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Channel: लघुकथा
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साँचा

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            अधिाकारी गाड़ी से निकल कर अपने चैम्बर की तरफ बढ़ रहा था कि अचानक दो कदम पीछे होकर विवेक की मेज की तरफ आते हुए बोला।

            -क्यों! पहुँचा दी फाइल मेरी टेबल पर?

            -सर वही तैयार कर रहा हूँ–वो कुछ काम आ गए थे तो—

            इससे पहले कि बात पूरी होती अधिकारी ने डाँटना शुरू कर दिया।

            -एक काम ढंग से नहीं होता तुमसे! ऑफिस में हफ्रता भर हुआ नहीं कि रंग चढ़ गया।

            -नहीं सर।

            -आधो घण्टे के अंदर मुझे फाइल कम्प्लीट चाहिए टेबल पर, समझे?

            -जी, जी सर।

            विवेक फिर से फाइल में घुस गया। अधिकारी चैम्बर की तरफ बढ़ते हुए भी बड़बड़ा रहा था।

            -अनुकम्पा के नाम पर कैसे-कैसे काहिल गधों को भरना पड़ता है, जिन्हें दो कौड़ी की अक्ल नहीं होती।

            इस सबकी आदत नहीं थी विवेक को इसलिए ऐसा अपमान सुन रो दिया। बगल वाली टेबल पर से बड़े बाबू उठकर उसके करीब आ गए, कन्धों पर दिलासा का हाथ रखते हुए समझाने लगे।

            -अरे रोते नहीं है बेटा! ये आदमी ही टेढ़ा है, तुम्हारे पिता को तो क्या-क्या नहीं बोल जाता था। बड़े भले आदमी थे बेचारे, कभी पलटकर जवाब तक नहीं देते थे। हमेशा मुस्कुराते रहते, अफसोस ऐसे इंसान के लिए भी मौत ने कैसा बहाना ढूँढ़ा—-

            पिता के अपमान की बात सुन विवेक की सिसकियाँ थम गईं, दाँत भिंच गए  मुट्ठियाँ कस गईं। वह कुर्सी से उठने ही वाला था कि तभी उसका मोबाइल फोन बज उठा, दूसरी तरफ से आवाज आई।

            -हैलो भइआ!

            -हाँ बबलू कहो।

            उसने संयत होते हुए जवाब दिया।

            -वो मकान मालिक आए हैं, कह रहे हैं तुम लोगों ने पिछले महीने का किराया भी नहीं भरा।

            -हहहाँ उनसे कहना इस महीने की सैलरी मिलते ही दे देंगे।

            फोन कट चुका था। उसने देखा कि उसकी कुर्सी पर वह नहीं उसके पिता का साँचा रखा है, वह पिघल रहा है और पिघलकर पिता के साँचे में ढलता जा रहा है।


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