इच्छाओं के खोखले बाँस में पाँच छेद करके बाँसुरी बना ली, हालाँकि सुर अभी साधने नहीं आए; पर मेरी अंतिम इच्छा यही है कि कभी साधने आएँ भी ना।
चप्पल बड़ी होती जा रही थी, पैर उतने का उतना ही था। यह बात मुझे हैरान करने लगी। एक रोज़ नदी किनारे चप्पल उतारकर नदी में पैर डालते हुए मैंने उससे यह बात कही। उसने कुछ देर चप्पल को देखा, कुछ देर मेरे पैर को और गंभीर होकर कहा-“तुम्हारा पैर सिकुड़ता जा रहा है, चप्पल नहीं बड़ी हो रही।”
उसके यह कहने के बाद, मैंने भी एक बार चप्पल को देखा और फिर बहुत देर अपने पैर को फिर उसकी तरफ देख कर कहा- “मन अगर पैर की जगह है, तो पैर कहाँ हैं!”