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मेरी पसन्द

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साहित्य के रूप केवल रूप नहीं हैं बल्कि जीवन को समझने के भिन्न- भिन्न माध्यम हैं। एक माध्यम जब चुकता दिखाई पड़ता है, तो दूसरे माध्यम का निर्माण किया जाता है। अपनी इसी यात्रा में साहित्य ने  समय समय पर नए नए कला स्तरों की सृष्टि की । ऐसी ही युगीन आवश्यकता के अनुरूप लघुकथा का आविर्भाव हुआ।

‘लघुकथा हिन्दी साहित्य की नवीनतम विधा है। अपने लघु आकार में ही पर्याप्त प्रभाव छोड़ने के कारण यह समकालीन पाठकों के ज्यादा नजदीक है।

अपने सात साल के छोटे से लघुकथा सफर में मैंने अनगिनत लघुकथाएँ पढ़ी हैं। मुझे लिखने से ज़्यादा पढ़ना सदैव ही अच्छा लगा। बहुत सारी लघुकथाएँ मुझे बहुत अच्छी लगीं।अपने वरिष्ठों में मुझे सुकेश साहनी की लगभग सारी लघुकथाएँ बहुत पसन्द हैं। बलराम अग्रवाल  की लघुकथाओं का भी कमोबेश यही हाल है, मुझे लगभग सारी ही पसंद हैं। श्याम सुंदर अग्रवाल ,सुभाष नीरव , सतीश राज पुष्करणा, की बहुत सी लघुकथाएँ मेरी पसंद में प्रमुखता से हैं। छवि निगम  ‘ लिहाफ’, संध्या तिवारी की ‘उर्वशी’ , सीमा जैन  की ‘पानी’, ज्योत्स्ना कपिल की ‘चुनौती’आदि  बहुत -सी लघुकथाएँ हैं, जिन्हें पढ़कर अनायास ही मुँह से वाह निकलती है। ऐसे में अपनी पसन्द की लघुकथाएँ चुनना मेरे लिए बहुत कठिन कार्य रहा।

मेरी पसंद के अन्तर्गत पहली लघुकथा रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की ‘ऊँचाई’ लघुकथा है। इस लघुकथा पर पहले भी भरपूर लिखा जा चुका है; लेकिन मुझे यह लघुकथा इतनी पसंद है कि मैं इस पर लिखने का अपना मोह रोक नहीं पाई। इस लघुकथा की ऊँचाई इसी बात से सिद्ध हो जाती है कि यह लघुकथा इतनी पसंद की गई कि सन 2014 से न जाने कितनी बार चोरी हो चुकी है और इसकी लोकप्रियता का यह आलम है कि पिछले कुछ दिनों पहले एक बार फिर चोरी हुई है। 

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1-ऊँचाई / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी– “लगता है, बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आनेवाला था! अपने पेट का गड्ढ़ा भरता नहीं, घरवालों का कहाँ से भरोगे?” मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफ़र की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज़्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाते वक्त रोज भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबूजी को भी अभी आना था।

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आये होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र।

 “सुनो” कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर भी फुर्सत नहीं मिलती। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।” उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ बढ़ा दिए, “रख लो। तुम्हारे काम आएँगे। धान की फसल अच्छी हो गई थी। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमजोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में  फँसकर रह गये हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा, “ले लो। बहुत बड़े हो गये हो क्या?”

“नहीं तो।” मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर अठन्नी टिका देते थे, पर तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

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कला सौन्दर्यानुभूति है; किन्तु रचना का जन्म हमेशा ‘सुन्दर’ की अनुभूति के क्षण विशेष में ही हो अथवा ‘कौंध ‘का क्षण प्रवाहित होकर रचना का रूप तत्काल ले -अनिवार्य नहीं। 

कई बार ऐसा होता है कि कोई अतीत भावी अनुभव जाग उठता है और कचोटने लगता है, तब उसे अभिव्यक्त करना जरूरी लगने लगता है और अभिव्यक्ति की अनिवार्यता जब सॉंस की तरह लगने लगती है, तभी श्रेष्ठ रचना कागज पर जन्म लेती है।

लघुकथा ‘ऊँचाई’ भाव और संवेदना के सर्वोच्च स्तर पर उतरी लघुकथा है। इस लघुकथा में यह लेखकीय कौशल प्रखरता से उभरता है कि स्वयं की अनुभूति को सर्व की अनुभूति/ सह अनुभूति (साधारणीकरण) में कैसे बदला जाए।

लघुकथा साहित्य का अकेला ऐसा माध्यम है जहाँ संवेदनाओं की तीखी चुभन हृदय को वीणा के तार सी झंकृत कर देती है।ये सीधे हृदय को स्‍पर्श कर पाठक को सोचने पर मजबूर कर देती है।

ऊँचाई लघुकथा में आर्थिक विपन्नताओं से परेशान दंपती गाँव से अचानक पिता के आने पर आशंकित हो जाते हैं कि वह किसी प्रकार की आर्थिक मांग न कर दें। अपना ही गुज़ारा मुश्किल से हो रहा है। ऐसे में उनके मन में यही चल रहा है। पहले से चल रही कटौती में और इज़ाफ़ा न आ जाए, पत्नी इसी बात से अधिक परेशान होकर तनिक कटु हो जाती है।

कई मामलों में संवेदनशील होने के बावजूद व्यक्ति अपनी परिस्थितियों से हार जाता है। ये परिस्थितियाँ कई बार पारिवारिक ज़रूरतों के रूप में सामने आती हैं, तो कई बार पारिवारिक-सामाजिक विवशताओं के रूप में। कई बार व्यक्ति कोई काम करना चाहता है; पर आर्थिक विवशताओं के चलते कर नहीं पाता।

पिता जब पास बुलाकर बैठाते हैं, लघुकथा का मुख्य पात्र आशंकाओं से घिर जाता है; लेकिन कथा एक सुखद मोड़ पर पहुँचती है जब पिता पास बैठाकर बोलते हैं -“तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो तभी ऐसा करते हो।”

 लघुकथा इकहरी विधा है; इसलिए इसमें एक -एक शब्द का बहुत महत्त्व होता है।

“बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। पत्नी के इलाज के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। “

लेखक के इन वाक्यों ने पूरे घर की आर्थिक स्थिति का खाका खींच दिया है।

लेखक ने लोक व्यवहार की भाषा का सहज, कुशलता से प्रयोग किया है। जैसे-

“रोम रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।”

लघुकथा जैसी कोमलांगी विधा में शीर्षक का बहुत महत्त्व है। शीर्षक लघुकथा की आत्मा होता है। अच्छे शीर्षक में यह गुण होता है कि वह उपयुक्त, संक्षिप्त और उत्सुकता से भरपूर हो। शीर्षक ऐसा हो जो सम्पूर्ण लघुकथा के सार को स्पष्ट करता हो। प्रस्तुत लघुकथा का शीर्षक सटीक और उपयुक्त है। 

पिता के द्वारा सौ- सौ के दस नोट को हथेली पर धरना, कथा को चरमोत्कर्ष पर ले जाता है। 

“रख लो तुम्हारे काम आ जाएँगें। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया पिया करो। बहू का भी ध्यान रखा करो।”

“मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। 

लघुकथा दूसरे चरमोत्कर्ष को छूती है, जब पिता प्यार से डाँटते हैं और मुख्य पात्र किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। यथा

” ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या? “

“नहीं तो”-मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

मेरी पसंद के अन्तर्गत दूसरी लघुकथा वीरेंद्र वीर मेहता जी की ‘दिन अभी ढला नहीं’ है। 

2-दिन अभी ढला नहीं/वीरेंद्र वीर मेहता 

“कितने साल गुजर गए सुधा, लेकिन ज़्यादा नहीं बदला हमारा गाँव। बस कुछ आधुनिकता की निशानियों को छोड़; वही बाग-बगीचे और वही हरे-भरे रास्ते।” शाम की सैर के बीच छाई चुप्पी को भंग करते हुए उमाशंकर जी ने पत्नी से बात शुरू की।

“सही कहा आपने। कुछ बगीचों की बाड़ जरूर टूटी-फूटी लकड़ियों की जगह मेटल की खपच्चियों से बन गई है, पहले से सुंदर और ज़्यादा मजबूत।” सुधा ने सामने नजर आते बग़ीचों की बाड़ के उस पार लहलहाती फसल को निहारते हुए उत्तर दिया।

बरसों बाद लौटे थे वे गाँव। बहुत पहले ही अपनी ज़िद के चलते अपना संयुक्त परिवार छोड़ बच्चों को लेकर विदेश चले गए थे;  क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि गाँव के देहाती-अनपढ़ माहौल में उनके बच्चे साँस लें। और फिर समय गुजरता गया, उन्होनें अपने बच्चों को शिक्षित और आधुनिक नागरिक के साथ सफल इंसान भी बनाया; लेकिन शायद उचित संस्कार नहीं दे पाए। परिणामतः आज फिर वह अपने गाँव में लौट आए थे, नितांत अकेलेपन को लेकर।

“मैं जानता हूँ सुधा, तुम्हारे लिए गाँव में रहना कठिन है;  लेकिन बच्चों से मैं अपना अपमान बर्दाश्त कर सकता हूँ ; पर उनका बार-बार तुम्हारा अपमान करना, यह बर्दाश्त नहीं होता था। ख़ैर, उन्हें सही संस्कार नहीं दे सके; ये दोष भी तो हमारा ही है।”

“आप ऐसा न कहें और परेशान भी न हों। मुझे यहाँ कोई दिक़्क़त नहीं होगी।” पति की बात का प्रत्युत्तर देते हुए वह कहने लगी- “सच तो ये है कि मैं सारा जीवन यही समझती रही कि उच्च शिक्षा और आधुनिक सभ्यता से ही हम संतान को एक अच्छा इंसान बना सकते हैं;  लेकिन अब जाकर समझी हूँ कि संस्कार तो प्रकृति के वे बीज होते हैं जो परिवार के बुजुर्गों और अपनों के सानिध्य-प्रेम में ही पैदा होते हैं। काश कि हमने अपने बच्चों की परवरिश यही परिवार के बीच रहकर की होती, तो जीवन की ढलती साँझ में हम अकेले नहीं होते!”

“सुधा, बीता हुआ समय तो लौटकर नहीं आता;  लेकिन हम चाहें तो अतीत का प्रायश्चित कर सकते हैं।” उन्होंने अपनी नजरें पत्नी की ओर जमा दी।

“कैसे. . .?”

“सुधा!” पत्नी की प्रश्नवाचक नजरों को निहारते हुए उनकी आँखों में एक विश्वास था- “हमारे समाज में और भी बहुत से परिवार बिखरे हुए हैं या बिखरने की कगार पर है, जिन्हें हम चाहें तो. . . ”

“हाँ क्यों नहीं, इससे बेहतर हमारे जीवन का आख़िरी पड़ाव और क्या होगा?” पति की अधूरी  बात पर सहमति की छाप लगाते हुए सुधा ने मुस्कराते हुए पति का हाथ थाम लिया।

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लघुकथा में जीवन की विसंगतियाँ, विषमताएँ, कथा रस एवं संवादों के उपयोग से नाट्य रस उपस्थित होता है। ‘लघुकथा में क्षणिक घटनाओं में जीवन की विराट व्याख्या करने की क्षमता होती है। मन को आंदोलित करने वाली अनुभूति को बिना तरल किए कहना लघुकथा की विशेषता होती है।

जब लघुकथा की पृष्ठभूमि और कथानक अपने आसपास होने वाली रोजाना घटित साधारण- सी चीजों, घटनाओं से उठाया जाता है तब उसमें सहजता स्वाभाविकता,सरलता अनायास ही आ जाती है। ऐसी लघुकथाएँ, जिनसे पाठक सहज ही अपने को जोड़ लेता है पाठक के हृदय को सहजता से आकर्षित करती हैं। 

लघुकथा दिन ढलने से पहले एक ऐसी ही आसपास घटित होने वाले घटनाक्रम से प्रेरित है। लघुकथा के मुख्य पात्र वृद्ध दंपती विकास के पथ पर तेजी से दौड़ते हुए अपने मौलिक परिवेश से कट गए। यथा-

“सच तो ये है कि मैं सारा जीवन यही समझती रही कि उच्च शिक्षा और आधुनिक सभ्यता से ही हम संतान को एक अच्छा इंसान बना सकते हैं।”

आधुनिकता की  अंधी दौड़ में बच्चों को विदेश ले गए; लेकिन वहाँ से लेकर आए नितान्त अकेलापन। विदेश में जैसा बोया, वैसा काटे वाली स्थिति से ये दंपती दोचार होते हैं। विकास और आधुनिकता के इस चोले में वृद्धों की उपेक्षा एवं एकाकीपन उभर कर सामने आता है। 

आजकल मनुष्य की दृष्टि में अर्थ ही सर्वोपरि हो गया है। ऐसे में पारिवारिक विघटन और आत्मिक संबधों में खटास आना तय है। कल तक जिस वृक्ष की छाँव तले परिवार अपना निर्वहन करता था, अब उसी को अनुपयोगी कर बाहर का रास्ता दिखाने को तत्पर रहते हैं। 

लघुकथा एक सुखद मोड़ पर आती है ,जब ये वृद्ध दंपती एकाकीपन से निराश न होकर न सिर्फ वापस अपने देश आते हैं;  अपितु बाकी भटके हुए परिवारों को भी सही राह पर लाने का प्रयास का फैसला करते हैं।

कहा जाता है भाषा सहज व सरल हो, जो पाठकों को रचना से सीधे जोड़ने में सफल हो। प्रस्तुत लघुकथा में लेखक की भाषा पात्र और परिवेश के अनुकूल है। ‘दिन ढलने से पहले’ भाव के धरातल पर संवेदना को प्रखरता से उभारती एक अच्छी लघुकथा है।

-0-डॉ. उपमा शर्मा, बी-1/248, यमुना विहार, दिल्ली-110053

8826270597


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