लघुकथाओं के महासागर में से किन्ही दो लघुकथाओं को पसंदीदा बताना स्वयं लघुकथाकार होते हुए बड़ा धर्मसंकट खड़ा कर देता है। मेरे पास आलोचकों वाली परिष्कृत भाषा तो नहीं है, परंतु विगत कुछ वर्षों में इस विधा में हुई गतिविधियों का आकलन करने का प्रयास अवश्य कर सकता हूँ।
सारी दुनिया के लोगों को आभासी रूप से जोड़ने वाले लोकप्रिय एप फेसबुक के अस्तित्व में आने के बाद लघुकथा विधा के प्रचार-प्रसार में काफी इज़ाफ़ा हुआ। नवोदितों के रुझान को बढ़ाया व उनकी सम्वेदनाओं को अभिव्ययक्ति का अवसर प्रदान करते हुए थोक में सम्वेदनाएँ यत्र-तत्र बिखेर दीं।नतीजतन फार्मूलाबद्ध लघुकथाएँ भी सामने आईं।
लघुकथा विधा ने खैर इतना तो सिखा दिया कि हमें अपनी सम्वेदनाओं को लघुकथा के नाम पर किसी बेलगाम नहीं छोड़ देना चाहिए, बल्कि उसे सुघड़,सुगठित,कलात्मक,रचनात्मक कलेवर में प्रस्तुत करना चाहिए।
ये भी सच्चाई है कि लेखन ही क्या प्रत्येक क्षेत्र में प्रोत्साहन एक विशेष भूमिका निभाता है। जैसे एक खिलाड़ी या कलाकार की विजय पर उसे प्रशंसा मिलती है; लेकिन उस विजय के पीछे उसके प्रशिक्षक का विशेष हाथ होता है उसी तरह जो अपनी लेखकीय प्रतिभा से परिचित ही नहीं थे उन्हें प्रोत्साहन देकर उनका मार्ग प्रशस्त करना भी एक उल्लेखनीय कदम साबित हुआ।
जो पसंदीदा लघुकथाएँ जेहन में आती हैं वो हैं स्व.पृथ्वीराज अरोड़ा जी की ‘कथा नहीं’,मार्मिक लघुकथाओं की भरमार है, परंतु श्यामसुंदर अग्रवाल जी की ‘सदा सुहागन’ और ‘संतु’ कभी नहीं भूल सकते। डॉ. अशोक भाटिया जी की ‘कपों की कहानी’ एक यादगार लघुकथा है। सुभाष नीरव जी की ‘सफर में आदमी’ और बलराम अग्रवाल जी की ‘बिना नाल का घोड़ा’ जो मेरी पसंदीदा लघुकथाएँ हैं आज प्रस्तुत कर रहा हूँ।
वरिष्ठ लघुकथाकार,कहानीकार,कुशल अनुवादक सुभाष नीरव जी के लेखन में सम्वेदनाओं से भीगे लम्हें हैं ,तो तथ्यात्मकता भी है। कथ्य,कथानक,शैली,संवादों से वो घटित प्रसंग का सजीव चित्र खींच देते हैं जो अंत मे जाकर पाठक के मन-मस्तिष्क को झकझोरता है।
प्रस्तुत लघुकथा ‘सफर में आदमी’ में भारतीय यातायात की जीवनरेखा कही जानेवाली रेलगाड़ी के जनरल कोच में ठुसे हुए यात्रियों के बीच एक मजबूरी के चलते सभ्रांत घराने के व्यक्ति के रात के सफर का सजीव चित्रण है।
तत्काल रिजर्वेशन का विकल्प पहले नहीं होता था।माँ-बाप की तबियत खराब होने की खबर मिलते ही लोग अपने गंतव्य की ओर भागते थे।जनरल कोच में यात्रा करना एक मजबूरी थी।दिन के वक्त लंबी दूरी के यात्रियों के अलावा अप डाऊनर्स की भी भरमार रहती थी।बारी-बारी से यात्री अपनी लघुशंका,दीर्घशंका मिटा लेते थे।टूथब्रश करके कुल्ला करना व सर में तेल डालकर कंघी भी कर लेना जैसे दैनिक नित्यकर्म भी इसी ठसाठस में निर्विघ्न सम्पन्न कर लेना वाकई उप्लब्धिपूर्ण हुआ करता था।इस दौरान उनके सहयात्री उनकी जगह रोक रोककर रखते थे।उसी ठसाठस में माएं पल्लू की आड़ में नवजात शिशुओं को दूध भी पिला लेती थीं।लोग अपने-अपने टिफिन भी खोलकर खा लेते थे।रात के वक्त जमकर खर्राटे भरनेवाले हेलीकाफ्टरों को भी बर्दाश्त करना पड़ता था।कुल मिलाकर भारतीय रेल का जनरल कोच आपसी समन्वय का एक बेहतरीन उदाहरण पेश करता है।
कथानायक उक्त व्यक्ति की डब्बे में घुसते समय भिखारीनुमा,गंदे आदमी को हिकारत से देखते हुए अपनी वेशभूषा को गंदी होने से बचाने के लिए जो मानसिकता है उस स्थिति का उपयुक्त संवाद है “अबे, कहाँ घुसा आ रहा है!” इसी संवाद से लघुकथा की शुरुआत है।
आगे सुभाष नीरव जी तथ्यात्मक होकर यह भी बताते हैं कि उक्त व्यक्ति जब शाम सात बजे ऑफिस से लौटा तब उसको माँ के सीरियस होने की खबर मिली।अगले दिन प्रदेश बंद होने के कारण बस,ट्रैन बाधित होने की संभावनाएँ थीं। संप्रेषणीयता के साथ-साथ लघुकथा का तथ्यात्मक पक्ष भी प्रबल होना चाहिए, वरना पाठक को वह अविश्वसनीय भी लग सकता है।
जब कुछ खड़े हुए लोग फर्श पर बैठने लगते हैं, तब भी वह हिकारत से उन्हें देखते हुए आश्चर्य करता है किै-“जाहिल !कैसी गंदी जगह पर लुढ़के पड़े हैं। कपड़ों तक का ख्याल नहीं है।”अंदर तिल रखने की भी जगह नहीं है इसलिए संडास के पास की दुर्गंध को बर्दाश्त करते हुए वह वहीं खड़े रहने का निर्णय लेता है। अभी भी लुढ़के पड़े लोगों को देखकर उसकी अकड़ बनी हुई है। वह फिर आश्चर्य करता है कि ‘ऐसी गंदी जगह लोगों को नींद कैसे आ जाती है।’
नींद के झोंके आने पर वह गीले फर्श पर घुटने के बल बैठना चाहता है; लेकिन फिर अपने कपड़ों का ख्याल आते ही उठकर खड़ा हो जाता है। खड़े-खड़े जब नींद के झोंके हावी होने लगते हैं, तो वह भी संडास से टिककर वहाँ अधलेटा -सा हो जाता है।
जब तक हमारा शरीर हमें अनुमति देता है, तब तक हम उस अप्रिय स्थिति से बचने की भरसक कोशिश करते हैं पर अंततः शरीर का कहना मानना ही पड़ता है। हमारी ऐंठ,ठसक,गुरूर हमारे शरीर के शिथिल होते साथ साथ ही धराशायी हो जाता है।
किसी स्टेशन पर ट्रेन रुकने पर उसकी नींद खुलती है और मिचमिचाती आँखों से वह देखता है कि ब्रीफकेस हाथ मे लिये व्यक्ति आड़े-तिरछे पड़े लोगों के बीच से रास्ता बनाने की कोशिश कर रहा है।अब यह व्यक्ति उसे हिकारत से देखते हुए जाहिल बोलते हुए बुबुदाता है कि इतनी गंदगी में भी कैसा पसरा पड़ा है !
कुछ घंटे पहले जो इसकी मानसिक स्थिति थी अब वह नए मुसाफिर की है। प्रस्तुत लघुकथा में जिस तरह से सुभाष नीरव जी ने दृश्यांकन,संवाद व वर्णन से एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पेश किया है वह इसे एक उत्कृष्ट लघुकथा में शुमार करता है।
बलराम अग्रवाल जी की लघुकथाओं में प्रतीकात्मकता, कल्पनाशीलता,व्यंग्यात्मकता,संवेदनशीलता, सामाजिक,राजनैतिक,मानसिक विसंगतियों पर सटीक प्रहार का अद्भुत नजारा देखने को मिलता है। प्रस्तुत लघुकथा ‘बिना नाल का घोड़ा’ में भी कल्पनाशीलता व घोड़े को शोषण का प्रतीक बनाकर की गई प्रस्तुति अद्भुत है। निर्जीव वस्तुओं का मानवीयकरण तो अनेक लघुकथाओं में देखने को मिलता है, परंतु यहाँ मनुष्य को पशु रूप में ढालकर जो प्रयोग किया गया है वह उपभोक्तावादी संस्कृति की विसंगतियों पर तीखा प्रहार करता है।
कथानायक काम के अत्यधिक बोझ के चलते स्वयं को पहले चार पैरों पर चलनेवाला पाता है फिर अपनी ही कद-काठी के काले घोड़े में तब्दील हो जाता है। माता-पिता,पत्नी,बच्चों को वह अपनी पीठ पर लदा पाता है अर्थात् परिवार का पेट पालने की जिम्मेदारी उसी की है। परिजन भी अपनी अपेक्षाओं के चलते उससे तेज दौड़ने की उम्मीद लगाए रहते हैं फिर बॉस उसकी गर्दन पर सवार होकर उसके पुट्ठे पर हंटर बरसाता है तेज दौड़ने का आदेश सुनाता है।
एक तरफ परिवार का पेट पालना है ,तो अधिकारियों की अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना है। वह दौड़ते जाता है ठकाठक…ठकाठक…ठकाठक…ठकाठक
ये ठकाठक का प्रयोग तो जीवनसंघर्ष का एक दृश्य- सा खींच देता है।
पूँजीपतियों के लालच की बेल सींचने के लिए कर्मचारी को घोड़े की तरह सतत दौड़ते रहना पड़ता है अन्यथा हंटर,चाबुक पड़ते रहेंगे।
ग्रहदशा सुधारने के लिए माँ द्वारा काला घोड़ा खोजने की बात पर वह कहता है- “अब कौन काले घोड़े की नाल खरीदता है माँ!अब तो मालिक लोग बिना नाल ठोके ही घोड़े को घिसे जा रहे हैं।” और अपने दोनो पैर चादर से बाहर निकालकर दिखाते हुए कहता है “लो… देख लो।”
इस तरह वर्तमान में हो रहे शोषण के प्रति उसमे इतना रोष उपज जाता है कि वह भाग्यवाद को नकार देता है।बलराम अग्रवाल जी ने जिस कल्पनाशीलता से शोषण को अनूठे अंदाज़ में चित्रित किया है वह इस लघुकथा को श्रेष्ट लघुकथा का दर्जा दिलवाता है।
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1-सफ़र में आदमी
सुभाष नीरव
“अबे, कहाँ घुसा आ रहा है !” सिर से पाँव तक गंदे भिखारीनुमा आदमी से अपने कपड़े बचाता हुआ वह लगभग चीख-सा पड़ा। उस आदमी की दशा देखकर मारे घिन्न के मन ही मन वह बुदबुदाया, “कैसे डिब्बे में चढ़ बैठा?… अगर अर्जेन्सी न होती तो कभी भी इस डिब्बे में न चढ़ता। भले ही ट्रेन छूट जाती।”
माँ के सीरियस होने का तार उसे तब मिला, जब वह शाम सात बजे ऑफ़िस से घर लौटा। अगले दिन, राज्य में बन्द होने के कारण रेलें बाधित होने की संभावना थी और बसों के चलने की भी उम्मीद नहीं थी। अतः रात की गाड़ी पकड़ने के अवाला उसके पास कोई चारा नहीं बचा था।
एक के बाद एक स्टेशन पीछे छोड़ती ट्रेन आगे बढ़ी जा रही थी। खड़े हुए लोग आहिस्ता-आहिस्ता नीचे फर्श पर बैठने लगे थे। कई अधलेटे-से भी हो गए थे।
“ज़ाहिल ! कैसी गंदी जगह पर लुढ़के पड़े हैं ! कपड़ों तक का ख़याल नहीं है।” नीचे फर्श पर फैले पानी, संडास के पास की दुर्गन्ध और गन्दगी के कारण उसे घिन्न-सी आ रही थी। किसी तरह भीड़ के बीच में जगह बनाते हुए आगे बढ़कर उसने डिब्बे में अन्दर झांका। अन्दर तो और भी बुरा हाल था। डिब्बा असबाब और सवारियों से खचाखच भरा था। तिल रखने तक की जगह नहीं थी।
यह सब देख, वह वहीं खड़े रहने को विवश हो गया। उसने घड़ी देखी, साढ़े दस बज रहे थे। सुबह छह बजे से पहले गाड़ी क्या लगेगी दिल्ली! रातभर यहीं खड़े-खड़े यात्रा करनी पड़ेगी। वह सोच रहा था।
ट्रेन अंधकार को चीरती धड़धड़ाती आगे बढ़ती जा रही थी। खड़ी हुई सवारियों में से दो-चार को छोड़कर शेष सभी नीचे फर्श पर बैठ गयी थीं और आड़ी-तिरछी होकर सोने का उपक्रम कर रही थीं।
“इस हालत में भी जाने कैसे नींद आ जाती है इन्हें!” वह फिर बुदबुदाया।
ट्रेन जब अम्बाला से छूटी तो उसकी टांगों में दर्द होना आरंभ हो गया था। नीचे का गंदा, गीला फर्श उसे बैठने से रोक रहा था। वह किसी तरह खड़ा रहा और इधर-उधर की बातों को याद कर, समय को गुजारने का प्रयत्न करने लगा।
कुछ ही देर बाद, उसकी पलकें नींद के बोझ से दबने लगीं। वह आहिस्ता-आहिस्ता टांगों को मोड़कर बैठने को हुआ। लेकिन तभी अपने कपड़ों का ख़याल कर सीधा तनकर खड़ा हो गया। पर, खड़े-खड़े झपकियाँ ज्यादा ज़ोर मारने लगीं और देखते-देखते वह भी संडास की दीवार से पीठ टिकाकर, गंदे और गीले फर्श पर अधलेटा-सा हो गया।
किसी स्टेशन पर झटके से ट्रेन रुकी तो उसकी नींद टूटी। मिचमिचाती आँखों से उसने देखा। डिब्बे में चढ़ा एक व्यक्ति हाथ में ब्रीफकेस उठाये, आड़े-तिरछे लेटे लोगों के बीच से रास्ता बनाते हुए भीतर जाने की कोशिश कर रहा था। उसके समीप पहुँचने पर गंदे, गीले फर्श पर उसे यूँ अधलेटा-सा देखकर उसने नाक-भौं सिकोड़ी और बुदबुदाता हुआ आगे बढ़ गया, “ज़ाहिल ! गंदगी में भी कैसा बेपरवाह पसरा पड़ा है!”
-डबल्यू ज़ैड-61ए/1, पहली मंज़िल, गली नंबर-16, वशिष्ट पार्क, सागर पुर, नई दिल्ली-110046 मो0 9810534373, 8920840656
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2-बिना नाल का घोड़ा/बलराम अग्रवाल
उसने देखा कि आफ़िस के लिए तैयार होते-होते वह चारों हाथ-पैरों पर चलने लगा है। तैयार होने के बाद वह घर से बाहर निकला । जैसे ही सड़क पर पहुँचा, घोड़े में तब्दील हो गया—अपने जैसे ही साधारण कद और काठी वाले चमकदार काले घोड़े में । माँ, पिता, पत्नी और बच्चे—सबको उसने अपनी गरदन से लेकर पीठ तक लदा पाया । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, सड़ाक से एक हंटर उसके पुट्ठे पर पड़ा, “देर हो चुकी है, दौड़ो…!”वह दौड़नेलगा—ठकाठक…ठकाठक…ठकाठक…ठकाठक…।
“तेज़…और तेज़…!” ऊपर लदे लोग एक-साथ चिल्लाए।
वह और तेज़ दौड़ा—सरपट।
कुछ ही देर में उसने पाया कि वह आफिस के सामने पहुँच गया है। खरामा-खरामा पहले वह लिफ़्ट तक पहुँचा, लिफ़्ट से फ़्लोर तक और फ़्लोर से सीट तक। ठीक से वह अभी सीट पर बैठा भी नहीं था कि पहले से सवार घरवालों को पीछे धकेलकर बॉस उसकी गरदन पर आ सवार हुआ।
“यह सीट पर बैठकर आराम फरमाने का नहीं, काम से लगने-लिपटने का समय है मूरख! दौड़…।” उसके पुट्ठों पर, गरदन पर, कनपटियों पर संटी फटकारते हुए वह चीखा।
उसने तुरंत दौड़ना शुरू कर दिया—इस फाइल से उस फाइल तक, उस फाइल से उस फाइल तक…. लगातार…. लगातार… और दौड़ता रहा तब तक, जब तक कि अपनी सीट पर ढह न गया पूरी तरह पस्त होकर। एकाएक उसकी मेज़ पर रखे फोन की घंटी घनघनाई—ट्रिंग-ट्रिंग.. ट्रिंग-ट्रिंग…ट्रिंग…!
उसकी आँखें खुल गयीं। हाथ बढ़ाकर उसने सिरहाने रखे अलार्म-पीस को बंद कर दिया और सीधा बैठ गया। पैताने पर, सामने उसने माँ को बैठी पाया।
“राम-राम अम्मा!” आँखें मलते हुए माँ को उसने सुबह की नमस्ते की।
“जीते रहो!” माँ ने कहा, “तुम्हारी कुंडली कल पंडितजी को दिखाई थी। ग्रह-दशा सुधारने के लिए तुम्हें काले घोड़े की नाल से बनी अँगूठी अपने दायें हाथ की अँगुली में पहननी होगी।”
माँ की बात पर वह कुछ न बोला, चुप रहा ।
“बाज़ार में बहुत लोग नाल बेचते हैं।” माँ आगे बोली, “लेकिन, उनकी असलियत का कुछ भरोसा नहीं है। बैल-भैंसा किसी के भी पैर की हो सकती हैं।… मैं यह कहने को आई थी कि दो-चार जान-पहचान वालों को बोलकर काला-घोड़ा तलाश करो, ताकि असली नाल मिल सके।”
“नाल पर अब कौन पैसे खर्च करता है अम्मा!” माँ की बात पर वह कातर-स्वर में बुदबुदाया, “हंटरों और चाबुकों के बल पर अब तो मालिक लोग बिना नाल ठोंके ही घोड़ों को घिसे जा रहे हैं…।” यह कहते हुए अपने दोनों पैर चादर से निकालकर उसने माँ के आगे फैला दिए, “लो… देख लो।”
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