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Channel: लघुकथा
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सुकून

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‘‘सुनो, जरा एक कप चाय बनाओ।’’ स्कूल से आते ही अरविन्द ने कहा तो राधिका चौंक  गई। इस समय चाय? वह भी स्कूल से आते ही! कोई साथ में है क्या?’

            ‘‘नहीं यार! इच्छा है कि आज घर में भी कुछ ऐसा किया जाए जो कभी-कभी होता है।’’

            ‘‘बहुत खुश नजर आ रहे हो! बात क्या है?’’

            ‘‘खुशी भी है और मीठेपन का एहसास भी….!’’

            ‘‘लगता है, कुछ नया हाथ लग गया है?’’

            ‘‘हाँ राधिका! नया ही समझ लो। आज स्कूल में एक इंस्पेक्टर साहब आ गए। उन्होंने आदेश दिया कि आज इंस्पेक्शन है और वह भी मेरा।’’

            ‘‘मरे ने आपको ही क्यों चुना और भी तो इतने सारे थे! क्या उन्हें पगार नहीं मिलती या वे सब अनपढ़-निठल्ले हैं?’’

            ‘‘राधिका जी! बुरा तो लगा। थोड़ा हिचकिचाया भी, पर सरकारी हुक्म था, बजाना ही पड़ता है। सच मानो, न जाने कहाँ से हिम्मत आ गई! मन ने कहा-यही मौका है अरविन्द! बच्चों को पढ़ाने की आज अपनी पूरी काबिलयत दिखा दे। और श्यामपट  पर मैंने बच्चों को सवाल समझाने शुरू कर दिए।’’

            ‘‘पर बच्चे इतने नालायक हैं कि उन्हें कुछ समझ आए तब न!’’

            ‘‘नहीं राधिका, जैसे-तैसे मैं दिल की गहराई से पढ़ाने में डूबता गया, बच्चे भी पूरी तल्लीनता से मेरे साथ चलने लगे। उनकी मासूम आँखों में सीखने की प्यास उतर आई। पढ़ने का आनन्द से लबरेज उनके चेहरों में मुझे अपना बचपन नजर आने लगा। सच राधिका, बड़ा सुकून मिला। लगा कि इंस्पेक्टर साहब आज से पहले क्यों नहीं आ गए! डूबकर पढ़ाने से मिलने वाले आनन्द से तो मुलाकात आज ही हुई।’’

            राधिका आँखों में प्यार भरकर कुछ देर पति को निहारती रही; फिर बोली, ‘‘चाय के साथ क्या लोगे?’’


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