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लेखकों के लिए पाठशाला

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पाठकों और लेखकों के लिए पाठशाला सरीखी दो लघुकथाएँ

डॉ. शैलजा सक्सेना

लघुकथा के आकार-प्रकार, शिल्प और भाव विधान को लेकर अनेक लेख लिखे जा चुके हैं। कहानी और उपन्यास की तरह ही लघुकथा भी गद्य साहित्य में अपने अस्तित्व का उद्घोष कर चुकी है। अब इस संदर्भ में उसे अपनी सार्थकता के प्रमाण जुटाने की आवश्यकता नहीं है। उसका निरंतर बढ़ता साहित्य साम्राज्य इस बात का परिचायक है कि उसके पाठक उसको पसंद करते हैं और लेखक उसके रूप को तराशने में निरंतर लगे हुए हैं।

’लघुकथा.कॉम’ ने लघुकथा की प्रसिद्धि में एक बड़ी भूमिका निबाही है। श्री सुकेश साहनी और श्री रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु’ जी बेहद मेहनत और निष्ठा से अनेक लघुकथाकारों को इस पत्रिका से जोड़ते, प्रोत्साहित करते, देश और देशान्तर की लघुकथाओं से पाठकों को परिचित कराते हैं और इन लघुकथाओं की विवेचना द्वारा इसके अकादमिक स्वरूप की प्रतिष्ठा करते हैं। ये दोनों ही बहुत अच्छे लघुकथाकार हैं और शब्दों की सूक्ष्म से सूक्ष्म परत के उपयोग पर इनकी दृष्टि रहती है। यहाँ मैं दोनों ही प्रतिष्ठित लेखकों की एक-एक लघुकथा पर अपनी टिप्पणी देने का प्रयास कर रही हूँ। इन दोनों लघुकथाओं ने मुझे सोचने के लिए यथार्थ के नए आयाम दिए और साहित्यकार के रूप में लघुकथा लेखन की बारीकी को समझा कर समृद्ध किया है।

पहली लघुकथा है सुकेश साहनी जी की ’खेल (रेनड्रॉप के चैटरूम से)’! लघुकथा बिल्कुल नई तरह से भाषा और कथानक का प्रयोग करती हुई समाज की मानसिकता पर गहरा व्यंग्य करती है। बिना किसी भूमिका के कुछ संवादों में लिखी गई यह लघुकथा दुनिया की चुनी हुई सशक्त लघुकथाओं में अपना स्थान सहज ही बना सकती है।

लघुकथा चैटरूम में घटित होती है। नेट पर चैट करना आज आम बात है और चैट रूम में युवापीढ़ी का आपस में सीमाहीन होना भी कोई नई बात नहीं है पर लघुकथा की नवीनता यह है कि वह उस बंद कमरे में, दूर बैठे व्यक्तियों के चरित्र को दो वाक्यों में झटके से उघाड़ कर रख देती है और उसी के साथ उघड़ जाती है हमारे समाज में गहरे पैठी भेद-भाव की मानसिकता।

दूर बैठे दो व्यक्ति ’मायसेल्फ़’ और ’रेनड्रॉप’ अपने नकली नामों का प्रयोग करते हुए चैट रूम में बात कर रहे हैं, भाषा आज के युवाओं की तरह एक वाक्य हिन्दी तो दो वाक्य इंग्लिश में बोलने वाली, व्यवहार भी उसी तरह का कि सोशल साइट्स पर दूसरों के दुख प्रकट कर के अपने सामाजिक कर्तव्य की पूर्ति समझने वाला और पार्टी का नाम भी आज के नारों की चलन पर ’सेकुलर २००२ डॉट काम’; पर इन सब आज के नामों, भाषा और बातों के बाद भी उनकी सदियों पुरानी मानसिकता अंतिम पंक्ति में फट कर सामने आ जाती है। यह हमारे समय की सबसे बड़ी विसंगति है जहाँ हमारा ’दिखना’ कुछ और है और ’होना’ कुछ और। हम आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हुए, अंग्रेज़ी में बातचीत करके बहुत पढ़ा-लिखा दिखना चाहते हैं पर भीतर से हम साम्प्रदायिक संकीर्णता से बँधे हुए अनपढ और मूर्ख ही हैं, लघुकथा बहुत सरलता से इस विसंगति को प्रकट कर देती है।

इस छोटी सी लघुकथा में साम्प्रदायिक मानसिकता के साथ ही सामूहिक बलात्कार के घावों से उपजे दर्द को भी बताया गया है। रेनड्रॉप का यह कहना कि बलात्कारियों को ”पहचानना मुश्किल था, उन्होंने एक ही सांचे में ढले मुखौटे पहन रखे थे” सारे पुरुष समाज पर अविश्वास का गहरा वार है। सच ही तो हमें आजकल जैसी घटनाएँ सुनने को मिलती हैं उनमें न तो किसी संबंध की पवित्रता शेष बचती दिखाई देती है और न इंसानियत की कोई झलक तक दिखाई देती है। हर पुरुष और हर संबंध मानों हवस के एक ही साँचे में ढला हुआ है। स्त्री के लिए ’एक ही साँचे में ढले’ पुरुषों के इस समाज में रहना कितना कठिन है, इसको हम समझ सकते हैं। ’मायसेल्फ़’ से पार्टी का नाम सुन कर रेनड्रॉप उस पर विश्वास कर के ’आय  एम रेडि फॉर नेट मीटिंग’ कहती है यानी फिर से किसी पर विश्वास करने को तैयार होती है। यह एक बहुत बड़ी बात है। सामूहिक बलात्कार के घावों को अपने शरीर पर हमेशा के लिए झेलने वाली रेनड्रॉप जीवन की सहजता की ओर लौट रही है। वह विश्वास और सरलता की ओर कैसे बढ़ सकी होगी, उसका हम केवल अनुमान कर सकते हैं पर उसका नेट पर मिलने के लिए तैयार होना उसके ’नॉर्मल’ होने की ओर बढ़ने के रूप में दिखाई देता है जो सरल नहीं रहा होगा पर अंतिम पंक्ति में ’मायसेल्फ़’ का यह पूछना कि ’हमारा यह जानना ज़रूरी है कि तुम किस सम्प्रदाय से हो’ ’सेकुलर २००२ डॉट काम’ पार्टी के व्यक्ति का यह पूछना जहाँ गहरी विडंबना दिखाता है वहीं पर एक सामाजिक विकृत मानसिकता द्वारा रेनड्रॉप के विश्वास का एक बार फिर सामूहिक बलात्कार भी करता है। एक चक्र जैसे अपने को पूरा कर रहा हो- विश्वास, छला जाना, विश्वास और फिर छला जाना! लघुकथा पाठक के मन को इस चक्र से जोड़ कर, इस मानसिकता के प्रति घृणा से भरने में सफल हो जाती है।

तीसरा व्यंग्य छिपा है, ’हम इस स्टोरी को अपनी पार्टी की वेबसाइट के मुखपृष्ठ पर देंगे’ वाक्य में! हर घटना, दुर्घटना को एक सोशल साइट पर डालना, आज के समय का जैसे मुख्य धर्म हो गया है। दुख को भुनाना और प्रचारित करके खुद को ’लाइम लाइट’ में लाने का समय है यह। किसी पीडित से कहानी निकलवा कर, उस के लिए स्वयं कुछ ठोस न करके केवल शब्दों से काम चलाना आज के समय की झूठी संवेदना प्रदर्शन को बताता है। ऐसी झूठी संवेदना दिखाने वाले लोग हमारे चारों तरफ़ हैं। मीडिया के साथ-साथ सोशल मीडिया भी मानों केवल टी.आर.पी. बटोरने में लगा है। सहानुभूति के नाम पर बोला गया यह वाक्य बलात्कार जैसे भीषण अपराध को एक खेल बना कर रख देता है।

इस लघुकथा का नाम बहुत ही सार्थक है। हर एक स्तर पर केवल एक खेल चल रहा है जो मानवीय संवेदनाओं के साथ निरंतर खिलवाड़ कर रहा है। १४ पंक्तियों की इस लघुकथा का हर शब्द सहज होता हुआ भी बहुत गहरा है और आज के समाज की मानसिकता का, छद्म आधुनिकता और झूठे सेकुलरपने का पर्दाफ़ाश करता है। कहानी करुणा से शुरू होकर एक तीख़े व्यंग्य में बदल कर पाठक के सीने में चुभ जाती है। इस लघुकथा की भाषा में अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग इस लघुकथा को और अधिक विश्वसनीय बनाता है और लेखक के भाषा प्रयोग और पकड़ को सिद्ध करता है। लघुकथा में ऐसे प्रयोग और गहराई अभी तक विरल ही हैं।

मैं यहाँ उन लघुकथाओं पर बात करना चाहती हूँ जो मुझे पाठकों और लेखकों की पाठशाला लगती हैं। ऐसी दूसरी लघुकथा है- श्री रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु’ जी की ’ऊँचाई’! इस लघुकथा पर बहुत बार लिखा जा चुका है और फिल्म भी बन चुकी है पर इस लघुकथा पर कुछ कहने की इच्छा मेरे मन में अब भी है। इस लघुकथा की ऊँचाई विश्व की श्रेष्ठ लघुकथाओं के बराबर है और यह सहज ही उनमें गिनी जा सकती है।  श्रेष्ठ लघुकथा में सामान्य दिखने वाली भावनाओं को लेखक इतनी गहराई से प्रस्तुत करता है कि आम जन उस भाव की कारुणिकता से सहज ही जुड़ जाता है। ऐसे लेखकों में भावनाओं के तनाव को चरम पर ले जाकर उसे चिरंजीवी मूल्यों की ओर मोड़ देने की शिल्प-सिद्धि भी होती है।

’ऊँचाई’ लघुकथा में वे सब तत्व हैं जो उसे श्रेष्ठ लघुकथाओं में स्थान देते हैं। लघुकथा के प्रारंभ से ही तनाव दिखाई देता है और सितार के तार सा लगातार कसता चला जाता है, यहाँ तक कि पाठक की उत्सुकता हर पंक्ति के साथ इस चरम पर पहुँच जाती है कि लगता है कि यह तार टूट जाएगा पर यह लेखक की शिल्प-सिद्धि तथा भाव और शब्दों पर रचनात्मक पकड़ की कुशलता है कि वे सितार के इन बेहद कसे तारों पर पिता की ऊँचाई का मधुर राग बजाने लगता है।

पाठक की सारी उत्सुकता, लघुकथा का सारा तनाव पिता के स्नेह, बेटे की चिंता को समझने और सहज ही उसके हाथ में पैसे रख देने से ऐसे मौन हो जाता है जैसे सितार पर कोई भोर का मीठा आलाप ले रहा हो और सारा वातावरण प्रणाम- भाव से भर उठे। पिता का पूछना कि ’बहुत बड़े हो गए हो क्या?’ पाठकों को बाँध लेता है। सब जैसे उस स्थिति में आ खड़े होते हैं जब कभी न कभी उनके माता-पिता ने उनसे यह प्रश्न किया था। पिता को लेने वाला समझ कर घबराने वाला पात्र अब उनके दाता रूप के सामने नज़रें झुकाए खड़ा था। बचपन में पिता से पैसे लेने वाली आँखे झुकती नहीं थीं पर अब अपने ही हीन विचार से, पिता के आने पर झुँझलाने से और उन्हें कुछ लेने आया समझने वाली आँखें उनके सामने झुक गईं। बचपन और बड़े हो जाने का यह अंतर इस एक पंक्ति में जैसे मुँह चिढ़ाने लगता है। बचपन की सरलता बड़े होने पर खो गई और उसका स्थान ले लिया भाव-तौल ने। बहुत निकट का रक्त संबंध भी स्वार्थ और स्थिति की तराज़ू पर रख दिए जाते हैं। पिता के आते ही जैसे ’मैं’ को अपने खर्चों और ज़रूरतों की लंबी लिस्ट याद आ जाती है और वह पिता के आने पर खुश नहीं हो पाता। कितनी विड़ंबना है कि पिता यात्रा करके बेटे से मिलने आया है पर उसके कष्ट उठाकर आने के बाद भी वहाँ ’बोझिल चुप्पी’ पसरी रहती है। पिता का आना उत्सव होना चाहिए था पर वह समस्या लगता है। आज के समय में पिता-पुत्र के संबंधों में इस ’समस्या’ भाव का आना हम अपने चारों ओर देखते हैं। संयुक्त परिवार के टूटने से निकटतम संबंधों के भी भारी लगने की सच्चाई से हम परिचित हैं। संयुक्त परिवार केंद्रित हमारी भारतीय समाज व्यवस्था जिस तरह चरमरा गई है, उसका दुखद परिचय भी यह लघुकथा कराती है। पत्नी का चिड़चिड़ाना यह प्रश्न उठाता है कि क्या हम इतने मूल्यहीन हो चुके हैं कि पिता को आया देख कर भी उनके आने के उद्देश्य के बारे में सोच कर उल्टा-सीधा बोलने या सोचने लगते हैं? यह कष्टकारी सच है। यह पूरा दृश्य पाठकों को करुण भाव में डुबोने लगता है तो पिता का व्यवहार इस करुणा में वात्सल्य की नाव बन कर उन सनातन भारतीय मूल्यों की रक्षा करता है जिसके लिए हमारी संस्कृति जानी जाती है। यह कहानी का चरम बिन्दु, आधुनिक समय में बनाए गए नैरेटिव कि ’सभी संबंध मात्र स्वार्थ के होते हैं’ को काट कर हमारे गौरवमय नैरेटिव को पुन:स्थापित करता है कि माता-पिता बच्चों को और उनकी परेशानियों को समझते हैं। पिता के इस ’समझने’ के कारण ही तो लघुकथा का नायक उनसे आँख नहीं मिला पाता। कहानी हमें बहुत सहजता से अपनी उदात्त पारंपरिकता से जोड़ देती है और यही ’हिमांशु’ जी के लेखन की कौशल सिद्धि है।

’हिमांशु’जी की भाषा-शैली ने इस लघुकथा के कथ्य को सफलतापूर्वक निबाहा है। पहले वाक्य “पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी” से ही इस तनाव का चित्र बनने लगता है। इस वाक्य में ’धमकने’ और ’तमतमाने’ शब्दों का द्वंद्वकारी संबंध हमें प्रत्यक्ष दिखता है। पत्नी का कोसना इस संबंध की मौखिक अभिव्यक्ति है। “मैं नज़रें बचा कर दूसरी ओर देखने लगा” पुत्र की यह प्रतिक्रिया उसके पत्नी के प्रति अपराधी अनुभव करने और पिता के आने से ग्लानि होने के भाव को बताती है। ’नज़रें बचाना’ इस तरफ़ भी इशारा करता है कि एक पुत्र, पिता के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने से नज़रें बचा रहा है। उसे पिता के आने पर घर के खर्चों की लिस्ट का याद आना भी पिता की ओर से नज़रें बचाने की बात ही बताता है।

तनाव की तीसरी और चरम अभिव्यक्ति इस वाक्य में दिखाई देती है:

“सुनो”—कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बन कर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था”

 साँस रोक कर उनके मुँह की ओर देखना, रोम-रोम का कान बनना, चौकन्ना होना आदि शब्द पाठकों को भी चौकन्ना कर देते हैं और हम सब उस बनाए हुए नैरेटिव कि ”पिता अवश्य कुछ माँगने आए होंगे’ के हिसाब से, चौकन्ने होकर अटकलें लगाने लगते हैं। इसीलिए इसके विपरीत की घटना में ’शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों’ की स्थिति पाठकों की भी होती है। नि:संदेह हर शब्द को बहुत सावधानी से चुन कर, उसकी संप्रेषण शक्ति को जाँचकर ही ’हिमांशु’ जी ने उसका उपयोग किया है। अंत में ’नज़र बचाने’ से ’नज़र झुकाने’ की यात्रा समाप्त होती है। लेखन की यह कुशलता ही लघुकथा विधा का प्राण है।

इस लघुकथा का पूरा भाव-बिम्ब देश और काल की सीमा से परे है। ये संबंध और इसमें पिता की ऊँचाई सदैव बनी रहने वाली है। हमारी स्वार्थ-आशंकाओं के बीच ’बहुत बड़े हो गए हो क्या?’ वाक्यांश होँट करता रहेगा और हमें बचपन की सरलता से जोड़े रखेगा। पिता की ऊँचाई को रेखांकित करती यह लघुकथा हमारे मन तथा हमारे नए- पुराने संस्कारों पर भी गहरा प्रभाव डालती है।

ऐसी कालजयी रचना करने के लिए ’हिमांशु’ जी को एक बार और बधाई।

दोनों ही लघुकथाएँ अपनी समग्रता में पाठकों तक पहुँचती है और लघुकथाकारों के सामने एक बहुत बड़ा मापदंड स्थापित करती है। कह सकती हूँ कि ये लघुकथाएँ पाठकों और लेखकों के लिए एक पाठशाला हैं जिन से दोनों ही बहुत कुछ सीख सकते हैं।

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1-खेल / सुकेश साहनी

(रेनड्रॉप के चैट रूम से)
मायसेल्फ: हैलो?
रेनड्रॉप: हाय!
मायसेल्फ: ए एस एल प्लीज?
रेनड्रॉप: 22, फीमेल फ़्राम गुजरात एण्ड यू?
मायसेल्फ: मेल फ़्राम देहली।
रेनड्रॉप: ओके…
मायसेल्फ: आय वुड लाइक टू प्ले विद यू।
रेनड्रॉप: लाफ आन लाउड (ठहाका!)
मायसेल्फ: क्या हुआ?
रेनड्रॉप: देहली इज़ आलरेडी प्लेइंग विथ गुजरात
मायसेल्फ: गुड सेंस आफ़ ह्यूमर!
रेनड्रॉप: नो, आय एम सीरियस।
मायसेल्फ: टेक इट ईजी! गुजरात अब बिल्कुल ‘ फिट है। कम आन, यू विल एन्जॉय माय कम्पनी।
रेनड्रॉप: ओके… वाट यू हैव इन योअर माइंड?
मायसेल्फ: तुम्हारे पास वेब कैमरा है?
रेनड्रॉप: हाँ और तुम्हारे पास?
मायसेल्फ: चैटिंग फ़्राम अ रिजॉ़र्ट, नो कैम (रा) नो पिक (चर) हियर।
रेनड्रॉप: ओके…
मायसेल्फ: जस्ट वांट टू-सी यू न्यूड।
रेनड्रॉप: ओके …बट आय अलर्ट यू–यू आर नाट गोइंग टू एन्जॉय माय न्यूडिटी।
मायसेल्फ: नो, आय कैन बेट…यू आर हॉट।
रेनड्रॉप: माय कैमरा इज आन नाउ, आर यू वाचिंग मी?
मायसेल्फ: यस, बट यू आर नाट न्यूड…यू आर स्टिल वेअरिंग समथिंग।
रेनड्रॉप: इस बुरे मौसम में दिल्ली से गुजरात को साफ–साफ देखना थोड़ा मुश्किल है।
मायसेल्फ: फिर वही मजाक!
रेनड्रॉप: व्हयू माय क्लोज अप…आय एम नाट वेअरिंग एनीथिंग।
मायसेल्फ: तुम्हारे जिस्म पर ये निशान?
रेनड्रॉप: दंगाइयों ने हमारे साथ सामूहिक बलात्कार किया, हमारे जिस्मों को बेरहमी से रौंदा गया, ये उन्हीं जख्मों के निशान हैं।
मायसेल्फ: ओह! …तब तो तुमने उन्हें बहुत करीब से देखा है, वे कौन थे?
रेनड्रॉप: पहचानना मुश्किल था, उन्होंने एक ही सांचे में ढले मुखौटे पहन रखे थे।
मायसेल्फ: टेल मी एवरीथिंग अबॉउट दिस, हम इस ‘ स्टोरी को अपनी पार्टी की वेब साइट के मुख पृष्ठ पर देंगे।
रेनड्रॉप: वाट इज द नेम ऑफ योअर वेब साइट? मायसेल्फ: सेकुलर 2002 डॉट कॉम।
रेनड्रॉप: ओके… आय एम रेडि फॉर नेट मीटिंग।
मायसेल्फ: लेकिन आगे बढ़ने से पहले–जस्ट फॉर फॉरमेलिटि–हमारा यह जानना ज़रूरी है कि तुम किस सम्प्रदाय से हो।
रेनड्रॉप: सॉरी, डियर! रेनड्रॉप (वर्षा की बूँद) इज फॉर आल। हमारी कोई बिरादरी नहीं होती।
मायसेल्फ: यू आर बोरिंग, स्पॉइलिंग माय टाइम…एनअदर गर्ल विद वेब कैमरा इज आन लाइन फार मी। बाइ! बाइ फॉर एवर!

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ऊँचाई / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी– “लगता है, बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आनेवाला था! अपने पेट का गड्ढ़ा भरता नहीं, घरवालों का कहाँ से भरोगे?” मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफ़र की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हा्थ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाते वक्त रोज भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबूजी को भी अभी आना था।

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आये होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र। “सुनो” कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं सांस रोकर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर भी फुर्सत नहीं मिलती। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।” उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ बढ़ा दिए, “रख लो। तुम्हारे काम आएंगे। धान की फसल अच्छी हो गई थी। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमजोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फंसकर रह गये हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डांटा, “ले लो। बहुत बड़े हो गये हो क्या?”

“नहीं तो।” मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर अठन्नी टिका देते थे, पर तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

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