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Channel: लघुकथा
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सपने में माँ

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            एक दिन माँ सपने में आई। कुछ बोली नहीं वह । चुप, जैसी वह हमेशा रहती थी, निर्विकार और निश्चल। ‘‘तुझे देख लिया, तू ठीक है।’’ उसके चेहरे पर परम सन्तोष झलक रहा था। ‘‘अपने चैतन्य में तूने मुझे बिठा रखा है इसलिए आना पड़ा कि चलते-चलते सभी रिश्तों को विराम दे दूँ।’’ वह मेरे पास आई मेरे माथे को अपने हाथों में लेकर चूमा और विलीन हो गई। तब मैं उससे सैकड़ों मील दूर था।

            मैं फिर पूरी रात सो नहीं सका। वह अब भी मेरी खुली आँखों के सामने थी, ठीक वैसी ही जैसी वह सपने में आई थी। प्रेम और श्रद्धा से मेरी आँखें नम हो गई थीं। बचपन से लेकर अब तक कई चित्र स्मृति में कौंधा गए। माँ की स्नेह भरी ठंडी छाँव में सारा ताप बह जाता था।

            माँ से बार-बार क्षमा-याचना करता रहा कि तेरी प्रेमपूर्वक सेवा नहीं कर सका, मैं गहन पश्चाताप के विषाद से घिर गया था। चिन्ताओं और आशंकाओं से ग्रस्त मेरा मन उस अवसाद से उबर नहीं पाया। कई दिनों तक मेरी पूरी चेतना पर माँ आाच्छादित रही। चुप और निश्चल। तीसरा दिन बीतते-बीतते फोन आया कि माँ अब नहीं रही।

            माँ बीमार तो क्या थी! बुढ़ापा ही था। धीरे-धीरे अशक्त हो गई उसका शरीर गलने लगा। अन्तिम बार जब मैंने उसे देखा तो मात्र ठठरी-भर रह गई थी। पूरी तरह दूसरों पर निर्भर। खिलाए तो खाए, पिलाए तो पिए। दो-चार चम्मच मुँह में दलिया ठेल देने-भर से उसके शरीर की जरूरतें कहीं पूरी होतीं? फलतः भूख-प्यास से ही वह मर गई। मैं कहीं-न-कहीं जिम्मेदार हूँ, गहन पश्चाताप से ग्रस्त, कि तुझे ठीक से विदा भी न कर पाया। हे! माँ! मुझे माफ कर दे।

            ‘‘कर दिया माफ, बस।’’ वह फि़र सपने में आई, अपने मन पर बोझ मत ले, इस अपराध-बोध से मुक्त हो, तू जो कर सकता था, वही तूने किया। जीवन-मरण के लिए हम कैसे जिम्मेदार हो गए, व्यर्थ ही बोझ उठाए घूम रहा है, माँ से कैसी क्षमा-याचना। माँ का प्रेम कोई सशर्त है। माँ का प्रेम कोई प्रतिदान चाहता है! पश्चाताप से मुक्त हो और बिंदास जी। पश्चाताप कर मुझे बन्धान में मत बाँध। मुझे भी मुक्त कर दे और स्वयं भी मुक्त हो। श्

            जो रेत अपनी मुटठी में कसकर सँभाले था, उसके देहावसान के साथ ही वह फि़सल गई। मैं फफक-फफककर रोया, इन आँसुओं के साथ ही अपराध-बोध बह गया। सब कुछ रीत गया। अन्तर आकाश शून्य और निरभ्र। विचारों, चिन्ताओं और आशंकाओं के झंझावत थम गए। भावनाओं की बदलियाँ बरस गई थीं और शुभ ज्योतिर्मय आकाश-भर रह गया था। पता   नहीं कितनी देर मैं उस स्थिति में रहा। समय के पार, हमारा चैतन्य कैसे पहुँच जाता है, उसका आज अनुभव हुआ। माँ तेरा आशीर्वाद मिल गया मुझे।


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