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Channel: लघुकथा
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संस्कार

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‘बीना, आज आशु ने मुझे अपने शहर बुलाया है। मैं तो उस क्षण का इन्तज़ार कर रही हूँ जब मेरी नन्हीं पोती मेरी बाहों में होगी। आज मुझे अहसास हो गया कि कोई बेटा अपने माँ-बाप से दूर नहीं रह सकता। भले ही उसने पहले न बुलाया हो, अब तो उसे माँ की याद आ ही गई’  खुशी से चहकते हुए शीला अपनी सहेली से बात कर रही थी।

‘तू भी कितनी भोली है शीला। उसे माँ की नहीं आया की याद आई है। मैंने भी दुनिया देखी है ।

‘इस तरह से तो मैंने सोचा ही नहीं था। मैं आशु को जाने से मना कर दूँगी’, शीला ने मन बना लिया।

तभी मोबाइल बज उठा।

“माँ, किस दिन का टिकट ले लूँ?” आशु पूछ रहा था।

“बेटा,अभी कुछ दिन के लिए रहने दे। कुछ काम आ गया है,”शीला ने थोड़े मद्धिम स्वर में कहा।

“किन्तु कल तक तो आप तैयार थीं, आज अचानक क्या हो गया,”आशु पूछ रहा था

“………..” शीला कुछ बोल नहीं पाई।

“माँ, यदि आप यह समझ रही हैं कि मैं आपको काम के लिए बुला रहा हूँ,  तो आप गलत हैं। मेरे घर में बाई, कुक और आया, सभी हैं। फिर भी कुछ कमी है।”

“क्या,” शीला असमंजस भरी आवाज़ में बोली।

“माँ, इंसान जब जन्म लेता है, तो अपने कर्मों के सहारे आगे बढ़ता है। वह परमपिता ही होते हैं जिनकी देखरेख में हम सुरक्षित रहते हैं, क्योंकि वह हर वक्त यह ख्याल रखते हैं कि बुरी बलाएँ हम तक पहुँच न सकें। वही परमात्मा वाली नज़र गुड़िया के लिए चाहिए माँ,” कहते हुए आशु भावुक हो गया।

“ कल की टिकट ले ले बेटा,” शीला की गलतफहमी दूर हो चुकी थी।

–ऋता शेखर ‘मधु’

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Tue, Aug 10, 10:31 AM

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