1-सुभाष नीरव
रवि प्रभाकर का ड्रीम प्रोजेक्ट
मित्रो, भाई योगराज प्रभाकर और रवि प्रभाकर ने ‘लघुकथा कलश’ के माध्यम से लघुकथा के लिए क्या कुछ समर्पित भाव से किया, यह हम सब जानते हैं। इतने बड़े आकार में इतने महत्वपूर्ण अंक लघुकथा पर केंद्रित मैंने तो अपने जीवन में अभी तक नहीं देखे। इनके पीछे दोनों भाइयों की लगन, पूंजी और समर्पण तो बोलता ही है, लघुकथा में नए-पुराने लेखकों में समन्वय बनाकर उत्तम रचनाएं कैसे नई पीढ़ी के सम्मुख रखी जाएं, इसे लेकर एक स्पष्ट और साफ सोच व दृष्टि के दर्शन भी हमें होते हैं।
रवि प्रभाकर इतनी कम आयु में यूँ हमें छोड़कर चले जाएंगे, हममें से किसने कल्पना की होगी। हम सबको इस आघात का गहरा दुख है, पर उस शख्स का दुख कितना बड़ा होगा, पहाड़ जैसा जिसका अपना छोटा भाई, सहयोगी चला गया हो। निःसंदेह, योगराज प्रभाकर जी के दुख को हम महसूस कर सकते हैं।
रवि प्रभाकर को हमसे बिछुड़े कुछ ही दिन हुए हैं लेकिन योगराज जी अपनी कर्मभूमि यानी ‘लघुकथा कलश’ के आगामी अंक की तैयारी में जुट गए हैं, रवि के सपने को साकार करने के लिए। गत 2 जून को उनका मेल मुझे मिला जिसमें उन्होंने ‘लघुकथा कलश’ के आगामी ‘अप्रकाशित लघुकथा महाविशेषांक’ के लिए दो-तीन अप्रकाशित लघुकथाएं भेजने का अनुरोध किया है। उन्होंने बताया कि यह रवि का ड्रीम प्रोजेक्ट था और इसे लेकर वह बहुत उत्साहित थे।
चूंकि मेरे पास फिलवक्त कोई अप्रकाशित लघुकथा नहीं है, सो मैंने उत्तर में योगराज जी को लिखा कि तय की गई तिथि तक यदि नई लघुकथा(एं) लिख पाया तो अवश्य भेजूंगा।
उत्तर तो मैंने भेज दिया, पर रवि के ड्रीम प्रोजेक्ट की बात मेरे ज़हन में तब से गूंज रही है। इसी गूंज के निरंतर बने रहने का ही नतीजा है कि आज एक नई लघुकथा का सृजन हो गया। मन खुश है। मां सरस्वती की कृपा रही तो एक -दो और लिख पाने में समर्थ होऊंगा। आखिर रवि के ड्रीम प्रोजेक्ट में कौन न छपना चाहेगा?
सचमुच, लघुकथा कलश का आगामी महाविशेषांक रवि के प्रति एक सच्ची श्रद्धाजंलि होगा।
सुभाष नीरव,7 जून 2021)
2-बलराम अग्रवाल
मुट्ठी रीत गई है, हे ईश्वर!
रेत का एक कण भी इसमें नहीं बचा।
अब रुक जाओ।
नाम गिनाने का औचित्य नहीं है। बस इतना कह देना काफी है कि साहित्य और समाज के हमारे कितने ही अपनों को तुमने बुला लिया, हमने धैर्य रखा। उनकी आत्मा की शान्ति और परिवार को धीरज प्रदान करने के लिए तुमसे प्रार्थना की। इसके अलावा कर भी क्या सकते थे।
लेकिन 22 मई, 2021 की शाम जब श्याम सुंदर अग्रवाल जी ने प्रिय रवि (प्रभाकर) के चले जाने की सूचना दी तो हृदय बिलख उठा। तुम्हारे खिलाफ मन में घमासान छिड़ गया।
ऐसे अवसरों पर तुम्हारे न्याय पर संदेह हो उठता है। न्याय पर ही क्यों, तुम्हारे अस्तित्व पर भी संदेह हो उठता है। मन सोच उठता है कि तुम हो भी या नहीं। हो, तो इतने क्रूर, इतने अन्यायी आखिर क्यों हो? कारण क्या है?
लघुकथा के युवा लेखक, समीक्षक, समालोचक और सम्पादक प्रिय रवि को गये (शाम 7:30) अभी 10 घंटे भी नहीं बीते थे कि भाई मधुदीप फोन आ गया। (23 मई, सुबह 5:10) तुमने लघुकथा की घनी छाया वाले वट डॉ. शकुन्तला किरण की साँसें भी छीन लीं।
जड़ से लेकर फुनगी तक सब लील चुके हो। अब बस करो, बस करो, बस करो।
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3-नीरज शर्मा
हे ईश्वर अब बस भी करो। आप ऐसे कैसे छीन सकते हो रवि प्रभाकर जैसे खुशमिज़ाज, कर्मठ और ज़िंदादिल इनसान को। मेरे लिए वे प्रिय अनुज थे। न ही श्रद्धांजलि के लिए शब्द हैं मेरे पास न योगराज भाई को सांत्वना देने के लिए।–
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4-रजनीश दीक्षित
रवि सर,
काश! कि सब खैरियत होती, यह खबर गलत होती।
आपका असमय जाना एक शून्य पैदा कर गया। इसकी भरपाई तो अब नहीं ही हो पाएगी।
जब मैं लघुकथा कलश द्वितीय अंक की लघुकथाओं पर समीक्षाएँ लिख रहा था तो एक दिन नए नम्बर से फोन आया था।…’रजनीश भाई, रवि प्रभाकर बोल रहा हूँ।…’
प्रशंसा के वे मीठे और हौसला बढ़ाने वाले शब्द आज भी गूंज रहे हैं। मैं तो धन्य हो गया था…धन्य था लघुकथा मिशन और साहित्य परिवार।
आप बहुत याद आएँगे सर। ईश्वर आपको अपने चरणों में स्थान दें। Yograj Prabhakar सर, परिवार, मित्रों को ईश्वर बहुत शक्ति दें कि हम सब इस बज्रपात को सहन कर सकें।
विनम्र श्रद्धांजलि।
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5-अनघा जोगेलकर :
जब कुछ दिनों के लिए मैं fb पर नही थी, तब मई अंक के लघुकथा.कॉम के प्रकाशित होते ही मैंने रवि प्रभाकर दादा को msg किया, क्योंकि ‘मेरी पसंद’ कॉलम में मैंने रवि दादा की लघुकथा ली थी।
तब दादा ने बताया कि उन्हें टायफाइड है और कोविड टेस्ट किया है। दूसरे दिन दादा ने बताया कि रिपोर्ट पोसिटिव है।
तब से मैं रोज दादा के सम्पर्क में रही। उनके हॉस्पिटल में रहते दिन में 3 बार उन्हें रेकी देती। उन्हें हिम्मत बंधाति रही। योगराज सर से भी रोज दादा के बारे में पूछती रही।
दादा की O2 ’98’ आ गयी और मैं रिलेक्स हो गयी। 20 को शाम को दादा से फोन पर भी बात की।दादा की आवाज सुनकर तसल्ली हुई।
21 की रात फिर दादा को रेकी दी। दादा ने भी कहा कि अब बहुत बेहतर लग रहा है। सोमवार दादा घर आने वाले हैं यह जानकर बहुत खुशी हुई।
22 को सुबह से msg करती रही लेकिन दादा का रिप्लाई न आया। लगा, शायद आराम कर रहे हों। आ जाएगा रिप्लाई…
आज भी दादा के रिप्लाई का इंतज़ार है और जीवन भर रहेगा…
आप मेरे बड़े भाई हैं और हमेशा रहेंगे।
मेरी हर लघुकथा को आपने सबसे ज्यादा सराहा। लेकिन अब लघुकथा न लिख पाऊँगी।
मेरा यह हुनर आपके साथ कि चला गया दादा….
आज भी विश्वास नही हो रहा। कल से पचासों बार आपके साथ 10 तारीख से हुई चैट पढ़ चुकी हूँ। हर बार आप कहते बेहतर हूँ, ठीक हूँ,अच्छा हूँ…
फिर…
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6-सुधीर द्विवेदी
क्या-क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? किस तरह लिखूँ? न जानें कितने ही सवाल आ दबोचते हैं जब उस रवि के विषय में लिखने की बात आती है, जिसका प्रभामंडल चकाचौंध कर दिया करता था हम जैसे न जिसने कितनें जुगनुओं को, जो न जानें कब तक इसी ग़लत फ़हमी में जीते चले जाते कि रौशनी के भागीदार हम भी हैं। पर हर गलत फहमी को एक ना एक दिन चकनाचूर होना होता है और हुआ भी वही जब लघुकथा व्योम का ज्वाजल्यमान रवि, जिसका प्रकाश स्वयं के नामाराशी के नितांत विपरीत शीतल था, कोरोना नामक ग्रहण द्वारा ग्रस लिया गया।
कहाँ से याद करना आरंभ करूं!
मेरी अधकचरी लघुकथाओं पर उनका एकाएक प्रकट होना, और स्व-नामानुकूल उस कथा को सम्पादित कर जगमगा देना। यह उनका स्वभाव था। उनके सुझाए छोटे से बदलाव से कथा निखर जाती।
उनसे साक्षात भेंट लखनऊ में ओपन बुक्स ऑनलाइन की लखनऊ शाखा के वार्षिकोत्सव में हुई थी। उनका आत्मीय व्यवहार मन में घर कर गया। किसी भी चीज़ से ऐसा ना लगा कि मैं इतने बडे़ विद्वान के सानिध्य में हूँ। बातों में पारिवारिक स्नेह ही झलकता रहा।
उनका व्यक्तित्व बहुत स्नेहिल था। उनके आस-पास वाला हर व्यक्ति उनपर अपना विशेषाधिकार समझता था। मुझे भी वह प्रिय अनुज ही संबोधित करते थे।
पिछले दिनों कुछ अपरिहार्य कारणों से लम्बे अरसे तक मैं लेखन से दूर हुआ तो उन्होंने ना जाने कितनी बार व्यक्तिगत फ़ोन कर मेरा आह्वान किया। और मैं अभागा जब तक उस आह्वान को स्वीकारता, वे स्वयं सभी आह्वानों को नकार सीमा लाँघ गए।
उनके विषय में कुछ भी लिखने की न मेरी औक़ात है, न हिम्मत। फ़िर भी ये शब्द पुष्प श्रद्धाञ्जलि स्वरूप आपको अर्पण, रवि सर! आप कभी नहीं भुलाए जाओगे।
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7- जानकी वाही
रवि प्रभाकर-एक न भूलने वाला शानदार व्यक्तित्व
अपने लघुकथा संग्रह छपकर आने में उनकी कोई रुचि नहीं थी।अक्सर कहते अभी उस मुक़ाम तक नहीं पहुँचा हूँ कि एक अच्छा संग्रह छपावाऊँ।पहले अच्छी लघुकथाएँ तो लिख लूँ? उनके द्वारा की गई कई संग्रहों की समीक्षा पढ़ी तो लगा कि इतनी पारदर्शिता ,इतनी गहराई से कौन लिख सकता है भला।नाम चाहे पुराना व बड़ा हो चाहे नया ,उनकी साफ़-शफ्फाक नज़र बराबर पड़ती दोनों पर।कथा की, आलेखों की एक -एक पंक्ति की खुलकर विवेचना करते। ” न काहू से दोस्ती न काहू से वैर ”
अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के लिखते-कहते।हर कोई उनकी विशद और गहरे ज्ञान का मुरीद था।उनका ज्ञान भी अपार था।बातचीत के बीच में नामचीन लेखकों के कोटेशन यूँ बोलते मानों उनकी जीभ पर धरे रखे हों। लघुकथा विधा के वरिष्ठों की लघुकथाओं का ज़िक्र तो उनका मनपसंद काम था।कहते अपने वरिष्ठों को पढ़ो।
रवि सर,अपनेआप में लघुकथा के विद्यालय थे। उनकी बाज़ जैसी पैनी नज़र हर समूह की अच्छी कथाओं पर रहती ।
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8-सोमा सुर
कभी छुटकी, कभी प्यारी बहना यही संबोधन मिला था मुझे रवि भइया से।
लघुकथा लिखकर सबसे पहले भइया को दिखाती थी। जब पहली बार मैंने संकोचवश एक लघुकथा का ड्राफ्ट भेजकर कहा था कि भइया आपको लघुकथा पढ़वाकर परेशान करूंगी। उनका जवाब था या तो भाई मत कहो या परेशान करना मत कहो। साथ ही कहा अच्छा लिखोगी तो शाबाशी मिलेगी लेकिन कमजोर लघुकथा हुई तो डांट भी पड़ेगी याद रखना।
पिछले महीने पापा के परलोक गमन के बाद भइया का फ़ोन आया कि तुम्हारा व्हाट्सअप स्टेट्स देखा, क्या हो गया?
उन्होंने मुझे हिम्मत और हौसला दिया।
लेकिन आज ये अप्रत्याशित ख़बर सुनकर फिर से हौसला खोने लगा है। ये महामारी न जाने कितने प्रियजनों को दूर कर देखी।
रवि प्रभाकर भइया आपको प्रभु अपने श्रीचरणों में स्थान दें। लघुकथा जगत ने एक चमकता हीरा खो दिया। योगराज सर एवं परिवार जनों को ईश्वर इस असहनीय दुख से उबरने में सहायता करें।