विश्लेषण : आइसबर्ग
आइसबर्ग की विशेषता है कि वह जितना ऊपर दिखाई देता है उससे कही गुना पानी में डूबा रहता है. कथा में जितना कहा गया है उससेअधिक अनकहा छोड़ दिया है या कहें सत्य जितना सतह पर दिखाई देता है उससे कहीं ज्यादा सतह के नीचे होता है जिसे कथा में व्यक्तनहीं किया है यह अव्यक्त कथा को और भी स्ट्रोंग बनाता है साहित्य में इसे हेमिंग्वे की स्टाइल ऑफ राइटिंग यानी शैली कहा जाता हैं। प्रस्तुत कथा का शीर्षक इस सन्दर्भ में बिल्कुल सटीक है।
इस कथा की पृष्ठभूमि सिख आतंकवादियों के दौर की है जब आतंकवादी सिखों ने हिंदुओं को पंजाब में निशाना बनाकर हिंदू-सिख केबीच साम्प्रदायिकता का ऐसा जहर घोला कि वे पूरे देश में एक दूसरे से आशंकित और आतंकित होने लगे थे. उस दौर की कथा है यह.
कथा का मुख्य पात्र ट्रेन के डिब्बे में बैठे अन्य लोगों को हिंदू जानकर अपने हाथ का कड़ा स्वीटर की आस्तीन में छुपा लेता है और हरे रामहरे कृष्ण का जाप करने लगा तथा उन्हें एक फर्जी घटना को अपने सामने घटी घटना बताकर सुनाने लगा- दंगा शुरू होते ही एक सिखअपनी बन्दूक और कारतूसों की पेटी लेकर छत पर चढ़ गया और उसने ‘हमारे’ दर्जन भर लोगों को बंदूक का निशाना बना दिया.’ फिर अपनों को धिक्कारते कहता है-‘लानत है हम पर! हम लोगों के यहाँ वक्त पर लाठी तक नहीं मिलेगी.’ यह सुनकर सामने बैठे युवकों केचेहरे तमतमाने लगे थे। उसने राहत की साँस ली. उसे राहत कब मिली जब उसने दूसरों को भडका दिया.
अपना स्टेशन आते ही वे लोग डिब्बे से उतर गए वह अकेला रह गया तभी कुछ लोग पगडियां पहने डिब्बे में दाखिल हुए. दरवाजा लॉककिया, खिडकियों के शटरडाउन किये और चुपचाप बैठ गए. उन्हें सिख जानकर बोला ‘वाहे गुरु! तेरा ही आसरा है.’और अपने कड़े कोआस्तीन के बाहर निकाल दिया. तस्सली के लिए तो इतना ही काफी था लेकिन वह और आगे बढ़ गया और इन्हें भी एक फर्जी घटनासुनाने लगा
‘‘इना दा बेड़ा गरक होवे। अज स्टेशन दे बाहर ‘‘इना’’ त्वाडे वरगे दो सिखाँ ते पेट्रोल पाके अग लगा दित्ती।’’
एक सिख युवक तनकर बैठ गया और दाँत पीसकर बोला, ‘‘ओना दी….भैन दी…
‘‘ओए….चोप्प कर!’’ एक प्रौढ़ सिख ने उसे धमकाया, ‘‘होर गूँ (और गंदगी) नई घोल !!’’
जवाब में युवक शून्य में ताकता हुआ कुछ बुदबुदाया और फिर दोनों में तकरार होने लगी। उन लड़ते सिखों के बीच वह खुद को सुरक्षितमहसूस कर अपने बेटे की नन्हीं शरारतों को याद कर मुस्करा रहा था।
यह व्यक्ति जो सामान्य सा लगता है वास्तव में बहुत खतरनाक है. माना मनुष्य की सरवाइवल इंस्टिंक्ट उसके व्यवहार में बड़ी भूमिकाअदा करती है । फिर भी उसे उन्हें भडकाने की क्या जरुरत थी वह तो वही काम कर रहा था जो आतंकवादी हिंसा से कर रहे थे और वहमात्र फर्जी बयानों और अफवाओं से कर रहा था. इस पात्र की तुलना उस प्रौढ़ सिख से करें जो समझदारी की बात करता है एकसाम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है तो दूसरा साम्प्रदायिकता की आग पर पानी फेंकता है.
यह स्थिति कुछ ऐसी है जैसी गोर्की ने अपने उपन्यास ‘माँ’ में व्यक्त की है. जब रूस में जार की सेना और क्रान्तिकारियों के बीच लड़ाईशहर तक आ पहुँची थी नागरिकों ने अपने घरों में दो तरह के झण्डे रख रखे थे एक जार का दूसरा क्रांतिकारियों का. जब शहर में जारकी सेनाएं आती तो वे जार का झंडा निकालकर फहरा देते लेकिन जब लालसेना शहर में घुस आती तो वे लाल झंडा फहरा कर उनकास्वागत करते.ऐसा करके वे अपनी सुरक्षा ही करते थे. लेकिन इस कथा में वर्णित व्यक्ति अपनी सुरक्षा के लिए दंगे की आग में घीडालकर चैन की बंसी बजाता है.
लघुकथा: आइसबर्ग
डिब्बे में चुप्पी छाई हुई थी। सभी यात्री बदहवास सी हालत में सिकुड़े बैठे थे, जबकि पूरे कम्पार्टमेण्ट में कुल मिलाकर दस आदमी थे।अचानक उसका चेहरा पीला पड़ गया। कहीं ये लोग उसे सिख तो नहीं समझ रहे। उसने कड़े को जल्दी से स्वीटर की आस्तीन के अन्दरछिपा लिया।
तभी उसे लगा सामने बैठे दो युवकों ने उसे कड़ा छिपाते देख लिया है। उसका दिल बड़ी तेजी से धड़कने लगा और गला मारे डर के खुश्कहो गया। वह किसी तरह अपने बीवी बच्चेे के पास पहंँुच जाना चाहता था। वह थोड़ा सा सतर्क हुआ, फिर शून्य में ताकता हुआबोला, ‘‘हरे राम…हरे राम!….हरे कृष्ण….हरे!….इन सिखड़ों का तो दिमाग ही फिर गया है।….मैंं आज की भंयकर घटना नहीं भूलसकता। जिस दोस्त के घर ठहरा हुआ था, उसके सामने एक सिख रहता है। दंगा शुरू होते ही वह अपनी बंदूक और कारतूसों की पेटीलेकर छत पर चढ़ गया। हम लोगों को तो छिपना पड़ गया था। बाद में पता चला कि उसने ‘हमारे’ दर्जन भर लोगों को बन्दूक का निशानाबना दिया। लानत है हम पर! हम लोगों के यहाँ वक्त पर टूटी लाठी तक नहीं मिलेगी।’’
यह सुनकर सामने बैठे युवकों केे चेहरे तमतमाने लगे थे। उसने राहत की साँस ली और अपने फर्जी बयान पर खुद ही मुग्ध हो गया।
‘‘चलो भाई! उठो, इटावा आ गया।’’ यह कहते हुए वे सभी उठने का उपक्रम करने लगे। वह डिब्बे में अकेला रह गया। भय ने उसे फिरघेर लिया। अभी वह अपना कम्पार्टमेण्ट बदलने के बारे में सोच ही रहा था कि गाड़ी फिर चल दी। तभी उसने देखा पाँच आदमी तेजी सेभीतर चढ़ आए हैं। उनमें से तीन के सिर पर अफरा-तफरी में बाँधी गई पगड़ियां थीं जबकि दो के केश जुट्टे में बँधे थे।
ओए….जल्दी कर! बुआ (दरवाजा) लॉक कर देेेईं !! ‘‘ उनमें से कोई बोेेला और फिर वे सब जल्दी-जल्दी कुछ खुली खिड़कियोंके शटर भी गिराने लगे। वे यह यकीनकर कि सब खिड़की दरवाजे अच्छी तरह बन्द हो गए हैं, चुपचाप बैठ गए। उसे लगा कि वे सबअपनी लाल -सुर्ख आँखों से उसे घूरने लगे हैं।
‘‘वाहे गुरू!….तेरा ही आसरा है।’’ एकाएक ठण्डी साँस छोड़ते हुए वह बोला और फिर कलाई खुजलाते हुए कड़े को बाहर निकाल लिया। फिर वह जल्दी से बोला, ‘‘तुस्सी कित्थे जा रए हो?’’
उसके इस प्रश्न का उन सिखों ने कोेेेेेेई उत्तर नहीं दिया। उनके इस मौन से उसमें थोड़ी सी हिम्मत जगी और वह फिर मन हीमन फर्जी घटना गढ़ते हुए बोेेला, ‘‘इना दा बेड़ा गरक होवे। अज स्टेशन दे बाहर ‘‘इना’’ त्वाडे वरगे दो सिखाँ ते पेट्रोेेल पाके अगलगा दित्ती।’’
इस पर डिब्बे के भीतर का सन्नाटा और गहरा गया। तभी उनमें से एक सिख युवक तनकर बैठ गया और दाँत पीसकर बोेला, ‘‘ओनादी….भैन दी…
‘‘ओए….चोप्प कर!’’ एक प्रौढ़ सिख ने उसे धमकाया, ‘‘होर गूँ (और गंदगी) नई घोल !!’’
जवाब में युवक शून्य में ताकता हुआ कुछ बुदबुदाया और फिर दोनों में तकरार होने लगी। उन लड़ते सिखों के बीच वह खुद को सुरक्षितमहसूस करने लगा। एकाएक उसे लगा कि वह बेेेहद थक गया हैं, कफ्र्यू के बीच दोस्त के घर बिताए गए दो दिन उसकी आँखों में तैरगए-लुटती दुकाने….भागते चीखते लोग….जलते मकान ….टनटनाती दमकलें । उसने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया। अगले ही क्षण वहसीट से सिर टिकाए अपने बेटे की नन्हीं शरारतों को यादकर मुस्करा रहा था।
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