1-क्लीन सर का स्वच्छता अभियान
पं0गदाधर त्रिवेदी एक स्कूल में अध्यापक हैं। बड़े ही साफ-सफाई वाले हैं। स्वच्छता में विश्वास रखते हैं। कई बार तो घर में झाडू पौंछा स्वयं ही करने लगते हैं। ‘पार्वती तुम्हें नहीं आती अच्छी तरह सफाई करना।‘ उनकी पार्वती को गुस्सा भी आता है तो मन ही मन खुश भी होती है। ‘तुम्हें अच्छा आता है तो करों हमें क्या।‘
त्रिवेदी जी घर में ही नहीं स्कूल में भी बच्चों को लगाकर कभी स्कूल का फील्ड साफ करवाते हैं तो कभी कमरों की सफाई में जुटे रहते हैं। शनिवार को होने वाली बाल सभा में भी अपने भाषण में प्राय बोलते हैं, ‘देश को स्वच्छ रखो, अपने आस-पास सफाई रखो, स्वच्छ कपड़े पहनो क्योंकि स्वच्छता में ही भगवान का वास है।‘ स्कूल के सभी अध्यापक और बच्चे उन्हें क्लीन सर के नाम से पुकारते हैं जिसका वे कभी बुरा नहीं मानते।
अभी सालाना परीक्षा हुई है। कापियों के बंड़ल अन्य अध्यापकों की तरह वह भी अपने घर पर ले आए हैं, जांचने के लिए। परीक्षा की कापियां जांच रहे थे कि उनकी कक्षा के बहुत ही होशियार बच्चे रामबीर धोबी की कापी जांचते-जांचते कहने लग थे, ‘अरे अब धुबेले भी पढ़ेंगे। इनका काम तो गधे चराना और कपड़ों पर लगे गू-मूत धोना है।‘ और देखते-देखते उन्होंने रामबीर धोबी के सही उत्तर भी काट दिए थे साथ ही उसकी उत्तर पुस्तिका में जीरो बटा सौ लिख दिया था। ‘
रामबीर धोबी सालाना परीक्षा में फेल हो गया था।
पूरे देश में स्वच्छता का संदेश पहुंचाने वाले पं0 गदाधर त्रिवेदी का स्वच्छता में विश्वास अब और बढ़ गया था।
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2-भाड़
गाँव गया था नाना के घर। नाना नहीं हैं अब। मामा भी नहीं हैं। मामा का बेटा है। मुझे देखकर बहुत खुश हो गया,। घर के बाहर ही मिल गया था, ‘अरे जावित्री, देखो तो कौन आया है बुआ का बेटा, अरे वही, दिल्लीवाला ……………..मेरा भाई।’ शायद वह अपनी पत्नी को बुला कम रहा था, पास-पड़ौस के लोगों को सुना ज्यादा रहा था।
‘मैंने गाड़ी वहां खड़ी कर दी है कोई बात तो नहीं’ दिल्ली का आदमी अपने से ज्यादा अपनी गाड़ी की परवाह में रहता है।
‘कोई बात नहीं……..कहीं खड़ी कर दो।’ कहते हुए उसने मेऱा सामान अपने हाथ में लिया और भाभी को देते हुए बोला था, ‘जावित्री, खूब बढ़िया सा खाना बनाओ…………………रामकुमार बीस-बाइस साल बाद आया है। बड़ा आदमी क्या हुआ अपने इस भाई को ही भुला दिया…………बचपन में हम दोनों साथ-साथ खेला करते थे………..है ना…………….।’
‘हाँ’ कहकर हम दोनों वहीं बरामदे में ही बैठ गये थे। नाना-नानी से लेकर अम्मा-पिताजी और बच्चों की फिर नौकरी-चाकरी से लेकर खेती-बाड़ी तक की बातें होती रही थीं हम दोनों में।
कुछ देर बातें करने के बाद मेरा ममेरा भाई बोला था, ‘अब तुम आराम करो…………..मुझे कुछ काम है……………..अरे काम क्या……..खाद लानी है………….अभी दो घण्टे में आता हूं।’ फिर अपनी पत्नी को बुलाते हुए कहा था, ‘जावित्री, रामकुमार को खाना खिला देना। न जाने कितनी देर का भूखा होगा। मैं लेट नहीं होऊंगा जल्दी आ जाऊंगा।’
‘ठीक है।’ कहते हुए भाभी बाहर आ गई थीं।
मेरा ममेरा भाई चला गया था।
मैंने नहाया धोया। खाना खाया। नींद आ गई तो सो गया था। वह अभी तक नहीं आया था। मैंने भाभी से कहा, ‘भाभी……..भइया तो आए नहीं……….मैं तब तक उधर नहर की तरफ घूम आऊं। मन कर रहा है। बचपन में खूब घूमा करते थे हम और भाई।’
भाभी ने हाँ में सिर हिला दिया था।
मैं गांव घूमने निकल गया था। गांव अब कहने को ही गांव था सुविधाएं लगभग सभी थीं जो शहरों में होती हैं लेकिन थीं आधी-अधूरी। नहर, बाग, बरगद और मंदिर सब देखा पहले जैसा कम ही था फिर याद आया……….अरे हाँ………..शैदा नाना का भाड़………….ओ हाँ कैसे अच्छे थे शैदा नाना…………मेरी बनियान में ही चना चबैना रख देते थे। चलो वहाँ चलते हैं।
भाड़ आज भी वहीं था। बहुत सारे लोग, मक्का, चना, बाजरा आदि भुंजवाने के लिए बैठे थे। एक आदमी भाड़ झौंक रहा था। दूसरा भून रहा था। मैं उनमें से किसी को नहीं जानता था। मैं थोड़ी देर तक तो उन्हें देखता रहा फिर मुझे न जाने क्या हुआ। मैंने अपने दोनों हाथ उसके सामने कर दिए थे जो मक्का के दाने भून रहा था। मैं बचपन में भी शैदा नाना के आगे ऐसे ही कर देता था। उसने मेरी तरफ देखा, ‘क्या।’
मैंने भुने हुए मक्का के दानों की ओर इशारा किया बिल्कुल वैसे ही जैसे शैदा नाना से किया करता था। उसने उन भुने हुए मक्का के दानों (चबैना) में से आधी मुट्ठी दानें मेरी हथेली पर बड़ी मुश्किल से रखे और ऐसे देखा मानो कह रहा हो, ‘यहां भाड़ के सामने बैठो तो जानूं……….आए बड़े…………भिखमंगा कहीं के।’
मैं उन आधी मुट्ठी भुने हुए मक्के के दानों को लिए खड़ा रहा। सभी लोग मुझे देख रहे थे। फिर चलने लाग तो मन ने कहा, ‘फेंक दे इन दानों को………..जो इतने अपमान से दिए गए हैं।’ मैंने जैसे ही फेंकने को हाथ ऊपर उठाया कि न जाने कहां से आवाज आई थी, ‘अरे ये तो रामश्री का बेटा है………ले ले………..जब इन्हें चबा ले तब और ले जाना………बहिन-भांजी को देने से तो बरक्कत होती है…………ले जा….अरे ये तो चिरैया चिनगुनी है………इनके चुगने से तो हमें भी अल्लाह खूब देता है।’
मैंने मक्का के भुने हुए दाने नहीं फेंके थे। अपनी पीटर इंग्लैण्ड की शर्ट की जेब में रख लिए थे कि पीछे से वही मक्का के दाने भूनने वाला लड़का चिल्लाया था, ‘ओ साब क्या हुआ……………कम लगे हों तो मोल ले ले।’
‘मोल के दानों में वो स्वाद कहां।’ फिर मैंने उससे पूछा था, ‘तुम शैदा नाना के नाती हो।’
‘हाँ।’
‘मुझे पहचानते हो।’
‘नहीं।’
‘मेरे नाना का नाम दुर्गा था। शैदा नाना और दुर्गा नाना आपस में दोस्त थे। मैं तुम्हारे भाड़ पर……..आ……….या……….करता………..।‘ इसके आगे मैं बोलने की कोशिश कर रहा था। आंखें भर आई थीं। …… लेकिन आज………..आज………..तुम तो सारी परम्पराएं रीति-रिवाज सभी कुछ भूल गए…………।’
‘बाबूजी, परम्पराएँ………..रीति-रिवाज सभी जानता हूँ मैं; लेकिन कमबख्त ये पेट नहीं जानता।’ इतना कहकर वह मेरी ओर क्षमा मांगने वाली दृष्टि से देखने लगा तो मैंने उसे अपने अंक में भर लिया था।
भाड़ अब शायद पहले जैसा गरम नहीं रह गया था।
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3-नालायक -डॉ पूरन सिंह
बेटा जब रात ग्यारह बजे तक घर नहीं आया तो माँ परेशान होने लगी थी। वह कभी घर में अंदर जाती तो कभी बाहर दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती। कभी ड्राइंगरूम में आकर बहू से पूछती, “कब आएगा शांतनु, बहू।’’
सीरियल देख रही बहू को सीरियल में व्यवधान उत्पन्न होने लगता। बहू खिसियाने लगती, ‘आ जाएँगे, मम्मी। आप परेशान न हों। मैं करती हूँ फोन उन्हें…अभी।”
माँ फिर बाहर दरवाजे तक आती और दूर तक जाती सड़क को निहारती रहती। फिर थक हारकर अंदर बैठ जाती। तभी बाइक की आवाज आई।
“बेटा आ गया है शायद” होंठ बजते उसके और लपककर बाहर देखा- बेटा उसे देखे बगैर ही ड्राइंगरूम में चला गया। आफिस बैग एक ओर पटक पत्नी को अपनी बाहों में भर लिया।
रात को खाने की टेबुल पर। माँ खाना खाने से पहले बेटे को निहारती। सभी खाने पर टूट पड़ते। माँ आखिर पूछ ही लेती, “आज देर कैसे हो गई बेटा…कहीं कुछ…गड़बड़…सब ठीक तो है।”
बेटा ने माँ की ओर देखा। मुँह को ले जाता कौर हाथ में ही रोक लिया-“आप मेरे लिए परेशान न हुआ करें मम्मा ! अब मैं बड़ा हो गया हूँ। अब बच्चा नहीं हूँ मैं।”
“न जाने क्यों तू, मुझे अभी भी बच्चा ही लगता है”- माँ कहते-कहते रुक गई कि सोचती कहीं बेटा नाराज न हो जाए और चुपचाप सिर झुकाए रोटी का कौर तोड़ने लगी ।
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4-वृद्धाश्रम●को●इन
बहुत बड़ी बात भी नहीं थी लेकिन बात बड़ी तो यहां तक पहुंची कि बहू ने साफ-साफ कह दिया, ‘अगर इस घर में तुम्हारी मां रहेंगी तो मैं नहीं ……… अब निर्णय आप पर है जो अच्छा लगे …….. करो।‘ और गुस्से में अपने कमरे में चली गई थी।
मां ने सुना तो छलक पड़ी, ‘बेटा मेरा क्या है। आज हूं कल नहीं रहूंगी। तुम्हारे सामने पूरा जीवन पड़ा है। ……बहू की बात मान लो और मुझे किसी वृद्धाश्रम में छोड़ दो।…..मैं रह लूंगी। तुम दोनों का प्यार बना रहे।‘
अब प्यार तो क्या रहना था। बेटे ने समझौता कर लिया था। मां को छोड़ने वह वृद्धाश्रम चला गया था। जरूरी फोरमेलिटीज पूरी करने पश्चात जब लौट रहा था तो मुझे कुछ पैसे देते हुए बोला था। मैं उस वृद्धाश्रम का चौकीदार था तब, ‘मेरी मां का ध्यान रखना।‘
मैंने पैसे नहीं लिए थे और सिर्फ इतना ही बोला था, ‘साहब मैं तो मां का ध्यान रख लूंगा लेकिन…..लेकिन मां की तरह आपका ध्यान कौन रखेगा।‘
मैने देखा था उस दिन। बेटा मेरी बात पर मुंह बाए खड़ा था। वह न वृद्धाश्रम को छोड़कर जा पा रहा था और न ही वृद्धाश्रम में अन्दर जा पा रहा था।
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5- रस्म पगड़ी
पापा जब सिर पर पगड़ी बांधते तो मैं उन्हें देख-देखकर बहुत खुश होती थी और पापा से अकसर कहा करती थी, ‘पापा, मैं भी पगड़ी बांधूंगी‘। पापा मुझे निहारते रहते और कहा करते, ‘क्यों नहीं, तुम तो मेरा बड़ा बेटा हो, पगड़ी पर तो बड़े बेटे का ही अधिकार होता है।‘ यह सुनकर मैं इतरा-इतरा जाती। भाई मुझसे छोटा था। वह मुंह बिचका दिया करता। ….. और तभी एक दिन पापा ऑफिस से घर नहीं आए। उनकी डेड बॉडी आई। मां, मैं और छोटे वाला विलाप करते रहे। मेरे सगे संबंधी मुझे सांत्वना बंधाते रहे और फिर पापा का अंतिम संस्कार कर दिया गया। निश्चित दिनों पर पगड़ी की रस्म पूरी की जा रही थी। बहुत सारे लोग इकट्ठे थे तब मामा ने छोटे वाले को बुलाया और सरपंच ने छोटे भाई के सिर पर पगड़ी बांध दी। तभी मैं चिल्लाई, ‘घर में, मैं बड़ी हूँ पापा मुझे बड़ा बेटा कहते थे। पगड़ी मैं बँधवाऊँगी।‘ मेरी बात सुनकर सभी चिल्लाए थे, ‘अरे, लडकी पागल हो गई है, पगड़ी तो हमेशा बेटे के सिर पर बाँधी जाती है। तुम क्या बेटा हो।‘ मैं चुप खड़ी रही और एक ही पल में मेरे पापा का निरीह सा चेहरा मेरे सामने घूमने लगा था। मेरी आंखें भर आई थीं। उस दिन मैंने देखा था, मेरे छोटे भाई के चेहरे पर जीत की खुशी थी।
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6-माँ
आफिस के बाहर मैंने देखा एक लड़का पेन, पेंसिल और अन्य लेखन सामग्री बेच रहा था। मुझे अपने बेटे के लिए पेंसिल, रबड़ और एक पेन चाहिए था। मैंने देखभाल की, मोलतोल किया और एक पेन, एक पेंसिल खरीदने से पहले उससे कहा, ‘इसे चलाकर दिखाओ। या कुछ लिख कर दिखाओ।‘
‘उसने कहा, मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं क्या लिखूं, उल्टी सीधी लाइनें कर सकता हूं।‘
‘अरे वही करके दिखाओ।‘ गुस्सा तो मुझे खुद पर भी आ रहा था। मैं क्यों नहीं लिखकर देख लेता। मेरी बात उसने मानली और जो पेन मैंने खरीदा था उसस,े उसने कागज पर लिखा, ‘ मां ‘
मैंने कहा,‘ तुमने झूठ क्यों बोला कि तुम अनपढ़ हो।‘
‘बस मां ही लिख पाता हूं साब। ‘
‘क्यों, इसके आगे नहीं सीखा।‘
‘इसके आगे भी है कुछ सीखने को।‘ वह बोला था।
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