Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

‘आयोजन’लघुकथा और विमर्श का संगम

$
0
0

(पाठकीय प्रतिक्रिया )

 ‘आयोजन’ शब्द मात्र से मन, उत्साह और आनंद की कामना में डूब जाता है। यह आयोजन साहित्य प्रेमियों के लिए आयोजित किया गया हो, तो समझिए सोने में सुगन्ध हो गया।

एक ऐसा ही आयोजन, लघुकथा विधा की दुनिया में ‘बरेली गोष्ठी 1989’ में सम्पन्न हुआ। यह वह दौर था जब सुविधाओं के नाम पर तकनीक इतनी विकसित नहीं थी। उस समय में लघुकथा-पाठ और विमर्श को संगृहीत करने के लिए रिकार्डिंग का सहारा लिया गया, लेकिन क्या यह इतना सरल था?

उस समय जब आज की तरह विकसित उपकरण और सबसे ज़्यादा सुलभ एन्ड्रॉयड फ़ोन अपने अस्तित्व में आए भी नहीं थे। तब इस प्रकार से रिकॉर्डिंग करना व उन्हें दस्तावेज के रूप में संगृहीत करना ख़ुद में एक विशिष्ट उपलब्धि है। जिसका ज़िक्र हमारे और आने वाली लघुकथा पीढ़ी के सामने होना ही चाहिए।

बरेली गोष्ठी की यादों को, वहाँ हुए विमर्श को, एक पुस्तक के रूप में लाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि उस गोष्ठी को सफलता पूर्वक सम्पन्न कराना। लघुकथा-विमर्श पर आधारित पुस्तक ‘आयोजन’ जब मुझे प्राप्त हुई, तो मेरे मन में एक रोमांच जागा। जैसे-जैसे मैं पुस्तक पढ़ती गई वैसे-वैसे मन के कोने में एक अभिलाषा ने जन्म लेना शुरू कर दिया। यह अभिलाषा है बरेली गोष्ठी की तरह ही आयोजित, आयोजन में सम्मिलित होने की। इसके साथ ही यह इच्छा भी है, गोष्ठी का आयोजन हम इस प्रकार करें, जहाँ निष्पक्ष होकर आपकी रचनाओं पर त्वरित प्रतिक्रिया प्राप्त हो।

पुस्तक में गोष्ठी के तीनों सत्रों का विवरण है और साथ ही सुनाई गई कथाओं व उन कथाओं की आलोचना भी इस पुस्तक में दर्ज है।

 प्रथम सत्र में लघुकथा-पाठ के लिए जिन लघुकथाओं को अवसर मिला, उनकी सूची निम्न प्रकार है-

1-भीतर का सच-राजेंद्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’

2-सभ्य असभ्य-जगदीश बत्रा

3-काली बिल्ली-राजेन्द्र कृष्ण श्रीवास्तव

4-गोश्त की गंध-सुकेश साहनी

5-दण्ड-जगवीर सिंह वर्मा

6-जीत-डॉ-स्वर्णकिरण

7-मुखौटा-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

8-रोबोट का कमाल-रामयतन प्रसाद यादव

9-बोफोर्स काण्ड-डॉ.सतीश पुष्करणा

10-तीर्थ और पीक-डॉ.शंकर पुणतांबेकर

इस आयोजन में कथाओं की प्रस्तुति के साथ अन्य उपस्थित कथाकारों ने विमर्श के साथ आलोचना प्रस्तुति की जो कि पुस्तक में प्रकाशित है। व्यक्तिगत तौर पर प्रथम सत्र में प्रस्तुत लघुकथाओं में से ‘गोश्त की गंध’ , ‘मुखौटा’ , ‘भीतर का सच’ और ‘बोफोर्स काण्ड’ मुझे बेहतरीन लगी जो कि आज भी प्रासंगिक हैं। ‘तीर्थ और पीक’ सच को जैसे नग्न कर दे रही हो। ‘गोश्त की गंध’ एक ऐसी लघुकथा है जो बिम्ब योजना के साथ लिखी गई है। इसकी शैली व इसका कथ्य बेहद प्रभावी है।  ‘मुखौटा’ प्रतीकात्मक लघुकथा है जो राजनीति की विद्रुपता को स्पष्ट दिखा रही है।

द्वितीय सत्र में लघुकथा-पाठ में जिन लघुकथाओं को सम्मिलित किया गया उनकी सूची प्रस्तुत है-

1-दृष्टि-गम्भीर सिंह पालनी

2-अनबन-डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी

3-रणकौशल के बावजूद-कुलदीप जैन

4-पुलिसिए-विनोद कापड़ी ‘शान्त’

5-नौकरी और नौकर-कन्हैया लाल विद्यार्थी

6-अच्छे बच्चे-एस.कालरा

7-चोला-रमेश गौतम

8-गौ भोजनम् कथा-बलराम अग्रवाल

9-रिश्ते-जगदीश कश्यप

10-रंग-अशोक भाटिया

दृष्टि संवेदनशील लघुकथा है। जिसमें निहित यथार्थ को लेखक ने निर्ममता से प्रस्तुत किया। अधिकार और कर्तव्य की जद्दोजहद है, ‘अनबन’।  ‘रणकौशल’ उलझी हुई लघुकथा है। पुलिसिए अतार्किक लगी। ऐसा लग रहा है जैसे कि मार्मिकता को जबरन लाद दिया गया हो।

नौकरशाहों की पोल खोलती ‘नौकरी और नौकर’ एक अच्छी कथा है, लेकिन मुझे इसका कथ्य कमजोर लगा।

‘अच्छे बच्चे’ एक संवेदनशील लघुकथा है।  ‘चोला’ राजनीति के नुमाइंदों की असलियत दिखा रही है।

‘गो-गोजनम् कथा’ बेहतरीन लघुकथा है सुंदर और सार्थक संदेश के साथ। ‘रिश्ते’ सम्बंधों की जटिलता को प्रस्तुत करती लघुकथा है। इस सत्र की एक महत्त्वपूर्ण लघुकथा है ‘रंग’ जिसे हम आज भी पढ़ रहे हैं।

इस सत्र के विमर्श वाले भाग में मैंने पढ़ा कि रंग जैसी सशक्त लघुकथा की आलोचना भी हुई।

यदि हम आज के लघुकथाकारों को देखें और उनकी रचनाओं की आलोचना करें, तो कुछ लघुकथाकार आलोचक और पाठकों से ही उलझ पड़ते हैं और यह वह लघुकथाकार हैं जो पिछले चार- पाँच साल से लिख रहे हैं और आलोचना के महत्त्व को समझते हैं। किन्तु प्रशंसा के इच्छुक यह रचनाकार गम्भीरता से कोसो दूर हैं।

तृतीय सत्र इस आयोजन का सबसे लम्बा सत्र रहा। जिसमें कुल सत्रह लघुकथाओं को सम्मिलित किया गया।

‘ओवर टाइम, जानवर, रक्षा-कवच, संस्कार, फुटबॉल, ड्राइंगरूम, गर्म हवाओं में नमी, एहसान, थर्मस, मरियल और मांसल, सच्चा प्यार, जैसी करनी, फीस, गाजर घास, पैसे का सत्य, समाज सेवक, आर्थिक हानि।’

तृतीय सत्र के विमर्श का भाग पुस्तक में प्रकाशित नहीं है। ऐसा ज़रूर बिजली फेल हो जाने या रिकॉर्डिंग न हो पाने के कारण ऐसा हुआ होगा।

जब हम लेखन शुरू करते हैं, तो हम आलोचना के लिए तैयार नहीं होते, बल्कि हमें लेखन की समझ ही नहीं होती, क्योंकि यदि लेखन की समझ होती, तो आलोचना को सहर्ष स्वीकार करना भी सीख लेते।

सोशल मीडिया के झटपट वाले दौर में जहाँ नए-नए लेखकों ने जन्म लिया है वहीं उनके संघर्ष में सोशल मीडिया मददगार बनकर भी आया है। लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति से वही लेखक अपनी पहचान बना पाया है जिसने आलोचना को सहर्ष स्वीकार किया।

इस पुस्तक में आयोजन को क्रियान्वित करने में आई दिक्कत और उसके बावजूद सफलतापूर्वक समापन का भी उल्लेख किया गया है।

ऐसे आयोजन होने चाहिए जिसमे बिना प्रशंसा व दिखावे के सिर्फ़ और सिर्फ़ रचना और रचना पर विमर्श की प्रक्रिया हो।


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>