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Channel: लघुकथा
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नालायक

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“शुक्र है भगवान का सारा कारज निर्विघ्न सम्पन्न हो गया और बिटिया अपने घर गई। हमारा तो गंगास्नान हो गया।” बैंक्वेट हॉल से डोली विदा करके घर वापसी के लिए कार में बैठी माँ ने आँचल के सिरे से पनीली आँखें पोंछते हुए रुँधे स्वर में कहा।

“भगवान का ही शुक्र है… वर्ना तुम्हारे लाड़ले ने तो कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी…। ये तो काकी थी जिसने बात सँभाल ली।” बाबूजी की आवाज़ में तलख़ी थी।

“अरे बेटा! ये सब तो प्रभु के बनाए संजोग हैं, वर्ना हमारी क्या बिसात।” बगल में बैठी बुर्जु़ग काकी दोनों हाथ जोड़कर ऊपर को देखते हुए बोली।

“आपको तो बस मौक़ा चाहिए सैंडी…”

‘सैंडी’ नाम सुनकर बाबूजी ने माथे पर बल पड़ गए और उन्होंने ग़ुस्से से आँखें तरेरकर माँ की तरफ़ देखा।

“मेरा मतलब सदाशिव की ग़लती निकालने को।”

“तो क्या उस नालायक़ के नाम की माला जपता फिरूँ। याद नहीं कैसी बदतमीज़ी की थी जब वो लोग ऋतु को देखने आए थे… उनके मुँह पर ही साफ़ मना कर दिया था उसने कि अभी उम्र ही क्या है… अभी तो पढ़ रही है… एक-दो साल बाद सोचेंगे। घर बैठै बिठाए ग्रीन कार्ड होल्डर का रिश्ता भला कितनों को नसीब होता है। जूतियाँ घिस जाती हैं अच्छा घरबार ढूँढ़ने में। यह तो भला हो काकी थी जिसने बात बिगड़ने नहीं दी।”

“वो तो बस ऋतु के पढ़ाई के शौंक को देखकर…।”

“हुँअ…. पढ़ाई… ख़ुद तो बीच में ही… आख़िरी सिमेस्टर ही तो रह गया था। अच्छा भला इंजीनियर होता। नहीं जी…. साहिब को तो समाजसेवा करनी है… दूसरों पर अत्याचार देखा नहीं जाता। मैनेजमेंट से पंगा मोल लेकर उनका क्या बिगाड़ लिया। अपना ही कॅरियर तबाह किया न…।”

“अब मिट्टी डालो पुरानी बातों पर। यह भी तो देखो कि उन लोगों की शादी के बाद पढ़ने की सहमति मिलते ही कैसे शुक्र अस्त होने से पहले हफ़्ते भर में ही उसने हाथों-हाथ शादी की सारी तैयारियाँ करवा दीं। बैंक्वेट हॉल का ही देख लो… साल-साल पहले की बुकिंग होती है। उसकी और उसके दोस्तों की हिम्मत से ही चट मंगनी पट शादी हो पाई है। आपको कहीं भागने की ज़रूरत तक नहीं पड़ी!”

“हाँ…हाँ वो तो सब ठीक है। पर विदाई के मौक़े पर गधे के सींग जैसे कहाँ ग़ायब हो गया नालायक़ । देखा नहीं ऋतु की निगाहें कैसे बार-बार उसी को ढूँढ़ तलाश रही थीं। कल की ही फ़्लाइट है उनकी, अब साल-दो साल कहाँ आ पाएगी।” बाबूजी की आवाज़ से अंतस की टीस उभरी।

चर्र…चर्र…चर्र… गाड़ी की ब्रेक लगी, घर आ गया।

“आशीष तुम भी आ जाओ बेटा! चाय बनाती हूँ। सुबह से लगे हुए हो, थक गए होगे। मैं तो कहती हूँ यही सो जाओ। सुबह चले जाना।” माँ ने गाड़ी में छोड़ने आए आशीष से कहा।

“नहीं आंटी…. वो केटरिंग वालो से सामान का कुछ हिसाब करना है। सैंडी भाई ने….” सहसा उसकी नज़रें बाबूजी की तरफ़ गईं वह सकपका-सा गया और पुन: बोला, “सदाशिव भाई ने कहा था कि हिसाब निपटाकर ही घर जाना। अच्छा आंटी! मैं चलता हूँ… अच्छा बाबूजी….।” बाबूजी उसे बिना देखे ही अंदर चले गए।

“सब कुछ इतनी जल्दी में करना पड़ा कि रिश्ते-नातेदारों को बुला ही नहीं पाए। इतने शार्ट नोटिस पर भला कोई आता भी कैसे… वैसे भी शादियों का ज़ोर चल रहा है। और जो आए भी वह बैंक्वेट हॉल से ही चले गए।” माँ, काकी से बतियाते कमरे में दाख़िल हुई।

“देख लीं अपने लाड़ले की हरकतें। विदाई के मौक़े से ग़ायब हो गया और बाक़ी कामकाज अपने आवारा दोस्तों के ज़िम्मे लगा गया… नालायक़ …।” बाबूजी ने भुनभुनाते हुए कहा।

अचानक गिटार की उदास-सी धुन से सभी चौंक गए।

“ये आवाज़…?” बाबूजी ने सवालिया नज़रों से ऊपर देखा और सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, माँ भी उनके पीछे हो ली। ऋतु के अधखुले कमरे से झीनी-झीनी रोशनी बाहर झाँक रही थी। बाबूजी ने हौले-से अंदर देखा तो ऋतु के साथ अपने बचपन की फ़ोटो के सामने ज़मीन पर बैठा सदाशिव, ऋतु के बचपन की गुड़िया को सीने से लगाए गिटार पर उसकी पसंदीदा धुन बजा रहा था।

“न…लायक़…” धीमे से बाबूजी के कंठ से भर्राया स्वर निकला। तभी पीछे से अपने कंधे पर माँ के हाथ का स्पर्श पाकर उनकी आँखें छलछला गईं।

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