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कथादेश द्वारा पुरस्कृत लघुकथाएँ

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पिता

महेश शर्मा

मेरे हुलिए और पहनावे को लेकर पिताजी हमेशा मुझे टोकते थे –

-यह फटी-घिसी जींस क्यों पहन रखी है? कोई ढंग की पैंट नहीं है क्या तम्हारे पास? बालों में तेल क्यों नहीं डालते? भिखारियों की तरह दाढ़ी क्यों बढ़ा रखी है? शादी-ब्याह की दावत में भी तुम टी-शर्ट और चप्पल पहन कर चले जाते हो? कमीज़ के बटन खुले क्यों रखते हो –’

मैं जब छोटा था तो उनकी हर बात मान तो लेता था लेकिन अपने चेहरे पर नाराज़गी के भाव बनाए रखता था। फिर जब बड़ा हुआ तो खुल कर उनकी अवमानना करने लगा। वह बार-बार टोकते – मैं हर बार अनसुनी कर देता। वह कुढ़ते-खीझते रहते और मैं ढीठ बना रहता।

मेरा मन उनके प्रति विद्रोह से भर चुका था। मैं जानबूझकर वह सब करने लगा जो उन्हें सख़्त नापसन्द था। साथ ही मैनें यह निर्णय भी लिया कि – मैं अपने बच्चों को कभी इन चीज़ों के लिए नहीं टोकूँगा।

और मैनें ऐसा किया भी।

आज मेरे दोनों बच्चे मेरे साथ किसी दोस्त की तरह रहते हैं। मुझे याद नहीं वे कभी किसी बात पर मुझसे नाराज़ हुए हों। मेरी तरफ से उन्हें अपनी मर्ज़ी के अनुसार रहने-खाने-पहनने की खुली छूट है। उनके लिए मैं दुनिया का ‘द बेस्ट पा’ हूँ।

पिताजी अब काफी बूढ़े हो गए  हैं। टोका-टाकी करना तो वह कब का बंद कर चुके हैं। अब तो बात भी बहुत कम करते हैं। मेरा और उनका आमना-सामना कभी-कभार ही होता है। ज्यादातर वक्त वह अपने कमरे में अखबार या किताबें पढ़ने में बिताते हैं। पहले वह रोज़ शेव करते थे लेकिन अब उन्हें हफ्तों गुज़र जाते हैं। ज्यादातर पायजामा और बनियान ही पहने रहते हैं। अक्सर इसी पहनावे में ही टहलने भी चले जाते है।

कभी-कभी मन करता है कि उन्हें टोक दूं। लेकिन जानता हूँ कि वे मेरी तरह ढीठता दिखायेंगे और एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देंगे। वह मुझसे बदला ले रहे हैं। ठीक मेरी ही तरह विद्रोह कर रहे हैं। वह अब जीवन भर ऐसे ही रहेंगे।

फिर भी आज मुझे उन्हें टोकना पड़ा –

‘‘गुड़िया को देखने लड़के वाले आ रहे है। थोड़ा हुलिया सुधार लीजिए – नाख़ून काट लीजिए – शेव बना लीजिए – और वह ग्रे कलर का सूट है न आपका – उसे पहन लीजिए।’’

मुझे अच्छी पता था कि उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी। लेकिन मैं उनके चेहरे पर अपने प्रति व्यंग्य के भाव देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता था। अतः अपनी बात कहने के बाद मैं वहां एक क्षण के लिए भी नहीं रूका। फौरन पलटकर उनके कमरे से बाहर आ गया।

बाहर निकलते-निकलते अपनी पीठ पीछे मुझे एक गंभीर स्वर सुनाई दिया –

‘‘अपनी शेविंग क्रीम दे जाओ। मेरी वाली खत्म हो गयी है।’’

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रावण

महावीर राज़ी

आकाश मार्ग से ‘राफेल’ में गुजरते रावण ने नीचे झांक कर देखा– बड़े से मैदान में एक ओर उसका साठ फुटा विशाल पुतला खड़ा था और दूसरी ओर ठाठे मारता विशाल जनसमूह! सुसज्जित मंच पर विराजमान भगवान राम और लक्ष्मण की पूजा अर्चना हो रही थी। घनी मूछों के बीच रावण मुस्कुराया – ‘ओ..यानी कि आज दशहरा है। अरे मूर्खों, पहले मैं एक था। अब तो सहस्राक्षु बन कर हर गली, कस्बे और शहर में व्याप गया हूँ। किस किस को और कब तक जलाओगे… हंह !’

उसके मन मे दशहरा के ‘कौतुक’ को देखने की इच्छा जगी। झटके से राफेल से कूदा और कलाबाजी खाते हुए मैदान में खड़े विशाल पुतले में जा समाया।

उसके बाद जैसे ही राम ने रावण को भस्म करने के लिए धनुष पर तीर साधा, रावण खिलखिला उठा। दसों मुख से निकलती उपहासात्मक हंसी, मानो चुनौती की गूगली फेंक रहा हो राम की ओर – “यह मुँह और ‘अरहर’ की दाल.! मुझे भस्म करोगे, मुझे.? हा हा हा.!”

राम ने प्रत्यंचा कान तक खीच कर तीर छोड़ दिया। एक झपाका हुआ । रावण हर बार की तरह इस बार भी सूक्ष्म रूप धर कर पुतले से निकला और हवा में घुमेरे घालता सीधे राम के भीतर की अशोक वाटिका में जा छुपा।

आज भी वहीँ आराम से बैठा हुआ है और राम के भीतर के ‘राम’ को शनैः शनैः कुतरने में लगा है। राम के सारे भक्त भक्तिभाव से ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाते पुतले को धू धू करके जलते देख रहे हैं।

नारों के समवेत कोलाहल में राम के भीतर सुरक्षित बैठे रावण की खिलखिलाहट किसी को भी सुनाई पड़ती।

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राजनीति                       

मार्टिन जॉन

“ओए पंडत !…..कहां मर गया रे !”

“मुझसे पहले तू मरेगा नासपीटे मौलाना ।….क्यों चीख रहा है पागलों की तरह ?”

“देख देख आज के अखबार में क्या छपा है !”

“क्या छपेगा?…वही मार-काट , लूट , बलात्कार, नेताओं की बयानबाजी।कभी अच्छी ख़बर छपी है ?”

“आज अच्छी ख़बर छपी है यार …..हमदोनों की दोस्ती की …तस्वीर के साथ।……और हमारे मंदिर- मस्जिद का एक ही आहते में साथ-साथ होने की भी ख़बर है तफ़सील से| इसकी भी एक खूबसूरत तस्वीर आयी है|”

“अरे वाह !…सचमुच तबीयत ख़ुश हो गई ख़बर सुनकर |”

“हां यार , ख़ुदा करे हमारी यारी सलामत रहे ।…हमारे इबादतगाह यूँ ही सदियों तक एक साथ सीना तान।कर खड़े रहे !”

परिसर में इस खुशगवार ख़बर पर मुबारकबाद देने वालों की तादाद बढती गई।अखबार में छपी ख़बर को ज़ोर-ज़ोर से पढ़कर सुनाया जाने लगा।

सहसा सबकी निगाह परिसर में दाख़िल होती चमचमाती टोयटा गाड़ी की ओर दौड़ गईं।गाड़ी से इलाके के विधायक रामानुज प्रसाद नमूदार हुए , “नमस्कार भाइयों ,सबको नमस्कार !…..ख़बर पढ़कर मैं नहीं रह सका।दौड़ा चला आया आप सबके पास |”

“आइए ,आइए ….विराजिए !

विधायकजी विराजते ही शुरू हो गए , “मुबारक हो आप दोनों को सच में , आपने मिसाल कायम की है ।….हम गौरवान्वित हैं।आप दोनों ने हमारे क्षेत्र का मान  बढ़ाया है ।……..यह सन्देश दूर तक पहुँचेगा |”

उस दिन के बाद विधायकजी का उस परिसर में आना –जाना नियमित हो गया | कभी पंडित के घर में उनकी बैठकी लगती तो कभी मौलाना के घर में।दोनों घरों में उनकी ख़ूब आवभगत होती |

इसी बीच प्रदेश के विधानसभा का सत्र आरम्भ हो गया।विधायकजी अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाने के लिए राजधानी रवाना हो गए।

सत्र की समाप्ति के बाद जब वे अपने क्षेत्र वापस आए, तब तक मंदिर- मस्जिद वाला परिसर दो भागों में बँट चुका था*

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सर्द जवाब

संतोष सुपेकर

‘‘अरे-अरे-अरे…पकड़ो-पकड़ो-पकड़ो”  अलसुबह मुहल्ले में हल्ला मच गया, ‘‘क्या हुआ, क्या हुआ” की आवाजें चारों तरफ से आने लगीं, भीड़ इकट्ठी हो गई और कड़ाके की सर्दी में भी वातावरण गर्मा गया।

‘‘अरे एक बच्चा…साला, कोई दस बारह साल का था, मा…अपने धर्मस्थल का झंडा उतारकर भाग गया, कुत्ता कहीं का….’’

‘‘ऐं?’’ सुनकर लोग सकते में आ गए, ‘‘झंडा उतारकर भाग गया? पवित्र स्थान का झंडा उतारकर?’’

‘‘हाँ, जरूर ये दूसरे धरम वालों की साजिश होगी।’’

‘‘उन्होंने झंडा उतरवाया है न!’’ कोई रोष में बोला, ‘‘हम उनकी इज्जत उतार देंगे, उनकी…उनकी बस्तियाँ जला देंगे।’’

“करेंगे-करेंगे, वो भी करेंगे, पहले उस छोकरे को तो पकड़ के लाओ, काट डालेंगे साले को।’’

“अरे कोई गया क्या उसे पकड़ने?’’

‘‘गया था न मैं’’ उस छोकरे के पीछे गया छोटू, तभी हाँफता-हाँफता आकर बोला, ‘‘भागते-भागते उसके पास तक पहुँच गया था पर तभी मेरा पाँव फिसला और वो गायब हो गया, पर हाँ,ये “उसने फ टा झंडा हाथ फैलाकर लहराया, ‘‘ये झंडा छीन लाया मैं उससे।’’

‘‘अब्बे’’ एक बुजुर्ग शायद सर्दी से या गुस्से से दाँत किटकिटाते बोले, ‘‘वो जरा सा लौंडा हाथ कैसे नहीं आया तेरे? अरे, उसके पास तक पहुँच गया था तो उसकी कमीज में, कमीज के कॉलर में हाथ डालकर खींच साले को, बेवकूफ कहीं का….’’

‘‘कमीज कहाँ थी उसके गुस्से पर? इतनी सर्दी में भी!’’ नम आँखों और पछतावे भरे स्वर में छोटू ने जवाब दिया, ‘‘यही झंडा तो ओढ़ रखा था उसने अपने खुले बदन पर!’’

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दूध      

विभा रश्मि 

“दिखता नहीं रात के दस बज गए ।  टुन्नी के लिए अब  दूध कहाँ से  मिलेगा ? ”

छेड़खानी  की  घटना के बाद  शहर में  कर्फ़्यू लग गया था  । दिनभर  डर का माहौल  रहा । युवकों और पुलिस में झड़पें होती  रहीं ।  पत्थरबाज़ी , लाठीचार्ज । धारा  144 लगी हुई थी । बाज़ारों के बंद होने से लोग रात तक   दूध , दवाई जैसी ज़रूरत की चीजों  के लिए  तरस गए थे ।

“मुसीबत को आज ही आना था , पर   तुम चिन्ता छोड़ो , कोशिश करके देखता हूँ।”

“बचकर जाना ।”माँ कह उठीं ।

दो  वर्षीय मुन्नी  दूध   की ज़िद पकड़े  थी । वो अपनी ‘छोटी सी भूख ‘ कुछ  खाकर  मिटा  सकती थी ।  आज तो ज़िदकर  फैल -पसर  गई  थी ।

केशु बेटी को रोता छोड़  घर से बाहर गली में  निकल आया  ।

आस – पड़ोस  के बंद  दरवाज़ों पर हौले से दस्तक दी ।  दो- एक ने खिड़की के पट खोल के पूछा भी  । दंगा अचानक से भड़का था , तो उनके पास भी  दूध नहीं मिला ।

बेटी के वास्ते  दूध न जुटा पाने के कारण उसका  दिल तेजी से  धड़कने लगा था । तो क्या बेटी भूखी सोएगी ?

आगे गली के मोड़ पर पान- सिगरेट की बंद  गुमटी के पीछे की बिल्डिंग के गैरेज  की  खिड़की से आती   क्षिण सी रोशनी दिखी ।

पाकेट में हाथ डाल  सौ के नोट को छू कर देखा ।

शराब की दुकान के  सामने से तेजी से आगे बढ़ते हुए अचानक पैरों में  ब्रेक लग गए । वहाँ के  चौकीदार ने  उसे  झाँक कर देखा , परेशानी कशु  के चेहरे पर लिखी थी  । पढ़ कर वो फुसफुसाया -“क्या ढूँढता है साब । यहाँ सब   मिलेगा ।  उसका वाक्य द्विअर्थी था ।

“न न वो नहीं चाहिए । गलत मत समझो ।”

“क्या? बोल क्या  ? ”

“बच्चे के लिए दूध ।”

पहाड़ी चौकीदार ने हाथ दिखा कर ठहरने का इशारा किया तो दिल काँप- सा गया  ?

“क्या करेगा ये अब  ?”  उसके शक ने फन उठा कर झाँका ।

चौकीदार सीढ़ी के नीचे बनी अँधेरी कोठरी में गुम हो गया । भीतर से  स्त्री –  स्वर सुनाई दिया  , फिर बच्चे के रोने का  ।

अपने बच्चे के लिए आधा  गिलास बचाकर रखे दूध को वो पन्नी में पलट लाया था । गाँठ लगी पन्नी थमाते हुए चौकीदार  फफुसफुसाया –

” भाग  जा  बाबू  ! रुकना मत कहीं  , जान का ख़तरा … । ”

” माफ़ करना तुम्हारे बच्चे का हक मार रहा हूँ ।”

“न न,वो बड़ा  सयाना हो गया है । बात  मान जाएगा ।” टोपी ठीक करता हुआ चौकीदार  क्षण भर रुका ।

“कितने बरस का है तेरा बेटा?”  पूछे बिना न रह सका केशु।

” छः माह का । ” उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना, सुरमा आंजे हुए नेत्रों को फेरकर चौकीदार मुड़ा और भीतर की अँधेरी कोठरी में ओझल हो गया ।

केशु के पैर – हाथ बर्फ़ हो गए थे । पन्नी के कोने में भरा आधा गिलास दूध अचानक दस लीटर हो गया था, जिससे हाथ में पकड़ी पन्नी भारी लगने लगी थी ।

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 आजादी

 मीना गुप्ता

हाथों की उँगलियों में फंसे धागे से भौहों को सुन्दर आकार देती वह आत्मविश्वास से दिपदिप करती मुस्कराती ही रहती ..उससे ईर्ष्या होती ..!

शाम होते ही पति चाय बनाकर दे जाते ..साथ में स्नेक्स भी ..

अक्सर मैं मन ही मन और बाद में कई बार उसके सामने ही उसके पति की तारीफ़ करती “ बड़े सहयोगी हैं आपके पति ..उनका सहयोग ही आपको अपने काम में आगे बढ़ाता जा रहा ..एक साल में ही आपके पार्लर का नाम हो गया ! …मैंने तो यह देखा  है कि बीबी कितनी भी कमाऊ हो ..चाय बनाकर देने की बात तो दूर खुद के लिए भी नहीं बनाते और पत्नी के काम से लौटकर आने के इन्तजार में बैठे रहते हैं ..भले ही पत्नी थककर चूर हो रही हो…बहुत चाहते है आपको आपके पति ..हैं न .!”

“ हाँ …जहाँ जाना होता है साथ ले जाते हैं ..अकेले नहीं छोड़ते ..अब तो बाहर  से भी बुलावा आता है ..दुल्हन मेकअप के लिए .”

“ तो वहां भी जाते हैं आपके साथ !” मेरे  विस्फारित आश्चर्य ने पूछा .

“ हाँ जी ..ले जाते हैं ..अकेले नहीं छोड़ते .”

“ प्यार करने वाले ऐसे ही हुआ करते हैं ..!”मैंने मुस्कराकर कहा .

काम में व्यस्त रहते हुए उसने आँखें मिचमिचाकर गर्दन हिलाई  “ हाँ….”

“ क्यों नहीं चाहेंगे सारा दिन खटती हो ..खाने पीने की फुर्सत भी नहीं  मिलती .तभी तो एक साल में चार पहिया खड़ी हो गयी .”

“ काम तो घर के ही आना है जी  ….मैं अपने सुख के लिए ..!”

“ फिर भी कुछ आर्थिक आजादी तो मिली ही है  न ..! ..जैसे  अपने मन की शॉपिंग करती हो.. जो पसंद आता है उसे खरीदने में हिचकती नहीं  …थोड़ी मोटी भी हो आई हो ..! कितना बल नजर आता है तुम्हारी आँखों में ..यह विश्वास क्या कम है कि तुम अपने पैरों खड़ी  हो और एक महिला होकर घर को सँभाले हुए हो .”

वह फिर से मुस्कराई  “  हाँ जी …सही कहते हो ..”

विश्वास अभी भी दिपदिपा ही रहा था .

अचानक .पति ने आवाज दी “ कितना टाइम अभी और लगेगा .?”

“ बस पंद्रह मिनट .”

क्यों… पूछ रहे हैं ..!”  उत्सुकता हुई .

“पार्लर वही बंद  करते हैं ..” कहकर वह पार्लर के बाहर खड़ी हो गई और पति पार्लर की बिजली , पंखा आदि बंद करने लगे ..ईर्ष्या ने फिर फन फैलाया ।

“कितने  अच्छे हैं ! जानते हैं इतने भारी शटर तुम कैसे बंद करोगी ! इसलिए।”

पार्लर की रोशनी में दिपदिप करता उसका विश्वास यकबयक डूबता सा नजर आया गया ..इस बार वह मुस्कराई नहीं ।

देर तक वह अंदर ही रहे तो मैंने फिर कहा  “ लगता है साफ-सफाई भी वही करते हैं .”

बोली “ नहीं जी …पैसे गिन रहे होंगे …”

“ अच्छा तो तुम्हे वह भी नहीं करना पड़ता ..!खूब !”

अब वह हंसकर बोली  “ .खर्च भी वही करते है ।”

“ और तुम …तुम्हारा खर्च ….!” अप्रत्याशित आश्चर्य मेरे सामने खड़ा मुस्करा रहा था .

“माँग लेती हूँ जी ..और ज्यादा जरुरत हुई तो सौ दो सौ चुपचाप रख लेती हूँ ..क्या करूँ कम से कम घर से बाहर निकल ..सांस लेने और दुनिया को देखने की आजादी तो मिली है ..!”

मैं फिर स्तब्ध थी और वह पार्लर की बंद लाइट में बुझी-बुझी सी शर्तों में मिली अपनी इस आजादी परधीरे-धीरे मुस्करा रही थी .

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जंगल की ओर 

राम मूरत राही

शहर की एक कालोनी में लगे मोबाइल टावर के पास, नीम के पेड़ पर बैठा एक चिड़ा अचानक धरती पर आ गिरा, और थोड़ी देर तड़पने के बाद उसने दम तोड़ दिया। तभी एक चिड़िया अपने दो नन्हे बच्चों के साथ वहाँ आयी और चिड़े को मृत पड़ा देखकर विलाप करने लगी। अपनी माँ को रोता देखकर, दोनों नन्हे बच्चे भी जोर-जोर से रोने लगे। कुछ देर बाद उन में से एक बच्चे ने अपनी माँ से सिसकते हुए पूछा –“माँ ! पिताजी को क्या हो गया है, और आप रो क्यों रही हैं?”

चिड़िया ने सिसकते हुए बताया –“बेटा! अब तुम्हारे पिता की मृत्यु हो चुकी है।”

“माँ ! पिता जी की मृत्यु कैसे हुई ?” दूसरे बच्चे ने सिसकते हुए पूछा।

“बेटा ! मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से।”

“माँ! क्या रेडिएशन से एक दिन हम भी मर जाएंगे?” पहले बच्चे ने मासूमियत से पूछा।

“नहीं बेटा! इससे पहले कि हम पर भी मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन का दुष्प्रभाव पड़े, हम ये शहर छोड़कर ऐसे गाँव में जाएँगे, जहाँ मोबाइल के टावर न हो।”

चिड़िया इतना कह कर चिड़े को आखरी बार देखकर, फिर अपने दोनों बच्चों को साथ लेकर गाँव की तरफ उड़ गयी।

गाँव में एक पेड़ पर घोंसला बनाकर रहते हुए अभी उसे कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन चिड़िया बहुत ज्यादा बीमार पड़ गयी। तब उसके एक बच्चे ने माँ को बीमार देखकर पूछा-“माँ! आपको क्या हो गया है ?”

“बेटा! शहर छोड़कर हम गाँव इसलिए आए थे कि यहाँ हमारी जान को कोई खतरा नहीं होगा, लेकिन हम यहाँ भी सुरक्षित नहीं हैं।”

“कैसे माँ? यहाँ तो मोबाइल टावर भी नहीं हैं।” एक बच्चे ने पूछा।

“बेटा! यहाँ गाँव में मनुष्य ज्यादा फसल की पैदावार लेने के लालच में साग-सब्जी के खेतों में रसायनिक खाद डाल रहा है और फसलों में अधिक मात्रा में कीटनाशको का छिड़काव भी कर रहा है, जिससे साग-सब्जियाँ जहरीली हो रही हैं। हम पक्षी इसे खाकर बीमार पड़ते है और फिर अपनी जान गवाँ देते हैं ?”

“माँ ! अब हम कहाँ जाएंगे ?” दूसरे बच्चे ने चिंतित होकर पूछा।

“बेटा ! मैं तो अब कहीं नहीं जा पाऊँगी। क्योंकि मेरा अन्त निकट आ गया है। हाँ, अब तुम दोनो यहाँ से दूर जंगल में चले जाओ, जहाँ मनुष्य की छाया नहीं पड़ी हो।”

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 फूल बाई

सविता प्रथमेश

हमेशा की तरह बिंदी लगाते एक बार फिर रुक गई वह.

हमेशा की तरह.

हमेशा की तरह ज़ेहन में उतर आई फूल बाई. बचपन के अनगिनत चेहरों में कुछ एक चेहरे ही तो जवान होने तक साथ रहते हैं, फूल बाई उनमें से एक थी.

घरों का काम करने वाली फूलबाई. पास ही रहती.शाम को फुर्सत पा मम्मियों की बैठक जमती.तब वह भी अनिवार्य हिस्सा होती.ये वो समय था जब टी.वी.नहीं था.महिलाओं की चौपाल शाम को जमा करती.क़िस्से-कहानियों का सिलसिला शुरु होता.फूलबाई तो मानो ख़ज़ाना हो. कहाँ -कहाँ से क़िस्से सुनाती और दम साधे सब सुनते. तरीका इतना रोचक कि हम बच्चे बंधे रह जाते.

हालांकि आधे से ज़्यादा क़िस्से हम बच्चों के सिर से गुज़र जाते. लेकिन फिर भी हम बैठे रहते.मम्मियां हमें भगाती.हम भाग जाते.लेकिन थोड़ी देर बाद  फिर चौपाल का हिस्सा बन जाते.

मुझे तो उसका भरा-भरा गोल चेहरा भाता. जिसे घुँघराले बाल और भी सुंदर बना देते.ढीला जूड़ा,मुंह में पान और पैरों में छुनछुन बजती पायल. और हां बड़ी सी लाल गोल बिंदी और उतना ही गहरा सिंदूर. मौसम चाहे जैसा हो फूलबाई के मेकअप में कभी कोई कटौती नहीं.

भला कौन विश्वास करेगा यह घरों की जूठन साफ़ करती है.

” पति ने छोड़ दिया है.” फूलबाई के पीठ पीछे बातें होतीं.

“फिर भी देखो कैसे ठाठ से रहती है.”

” ऐसे रहता है भला कोई?”

“ज़रुर कोई बात होगी इसी में तभी तो पति ने छोड़ दिया है?”

“देखते नहीं जब पति साथ नहीं है तो कितनी सजधज. रहता तो भगवान जाने क्या करती?”

थोड़ा समझते,थोड़ा नहीं हम बच्चे.

लेकिन मम्मियों का काम भी उसके बिना नहीं चलता.

“काम वाली बड़ी मुश्किल से मिलती है. ऊपर से अच्छा काम करने वाली तो भाग्यवानों को ही नसीब होती है.” मम्मी कहती.

न चाहते हुए भी फूलबाई हम सब के जीवन का हिस्सा बन गई और बनती ही चली गई.महफ़िलें रोज़ की तरह सज़ती रहीं.हम बच्चे बड़े होते गए.नहीं बड़ी हुई तो फूलबाई. जस की तस.वही श्रृंगार. न बालों पर सफेदी न माथे पर उम्र की लकीरें.

हमारी मम्मियां बेचारी कभी बालों की सफेदी छुपाने में व्यस्त तो कभी शरीर की चरबी घटाने की फिराक में.लेकिन जाने कौन सी मिट्टी की बनी थी फूलबाई. समय के निशान मानो उस तक आते डर रहे हों.

” पति का छोड़ देना. विवाहित स्त्री का अकेले रहना.उस पर सोलह श्रृंगार के साथ.” समझ आने पर अजीब लगने लगी वही फूलबाई जिसे बचपन में घेरे हमारी महफिल सजती थी.जिसके क़िस्सों के हम मुरीद थे.नज़रें  बदल गईं फूलबाई को देखने की.

” फूलबाई की जगह मैं होती तो एक बिंदी तक न लगाती ऐसे पति के नाम की जो पत्नी को छोड़ चुका हो.”

” कितनी बार कहा बड़ी हो गई हो पढ़ाई में ध्यान लगाओ.” मम्मी जो अब सतर्क रहने लगी थींं का ग़ुस्सा अक्सर ही टूट पड़ता मुझ पर.अब वे कोशिश करतीं फूलबाई और मेरी मुलाकात न हो.बाकी मम्मियां भी यही करतीं अपनी बढ़ती बेटियों के साथ.

लेकिन मेरी शादी में फूलबाई मानो मासी बन गई हो. अगर वो नहीं होती तो मम्मी बेचारी अकेले क्या कर लेती?

” जब पहले ही किसी को चाहता था तो हमारी बच्ची से शादी का नाटक क्यों किया?” हफ़्ते भर बाद ही  जब मैं बैरंग लौटी तो मानो कोई पुराना दर्द हरा हो गया हो उसका.बिदाई से अधिक आंसू अब थे.

” लेकिन फिर भी तू एक बार कोशिश करके देख. हो सकता है मोहित का मन बदल जाए.” मेरे वापिस लौटने से नाराज़ मम्मी समझौते की राह पर थीं.

” क्या बच्ची जलकर घर आएगी तभी मानोगी मालकिन?” पहली बार फूलबाई को मैंने मम्मी पर ग़ुस्सा करते देखा.हफ़्ते भर की विवाहित अधर में लटकी मेरी जान ने इस तिनके को पकड़ लिया.

“कितना लंबा वक्त गुज़र गया.”बिंदी लगाते मैं सोच रही थी.

रिश्ते

नमिता सचान

“लो देखो, सूरज सिर पर आ खड़ा हुआ है और महारानी की अभी दोपहर के खाने की तैयारी ही शुरू नहीं हुई।“धुले बर्तनों का झौव्वा उठा ले जाती छोटी चाची को देख, दादी फिर कर्कश आवाज में शुरू हो गईं थीं।

खुले आँगन में टापू खेलती मुन्नी अचानक रुक गयी फिर पता नहीं क्या सोचती धीरे धीरे चलती दादी के पलंग के पास आ खड़ी हुई।

“दादी, आप छोटी चाची पर हमेशा चिल्लाती क्यों रहती हैं?”

अब मुन्नी ठहरी दादी के सबसे कमाऊ पूत और साक्षात लक्ष्मी बहू की इकलौती दुलारी बेटी तो दादी मन करे तो भी भला कैसे झिड़क सकती थी उसे। आवाज में सायास मिश्री घोलती बोलीं, “अरे बिटिया तुम न समझोगी। इस कुलच्छनी ने पैर धरे नहीं आंगन में कि खा गई तुम्हारे छोटे चाचा को।“

“खा गयी?” मुन्नी की आंखें असमंजस में भर थोड़ी बड़ी हो गयीं

“अरे, चले गए न तुम्हारे चाचा हम सबको छोड़,” बोली दादी जैसे विलाप में चिल्लाती- सी।

“अच्छा”………क्षणांश को सोच में डूबी सी खड़ी रही मुन्नी फिर दादी के चेहरे पर आंखें गड़ा कर बोली,

“पर बुआ भी तो फिर फूफा जी को खा कर आयीं हैं”

और अपने से चिपका कर बैठायी बिटिया के सिर पर तेल ठोकने को जाता दादी का हाथ हवा में रुका रह गया।

आवाज़

मृणाल आशुतोष

रेड लाइट के पास आठ-दस साल का लड़का आवाज़ लगा रहा था।

“ग़ुब्बारे ले लो। ग़ुब्बारे ले लो। रंग-बिरंगे ग़ुब्बारे ले लो।”

ग़ुब्बारे आपस में बात कर रहे थे।

हरे रंग के ग़ुब्बारे ने लाल के ग़ुब्बारे से पूछा, “अच्छा बताओ। तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?”

लाल रंग का ग़ुब्बारा थोड़ा सकुचाया। फिर बोला,

“मैं चाहता हूँ कि किसी बच्चे के जन्मदिन में सजाया जाऊँ।”

“और नीले ग़ुब्बारे! तुम्हारी इच्छा?

“मैं चाहता हूँ कि किसी भव्य आयोजन का हिस्सा बनूँ।”

“और सफ़ेद ग़ुब्बारे! तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?

“मेरी चाहत है कि स्वतंत्रता दिवस पर मुझे खुले आसमान में छोड़ दिया जाए।”

“और तुम्हारी क्या इच्छा है?” लाल, नीले और सफ़ेद ग़ुब्बारों ने एक साथ हरे ग़ुब्बारे से पूछा।

“मेरी इच्छा है कि यह लड़का मुझे बेचने के बजाय मेरे साथ खेले।” हरे रंग वाले ग़ुब्बारे ने जवाब दिया। लेकिन उसकी आवाज़ काफ़ी कमज़ोर लग रही थी।

भोला

सीमा वर्मा
तीन दिन बीत चुके थे मगर भोला आज भी ना आया। नानी रोज़ की तरह रोटी बनाकर उसका इंतजार कर रही थी।
‘भोला’ नाम भी तो नानी ने ही दिया था उसे। वह रोज़ाना अपने समय पर आकर जैसी ही दरवाज़े पर आवाज़ करता, नानी उसे रोटी दे देती। तीन दिन पहले जिस वक्त वह आया था, नानी प्यार से भोला बुलाने की बजाय, उस पर चिल्ला पड़ी थी,”चला आता है रोज़ मुंँह उठाए, जैसे और कोई काम ही नहीं है।” दरअसल उसी को लेकर तो नाना से नानी की खट-पट हो गई थी।
नानी बड़बड़ाती हुई रोटी लेकर जैसे ही बाहर आई, भोला को वहां ना पाकर परेशान हो उठी। उसने उसे इधर उधर बहुत ढूंढा मगर वह कहीं भी ना मिला। फिर उस दिन तो नानी के गले से भी निवाला ना उतरा।
“अजी सुनती हो” कहते हुए नाना जी घर में घुसे और व्यंग से मुस्कुराते हुए बोले,”अरे तुम्हारा लाड़ल, आज मंदिर के बगल में बैठा दिखाई दिया।”
“क्या..!” नानी चौंक पड़ी और तेज़ क़दमों से बाहर निकल गई
जैसे ही भोला ने उसे अपनी ओर आते देखा, अपना मुँह दूसरी तरफ़ फेर लिया। नानी ने उसके कान उमेठते हुए कहा,”मैं बेकार ही तुझे बैल बुद्धि कहती थी, तुझे भी इंसानों वाला रोग लग गया है क्या, जो अब तुझे मान-मनौव्वल चाहिए!”
भोला ने धीरे से अपने कान हिलाए मगर मुँह दूसरी ओर ही घुमाए बैठा रहा।
इस बार नानी रो पड़ी,”जा, मैं ही बावली थी, जो तुझसे मोह लगा बैठी, तू तो बैल का बैल ही रहेगा!” जैसे ही नानी के आंँसू उसके चेहरे पर पड़े, वह सींग लहराता फ़ौरन उठ खड़ा हुआ और सिर झुकाए पूंँछ हिलाता नानी के पीछे-पीछे चल दिया।

मदारी

राघवेन्द्र रावत

बाजार के उस नु क्कड़ पर भीड़ बढ़ती जा रही थी। नुक्कड़ पर बैठा एक ‘ाख्स, गुदड़ी से सिले हुए अपने चैड़े से झोले से नई-नई चीजें निकालकर लोगों के सामने रखता जा रहा था। उसके एक हाथ में डमरू था तो दूसरे हाथ में बांसुरी। अब उसने डमरू और बांसुरी बजाना ‘ाुरू किया, धीरे-धीरे लोग उसकी बांसुरी की धुन में मंत्र मुग्ध होते जा रहे थे।

अब उसने वाद्य यन्त्र रखकर एक पत्थर को हाथ में लिा, नदी किनारे से मिला गोल चिकना, पेड़े बराबर पत्थर था। पहले दर्शकों को दिखाया और फिर मुट्ठी में बंद कर लिया और डमरू बजाने लगा, थोड़ी देर बाद उसने मुट्ठी खोली तो पत्थर गायब था। लोग आश्चर्यचकित थे और तालियाँ बजा रहे थे।

उसने दर्शकों की तरफ मुखातिब होकर कहा, ‘‘बताओ क्या खाओगे?’’

फिर भीड़ में से एक बच्चे को बुलाता है और पूछता है, ‘‘बताओ क्या खाओगे?’’

बच्चा कहता है, ‘‘पेड़ा।’’

वह ‘शख्स, जिसके करतब लोगों को लुभा रहे थे, हवा में हाथ को घुमाता है और कुछ बुदबुदाता है जैसे कोई मंत्र पढ़ रहा हो। कभी झोले की तरफ उसका एक हाथ दिखाता है और फिर हवा में हाथ लहराता है और सामने खड़े बालक के हाथ में पेड़ा रख देता है।

भीड़ के साथ-साथ वह बालक भी अचंभित था, भीड़ मंत्र मुग्ध थी, जैसे-जैसे वह करतब दिखा रहा था वैसे-वैसे लोगों का उस पर भरोसा बढ़ता जा रहा था, असल में वह मदारी था जो अपने करतब से लोगों को लुभा रहा था, ताकि अपने तमाशे से लोगों से कुछ कमा सके। फिर से वह बांसुरी बजाता है। लोग अब पूरी तरह उससे जुड़ चुके थे।

मदारी अब लकड़ी का एक बक्सा निकालता है और चारों तरफ घुमाकर दिखाता है, दरअसल दर्शकों को आश्वस्त करना चाहता है कि बक्सा खाली है। लोगों के बक्सा जाँचने के बाद वह बक्से को बंद करके रख देता है और ऊपर से उसे कपड़े से ढक देता है। फिर बुदबुदाते हुए मंत्र सा पढ़ने  का उपक्रम करता है। लोग टकटकी लगाए उसे देख रहे हैं। अब वह बाँसुरी बजाने लगता है, बांसुरी के साथ-साथ मदारी का जादू छाने लगा था। थोड़ी देर बाद वह बाँसुरी बजाना बंद करके बक्सा खोल देता है, एक कबूतर बक्से से बाहर निकलकर टहलने लगता है। लोग तालियाँ बजा रहे थे। उसे एहसास हो चुका था कि लोग उसेक प्रभाव में जकड़े जा चुके हैं।

उसके साथ एक बालक भी था, मदारी उसे बुलाता है और कहता है, ‘‘जमुरे! जो कहूँगा वो करेगा, जमूरा, हाँ उस्ताद, करूँगा। तो लेट जा, वह जमुरे को को आदेश देता है।

जमूरा लेट जाता है। वह फिर कहता है, ‘जमूरे! जो कहूँगा वो करेगा। जमूरा, हाँ उस्ताद पापी पेट का सवाल है, जान माँगोगे ,तो दे दूँगा। लोग इस सबाके नए चमत्कार की तरह उत्सुकता से देख रहे थे। अब वह चादर से ढक देता है और पुनः बाँसुरी बजाने लगता है। थोड़ी देर बाद बाँसुरी बजाना बंद करके वह झोले मेे से एक छुरी निकालता है। छुरी बच्चे की गर्दन पर चलाता है, पूरी भीड़ काँप जाती है। अचानक आए बदलाव से भीड़ जो कि खेल से जुड़ चुकी थी सहम जाती है। बच्चे के शरीर में हरकत नहीं है।

अब मदारी दर्शकों से अपील करता है कि अपनी जगह से हिलें नहीं, अन्यथा बच्चे की जान चली जाएगी। बच्चा मरा तो आपका भी बुरा होगा। जो कुछ भी बच्चे के लिए दे सकते है दे दीजिए, बच्चे के लिए दुआ कीजिए। सब अपनी जेबों से कुछ न कुछ निकालकर फेंक देते हैं। लोग स्तब्ध होकर उसे देख रहे हैं। मुझे लगा मैं उसी भीड़ का हिस्सा बनता जा रहा हूँ और अनिष्ट के भय से स्तब्ध देख रहा हूँ। मेरे मदारी से हूबहू मिलता हुआ यह मदारी है, जो देश को अपनी बाँसुरी की धुन पर मंत्र मुग्ध किए हुए हैं।

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