चेक लघुकथा
अनुवाद : निर्मल वर्मा
मैं सहसा उठ बैठी। लगा, जैसे कोई मुझे बुला रहा हो। आँखें खोलकर मैं चारों तरफ देखने लगी-कमरे में अँधेरे और खामोशी के अलावा कुछ भी न था। खिड़की के पर सलेटी चादर-सी फैली थी। पौ फटने का समय रहा होगा, जब रात और दिन एक अदृश्य सीमा पर आ मिलते हैं। घंटों की ध्वनि सूनी पदचाप-सी सुनाई देती थी।
क्या किसी ने मुझे दोबारा बुलाया है? किन्तु वह आवाज हवा में बिखरकर खो गई और मेरे भीतर सिर्फ एक गूँज,बहुत देर से आती हुई गूँज भटकने लगी। मैं बिस्तर से उठ खड़ी हुई और नंगे पाँव खिड़की के सामने चली आई। किसी ने कोई कंकर-पत्थर तो नहीं फेंका था? ऐसा अकसर होता था। सम्भव है, वह मेरा सिर्फ भ्रम था और मुझे बुलाया किसी ने नहीं था। किसी ने शायद कोई सिक्का या मिट्टी का ढेला खिड़की पर फेंका होगा। कोई रात की ऐक्सप्रेस-ट्रेन से आया होगा और उसे दरवाजे की घंटी नहीं मिल सकी होगी। सम्भव है, वह बर्नो या पिल्जन या स्लोवाकिया की किसी ऐक्सप्रेस-ट्रेन से आया होगा। कभी-कभी हमारे दोस्त इसी तरह आ धमकते थे।
किन्तु गली में कोई दिखाई नहीं दिया। रात धीरे-धीरे पीली पड़ रही थी। फुटपाथ सूना पड़ा था और सामने के मकानों की खिड़कियाँ परदों से ढँकी थीं।
फिर वह कौन था? मैं पुनः उस आवाज के बारे में सोचने की कोशिश करने लगी, जिसे मैंने कुछ देर पहले सुना था। किन्तु उसे याद करना कुछ वैसा ही था, जैसा सपने में किसी खुशबू को याद करना या हवा की थिरकन को याद करना। आदमी ऐसी चीजों को कभी दोबारा याद नहीं कर सकता। उस एक आवाज में क्या कुछ नहीं था-कितने लोग और कितनी स्मृतियाँ, फुसफुसाहट और चीख, खुशी और पीड़ा-मानो उस एक आवाज में उन सबकी पुकार भरी थी, जिन्हें मैं जानती हूँ और फिर भी…वह सिर्फ एक आदमी की आवाज थी।
मैंने टेबुल-लैंप जलाया…..अँधेरा मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। इसके अलावा मैं उस आदमी को भी देखना चाहती थी जो मेरे पास लेटा था। अपने पति को। लैम्प की रोशनी उसके चेहरे पर गिर रही थी। मैंने धीरे से उस तकिए को छुआ, जिस पर उसका सिर टिका था।
वह जाग गया…पूरी तरह नहीं। उसने आँखें मिचमिचाई और कहा, ‘‘लेट जाओ….सर्दी खा जाओगी।’’
फिर वह सचमुच जाग गया और बिस्तर में उठकर बैठ गया। नींद और आश्चर्य से उसकी आँखें बोझिल थीं। और वह कमरे के पीछे अन्धकार को देख रहा था।
‘‘क्या बात हैै? तुम सोती क्यों नहीं?’’ उसने पूछा।
‘‘कोई बुला रहा था,’’ मैंने कुछ घबराए-से स्वर में कहा, ‘‘मुझे एक पहचानी-सी आवाज सुनाई दी थी-पता नहीं कौन था?’’
‘‘सो जाओ, भाई….यहाँ तुम्हारे और मेरे अलावा कौन होगा!’’ उसने कहा।
किन्तु मैं दुबारा नहीं सो सकी। कुछ देर बाद मुझे सहसा लगा मानो बगलवाले कमरे से-जिसे हम उन दिनों बच्चों का कमरा कहते थे-सेब की खुशबू आ रही है। वहाँ एक बड़ी तश्तरी में फल रखे थे। मैं प्रार्थना करने लगी कि जल्दी से सुबह हो ताकि दिन के उजाले में मैं अलमारी में रखी सब्जियों,रोटी की स्लाइसों और दूध की बोतल को देख सकूँ। दिन के उजाले में शायद मेरा सारा भ्रम दूर हो जाएगा।
किन्तु उस आवाज को मैंने दुबारा नहीं सुना। सिर्फ मेरे भीतर-मेरे हृदय के नीचे-सहसा एक बच्चे की हलचल हुई थी और-वह तू था।
इस तरह हमने तुझे पहली बार पहचाना था। उस समय मैं नहीं जानती थी कि तू कैसा है,किस तरह बार-बार अपनी गेंद खो देगा, कैसे बेसुरे-बेढंगे स्वर में गाएगा। मुझे तब नहीं मालूम था कि तुझे सब्जी खाने से नफरत होगी और कभी-कभी झूठ बोलने से भी नहीं शरमाएगा।
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मैंने तुझे कैसे पहचाना-
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