारी होकर जो सेवाएँ उन्होंने अपने कार्यालय को दी थी, वे अब कल की बात हो चुकी थी। रोजाना सलाम ठोकने वाला भृत्य आज उनसे ज्यादा व्यस्त था फिर भी नमस्ते सा. करके जो गया कि बाद में उसका पता ही नहीं चला। खैर, कुछ आत्मीयजन खुश थे तो कुछ अपने कार्य में व्यस्त थे। कुछ लोगों से मिलकर जाने लगे ही थे कि नए साहब की आवाज से पूरा  ऑफ़िस गूँज गया- ‘‘आखिर इतनी बड़ी गड़बड़ कैसे हो सकती है ? मैंने सुना है इस ऑफ़िस से आज तक कोई भी जानकारी गलत नहीं पहुँची फिर अब क्या हुआ ?’’ सहकर्मी ने साहब को समझाते हुए कहा कि– ‘‘यह कार्य अब तक शर्माजी करते थे । वे रिटायर हो चुके हैं । इस बार की जानकारी एक नए वर्कर ने तैयार की है।’’

 शर्माजी ने वहाँ से घर जाना ही ठीक समझा, किन्तु उन्हें संतोष था कि– ‘‘अभी भी ऑफ़िस में उनके काम को याद किया जाता है!’’

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 5-रिस्क

 अपने बेटे को विदेश भेजने के लिए तब वे पहली बार एअरपोर्ट आए थे और उसके बाद आज जब वे अपने 16 वर्षीय पोते के साथ उसी बेटे को लंदन लेने के लिए जा रहे हैं। अजीब–सी कशमकश और अदृश्य घबराहट थी जिसे दर्शा नहीं पा रहे थे। सही भी तो है , जिस व्यक्ति ने अपना पूरा जीवन साइकल से ट्रेन पर सवार होकर गुजारा हो, उसके लिए इतनी महँगी और लम्बी दूरी की यात्रा वह भी हवाई यात्रा का खर्च कई परेशानियों का सबब तो होगा ही, लेकिन फिर भी अपनी सारी हिम्मत जुटाकर वे प्लेन में बैठे।

हवाई सफर शुरू होने के बाद सुन्दर और सभ्य एअरहोस्टेज से वे प्लेन की जानकारी लेने लगे। जैसे– ‘‘मैडम इस जहाज में अभी कितना पेट्रोल और बाकी है?’ होस्टेज ने कहा– ‘‘अभी हम धरती से 10000 फीट की ऊँचाई पर सफर कर रहे हैं और अभी इसमें 35 घण्टे का ईंधन और बाकी है।’’

मैडम, मान लीजिए किसी वजह से आपका प्लेन खराब हो जाए तो आप हमारी सुरक्षा कैसे करेंगी ? दूसरा प्रश्न सुनते ही होस्टेज मुस्कुरा दी– ‘‘सर सुरक्षा के यहाँ सभी इंतजाम हैं, आप फिक्र ना करें और आपकी पहली हवाई यात्रा सुखद ही होगी, ऐसी कामना करती हूँ। वैसे सर आप इतना विचार कर रहे हैं और फिर भी इतनी रिस्क लेकर आप लंदन जा रहे हैं, कोई खास बात है क्या सर?’’

‘‘हाँ, मैडम मेरा बेटा एक कम्पनी में कार्यरत है, किसी कारण से वह भारत नहीं आ पा रहा है, जिसके चलते मैं और मेरे बेटे का बेटा उसकी समस्या समाधान हेतु जा रहे हैं, क्योंकि जैसे मेरा बेटा अपने बेटे को यादकर परेशान है, वैसे ही मैं भी अपनी इस अवस्था में अपने बेटे को मिलने को बेताब हूँ ताकि कल को मेरा पोता भी मेरी तरह विदेशी नौकरी की दुहाई देकर अपना बचपन, जवानी और मेरा बुढ़ापा देखकर अपने पिता के प्रेम से वंचित न रह जाए।’’ इतना कहना ही था कि एअर होस्टेज स्तब्ध हो कुछ रुआँसी हो गई, अपने पिता को याद करके जो इन दिनों छत्तीसगढ़ के एक कस्बे में अकेले रहते हैं।

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लघुकथाएँ

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1-दु:ख

वह रिक्शे के  इंतजार में खड़ी थी। काफी देर तक कोई रिक्शा नहीं आया, तो वह पैदल ही चल पड़ी।

अचानक एक आदमी ने उसके पास आकर, उसके कंधे पर लटक रहे पर्स पर झपट्टा मारा। उसने पर्स हाथ से भी पकड़ रखा था, इसलिए वह आदमी पर्स लेने में सफल नहीं हुआ। वह आदमी उसके हाथ से छुड़ाने का प्रयास करने लगा। वह मदद के लिए चिल्लाने के साथ, उस आदमी की पकड़से पर्स छुड़ाने का प्रयास भी करने लगी। इस प्रयास में वह ज़मीन पर गिर गई। वह आदमी उस काफी दूर तक घसीटता हुआ ले गया।

इस दृश्य को देखकर सड़क से गुजर रहे लोग, जहाँ के तहाँ खड़े हो गए। वह पर्स छोड़ना नहीं चाहती थी, लेकिन वह आदमी उस से पर्स छीनकर ले जाने में सफल हो गया। दिन दहाड़े लूट की घटना की भनक लगते ही एक पत्रकार उसके पास जा पहुँचा।

‘‘पर्स में कितने रुपये थे ?’’ पत्रकार ने पूछा था।

‘‘पचास हज़ार रुपये। बेटे की स्कूल की फीस जमा कराने के लिए बैंक से निकालकर ला रही थी।’’

‘‘दु:ख की बात है, आपके पचास हज़ार रुपये चले गए।’’

‘‘मुझे रुपये जाने का उतना दु:ख नहीं है, जितना लोगों के तमाशबीन बने रहने का है। अगर एक भी आदमी ने मेरी मदद की होती, तो वह मेरा पर्स छीनकर नहीं ले जा सकता था।’’ वह बोली, ‘‘तमाशबीन बने रहे लोगों को सोचना चाहिए कि आज जो मेरे साथ हुआ, कल उनके साथ भी हो सकता है।’’

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2-बलि का बकरा

घूस लेने के आरोप में मंत्रीजी की कुर्सी पर खतरा मँडरा रहा था। किसी तांत्रिक ने मंत्री जी को सलाह दी–अगर बकरे की बलि दी जाए , तो उनकी कुर्सी बच सकती है।

कई बार से वह सांसद चुनकर आ रहे थे, लेकिन मंत्री नहीं बन पाए थे। जैसे तैसे मंत्री बने, तो साले साहब के पकड़े जाने पर उनकी कुर्सी छोड़ना नहीं चाहते थे अत: तांत्रिक के कहने पर बाज़ार से बकरा खरीदकर लाया गया। पूजा -अर्चना करने के बाद मंत्रीजी बकरे के सामने चारा डाल रहे थे।

हरे–हरे चारे को कौन बकरा छोडता है, लेकिन इस बकरे ने चारे की तरफ देखा तक नहीं। उसका मन चारा खाने को बिल्कुल नहीं कर रहा था। बकरे को भनक लग गई थी कि मंत्रीजी की कुर्सी बचाने के लिए उसकी बलि दी जाने वाली है।

बकरा सोच रहा था–रिश्वत मंत्रीजी के साले ने ली और जान उसकी जाएगी।

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‘‘माँ कहाँ है?’’ नरेश दुल्हन के साथ दरवाजे पर खड़ा था। बहन आरती की थाली हाथ में लिए खड़ी थी। उसके पीछे परिवार और गाँव की औरतें थी, पर माँ नज़र नही आ रही थी। माँ को उसकी शादी का कितना चाव था। माँ ने ही उसके लिए लड़की पसंद की थी। माँ को सामने न देखकर उसने पूछा था।

‘‘बेटा ,विधवा शुभ अवसर पर आगे नहीं आती।’’ गाँव की बूढ़ी काकी बोली थी।

‘‘ माँ, माँ होती है,सधवा या विधवा नहीं। नरेश बोला–‘‘जब तक बहू का स्वागत करने माँ नहीं आएगी। मैं दरवाजे पर ही खड़ा रहूँगा।’’

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3-परिभाषा

‘‘आज से यह आपके पति हुए। पत्नी का स्थान पति के चरणों में होता है।’’ फेरे सम्पन्न होने के बाद पंडित वधू से बोला–‘‘पति के पैर छुओ।’’

‘‘पंडितजी, पत्नी का मतलब है, अर्द्धांगिनी। पति आधा, पत्नी आधी मतलब दोनों बराबर।’’ वर- वधू को अपने गले से लगाते हुए बोला–‘‘पत्नी का स्थान पति के चरणो में नहीं, दिल में होता है।’’

दुल्हे की बात सुनकर पंडित को लगा आज उसकी पंडिताई बौनी पड़ गई है।

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संवेदना का सूत्र

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लघुकथा  साहित्य की वह विधा है जो किसी संवेदना को एक सूत्र में पिरोकर उसे चिंतन की बहुआयामी समझ देती है। लघुकथा   जीवन के प्रति व्यक्ति की उद्दाम ललक को गहरी आत्मीयता के साथ अंकित करती है। किसी घटना या स्थिति को केन्द्र में रखकर  किसी भी विसंगति को फोकस करना ही  लघुकथा  की मूल प्रवृत्ति है। आकार की लघुता के बावजूद उसकी बेधकता ही उसकी सफलता का निकष है। जिस प्रकार गजल का एक शेर अपने छोटे आकार में भी गहरी चोट करने की क्षमता रखता है, वही क्षमता लघुकथा  में भी होती है। आशय यह है कि लघुकथा  किसी ‘एक’ और ‘प्रत्यक्ष’ संवेदना के धरातल पर सामाजिक विसंगति को रेखांकित करने का सशक्त माध्यम है।

लघुकथा  को प्रभावशाली बनाने के लिए उसमें सारगर्भित संवाद–योजना महत्त्वपूर्ण है। भाषिक संरचना के लिए लघुकथा  में अपरिहार्य शब्द अपेक्षित परन्तु अनावश्यक ब्यौरा वर्जित है। अनुभव की टीस और कचोट को बहुत सीधे–सादे ढंग से उदघाटित करने वाली लघुकथा  की सफलता के लिए उसमें किसी घटना को चित्रित करने के पीछे निहित चरित्र को उजागर करने की अवधारणा ही सक्रिय होनी चाहिए, क्योंकि जीवन के यथार्थ को विश्वसनीय ढ़ग से अंकित करने पर ही लघुकथा  दीर्घजीवी हो सकती है। निषकर्षता संक्षिप्ति,व्यंग्य और मार्मिक संवाद लघुकथा  के प्राणतत्व है।

विगत कई दशक से लघुकथा  का रचना कर्म उल्लेखनीय रहा है। सारिका सहित अधिसंख्य पत्रिकाओं के लघुकथा  –विशेषांक और अनेक लघुकथा –संकलन साहित्य की धरोहर है। बलराम द्वारा सम्पादित ‘विश्व लघुकथा  कोश’ भी एक अप्रतिम और अनूठा प्रयास है। आज भी अधिसंख्य रचनाकार बहुत अच्छी लघुकथाएँ लिख रहे हैं। उनमें से शंकर पुणतांबेकर, बलराम, चित्रा मुद्गल, रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु, दामोदर दत्त दीक्षित , सुकेश साहनी,रमेश गौतम, बलराम अग्रवाल,अशोक भाटिया आदि कथाकार मुझे अधिक  प्रिय है।

यहाँ चित्रा मुद्गल की लघुकथा  ‘बोहनी’ का उल्लेख करना चाहता हूँ । इसमें एक भिखारी की दयनीय स्थिति और उसे रोजाना भिक्षा देने वाली महिला की उदारता पर केन्द्रित प्रसंग में बोहनी से जुड़ी आत्मीयता और एक दिन के भाग्य को रेखांकित किया गया हैं। तीन दिन तक लगातार भिक्षा न देने के फलस्वरूप भिखारी रिरियाता है, ‘‘मेरी माँ……तुम देता तो सब देता…….तुम नहीं देता तो कोई नई देता……..तीन दिन से तुम नई दिया माँ…….भुक्का है,मेरा माँ ।’’प्रस्तुत लघुकथा  में स्थितियों का सहज विकास और एक भिखारी का भरोसा सम्बन्धित महिला की संवेदनशीलता पर टिका हुआ है। कथा के अंत में ट्रेन का छूट जाना भी वज्रपात की तरह है। इस लघुकथा  में गरीबी की प्रत्यक्ष संवेदना का अभाव और कथ्य के अनुरूप भाषा का प्रस्तुतीकरण दोनों ही पाठक के मस्तिष्क को झकझोेरने में सफल है।

रामेश्वर काम्बोज जी की एक श्रेष्ठ लघुकथा  फिसलन’ कलियुगी चरित्र के दोहरे मुखौटे को बेनकाब करती है। आज का दोमुँहा व्यक्ति कहता कुछ ओर है करता कुछ ओर है। शराबबंदी पर भाषण देने वाले सम्माननीय है महेश तिवारी जब स्वंय शराब पीकर सड़क पर लोटते है तो भाषण से प्रभावित होने वाला भौचक्का रह जाता है। ऐसी स्थिति में श्रद्धा के महल ढह जाते है।

प्रस्तुत लघुकथा में दोहरे मुखौटे के चरित्र पर भरपूर प्रहार किया गया है। शराब का प्रसंग एक प्रतीक है ,जो वर्तमान परिवेश में सर्वत्र पाए जाने वाले दोमुँहें चरित्रहीन लोगों की भर्तस्ना करता है। इस कथा में भी स्थितियों का सहज विकास और पात्रों की विश्वसनीयता आश्वस्त करती है। इसमें कथाकार का रचनाधर्मी विवेक और युग–बोध को उभारने का आग्रह सराहनीय है।

उसे चिंतन की बहुआयामी समझ देता है।

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1-चित्रा म्य्द्गल: बोहनी
उस पुल पर से गुजरते हुए कुछ आदत–सी हो गई। छुट्टे पैसों में से हाथ में जो भी सबसे छोटा सिक्का आता, उस अपंग बौने भिखारी के बिछे हुए चीकट अंगोछे पर उछाल देती। आठ बीस की वी0टी0 लोकल मुझे पकड़नी होती और अक्सर ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ाहट में ही रहती, मगर हाथयंत्रवत् अपना काम कर जाता। दुआएँ उसके मुंह से रिरियायी–सी झरती….आठ–दस डग तक पीछा करतीं।
उस रोज इत्तिफाक से पर्स टटोलने के बाद भी कोई सिक्का हाथ न लगा। टे्रन पकड़ने की जल्दबाजी में बिना भीख दिए गुजर गई।
दूसरे दिन छुट्टे थे, मगर एक लापरवाही का भाव उभरा, रोज ही तो देती हूँ। फिर कोई जबरदस्ती तो है नहीं! और बगैर दिए ही निकल गई।
तीसरे दिन भी वही हुआ। उसके बिछे हुए अंगोछे के करीब से गुजर रही थी कि पीछे से उसकी गिड़गिड़ाती पुकार ने ठिठका दिया–‘‘माँ ….मेरी माँ …..पैसा नई दिया न? दस पैसा फकत….’’
ट्रेन छूट जाने के अंदेशे ने ठहरने नहीं दिया, किन्तु उस दिन शायद उसने भी तय कर लिया था कि वह बगैर पैसे लिए मुझे जाने नहीं देगा। उसने दुबारा ऊँची आवाज में मुझे संबोधित कर पुकार लगाई। एकाएक मैं खीज उठी। भला यह क्या बदतमीजी है? लगातार पुकारे जा रहा है, ‘माँ ….मेरी माँ …’ मैं पलटी और बिफरती हुई बरसी, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो? तुम्हारी देनदार हूँ क्या?’’
‘‘नई, मेरी माँ !’’वह दयनीय हो रिरियाया, ‘‘तुम देता तो सब देता….तुम नई देता तो कोई नई देता….तुम्हारे हाथ से बौनी होता तो पेट भरने भर को मिल जाता….तीन दिन से तुम नई दिया माँ …..भुक्का है, मेरी माँ !’’
भीख में भी बोहनी! स्हसा गुस्सा भरभरा गया। करुण दृष्टि से उसे देखा, फिर एक रुपया का एक सिक्का आहिस्ता से उसके अंगोछे पर उछालकर दुआओं से नख–शिख भीगती जैसे ही मैं प्लेटफार्म पर पहुँची,
मेरी आठ बस की गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ चुकी थी। आँखों के सामने ‘मस्टर’ घूम गया……अब….?
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2-रामेश्वर काम्बोज- फिसलन

शाम का धुँधलका। सड़क के निकट पड़ा कोई शराबी लड़खड़ाती आवाज़ में बड़बड़ा रहा था– ””मेरा…. चारों तरफ नाम हो गया। अब मेरे आगे कोई नहीं टिक सकता।”” बस्ती के बच्चे उसके ऊपर ढेले फेंक–फेंककर तालियाँ बजा रहे थे। रोज़ यहाँ यही तमाशा रहता है।
मैं भी कौतूहलवश वहाँ जाकर रुक गया। शराबी का चेहरा मिट्टी से सना था। मुझे वहाँ ठिठके देखकर घीसा काका बोले– ””जावो बाबूजी! काहे को हियाँ खड़े मन मैला कर रहे हो। हियाँ तो रोज जेही लफड़ा रहता है। बस्ती वालों ने इसे ठोक–पीटकर हियाँ पटक दिया। पीके लौंडिया छेड़ रिहा था।”” मैं शराबबन्दी पर दिए गए महेश के आज के भाषण के बारे में सोच
रहा था। यह शराबी उनका भाषण सुने तो शराब को कभी हाथ न लगाए। भगवान ने जैसे जिह्वा पर सरस्वती बिठा दी हो।
मैंने उसको झकझोरा– ””कौन है बे! उठ। चल यहाँ से। कोई ट्रक कुचल देगा।”” दुर्गन्ध का एक भभका मेरे मन में मितली भर गया।
नज़दीक से देखकर मैं चौंका– वह शराबी महेश था।

पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-20

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     ‘पड़ाव और पड़ताल’ के 20वें खण्ड में चर्चित लघुकथा लेखक कमल चोपड़ा की छियासठ लघुकथाएँ और उनपर आलोचनात्मक लेख क्रमशः डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, प्रो. बी. एल. आच्छा, डॉ. गुर्रम कोंडा नीरजा चोपड़ा-182x300और डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज ने लिखे हैं । आलेखों को पढ़ने पर संतोष हुआ कि प्रायः सभी लोगों ने कमल की लघुकथाओं के साथ न्याय किया है। इन चारों आलोचकों में डॉ. गुर्रम कोंडा नीरजा नाम मेरे लिए नया ज़रूर है ;किन्तु इनकी लेखनी अनुभवजन्य है, साथ ही इनके कहने का ढंग सर्वथा भिन्न है। डॉ. पुरुषोत्तम दुबे से जितने गंभीर आलेख की आशा थी, शायद नहीं हो पाया । कहीं-कहीं ऐसा भी लगा कि वे जो कहना चाहते थे नाम के प्रभाव में आकर शायद नहीं कह पाए कह देते तो इस विधा की आलोचना के साथ न्याय हो जाता। प्रो. बी. एल. आच्छा एक अच्छे लघुकथा लेखक होने के साथ-साथ इनकी आलोचना प्रतिभा से भी इंकार नहीं किया जा सकता । इन्होंने प्रायः लघुकथाओं के साथ न्याय किया है। डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज लघुकथा-आलोचना में इन सबसे नए हैं ;किन्तु इनका लेख ऐसा बताता है लघुकथा-लेखक की तरह ही इस विधा में वे प्रौढ़ हैं। इनका लेख एकदम बिना लाम-काम टू दि प्वाइंट है। बिना नमा एवं प्रभा मंडल की परवाह किये बिना उसे जो कहना था, कहा सहमति-असहमति अपनी जगह है। उसका लेख बताता है उसने पूरी ईमानदारी एवं गंभीरता से इस लेख को लिखा है। भारद्वाज की इस टिप्पणी से सहमति बनती है कि कतिपय लघुकथाओं में क्षिप्रता, सुष्ठुता कसावट का अभाव है।

कमल की अधिकतार लघुकथाएँ पहले से ही चर्चा में रही हैं। कमल की लघुकथाओं में वर्तमान एवं तत्काल भी ध्ड़कने स्पष्ट सुनाई देती है। कमल की लघुकथाएँ एक निश्चित फॉरमेट में ढली लघुकथाएँ हैं, उसका करण चली कलम है, इससे क्या हुआ है कि कहीं-कहीं उनकी स्वाभाविकता नष्ट हो गई है। मैं कहना यह चाहता हूँ कमल एक सचेष्ट एवं सतर्क लघुकथाकार हैं। इनकी लघुकथाओं में एक भी अक्षर और विराम चिह्न तक उनकी इच्छा के विरुद्ध नहीं आ पाए हैं। इनकी लघुकथाओं के शीर्षक प्रायः अपना औचित्य सिद्ध करते हैं ।

कमल की लघुकथा-यात्रा, यह उसका अपना निजी लेख है, जो उनके योगदान को भी रेखांकित करता है, इससे भविष्य में लघुकथा इतिहास लिखने वालों को सुविधा होगी । इस संग्रह के अंत में कमल का एक लेख है- ‘लघुकथा: संश्लिष्ट सृजन-प्रक्रिया’ जो 1988 में समीचीन पत्रिका के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुआ था । निःसंदेह कमल ने इसमें पर्याप्त श्रम किया है, यह लेख तब भी प्रासंगिक था आज भी है, थोड़ा-बहुत बदलाव संभव है, जो बढ़ते वक्त के साथ हरेक लेख में संभव हो जाता है।

इस खंड के संपादक चर्चित लघुकथा-लेखक मधुदीप हैं। जिन्होंने अपने संपादकीय में ठीक ही लिखा है कि कमल की लघुकथाएँ आमजन के बहुत नज़दीक हैं और वे निम्न वर्ग की त्रासदी को बखूबी पहचानते हैं और उनकी व्यथा को भी लिखते हैं ।  ‘पड़ाव और पड़ताल’  शृंखला का प्रकाशन कर मधुदीप ने अब तक अद्वितीय कार्य किया है। भविष्य में लघुकथा पर कोई भी ईमानदारी से किया जाने वाला कार्य इस पूरी  शृंखला देखे बिना शायद संभव नहीं हो पायेगा ।मधुदीप से लघुकथा को अभी और बहुत अपेक्षाएँ हैं और कमल से भी कुछ कम अपेक्षाएँ नहीं है ।

 डॉ. सतीशराज पुष्करणा, बिहार सेवक प्रेस,‘लघुकथानगर’, महेन्द्रू, पटना-800 006

मो.: 08298443663, 09006429311,07295962235, 09431264674

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पुस्तक: पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-20 ;कमल चोपड़ा की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल, संपादक: मधुदीप, प्रकाशकः दिशा प्रकाशन, 138/16, त्रिनगर, दिल्ली-110035, संस्करण: 2016, पृष्ठ 272, मूल्य: रु. 500


मास्टर जी

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सड़क के दोनों ओर पेड़ों की कतारे थी । पेड़ो की कतारो से सड़क की शोभा को चार चाँद लगे हुये थे । सैकड़ो की संख्मा में हर आयुवर्ग के लोग प्रभात-भ्रमण हेतु उस ओर खिंचे चले आते थे । पिछले कुछ दिनों से एक शिक्षक भी हमारे संग घूमने आने लगे थे वो अभी -अभी  स्थानांतरित होकर इस शहर में आये थे । अचानक एक सुबह हम सब को रोक कर शिक्षक बोले-” आप सब इन नीमों को देखकर क्या सोचते हो ? जरा बताइये । ” हम में से एक बोले – सोचना क्या ? हम सब घूमने आते हैं और रोज इनसे दातुन तोड़ कर दातुन करते हैं , बताया भी गया है कि नीम की दातुन स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है ।
“क्या आपने अन्य पेड़ों की तुलना में इन नीम के पेड़ो की दशा पर भी ध्यान दिया , शिक्षक ने कहा , ये नीम के पेड़ कक्षा में कुपोषण के शिकार बच्चों की भाँति सबसे अलग-अलग से दिखाई नहीँ दे रहे , इनकी इस दशा के दायी क्या हम सब नहीं ! बताइये ,आधे शहर की दातुन की जिम्मेदारी क्या यें निभा पायेंगे !! हम सब उनकी बात सुनकर चकित रह गये । हममें से एक बुजुर्ग ने कहा- मास्टरजी, इस तरह तो हमने सोचा ही नही , लेकिन देर आयद-दुरस्त आयद अब हम दातुन नही तोड़ेंगें साथ ही अन्य को भी समझायेंगे । कुछ दिनों बाद गर्मियों की छुट्टी बिताने मास्टरजी अपने गाँव चले गये ।
आज एक जुलाई है । मास्टर जी ,अपने गाँव से छुट्टियाँ     बिताकर सुबह वाली बस से शहर आ रहे है । जैसे जैसे शहर करीब आने लगा , उनकी आँखे कुछ अधीर होने लगी अचानक बस की खिड़की से क्या देखते हैं कि उन नीमों की डालियों पर नव कोंपलें हिल-हिल कर आने जाने वालो का अभिवादन कर रही थी ,अब वो कुपोषित बच्चों जैसे नहीं लग रहे थे । ये दृश्य देखकर मास्टर जी के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई । इस रहस्य को बस में अन्य कोई भी नही समझ पाया ।
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पेंशन

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दिन-रात पेंशन के लिए चक्कर लगाते चक्करघिन्नी से हो गए थे सुमेर चौधरी। आए दिन दफ्तर के एक से दूसरे कमरे के चक्कर लगाते सुबह से शाम हो जाती और हाथ लगती फिर वही निराशा, जिसे जेब में डाल भारी कदमों से चल देते घर की ओर। इंतज़ार करती पत्नी ने आज फिर लटका मुँह देखा तो रुआँसी हो बोली–अजी कब तक चलेगा ऐसा, मीरा के पापा। अब तो रसोई के सब डब्बे भी मुँह चिढ़ाने लगे हैं। आठ वर्षीय ननिहाल आई धेवती की ओर इशारा करती बोली-एक लाड़ ना लडा सकी इसे। आज तो चावल का दाना तक नहीं है घर में। जाओ बाज़ार से पाँव भर चावल ही ले आओ।

बाज़ार का नाम सुनते ही गुड़िया नाना के साथ जाने को मचलने लगी।

बिटिया तुम थक जाओगी बहुत दूर है बाज़ार। धूप भी बहुत तेज़ है किसी दिन शाम को ले चलूँगा तुम्हें।

ले क्यों नहीं जाते–ज़रा मन बहल जाएगा बच्ची का।

ढीले हाथ से जेब टटोलते हुए उदास आवाज़ में बोले-‘पाव भर चावल भी मुश्किल से हो पाएगा।’ बेबसी से गुड़िया की ओर देख बोले-‘इसने यदि किसी गुब्बारे पर भी हाथ रख दिया ,तो क्या होगा?’ सुमेर ने ठण्डी साँस भरी।

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भविष्य

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‘प्रोफेसर साहब,जल्दी ही मेडिकल-काउंसिल की इंस्पैक्शन होने वाली है। आपके विभाग में मरीजों की संख्या काफी कमहै।कालेजकाउंसिलके स्टैंडर्ड पर खरा नहीं उतरा ,तो मान्यता रद्द होजायेगी। हम सबका भविष्य खतरे में पड़ जाएगा।’ विभाग प्रमुख से कालेज के डीन ने कहा।

‘जी सर,लेकिन करें क्या?मैडीकल-कैंप भी लगवाये, पर खास लाभ नहीं हुआ।अब मरीजसमझदार हो गया है, स्टूडैंट्स से इलाज नहीं करवानाचाहता।’

‘तो इलाज डॉक्टर्स से करवाइए।’

‘डॉक्टर स्ट्रैंथ तो पहले ही कम है, वे भी इलाज में लगे रहेंगे तो स्टूडैंट्स को पढ़ाएगा कौन?’

‘फिर क्या हल है?’

‘कालेज मैनेजमैंट से कहिए, नए डाक्टर भर्ती करें। अच्छे डाक्टर होंगे तो ही मरीज आएँगे।

‘लेकिन इससे तो बजट बिगड़ जाएगा।’

‘बजट बढ़ाने के लिए स्टूडेंट्स पर नए चार्जिज लगाएँ। आखिर सब उन्ही के भविष्य के लिए ही तो कररहे हैं।’

‘आपकी बात मैनेजमैंट तक पहुँचा दूँगा। फिर भी मरीज बढ़ाने का कोई और उपाय?’

‘रोजाना पाँच-सात फर्जी मरीज दाखिल हुए दिखा देते हैं। इसी तरह कागजों में बैड भर देते हैं। काउंसिल को सत्तर परसेंट बैड-आकुपेंसी ही तो चाहिए।’

‘इंस्पैक्शन के वक्त क्या करेंगे?’

‘तब मज़दूरों, भिखारियों, रिक्शावालों को दिहाड़ी पर लाकर लेटा देंगे।’ प्रोफैसर ने मुस्कराते हुए कहा।

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बी-1/248, यमुना विहार, दिल्ली-110053

आँखों देखी

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         सुबह का उजाला फैलने लगा था. लम्बी दूरी की ट्रेन ने एक तेज विसिल के साथ प्लेटफार्म छोड़ा ही था कि मेरे कोच में टी.सी. ने टिकिट निरीक्षण करते-करते मेरे सामने की बर्थ पर बैठे हुए पढ़े-लिखे संभ्रात से दिखने वाले, पचहत्तर-अस्सी वर्षीय वृद्ध से टिकिट दिखाने के लिये कहा तो उन्होने टी.सी.की ओर टिकिट बढाई. टिकिट देख कर टी.सी. ने कहा-‘‘ यह तो जनरल कोच का टिकिट है और आप तृतीय श्रेणी के आरक्षित कोच में बैठे हुए है.’

‘‘जी हाँ, आप सच कह रहे है. आप तो मुझे दो स्टेशन बाद आने वाले बिलासपुर स्टेशन तक के लिए एक बर्थ आरक्षित कर दें और जो भी किराया होता हो ,वह मुझसे ले ले.’’

टी.सी. ने टिकिट वापिस करते हुए कहा-‘ वैसे तो बिलासपुर तक का निर्धारित किराया पचहत्तर रुपये होता है, लेकिन आप मुझे केवल पचास रुपये दे दीजिए. मैं बिलासपुर तक इसी कोच में हूँ’

‘ जी नही, आप तो मेरे लिए एक बर्थ आरक्षित कर दे.’ वृध्द ने कहा.

‘देखिए, आपको सीधे-सीधे पच्चीस रुपये का लाभ हो रहा है.’ टी.सी. ने समझाते हुए कहा.

‘ और सरकार को पचहत्तर रुपये का सीधा-सीधा नुकसान हो रहा है.’ वह बुदबुदाया

‘जरा जल्दी कीजिए मुझे और भी यात्रियों की टिकिट चेक करना है. टी.सी. ने पचास रुपयों  के लिये अपना दाहिना हाथ फैलाया.

तभी अचानक वृद्ध अपनी सीट से उठे. अब उनकी तेज एवं गंभीर आवाज पूरे कम्पार्टमेंट में गूँज रही थी .वे टी.सी. से कह रहे थे -‘ आपको हमारी सरकार क्या कुछ नही देती ? सुंदर, निर्धारित यूनिफार्म, बढिया वेतन, वर्ष में एक बार तगड़ा बोनस, वर्ष भर तरह-तरह के अवकाश, रहने को सरकारी मकान, जीवन भर आपको एवं आपके परिवार को निःशुल्क चिकित्सा सुविधा, मुफ्त रेल यात्राएँ, सेवानिवृत्ति  के पश्चात् पेन्शन, मृत्यु बाद पत्नी को पेन्शन और परिवार के एक सदस्य को अनुकंपा नियुक्ति, इसके अतिरिक्त अनेकानेक सुविधाएँ, इसके बदले में आप सरकार को क्या दे रहे है ? रिश्वत लेकर सरकार को आर्थिक हानि ! शर्म आनी चाहिये आपको.’’

भयभीत टी.सी. ने पचहत्तर रुपये वृद्ध से लेकर उसे टिकिट देते हुए सर झुका कर तेजी से दूसरे कम्पार्टमेंट की ओर चल दिया. यात्रियों ने पहली बार किसी रिश्वत लेने वाले को इस तरह सर झुका कर भागते हुए देखा था. अब वे खुश होकर उस वृद्ध को प्रशंसा भरी नजरो से देखते हुए, अपने स्थान से खड़े हो कर उनके सम्मान में ताली बजा रहे थे जिनमें मैं भी शामिल था ।

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प्रभात दुबे, 111 पुष्पांजली स्कूल के सामने,शक्तिनगर जबलपुर

मो0नं0 9424310984

शक्तिनगर जबलपुर

व्यवहार

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अचानक बारिश होने लगी तो दोनों दोस्त जल्दी से सड़क के किनारे बाइक खड़ी करके एक दुकान के छज्जे के नीचे जाकर खड़े हो गए और बारिश थमने का इंतज़ार करने लगे।
दूकानदार की नज़र इन पर पड़ी तो उसने झल्लाते हुए उन्हें दूकान से हट जाने को कहा।
वे दोनों वहाँ से हटकर बाजू की दूकान में जाकर खड़े हो गए।
उस दूकानदार की नज़र जब इन पर पड़ी तो वह इनसे बोला-बाहर खड़े रहोगे तो भीग जाओगे,अंदर आ जाइये।
आजूबाजू के दूकान मालिकों की अलग-अलग सोच और व्यवहार देखकर वे हतप्रभ रह गए।

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नरेंद्र श्रीवास्तव,    पलोटन गंज ,गाडरवारा,    जिला-नरसिंहपुर (मप्र)
मोबा.9993278808, narendrashrivastav55@gmail.com

आकलन

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श्री बख़्शी अभिवादन करने की मुद्रा में स्टाफ़रूम में घुसे। वहाँ बैठे दोनों अध्यापकों ने उनके अभिवादन का जवाब दिया और अपने काम में व्यस्त हो गए। श्री बख़्शी को इस विद्यालय में अध्यापक बनकर आए एक हफ़्ते के करीब हो रहा था। आवश्यकता से अधिक आत्मविश्वास, बड़बोलेपन और मुँहफट स्वभाव के होने के कारण समझदार लोग उनसे थोड़ा दूर ही रहने की कोशिश करते थे। चश्मे से झाँकती उनकी तीर जैसी नज़र हर चीज़ का एक्स-रे लेने को उत्सुक रहती थी। अचानक उनकी निगाह कोने पर पड़ी किसी चीज़ पर पड़ी। उन्होंने जाकर उसे उठाया तो वह एक सोने की अँगूठी थी। उन्होंने लपककर उसे उठाया और वहाँ बैठे अध्यापकों से पूछा कि वह अँगूठी उनकी है क्या ! उन दोनों ने ””नामें सिर हिला दिया। इसपर श्री बख़्शी बोले,

अजी !शुकर कीजिए कि मैंने देख लिया वरना सफ़ाई कर्मचारी तो अब तक इसपर अपने हाथ साफ़ कर गया होता। हम्म्म….

        उस दिन श्री बख़्शी ने हर मिलने वाले को अपना यह कार्य बढ़ा-चढ़ा के बताया, इस वाक्य के साथ कि ””””अजी शुकर कीजिए कि मैंने देख लिया वरना सफ़ाई कर्मचारी तो अब तक इसपर अपने हाथ साफ़ कर गया होता। हम्म्म…. ””””

      अगले दिन जब वे सीना ताने स्टाफ़ रूम में प्रवेश करने लगे तो वहाँ एक लड़के को मेज़ का सामान का सामान ठीक करते हुए देखकर बोल पड़े,

क्या बात है भाई? कौन हो तुम और क्या ढूँढ रहे हो?”

इसपर वह लड़का बोला,

अपनी सोने की चेन खोज रहा हूँ, यहीं कहीं गिरी थी।

इसपर बख़्शी जी बोले

अरे कहाँ ! यहाँ तो केवल अँगूठी ही गिरी थी, जो मैंने कल लॉस्ट प्रॉपर्टीज़ में जमा करवा दी थी। शुकर करो मैंने देख लिया वरना…

बीच में ही वह लड़का बोल पड़ा,

नहीं -नहीं ! चेन भी थी साथ में। आप कैसे कह रहे हैं?”

इस बात पर श्री बख़्शी को बहुत ज़ोर का ग़ुस्सा आया और वे बोले,

तुम्हारा मतलब क्या है? क्या मैंने वह चेन चुरा ली?

 लड़के ने बेधड़क होकर कहा,

अब मुझे क्या पता सर!

अब तो श्री बख़्शी का मुँह तमतमा उठा वे चिंघाड़ उठे,

ख़बरदार ! तुम समझते क्या हो अपनेआप को? तुम मुझे जानते भी हो?”

इसपर वह लड़का बोला,

जी सरयही तो मैं भी कहना चाहता हूँ !

बख़्शी जी बोले,

क्या मतलब?”

लड़के ने कहा,

मतलब वही सर -जिस तरह मैं आपको नहीं जानता, उसी तरह आप भी मुझे कितना जानते हैं? मैं यहाँ का सफ़ाई कर्मचारी हूँ।

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धारणा(सिन्धी)

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अनुवाद( देवी नागरानी)

माँ हिन शहर में बिल्कुल अनजान हुयुस. काफी डुक-डोर करे कंह तरह पासी मुहल्ले में हिकु मकान गोल्हे सघ्युस. ट्यो डींहु ही कुटिंब शिफ़्ट कयो हो. गाल्ह गाल्ह में आफ़िस में ख़बर पई त माँ पंहंजे कुटुंब सां पासी मुहल्ले में शिफ़्ट करे चुको आह्याँ. वड़े साहब छिरकंदे चयो -‘तव्हां पहिंजे परिवार साँ हिन मोहल्ले में रही सघंदा.’

‘छा कुछ गड़बड़ थी वई आहे सर?’ मूँ हैरानीअ साँ पुछो.

‘ तमाम गंदो मुहल्लो आहे. हिते घणो करे हर डींह कुछ न कुछ लफड़ो थींदो रहंदो आहे. सँभाल साँ रहणो पवंदव.’ साहब जे मथे ते चिन्ता जूँ रेखाऊँ उभरयूं-‘हीउ मुहल्लो गन्दे मुहल्ले जे नाले साँ बदनाम आहे. गुण्डागर्दी ब कुछ घणी आहे उत.’

माँ पहंजी सीट ते अची वेठों ई हुयस त व वडो बाबू अची पहुतो-‘सर तव्हाँ मकान गन्दे मुहल्ले में वरतों आहे. ’

‘लगे थो मूँ मकान वठी ठीक न कयो आहे.’ -मूँ पछतावे जे सुर में चयो.

‘हा, सर ठीक न कयो आहे. ही मुहल्लो रहण लायक नाहे. जेतरो जल्दी थी सघे, मकान बदले छड्यो’ -हुन पंहंज्यू अनुभवी अख़्यू मूँ ते टिकाए छड्यूँ.

हिन मुहल्ले में अचण जे करे माँ घणी चिंता में पइजी व्युस. घर जे साम्हूँ पान-टाफ़ी विकणण वारे खोखे ते नज़र पई. खोखेवारो कारो-कलूटो मुछुनवारो, हिक दम गुण्डो थे नज़र आयो. कचर-कचर पान चबाईंदे हू अजा ब घणो भवाइतो पे लगो. सचमुच माँ ग़लत जगह ते अची व्यो आह्याँ. मुखे सञी रात ठीक साँ निंड न आई. छित ते कँह जे टिपण जो आवाज़ आयो. मुहिंजा साहु सुकी व्यो. माँ डिञंदे डिञंदे उथ्युस. बिना आहट जे बाहिर आयुस. दिल ज़ोर साँ धड़की रही हुई. खुड् ते नज़र वई, उते हिक बिल्ली वेठी हुई.

अजु बिपहरन जो बाज़ार माँ अची करे लेटियुस त अख लगी वई. थोड़ी देर में दरवाज़े ते खड़को थ्यो. दरवाज़ो खुल्यल हो, माँ हड़बड़ाइजी करे उथयस.

साम्हूं उहोई पान वारो मुछन्दर बीठो मुरकी रह्यो हो. बिपहरन जो सन्नाटो हुयो. मुखे कट्यो त खून ही न हुजे.

‘छा गाल्ह आहे? मूँ पुछ्योमांस

‘ शायद तव्हांजो ई बार हूंदो. टाफ़ी वठण लाइ मूं वट आयो. हुन ही नोट मुंखे डिनो’-चवंदे हुन पान वारे सौ जो नोट मूंडे वधायों. माँ छिरक्युस. ही सौ जो नोट मुहिंजी ख़मीस जे खीसे में हो. डिठो – खीसो खाली हो. लगे थो सोनूअ चुपचाप मुंहिंजे खीसे माँ सौ जो ही नोट कढी वरतो हो.

‘ टाफ़ीअ जा घणा पैसा थ्या?”

‘सिर्फ़ पन्झा पैसा, वरी कड़ंह वठंदोसांव”-हू कचर-कचर पान चबाईंदे मुरक्यो. हुन जो चहरो उजली मुरक में वेड्हयल हो. -‘चंगो बाबू साहब, प्रणाम ! ’ चई हू मोटी व्यो.

माँ ख़ुद खे हींअर तमाम घणो हलको महसूस करे रह्यो होस.

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हरेक में

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(अनुवाद-सुकेश साहनी)

एक बार मैंने धुंध को मुट्ठी में भर लिया।

जब मुट्ठी खोली तो देखा, धुंध एक कीड़े में तब्दील हो गई थी।

मैंने मुट्ठी को बंद कर फिर खोला, इस बार वहां एक चिड़िया थी।

मैंने फिर मुट्ठी को बंद किया और खोला, इस बार वहाँ उदास चेहरे से ऊपर ताकता आदमी खड़ा था।

मैंने यह क्रिया फिर दोहराई तो इस बार मुट्ठी में धुंध के सिवा कुछ नहीं था–पर अब मैं बहुत मीठा गीत सुनने लगा था। इससे पहले मैं खुद को इस धरती पर रेंगने वाला निरीह प्राणी समझता था। उस दिन मुझे पता चला कि पूरी पृथ्वी और उस पर का जीवन मेरे भीतर ही धड़कता है।

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भारतीय लघुकथाओं में मनोविज्ञान

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मेरा बचपन संयुक्त परिवार में बीता है। एक घटना याद आ रही है। सुबह उठ कर देखता हूँ–माँ रसोई में नहीं है बल्कि रसोई के बाहर बने स्टोर में अलग–थलग बैठी हैं। दादी माता जी को वहीं चाय नाश्ता दे रही है। मुझे हैरानी होती है। माँ तो बहुत सबेरे उठकर काम में लग जाती है हम रसोई उनके पास बैठकर ही नाश्ता करते हैं। हमें खिलाने–पिलाने के बाद ही खुद खाती हैं।
‘‘आपको क्या हुआ है?’’ मैं माँ से पूछता हूँ।
‘‘कुछ भी नहीं।’’ माँ कहती है।
‘‘तो आज आप यहाँ क्यों बैठी हैं, दादी खाना क्यों बना रही है?’’
‘‘वैसे ही, मेरी तबीयत ठीक नहीं है।’’ माँ हँसते हुए कहती हैं।
मेरा बाल मन सोच में पड़ जाता है– माँ बीमार भी नहीं लग रहीं,तबीयत खराब होने की बात हँसते हुए कह रही है? मैं खेलकूद में लग जाता हूँ और इस बात को भूल जाता हूँ। दोपहर में खाने के समय फिर मेरा ध्यान इस ओर जाता है। दादी माता जी को रोटी हाथ में दे रही हैं, किसी बर्तन में नहीं।
‘‘आप प्लेट में रोटी क्यों नहीं खा रही ?’’ मैं पूछता हूँ।
माँ मेरी ओर देखते हुए कुछ नहीं कहतीं। मैं अपना सवाल फिर दोहराता हूँ।
‘‘आज मैं गंदी हो गई हूँ।’’ माँ फिर हँसती हैं।
‘‘मतलब?’’
‘‘दरअसल आज जमादारिन को डिब्बे में पानी डालते समय कुछ छींटे मुझपर पड़ गए थे।’’
‘‘तो फिर?’’ मेरी समझ में कुछ नहीं आता।
‘‘जाओ खेलो, तुम अभी छोटे हो कुछ नहीं समझोगे।’’
माँ कहती हैं और दादी और ताई हँसने लगती है।
बात बहुत पुरानी है लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है। बाल मन कितनी गहराई से सोचता है, इसी को स्मरण करते हुए इस घटना के बारे में लिख रहा हूँ। मुझे याद है इस बात पर मैंने काफी माथापच्ची की थी अपने बड़े भाइयों से भी पूछा था।
दरअसल माँ मासिक धर्म से थीं। उन दिनों उनका रसोई में प्रवेश वर्जित था। देखने की बात यह है कि मेरे द्वारा उठाए गए सवाल पर माँ ने जो उत्तर दिया उससे मेरे बाल मन पर क्या प्रभाव पड़ा? उन दिनों हमारे यहाँ आधुनिक टायलेट नहीं थे। मैला उठाने जमादारिन आती थी। माँ द्वारा मासिक धर्म की बात न बता सकने की विवशता के चलते जो कारण दिया गया, उससे बाल मन पर दलितों के अपवित्र होने की बात कहीं गहरे अंकित हो जाती है। बहुत सी बातें धीरे–धीरे खुद ही समझ में आने लगती है।
अकसर हम बच्चों को बहलाने के लिए लापरवाही से कुछ भी कह जाते हैं; जबकि बच्चे हमारी बातों को काफी गम्भीरता से लेते हैं। बाल मनोविज्ञान पर आधारित संचयन के अध्ययन से यह बात और भी स्पष्ट होकर सामने आती है। आज भी स्थितियों में बहुत बदलाव नहीं आया है। भूपिन्दर सिंह : रोटी का टुकड़ा, नीलिमा टिक्कू : नासमझ, मीरा चन्द्रा : बच्चा जैसी लघुकथाओं में बच्चों द्वारा पूछे जा रहे प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। इतना अंतर अवश्य आया है कि ाहरी क्षेत्रों में दलित वर्ग का बच्चा अब अपने शोषण के प्रति जागरूक है (कमल चोपड़ा : खेलने दो, रंगनाथ दिवाकर : गुरु दक्षिणा )
विषयों के आधार पर लघुकथा के विभिन्न संचयनों को तैयार करते समय लघुकथा की ताकत का अहसास होता है। लघुकथा लेखक उस विषय की कितनी गहन पड़ताल करने में सक्षम हैं, इसे वर्तमान संचयन में भी देखा जा सकता है।
प्रस्तुत संग्रह की लघुकथाओं को अध्ययन की दृष्टि से निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है–

बच्चे और शिक्षा
होश संभालते ही हर माँ–बाप बच्चे को शिक्षित करना चाहता है। सबकी सोच अलग–अलग होती है। बालक, अभिभावक और शिक्षक के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है ।शिक्षा की कोई भी विधि -प्रविधि ,पाठ्यक्रम-पाठ्यचर्या लागू करने से पहले बच्चे को समझना होगा।कोई भी तौर-तरीका बच्चे से ऊपर नहीं है और न हो सकता है ।कोई भी व्यक्ति या संस्था इसके ऊपर नहीं है ,वरन् इसके लिए है ।यह बात सदैव ध्यान में रखनी होगी ।
गिजु भाई की लघुकथा तुम क्या पढ़ोगे उन अभिभावकों पर करारा व्यंग्य है जो आनंद लेकर अक्षर ज्ञान प्राप्त कर रहे बच्चे को बाल पोथी पढ़ने के लिए विवश कर पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा करते हैं। आज हमारे स्कूल बच्चों के लिए यातना गृह हो गए हैं (श्याम सुन्दर अग्रवाल : स्कूल)। ऐसे पिंजरों में बंद बच्चे अपनी बाल सुलभ जिज्ञासाओं एवं इच्छाओं से विमुख होकर मशीन बन जाते हैं। ऐसे में जब किसी पाठशाला में बच्चे से खुश होकर कुछ मांगने के लिए कहा जाता है तो यदि वह ‘लड्डू’ की माँग करता है तो श्रीचन्द्रधर शर्मा गुलेरी आश्वस्त होते है उन्हें लगता है कि बच्चा बच गया, उसके बचने की आशा है। स्कूल के अध्यापकों एवं अभिभावकों ने बच्चे की जन्मजात प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। प्रेम भटनागर की शिक्षाकाल उस विडम्बना से परिचय कराती है जहाँ स्कूल वाले बच्चे की प्रतिभा को सम्मानित करना चाहते है परन्तु स्कूल में अभिभावकों को बुलाने का एक ही अभिप्राय समझा जाता है कि बच्चे ने कोई शरारत की होगी। इस पर अभिभावक बच्चे की डायरी में लिख भेजते हैं –हमने कल रात को उसकी जम कर पिटाई कर दी है। उसने वादा किया है कि वह आगे से कोई शिकायत का मौका नहीं देगा। आशा है अब सम्पर्क की आवश्यकता नहीं रह गई है। बच्चों के मन में स्कूल के प्रति डर का बीजारोपण जाने अनजाने माता–पिता द्वारा भी कर दिया जाता है (सुरेश अवस्थी : स्कूल)। शिक्षा को कंधों पर भार के रूप में ढोता बच्चा युनिवर्सिटी तक की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् खूब–खूब खेलने के सपने देखता है (अशोक भाटिया : सपना)। जहाँ शिक्षक अपने दायित्व के प्रति समर्पित हैं वहाँ बच्चा शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने मन की गाँठें गुरुजन के आगे खोलने में देर नहीं करता (सतीशराज पुष्करणा : अन्तश्चेतना) । इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं अहमद निसार : पद चिह्न, भगीरथ : शिक्षा, बलराम अग्रवाल : जहर की जड़े, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र : जिज्ञासा, शैलेन्द्र सागर : हिदायत ।

बच्चे और परिवार
बच्चे अपना अधिकांश समय घर और स्कूल में बिताते हैं। ऐसे में माता–पिता की जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है। बच्चों का कोमल मस्तिष्क चीजों को बहुत जल्दी ग्रहण करता है। आज भागम–भाग के दौर में काम काजी माता–पिता के पास बच्चों के लिए अवकाश नहीं है। विभिन्न कारणों से टूटते पति–पत्नी के रिश्ते बच्चों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं। आधुनिकता की दौड़ में बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ाने वाले माता–पिता बच्चों की प्रतिभा की नुमाइश करते हुए गर्व महसूस करते हैं ऐसे अभिभावकों की पोल बहुत जल्दी खुल जाती है (महेन्द्र रश्मि : कान्वेंट स्कूल)। अक्सर माता–पिता बच्चों के प्रतिकूल आचरण हेतु टी.वी. को दोषी मानते हैं, जबकि बच्चा उनके आचरण का अनुसरण करता है (माघव नागदा : असर)। ऐसे माता–पिता की परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच नन्हा बचपन पिसता रहता है (बलराम : गंदी बात)। हमारा आचरण किसी नन्हें बच्चे के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता के विष बीज का रोपण कर सकता है (सूर्यकांत नागर : विष बीज)। बच्चों के मानसिक विकास में आर्थिक कारण बड़ी बाधा के रूप में सामने आते हैं। गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जीता आम आदमी बच्चे को पाठ पढ़ाते हुए सेब और अनार के बारे में बता तो सकता है लेकिन बच्चे के प्रश्नों के आगे खुद को लाचार महसूस करता है (सुभाष नीरव : बीमार)। पारस दासोत की भूख में उस माँ की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है जो यह कहती है कि दौड़ने कूदने से भूख अच्छी नहीं अधिक लगती है इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं –सतीश दुबे : विनियोग, नासिरा शर्मा : रुतबा, प्रेम जनमजेय : जड़, अमरीक सिंह दीप : जिंदा बाइसस्कोप, उर्मि कृष्ण : अमानत, हरदर्शन सहगल : गंदी बातें, अनूप कुमार : मातृत्व, निर्मला सिंह : आक्रोश, विजय बजाज : संस्कार, काली चरण प्रेमी : चोर, ।

बच्चे और समाज

बच्चों के चरित्र निर्माण में समाज का बहुत बड़ा योगदान होता है। यह दुनिया सबसे बड़ी पाठशाला है। (सुकेश साहनी : स्कूल)। आर्थिक कारणों से घर छोड़ कर कमाने निकला बालक जीवन संघर्ष करता हुआ समाज के कथाकथित ठेकेदारों को मुँह तोड़ उत्तर दे सकता है। संग्रह में सम्मिलित अधिकतर रचनाएं बच्चों के प्रति समाज की उपेक्षा को चित्रित करती है। यहाँ तक कि वक्त कटी के लिए किसी भिखारी बच्चे तमाम सवाल किए जाते हैं, बिना उसकी परिस्थितियाँ जाने। ऐसे उजबकों को बच्चा निरुत्तर कर देता है जब वह यह कहता है कि माँ को बेटा कमा कर नहीं खिलायागा तो कौन खिलाएगा (हीरालाल नागर : बौना)। समाज के निर्मम रवैये के चलते बच्चों में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हमारी जरा सी चूक किसी बच्चे की जीवन दिशा बदल सकती है इसे रावी की लघुकथा भिखारी और चोर में देखा जा सकता है। हरीश करमचंदाणी की लूट उन गरीब बच्चों के दर्द को रेखांकित करती है जो पतंग न खरीद पाने के कारण कटकर आई पतंग उड़ाना चाहते हैं पर यहाँ भी किसी बड़ी कोठी की छत पर खड़ा बच्चा पतंग की डोर थाम उन्हें इस खुशी से वंचित कर देता है।
छोटी उम्र में काम के लिए निकलना पड़ना जहाँ गरीब तबके के बच्चों की नियति है वहीं समाज के सक्षम तबके द्वारा आर्थिक लाभ कमाने के लिए भोलेभाले बचपन को बाल श्रम में झोंक दिया जाता है। सरकारी मशीनरी इस समस्या पर खानापूरी कर पल्ला झाड़ लेती है और यह अंतहीन सिलसिला (विक्रम सोनी) चलता रहता है। मजदूरी के लिए विवश ऐसे बच्चे सपनों (देवांशु वत्स) में जीने को विवश है। सपने और सपने (रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु’) में बहुत ही मार्मिक ढंग से इस हकीकत को रेखांकित किया गया है कि सपनों से जीवन नहीं चलता, भूख तो रोटी से ही शांत होगी। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–हरिमोहन शर्मा : सिद्धार्थ, भारत यायावर : काम, कुमार नरेन्द्र : अवमूल्यन, दीपक घोष : रोटी, यशपाल : सीख, अवधेश कुमार : मेरे बच्चे, दिनेश पाठक शशि : लक्ष्य, चित्रा मुद्गल : नसीहत, जोगिन्दर पाल : चोर, नीता सिंह : टिप, मुकीत खान : भीख।

बाल मन की गहराइयाँ

बाल मन की गहराई को रेखांकित करती अनेक लघुकथाएं यहाँ उपस्थित है। कामगार का बच्चा अपने पिता की परिस्थितियों से भली–भाँति वाकिफ है (रमेश बतरा : कहूं कहानी)। डॉ. तारा निगम की लघुकथा में बच्ची माँ से गुड़िया न लेने की बात कहती है क्योंकि उसे पता है कि आगे चलकर उसे गुड़िया नहीं बनना है। राजेन्द्र कुमार कन्नौजिया की लघुकथा की लड़की उस घरौंदे को बार–बार तोड़ देती है जिसपर लड़का सिर्फ़ अपना नाम लिखता है। वह उससे कहती है कि तू इस पर मेरा नाम क्यों नहीं लिखता। इस श्रेणी में राजेन्द्र यादव की अपने पार उत्कृष्ट रचना है। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–विष्णु नागर : बच्चा और गेंद, अनिंन्दिता : सपने, रमेश गौतम : बारात, जगदीश कश्यप : जन–मन–गण, पूरन मृद्गल

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अमृतसर में लघुकथा सम्मेलन

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अमृतसर में  23 अक्तुबर को  लघुकथा सम्मेलन का आयोजन किया गया है।

सतीशराज पुष्करणा की लघुकथाओं की पड़ताल

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हिन्दी-लघुकथा के विकास में जिन लघुकथाकारों ने उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया है उनमें एक महत्त्वपूर्ण नाम सतीशराज पुष्करणा का भी है। इन्होंने इस विधाके विकास हेतु प्रत्येक संभव पक्ष एवं माध्यम का सार्थक एवं सटीक उपयोग किया है।

PArATAALमधुदीप के सम्पादकत्व में ‘पड़ाव और पड़ताल’ के 15 खंड प्रकाशित हुए हैं। 16वें खंड से उन्होंने लघुकथा के शीर्षस्थ हस्ताक्षरों को 25वें खंड तक प्रकाशित करने की योजना के अन्तर्गत 22 खंड प्रकाशित किये हैं। यह 22वाँ खण्ड सतीशराज पुष्करणा की 66 लघुकथाओं पर केन्द्रित है। यह पुस्तक 286 पृष्ठों तक पसरी हुई है, जिसमें सम्पादकीय एवं पुष्करणा के परिचय के पश्चात् सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा-यात्रा प्रस्तुत है, जिसमें पुष्करणा ने अपने लघुकथा-लेखनारंभ से अब तक प्रायः प्रमुख कार्यों एवं घटनाओं की सटीक चर्चा की है, जिससे लघुकथा के इतिहास-पक्ष को बल मिलता है।

लघुकथा-यात्रा के पश्चात् पुष्करणा के प्रायः चर्चित 66 लघुकथाएँ हैं जिनसे लघुकथा-जगत् के अतिरिक्त प्रायः सभी पाठक पूर्णरूप से परिचित हैं। इनकी लघुकथाओं की क्रमशः डॉशंकर प्रसाद, अनिता ललित, डॉज्योत्स्ना शर्मा और प्रियंका गुप्ता ने काफी गम्भीरता से पड़ताल की है। पड़ताल करने के क्रम में डॉशंकर प्रसाद लिखते हैं – डॉ० पुष्करणा के लघुकथा-सृजन में विषय-वैविध्य पर्याप्त मात्रा में है। अतः उन्होंने इस बहाने प्रयोग भी काफी किए हैं। उन्होंने अपनी अनेक लघुकथाओं में अनेक-अनेक उद्देश्यों की पूर्ति कर डाली है ; किन्तु लघुकथा के अनुशासन का अतिक्रमण भी नहीं किया।” वस्तुतः किसी रचनाकार को यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए ,तभी विधा का विकास संभव हो पाता है। अनिता ललित की दृष्टि में – पुष्करणा जी की लघुकथाओं  का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। शायद ही कोई विषय ऐसा होगा ,जो उनकी पारखी निगाह से बचा होगा। समाज और राजनीति से लेकर मानवीय संवेदनाएँ तथा हृदय और मस्तिष्क के उलझते हुए धागों का भी खूबसूरत वर्णन एवं चित्रण आपकी लघुकथाओं में दृष्टिगोचर होता है।” वस्तुतः पुष्करणा जी समाज में आँख-कान खुले रखकर समाज एवं समय का अवलोकन करते हैं और अपने वर्तमान के सच को सही एवं सटीक अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। पड़ताल की तीसरे पायदान पर डॉज्योत्स्ना शर्मा तटस्थ पड़ताल करते हुए लिखती हैं, “शीर्षक चयन में पुष्करणा जी बहुत सोच-विचार कर सटीक शीर्षक का चयन करते हैं । यही कारण है कि ‘बोफोर्स काण्ड’, ‘रक्तबीज’, ‘फ़र्ज’ जैसी लघुकथाएँ भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य करने के साथ-साथ अपने शीर्षक से भी विशिष्ट हैं। ‘कुमुदिनी का फूल’ लघुकथा भी पुरानी मान्यताओं से आगे अपने सुन्दर कथावस्तु और उसके मर्म को अभिव्यक्ति करते शीर्षक से बहुत प्रभावी बन पड़ी है।” डॉ पुष्करणा की लघुकथाओं में उनके शीर्षक प्रायःअपना औचित्य सिद्ध करते आते हैं और लघुकथा का अभिन्न अंग बन जाते हैं । प्रियंका गुप्ता अपनी पड़ताल के क्रम में डॉ० पुष्करणा की लघुकथाओं के विषय में लिखती हैं-पुष्करणा जी की लघुकथाएँ अपने पाठकों के सामने कभी प्रत्यक्ष, तो कभी परोक्ष रूप से कोई-न-कोई ऐसा सवाल खड़ा कर देती हैं, जिस पर वह सोचने पर मजबूर हो जाता है। बस कुछेक लघुकथाएँ थोड़ी सामान्य रचनाएँ कही जा सकती हैं, पर उनकी संख्या नगण्य ही है। पुष्करणा जी का लघुकथा-संसार बहुत विस्तृत है।” निस्संदेह डॉ०पुष्करणा कथानक के चुनाव में काफी सतर्कता बरतते हैं,ताकि वे अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हुए किसी-न-किसी सवाल को खड़ा कर सकें ।

पुस्तक के अन्त में धरोहर खंड में डॉ०पुष्करणा का ‘कथादेश’ (सं डॉ०सतीशराज पुष्करणा) 1991 में प्रकाशित लेख ‘हिन्दी-लघुकथा में समीक्षा की समस्याएँ एवं समाधान’ प्रकाशित है जिससे लघुकथाकार का दृष्टिकोण समझने में सुविधा हो सके। डॉ०पुष्करणा ने इस लेख में एक बड़े ही मार्के की बात कही है- “आपकी लघुकथाओं में दम होना चाहिए, फिर चाहे कोई भी, कुछ भी लिखता रहे, कोई अन्तर नहीं पड़ता । समय न्याय करता है और अच्छी रचनाओं से ही लेखक और स्वस्थ समीक्षाओं से ही समीक्षक, साहित्य और साहित्यरूप जीवित रहते हैं।” डॉ० पुष्करणा की यह बात बहुत तथ्यपूर्ण है, जो भावी लेखकों का भी मार्गदर्शन करती है।

कुल मिलाकर मैं यह कहना चाहती हूँ कि ‘पड़ाव और पड़ताल’, खंड-22 के संपादक मधुदीप ने सामग्री के चयन में बहुत श्रम किया है और उन्होंने इसे एक श्रेष्ठ कृति बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है ।लघुकथा-शोधकर्ताओं हेतु यह पुस्तक अपना औचित्य सिद्ध करेगी, ऐसा विश्वास किया जा सकता है।

सतीशराज पुष्करणा की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल, संपादक: मधुदीप, प्रकाशकः दिशा प्रकाशन, 138/16, त्रिनगर, दिल्ली-110035, संस्करण: 2016, पृष्ठ 286, मूल्य: रु. 500

-0-डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र,वाणी-वाटिका,सैदपुर, पटना-800 004,मो: 9430212579

 

खोजी कुत्ते/ਖੋਜੀ ਕੁੱਤੇ/

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ਮਾਧਵ ਨਾਗਦਾ ( अनुवाद : श्याम सुन्दर अग्रवाल)

ਸ਼ਹਿਰ ਵਿਚ ਪਿਛਲੇ ਦਿਨੀਂ ਹੋਈ ਚੋਰੀ ਦੀ ਚਰਚਾ ਅਜੇ ਤੱਕ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਜਬਾਨ ਉੱਪਰ ਚੜ੍ਹੀ ਹੋਈ ਹੈ। ਲਗਭਗ ਦੋ ਲੱਖ ਦੀ ਚੋਰੀ, ਤੇ ਉਹ ਵੀ ਪੁਲਿਸ ਥਾਣੇ ਤੋਂ ਸਿਰਫ ਸੌ ਗਜ ਦੀ ਦੂਰੀ ਤੇ! ਕੁਝ ਲੋਕ ਚੋਰਾਂ ਦੀ ਤਾਰੀਫ ਕਰਦੇ—‘ਵਾਹ! ਕੀ ਹੁਨਰ ਸੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ’ਚ! ਅੱਖਾਂ ’ਚੋਂ ਸੁਰਮਾ ਚੁਰਾ ਕੇ ਲੈ ਜਾਣ ਤੇ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਪਤਾ ਵੀ ਨਾ ਲੱਗੇ!’

ਪਰੰਤੂ ਬਹੁਤੇ ਲੋਕ ਕਹਿੰਦੇ…‘ਅਜਿਹੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਤਾਂ ਸਿਪਾਹੀਆਂ ਦੀਆਂ ਹੀ ਬਣੀਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਨੇ ਕਿ ਸੁਰਮਾ ਨਿੱਕਲ ਜਾਣ ਤੇ ਵੀ ਨਾ ਖੁੱਲ੍ਹਣ।’

ਇਸ ਸਿਲਸਿਲੇ ਵਿਚ ਪਤਵੰਤੇ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਕਈ ਦਲ ਵਾਰੀ-ਵਾਰੀ ਐਸ.ਪੀ. ਸਾਹਿਬ ਨੂੰ  ਮਿਲਣ ਗਏ। ਇਹਨਾਂ ਵਿੱਚੋਂ ਇਕ ਦਲ ਬੈਂਕ ਮੁਲਾਜ਼ਮਾਂ ਦਾ ਵੀ ਸੀ। ਬੈਂਕ ਮੁਲਾਜ਼ਮ ਇਸ ਲਈ ਗਏ ਕਿ ਜਿਸਦੇ ਚੋਰੀ ਹੋਈ ਸੀ, ਉਹ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਹੀ ਪੁਰਾਣਾ ਕੁਲੀਗ ਸੀ। ਖ਼ੈਰ, ਬੈਂਕ ਕਰਮਚਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਤਾਂ ਐਸ.ਪੀ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਚੰਗੀ ਝਾੜ ਪਾਈ —‘ਤੁਸੀਂ ਕਿਹੜਾ ਦੁੱਧ ਧੋਤੇ ਓਂ! ਤੁਹਾਡੇ ਕਾਰਨ ਈ ਕਰੋੜਾਂ ਰੁਪਏ ਦੇ ਬੈਂਕ ਘੁਟਾਲੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਸਲਈ ਪੁਲਿਸ ਵਾਲਿਆਂ ਬਾਰੇ ਇਕ ਵੀ ਸ਼ਬਦ ਬੋਲਣ ਦਾ ਤੁਹਨੂੰ ਕੋਈ ਅਧਿਕਾਰ ਨਹੀਂ। ਦੁਬਾਰਾ ਨਾ ਆਉਣਾ ਮੇਰੇ ਕੋਲ।’

ਕੁਝ ਹੋਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪਤਵੰਤੇ ਲੋਕਾਂ ਨੇ , ਜੋ ਐਸ. ਪੀ. ਸਾਹਿਬ ਨਾਲ ਉੱਠਣ-ਬੈਠਣ ਵਾਲਿਆਂ ਵਿੱਚੋਂ ਸਨ, ਇਕ ਰਾਇ ਰੱਖੀ, “ਐਸ. ਪੀ. ਸਾਹਬ! ਇਸ ਚੋਰੀ ਦੀ ਗੁੱਥੀ ਸੁਲਝਾਉਣ ਲਈ ਤੁਸੀਂ ਜੈਪੁਰ ਤੋਂ  ਖੋਜੀ ਕੁੱਤੇ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਮੰਗਵਾਉਂਦੇ? ਜਨਤਾ ਦਾ ਧੀਰਜ ਹੁਣ ਜਵਾਬ ਦਿੰਦਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ।”

ਪਹਿਲਾਂ ਤਾਂ ਐਸ. ਪੀ. ਸਾਹਿਬ ਹੱਸੇ, ਜਿਸਦੇ ਦੋ ਅਰਥ ਸਨ। ਇਕ ਤਾਂ ਇਹ ਕਿ ਜਿਸ ਜਨਤਾ ਦੀ ਉਹ ਗੱਲ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ, ਉਹਦਾ ਧੀਰਜ ਕਦੇ ਖਤਮ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ। ਦੂਜਾ ਇਹ ਕਿ ਨਵੀਂ ਗੱਲ ਨੌਂ ਦਿਨ ਦੀ ਤੇ ਖਿੱਚੋਤਾਣ ਤੇਰ੍ਹਾਂ ਦਿਨ ਦੀ। ਪਰੰਤੂ ਲੋਕਾਂ ਸਾਹਣੇ ਉਹਨਾਂ ਤੀਜੀ ਹੀ ਗੱਲ ਰੱਖੀ। ਬੋਲੇ, “ਯਾਰ, ਖੋਜੀ ਕੁੱਤਿਆਂ ਬਾਰੇ ਸਿਪਾਹੀਆਂ ਦੀ ਰਾਇ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਅਜਿਹੇ ਹੀ ਇੱਕ ਕੇਸ ’ਚ ਕੁੱਤੇ ਮੰਗਵਾਏ ਗਏ ਸਨ। ਪਰ ਇਹ ਬੇਵਫ਼ਾ ਜਾਨਵਰ ਸੁੰਘਦੇ-ਸੁੰਘਦੇ ਥਾਣੇ ’ਚ ਈ ਜਾ ਵੜੇ। ਉਦੋਂ ਤੋਂ ਅਸੀਂ ਲੋਕ ਕੁੱਤੇ ਮੰਗਵਾਉਣ ਦੇ ਪੱਖ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਹਾਂ।”

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