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लघुकथाएँ

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1-यह हादसा नहीं

वह बार-बार दरवाजे की तरफ देखते थक गई थी।
रात गहराते ही, उसकी चिन्ता भी गहराने लगी थी।
चम्पा को अब तक वापस लौट आना चाहिए था। चम्पा उसकी कोख जनी बेटी है। उसका लहलहाता संसार है। चम्पा का बापू नशियाते हुए खीझ उठा था…लेकिन…वह चिंतित नहीं हुआ था। उसने सोचा था, आज औरतों को टट्टी-पेशाब के लिए जाने कितनी दूर जाना पड़ता है, तब जाकर कहीं एकान्त मिलता है।
‘आ गई मुई…इतनी देर से सभी चिन्ता कर रहे थे…?’ वह बोली थी।
‘बच कर आई हूँ…मुश्किल से…’चम्पा रोने लगी थी।
‘बता तो, हुआ क्या है…?’ वह भीतर तक हिल गई थी।
‘मेरा सिर हुआ है…यह देख…यह…मर जानों से बहुत तरले किए थे…पता नहीं कहाँ से आ गए थे…शराब से मर जाने सभी टुन्न थेे…’ उसने अपने तार-तार हुए कपड़ों की हालत दिखा दी थी।
‘तू ठीक तो है ना…मेरी बेटी…?’ वह बौखला उठी थी।
‘खाक ठीक हूँ…मर जानों ने मटियामेल कर दी तुम्हारी बेटी की इज्ज़त…’
‘पता है कैसे जान बचा के आई हूँ…‘ चाकू निकाल लिए थे…उन तीनों ने, वह हाँफने लगी थी।
‘तू बच के आ गई…मेरी बिटिया…रब्ब का शुक्र कर…भूल जा…शाबाश मेरी बेटी…जा कपड़े बदल…और बात पर मिट्टी डाल…तू बच गई…कम है क्या…?’
‘तू क्या कह रही है माँ…?’
‘ठीक ही तो कह रही हूँ…गरीब की इज्ज़त होती ही कहाँ है…बोल…? फिर लुटने का क्या गम करें…शुक्र कर तू बच गई है…वरना तुम्हारी लाश भी गाँव के किसी दरख़्त पर लटकी हुई मिलनी थी सवेरे…‘ वह चम्पा को चूमने लगी थी…उसकी आँखें गीली हो आई थीं।
उसने देखा था, उसका खाविंद शराब से नशियाते हुए नींद से भरी आँखों को मलते हुए, झुग्गी के भीतर ज़मीन पर पसर गया था, जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो…

2-हैवानियत

लोग भयानक बाढ़ से काँप उठे थे।
पहाड़ों में बाढ़ ने विकराल रूप धारण कर लिया था। हर ओर मुर्दा जिस्म सड़ांध मारने लगे थे। इधर-उधर चीत्कार होने लगा था, जैसे क़हर टूट पड़ा था।
बचाव दलों के लोग लाशों की तलाश में जुट गए थे। कई लोग अभी भी जीवित थे, जिन्हें बचाव दल ने बचा लिया था। हर ओर कुदरत के क़हर के चर्चे होने लगे थे।
ऐसी आपदाओं में चोर-उच्चके भी सक्रिय रहते हैं।
रात के भयावह सन्नाटे में वे अपने काम में सक्रिय रहतें हैं।
उसी रात दो जने हाथों में टार्च लिए हुए पहाड़ों की ढलानों में उतरते हुए, मुस्तैद हो उठे थे। मुर्दा देहों से सटे कीमती जेवर, घड़ियाँ, सोने की अंगूठियाँ, नेकलेस, पैन्टों की जेबों में खुँसे बटुए उनकी गिद्द दृृृष्टि से बच नहीं पाए थे…वे टार्च की तीखी रोशनी के सहारे गिद्दों की तरह झपटते रहे थे, मुर्दा जिस्मों पर…
थोड़ी दूर ही एक महिला के शव के पास आकर रुक गए थे वे।
‘उतार अंगूठी…देखता क्या है…’ एक जना बोला था।
‘उतार ही तो रहा हूँ…उतर ही नहीं रही…बड़ी ‘टाइट’ है…अंगुली से निकल ही नहीं रही…’ दूसरा जना बोला था।
‘देखता है…दो-तीन तोले से कम नहीं होगी…ऐसे ई छोड़ दें…?’
‘तो क्या करूँ…?’
‘निकाल चाकू…अंगुली ही है…काट के फेंक कहीं…अंगुठी को ऐसे ई छोड़ दें…’?
‘ना भाई…’
‘बात तो तेरी ठीक है…’ उसने पैन्ट की जेब में खुँसा चाकू निकाल लिया था।
उसने झटके से उस मृत महिला की अंगुली काट दी थी…अब अंगुठी उसके हाथ में थी…वह राक्षसी हंसी हंसने लगा था…
अब वे और भी खूँखार हो उठे थे…उनकी आँखों में मृत लोगों की अंगूठियाँ और अंगुलियाँ उतर आयी थीं। वे मन ही मन लाशों की गिनती करते हुए आगे बड़ गए थे।
एक जना बोला था, ‘किसी ने देख लिया तो…?…बोल क्या कहेंगे…?’
दूसरा जना बोला था, ‘कह देंगे…सेवा दल के लोग हैं जी…सेवा कर रहे हैं जी…’

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3-आशंका

उसकी अब जिम्मेदारियाँ बढ़ने लगी हैं।
पूरे परिवार का खर्च वही तो चला रहा है. तीस हजार पेन्शन के बहुत होते हैं, आज के समय में…वह मन ही मन हिसाब बैठाता है।
अभी छोटी बेटी ब्याहने वाली है।
बीवी अक्सर इस बात को लेकर चिंतित रहती है।
उसकी कई तरह की चिंताएं हैं। छोटी बेटी की शादी की चिंता…रमन के परिवार की चिंता…बीवी के साथ-साथ वह भी तो इस घर की समस्त जिम्मेदारियों में सम्मिलित है…पिछले दिनों उसकी बीमारी ने सभी को तोड़ दिया है…सभी के चेहरे उतरे हुए से प्रतीत होने लगे हैं।
‘तुम क्यों चिंता करती हो मेरी…बोल तो…इतना तो चलता ही ज़िन्दगी में…’ उसने उदास हुई अपनी बीवी से पूछा था।
उसकी बीवी बोली थी…‘आप ठीक रहें बस…मुझे और क्या चाहिए…’
‘मुझे कुछ नहीं होगा…क्यों फिजूल में सोचती हो…’
‘शुभ-शुभ बोलो जी…अभी तो बहुत साल तक जीना है आपने…घर की जिम्मेदारियाँ अभी पूरी कहाँ हुई हैं…?’
‘क्यों नहीं…मैं ही तो करूँगा पूरी सारी जिम्मेदारियाँ…’
‘मैं तो कहती हूँ…आप अब स्कूटर पर अकेले मत जाया करें…कितनी टैªफिक हो गई है शहर में…रमन को साथ ले जाया करें…वह चला लिया करेगा स्कूटर…’
‘उसे क्यों खामख़्वाह तंग करें…नौकरी पेशा है बेचारा…कहाँ-कहाँ दौड़ेगा मेरे साथ…?’ वह समझाने लगा था बीवी को।
‘हमारा पुत्तर है…थोड़ा बहुत तो उसका फ़र्ज बनता है ना…अगर आपको कुछ हो गया तो…बोलिए…कल से आप अब अकेले नहीं जाएंगे कहीं…’ उसकी बीवी ने लगभग अपना फैसला सुना दिया था।
‘क्यों गलत सोचती हो…कुछ नहीं होगा मुझे…’
‘शुभ-शुभ बोला करो जी…आप दवाइयाँ लेते रहें…कुछ नहीं होगा जी…आपको…’ उसकी बीवी ने फिर आशंका प्रकटायी थी।
उसे लगता है…सभी उसे संभालने में लगे हैं…मौत से बचाने हेतु सभी जनों ने अपने-अपने दाँव लगा रखे हैं…उसने महसूसा था इस घर को उसकी…उसकी जिन्दगी की…उसकी पेन्शन की ज़रूरत है…वरना…इस घर का क्या होगा…इतना सोचते ही वह भीतर तक काँप उठा था।

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4-आत्म-ग्लानि

गांधी चौक में सारा दिन चहल-पहल रहती है।
सवेरे इस जगह दिहाड़ीदार मजदूरों का जमावड़ा रहता है।
हर एक की गिद्ध दृष्टि इसी ताक पर रहती है कि कब कोई आदमी दिखे तो उसे दिहाड़ी के लिए अपने साथ ले जाए। जब भी कोई शख़्स स्कूटर वहाँ रोकता है तो एक साथ सभी जने गिद्धों की तरह झपट पड़ते हैं। उनकी आँखों में रोजी-रोटी के सपने एक साथ महक उठते हैं।
उस दिन एक स्कूटर वाले के वहाँ रूकते ही, एक साथ कितने जनों ने उस स्कूटर वाले शख़्स को घेर लिया था।
‘चलें स्साब…? काम के लिए आदमी चाहिए…?’ एक जना बोला था।
‘नहीं चलना…सुना नहीं…’ वह शख़्स चिड़चिड़ा हो उठा था।
‘क्या बात स्साब…दस-बीस कम दे देना…’
‘कहा नहीं…नहीं चाहिए…कोई आदमी…’
‘फिर क्या चाहिए…?’
‘कुछ नहीं…’ वह खीझ उठा था।
‘बात क्या है…बताएंगे…?’
‘दिहाड़ी क्या चल रही है…इन दिनों…?’
‘चार सौ रुपये…’
‘बस इतने ही…’
‘और…मजदूर को क्या चाहिए…बहुत होती है दिहाड़ी…’
‘तुम लोग इतने में राजी हो जाते हो…’
‘स्साब…लोग तो इतना देते हुए भी नखरे करते हैं…काम के वक़्त जान अलग से तोड़ते हैं…’
वह अनमना सा हो गया था. वह सोचने लगा था।
कितने सालों से बेकार बैठा है, सोचा कि वह भी दिहाड़ी तो लगा ही सकता है…लेकिन उन मजदूरों जैसा दिखना भी तो जरूरी है।
पैन्ट-कमीज में सजे-धजे को कौन दिहाड़ी पर लगाना चाहेगा।
उसने मन ही मन सोचा था कि कल से उसे पायजामा-कुर्ता पहन के ही आना होगा…ऐसे कौन रखेगा उसे दिहाड़ी पर…?
इतना सोचते ही उसने स्कूटर स्टार्ट कर दिया था।
घर वापस आते वक्त उसे ग्लानि के समन्दर ने लील लिया था।
और…वह फूट पड़ा था।


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