वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेज्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गाँधाी जी के तीनों बन्दरों को विकासवाद के सिद्धान्त के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।
उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, ‘‘यह क्या बनाया है?’’
चित्रकार ने मित्र का मुस्कुराकर स्वागत किया फि़र ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, ‘‘इस तस्वीर मेंये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बन्दर से इन्सान बन गए हैं, अब इनमें इन्सानों जैसे बुद्धि आ गई है, यह समझ आ गई है। अच्छाई और बुराई की परख-पूर्वज बन्दरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?’’
आँखें बन्द कर कहते हुए चित्रकार की आवाज में बात के अन्त तक दार्शनिकता और बढ़ गई थी।
‘‘ओह! लेकिन तस्वीर में इन इन्सानों की जेब कहाँ है?’’ मित्र की आवाज में आत्मविश्वास था।
चित्रकार हौले से चौका, थोड़ी-सी गर्दन घुमाकर अपने मित्र की तरफ़ देखा और पूछा, ‘‘क्यों—? जेब किसलिए?’’
‘‘ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेंगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इन्सान हैं बन्दर नहीं—-