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मेरी प्रिय दो लघुकथाएँ

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बाँसुरी_हरभगवान चावला

द्वारिकाधीश अपनी मंजूषा में जाने क्या ढूँढ़ रहे थे। सारा सामान इधर-उधर बिखरा पड़ा था। तभी उनकी दृष्टि मंजूषा में रखी बाँसुरी पर ठहर गई। बाँसुरी को देखते ही वे विह्वल हो उठे। कितने बरस बीत गए, जबसे वृंदावन छोड़ा, बाँसुरी को छुआ ही नहीं। उनका मन फिर से ग्वाला हो जाने के लिए मचल उठा। उन्होंने राजसी वस्त्र उतारे, राजमुकुट एक ओर रखा और बाँसुरी उठाकर चुपचाप वन की ओर निकल गए। कुछ देर बाद बाँसुरी की स्वर लहरियाँ गूँज उठी। द्वारका नगरी के लोगों ने इतनी प्यारी और मीठी बाँसुरी कभी नहीं सुनी थी। सारी नगरी उसी ओर दौड़ पड़ी, जहाँ से बाँसुरी का स्वर आ रहा था। लोगों का जमघट अपने सामने ग्वाले के वेष में अपने राजा को देख रहा था जो आँखें बंद किए अपनी मस्ती में बाँसुरी बजा रहा था। मंत्रमुग्ध नागरिक साँसें थामे ऐसे खड़े थे जैसे किसी जादू के ज़ोर से जड़ हो गए हों। बाँसुरी का स्वर थमा तो सबकी चेतना लौटी। द्वारिकाधीश बाँसुरी को हाथ में थामे धीमे-धीमे चल रहे थे। उनकी आँखें भीगी थीं। लोग प्रणाम की मुद्रा में थे। महल पहुँचकर रुक्मिणी ने कहा,
“महाराज यह कैसा चमत्कार था कि किसी का स्वयं पर नियंत्रण ही नहीं रहा? पहली बार आपको बाँसुरी बजाते देखा-सुना। कहाँ से सीखा ऐसा अलौकिक बाँसुरी वादन?”
“कहीं से भी नहीं। छुटपन में गाय चराते हुए बजाया करता था।”
“प्रजा को इस अलौकिक आनंद से क्यों वंचित रखा स्वामी? किसी दिन राजदरबार में संगीत महोत्सव का आयोजन करते हैं। आप पूरी राजसी सजधज में प्रजा के सामने बाँसुरी वादन करके प्रजा पर उपकार कीजिए।”
“उस महोत्सव में मेरी बाँसुरी से स्वर ही नहीं फूटेगा रुक्मिणी।”
“वह क्यों भला? अभी तो कितनी सुंदर बाँसुरी बजा रहे थे।”
“अभी जो बाँसुरी तुमने सुनी, उसे कोई राजा नहीं, एक ग्वाला बजा रहा था।”
*****

हरभगवान चावला की ‘बाँसुरी’ इतनी सुरीली है कि मैं भाव-विभोर हो गया। इसलिए नहीं कि मैं कोई कृष्ण भक्त हूँ या कोई बहुत ही धार्मिक आदमी हूँ। वह केवल इसलिए कि लघुकथा का विद्यार्थ होने के नाते मैं लघुकथाओं में कुछ विशेष बातें ढूँढा करता हूँ, जो मुझे इस लघुकथा में मिलीं। इनमें सबसे पहली तो है कथानक की ‘आउट ऑफ़ दि बॉक्स’ ट्रीटमेंट, दूसरी है कलात्मकता का पुट। तीसरी है फेंटेसी का तत्त्व और चौथी है स्वाभाविकता। स्वाभाविकता के अभाव में अक्सर लघुकथा ‘लाउड’ हो जाती है, अर्थात् अतिशयोक्ति का शिकार हो जाती है, जिससे लघुकथा प्रभावहीन एवं अल्पजीवी हो जाती है। फेंटेसी दरअसल कल्पना का उच्चतम बिंदु भी कहा जा सकता है। पौराणिक संदर्भ की लघुकथाओं में फेंटेसी की बहुत गुंजाइश होती है। इसीलिए पौराणिक संदर्भ की लघुकथाएँ मुझे बहुत पसंद हैं। डॉ रामकुमार घोटड़ ‘पौराणिक संदर्भ की लघुकथाएँ’ नामक एक संग्रह भी निकाल चुके हैं- जो अपनी श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

बहरहाल, मैं भाव विभोर क्यों हुआ, उसका कारण भी बताता हूँ। पहला तो है इस रचना की गति, बिल्कुल यमुना जी की शांत लहरों-सी कल-कल करती हुई। लेखक द्वारा कोई अंत करने की कोई जल्दबाज़ी नहीं, किसी नतीजे तक पहुँचने की कोई हड़बड़ी नहीं। रचना अपनी नैसर्गिक गति से आगे बढ़ती है। दूसरी है स्वाभाविकता; इस लघुकथा में एक भी बात ऐसी नहीं की गई है जो अतिशयोक्ति के दायरे में आती हो। अब इसका संदेश देखिए; स्थूल रूप से भले ही बात कृष्ण के बाँसुरी बजाने की हुई है लेकिन सूक्ष्म रूप में देखें तो इशारा कहीं और है। वह इशारा है ओढ़े हुए लबादों की तरफ़, कृत्रिमता की तरफ़। इशारा है अपने पात्रों की काय में प्रवेश करने की तरफ़। जब तक एक रचनाकार अपने रचे पात्र को जी नहीं लेता, तब तक वह दीर्घजीवी सृजन कर ही नहीं सकता। कृष्ण जी ने ग्वाले का जीवन जिया हुआ है, एक ग्वाले के रूप में बाँसुरी बजाई हुई है, इसीलिए वे लोगों को मंत्रमुग्ध कर पाने में सफल रहे। संभवत: वे उस नैसर्गिगिकता को एक राजा के रूप में कभी भी हासिल न कर पाते, क्योंकि वहाँ राजा होने का भार हर समय उनके सिर पर सवार रहता है, अपनी छवि कि चिंता में उन्हें अनगिनत लबादे ओढ़ने पर विवश होना पड़ता है। इसलिए जब उनका मन बाँसुरी बजाने के लिए मचला तो सबसे पहले उन्होंने अपने राजसी वस्त्र उतार फेंके, राजमुकुट एक ओर रखा और बाँसुरी उठाकर चुपचाप वन की ओर निकल गए। उनका चुपचाप वन की ओर जाना भी लबादा उतारने की प्रक्रिया का एक हिस्सा ही है। और जब वे वन प्रदेश में पहुँचकर बाँसुरी बजाते हैं तो कुछ ही देर में बाँसुरी की स्वर लहरियाँ गूँज उठती। इस लघुकथा की एक विशेषता और भी है; यह पूरी लघुकथा शांत-रस में लिखी गई है। और लेखक का कौशल देखें कि लघुकथा में कहीं भी रस-भंग नहीं हुआ है। अर्थात् जिस मूड को लेकर इसका प्रारंभ हुआ वह अंत तक क़ायम रहा। अन्यथा प्राय: यह देखने में आता है कि लेखक अपनी रचना में किसी विशेष रस अथवा फ्लेवर को अंत तक कैरी नहीं पाता जिस कारण रचना अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रह जाती है। इस लघुकथा में कहीं भी लेखक का अनधिकृत प्रवेश नहीं है, जो कहा है वह पात्रों और परिस्थितियों ने कहा है।

मेरा मानना है कि लेखक को बिल्कुल भगवान की तरह होना चाहिए। चौंकिए मत! मैं बिल्कुल सही कह रहा हूँ। वस्तुत: लेखक अपनी हर रचना में मौजूद होता है, लेकिन उसे मौजूद होते हुए भी भगवान की तरह नज़र नहीं आना चाहिए। यदि लेखक इस लघुकथा के अंत में कोई पर्सनल स्टेटमेंट देने का प्रयास करता तो यह कृति कभी भी कलाकृति न बन पाती। लेकिन हरभगवान चावला की ‘बाँसुरी’ में ऐसा नहीं है, शांत रस अंत तक क़ायम रहा है, लेखक ने अपनी ओर से एक भी शब्द नहीं कहा, इसीलिए इसकी मधुर तान अति मनमोहक और कर्णप्रिय बन पड़ी है।
***

सीमा का अतिक्रमण_डॉ. सतीशराज पुष्करणा

एक चिड़िया आई।
उसने पिंजरे में गर्दन डालकर तोते की कटोरी में से उसका दाना चुगना शुरू कर दिया।
चिड़िया की यह गुस्ताख़ी देखकर तोता चेतावनी के तौर पर ग़ुर्राया।
मगर चिड़िया को यह गुमान था कि वह तो आज़ाद है और तोता पिंजरे में बंद है।
अत: उसने पुन: उसकी कटोरी से दाना लेने की गुस्ताख़ी की।
इस बार तोता इसरी चेतावनी के रूप में गरजा।
मगर चिड़िया के कानों में जूँ तक न रेंगी।
तीसरी बार जैसे ही चिड़िया ने तोते के पिंजरे में अपनी गर्दन डाली-
तोते ने लपककर चिड़िया की गर्दन दबोच ली और देखते-ही-देखते उसे धराशायी कर दिया।
मृतक चिड़िया को अपने पिंजरे से बाहर फेंकते हुए तोता मन-ही-मन उबला,
“मैंने अपने को अहिंसा के मज़बूत पिंजरे में क़ैद अवश्य कर रखा है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं कमज़ोर हूँ और किसी को अपनी सीमा का अतिक्रमण करने दूँगा या अपना हक़ किसी को छीनने दूँगा।
‘अक् थू!'”

‘सीमा का अतिक्रमण’, डॉ० सतीशराज पुष्करणा की एक बहुत ही पुरानी लघुकथा है जो मैंने वर्ष 1987 में प्रकाशित त्रैमासिक ‘समय’ के लघुकथा विशेषांक में पढ़ी थी। मुझे नहीं पता हममे से कितने लोगों को इस लघुकथा के विषय में पता होगा। पर मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ है कि इस लाजवाब लघुकथा का उल्लेख कहीं भी देखने-पढ़ने को क्यों नहीं मिलता। वैसे उल्लेख क्यों नहीं मिलता- इसके पीछे भी बहुत से कारण हो सकते हैं, जिन्हें यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं।

इस लघुकथा से गुज़रते हुए मैंने यह बहुत ही शिद्दत से महसूस किया कि 164 शब्दों की इस लघुकथा पर कम-से-कम 6400 शब्दों की समीक्षा लिखी जा सकती है, लेकिन मेरी अज्ञानता कह लीजिए या समय का अभाव कि मैं इसपर लगभग 2000 शब्द ही लिख पाया हूँ। बहरहाल, इस लघुकथा में ऐसा क्या विशेष है कि डॉ० पुष्करणा जी की अनगिनत बहुचर्चित लघुकथाओं को छोड़कर मैंने इस रचना की समीक्षा करने का निर्णय लिया? यह स्पष्ट करने के लिए मैं कुछ ख़ास बिंदुओं पर बात करना चाहूँगा। यह लघुकथा कई मायनों में विशिष्ट है।

पहली बात तो यह कि यह एक लगभग साढ़े तीन दशक पहले रची गई एक मारक मानवेतर लघुकथा है। मुझे लगता है कि डॉ० सतीशराज पुष्करणा जी ने शायद इक्का-दुक्का ही मानवेतर लघुकथाएँ लिखीं होंगी, वैसे अगर लिखी भी होंगी तो वे मेरी नज़र से नहीं गुज़रीं। दूसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात- यह लघुकथा रौद्र रस पर आधारित है, रौद्र रस का मूल स्वर क्रोध होता है। और यह रस किस तरह पूरी रचना में बरक़रार रखा गया है, यह इस लघुकथा में देखा जा सकता है।

लघुकथा और ‘रस’? यह सुनकर आप लोग चौंक सकते हैं। क्योंकि ‘रस प्रबंध’ का संबंध तो मूलत: नाट्य शास्त्र से है, तो आप यह प्रश्न अवश्य कर सकते हैं कि लघुकथा में रस कहाँ से आ गया? जैसे हर प्रकार का संगीत सात सुरों पर ही आधारित होता है, उसी प्रकार हर साहित्यिक कृति भी इन्हीं 9 रसों- अर्थात् शृंगार रस , हास्य-रस, करुण रस, रौद्र रस, वीर रस, भयानक रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस अथवा शाँत रस में से किसी एक रस पर ही आधारित होती है। किसी एक रस में उसके विरोधी रस का समावेश कर देने से रचना अपना ‘मूड’ और ‘फ्लेवर’ ही खो देती है। यही कारण है कि अच्छी-ख़ासी लघुकथा भी अपने रस को अंत तक कैरी न कर पाने के कारण प्रभावहीन बनकर रह जाती है। अंत तक रस कैरी न कर पाने से क्या अभिप्राय है? इससे अभिप्राय है कि वह लघुकथा अपने फ्लेवर, पात्र अथवा पात्रों के चरित्र को अंत तक क़ायम नहीं रख पाती। साधारण शब्दों में यह बात साफ़ करने के लिए मैं एक रस में दूसरे विरोधी रस के गड्डमड्ड होने का एक उदाहरण देना चाहूँगा। कुछ रोज़ पहले मैं सोशल मीडिया पर एक लघुकथा पढ़ था। लघुकथा का प्रारंभ बहुत ही उत्तम था, मध्य में द्वंद्व को जिस कुशलता से उभारा गया था, वह भी दर्शनीय था। लेकिन उसके बाद एक पंक्ति आई जो कुछ इस प्रकार थी- “उसकी ज़िंदगी से ख़ुशियाँ इस तरह ग़ायब हो गईं जैसे गधे के सिर से सींग।” गधे के सर से सींग ग़ायब होने वाला मुहावरा एकदम खांटी और टकसाली है, लेकिन जिस संदर्भ में इसका प्रयोग हुआ- वह उचित नहीं था। क्योंकि करुण रस की रचना में हास्य-रस का पुट आ जाने से रसों का परस्पर विरोध पैदा हो गया।

आपको आठवें-नौवें दशक में रचा गया लघुकथा-साहित्य अवश्य याद होगा; वहाँ प्राय: अंत में आकर पात्र इस तरह अप्रत्याशित बिहेव कर जाता था जो उसके प्रारंभ वाले चरित्र से बिल्कुल ही विपरीत होता था। इसे तकनीकी भाषावली में ‘इतिवृत्तात्मकता’ भी कहा जाता है। अर्थात् लघुकथा के अंत में पात्र अथवा पात्रों के चरित्र को एकदम उलट देना। यह भी रसों का घालमेल ही हुआ करता था। ऐसा भी नहीं है कि किसी का चरित्र अथवा विचारधारा नहीं बदल सकती, बदल सकती है! लेकिन उसकी एक निश्चित प्रक्रिया होती है। इसके लिए दर्शनशास्त्र के ‘लोगोस’, ‘पैथोस’ और ‘रेटरिक’ नामक सूत्रों का ज्ञान होना आवश्यक है, जिनका यहाँ उल्लेख करना समीचीन न होगा। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि डॉ० पुष्करणा इन तीनों सूत्रों से भली-भाँति परिचित रहे होंगे। लघुकथाएँ असफल क्यों हो जाती हैं? उसका एक कारण होता है- स्वाभाविकता से दूरी। क्योंकि अस्वाभाविकता से अविश्वसनीयता जन्म लेती है। अस्वाभाविकता कब आती है- जब रचनाकार तर्क और तथ्य को धत्ता बताने की कुचेष्टा करता है। वस्तुत: कथ्य वही प्रभावोत्पादक हो सकता है जो तथ्यों और तर्कों पर आधारित हो।

वापस इस लघुकथा पर आता हूँ। स्थूल रूप से भले ही यह एक चिड़िया के दु:साहस और तोते के क्रोध की कहानी लगे लेकिन इसमें कई-कई सूक्ष्म संदेश छुपे हुए हैं। उदाहरण के लिए इस लघुकथा में तोता पिंजरे में बंद है- किंतु दरअसल यह तोता एक शरीफ़ मगर खुद्दार व्यक्ति का प्रतिनिधित्त्व करता है। पंजाबी की एक कहावत है- ‘भला माणस अंदर वड़ेया-लुच्चा आखे मैथों डरेया’ अर्थात् लड़ाई-झगड़े के समय किसी शरीफ़ इनसान को चुपचाप घर में बैठा देखकर शोहदों को लगता है कि वह उनसे डर गया है। जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। किसी का शांतिप्रिय होना उसकी कमज़ोरी नहीं होती। अपने स्वाभिमान पर आक्रमण होता देख एक शांत स्वभाव आदमी भी योद्धा में तब्दील हो सकता है। अहिंसा के पुजारी को बुज़दिल समझने की ग़लती करने वाला कभी-कभी अपनी जान तक से भी हाथ धो बैठता है। वैसे यह तोता हमारे भारतवर्ष जैसा कोई शांतिप्रिय राष्ट्र भी तो हो सकता है। हम कभी भी आक्रांता नहीं रहे, लेकिन हमने हमेशा आक्रांताओं के दाँत अवश्य खट्टे किए है। यह लघुकथा भी तो यही संदेश देती है न? सफल लघुकथा वही होती है जो एक तीर से कई-कई निशाने साधने में सक्षम हो, जैसा कि इस लघुकथा में हुआ है।

अब हम इस लघुकथा के एक और महत्त्वपूर्ण बिंदु अर्थात् उसके शीर्षक की बात करते हैं। हम सब जानते हैं कि सुकेश साहनी की तरह ही डॉ सतीशराज पुष्करणा जी भी शीर्षक चयन पर बहुत ध्यान दिया करते थे। क्योंकि कहा जाता है कि लघुकथा शुरू ही उसके शीर्षक से होती है। इस लघुकथा का शीर्षक ‘सीमा का अतिक्रमण’ भी कम अर्थगर्भित नहीं है। मुझे लगता है कि इससे बेहतर शीर्षक शायद ही कोई और होता। इस शीर्षक की गहराई समझने के लिए दो बातें समझना अति आवश्यक हैं, यानी इसमें प्रयुक्त दो शब्दों को समझना बेहद ज़रूरी हैं- पहला शब्द है ‘सीमा’ और दूसरा है ‘अतिक्रमण’। इस लघुकथा में चिड़िया ने केवल तोते की सीमा का ही अतिक्रमण नहीं किया बल्कि वह अपनी सीमाएँ भी भूल बैठी। आकार और शक्ति में एक चिड़िया एक तोते की बराबरी कैसे कर सकती है? इससे यह संदेश भी मिलता है कि हरेक को अपनी सीमाओं का पता होना चाहिए, वरना शिकारी ख़ुद शिकार भी बन सकता है। इसका एक और पक्ष है- चिड़िया द्वारा स्वतंत्रता की परिभाषा को न समझ पाना। वस्तुत: स्वतंत्रता उच्छृंखलता अथवा उद्दंडता का नाम नहीं है। स्वतंत्रता के साथ एक उत्तरदायित्त्व भी जुड़ा हुआ होता है, वह उत्तरदायित्त्व है दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करना। लेकिन इस लघुकथा में चिड़िया वह उत्तरदायित्त्व भूल गई जिसका उसे भारी खमियाज़ा भुगतना पड़ा।

‘अतिक्रमण’ शब्द भी यहाँ दो तरीक़ों से परिभाषित हुआ है। पहला चिड़िया के व्यवहार के द्वारा- जो कि साफ़-साफ़ दिखाई दे ही रहा है कि किस तरह उसने तोते की सीमा का अतिक्रमण किया। लेकिन यहाँ एक अतिक्रमण तोते के द्वारा भी हुआ है। यह अतिक्रमण है- तोते द्वारा अपने स्वभाव के विरुद्ध आचरण करना। तोता नैसर्गिक रूप से शिकारी पक्षी नहीं है। लेकिन यहाँ वह किसी बाहरी व्यक्ति अथवा शक्ति द्वारा अपनी प्रभुसत्ता पर आक्रमण वह बर्दाश्त नहीं कर पाता और आक्रामक रूप धारण कर घुसपैठिए को सबक़ भी सिखाता है। लेकिन यह बात भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि तोता आक्रामक अवश्य हुआ, किंतु मांसाहारी हरगिज़ नहीं। यानी उसने अपने नैसर्गिक स्वभाव का अतिक्रमण तो किया, लेकिन एक सीमा में रहकर।

जैसा मैंने पहले भी निवेदन किया कि इस लघुकथा का मूल स्वर ‘रौद्र रस’ अर्थात् क्रोध पर आधारित है। विवेचित लघुकथा में इस क्रोध के चार स्तर परिलक्षित होते हैं;

1. पहली बार चिड़िया का पिंजरे से खाना लेते समय – तोते का गुर्राना।
2. दूसरी बार चिड़िया की हिमाक़त पर- तोते का गरजनाना
3. तीसरी बार सब्र का बाँध टूटने पर तोते द्वारा चिड़िया को मार डालना।
4. चौथी और अंतिम बार कथा के अंत में तोते द्वारा क्रोध में – ‘अक थू’ कहना।

तोता चाहता तो चिड़िया को बिना चेतावनी दिए भी मार सकता है, लेकिन लेखक ने लघुकथा का अंत करने में कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई (जैसा कि हम लोग करते हैं) बल्कि कथा को स्टेप-बाई-स्टेप सहज और स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ाया है और इसमें कृत्रिमता नहीं आने दी। इसे कहते हैं लेखकीय संयम। अब इस कथा में कथा को आगे बढ़ाने का लेखकीय कौशल देखें। इसमें चिड़िया द्वारा तीन बार तोते की कटोरी से उसका दाना लेने का ज़िक्र है। लेकिन तीनों बार डॉ० सतीशराज पुष्करणा की शब्दावली अलग-अलग और परिस्थिति के ऐन अनुरूप है।

(1). पहली बार लिखा- “तोते की कटोरी में से उसका दाना चुगना शुरू कर दिया।” यहाँ केवल ‘दाना चुगना’ लिखा है। क्योंकि चिड़िया इसके बाद क्या करेगी, कोई नहीं जानता।
(2). दूसरी बार लिखा- “उसने पुन: उसकी कटोरी से दाना लेने की गुस्ताख़ी की।” यहाँ गुस्ताख़ी शब्द आया, वह इसलिए कि तोता उसे गुर्राकर पहले ही चेतावनी दे चुका था।
(3). तीसरी बार लिखा- “चिड़िया ने तोते के पिंजरे में अपनी गर्दन डाली” गर्दन डाली- यानी जानबूझकर और अभिमानवश जोखिम उठाया, जोखिम इसलिए कि उसे अपने स्वतंत्र होने पर घमंड था और गुमान था कि पिंजरे में क़ैद तोता उसका क्या बिगाड़ लेगा।

लघुकथा लिखते समय एक लघुकथाकार को तीन चीज़ों का ध्यान रखना होता है;

1. संक्षिप्तता (अर्थात् लघुकथा में अनावश्यक विस्तार अथवा विवरण न हो)
2. सूक्ष्मता (अर्थात् संदेश सूक्ष्म हो)
3. संयमता (अर्थात् लेखकीय संयम)

यह लघुकथा इन तीनों शर्तों पर खरी उतरती है। यह लघुकथा 164 शब्दों की है, अर्थात् इसमें अकारीय संक्षिप्तता है । इसका संदेश सूक्ष्म है और लेखकीय संयम भी परिलाक्षित हो रहा है- इन दोनों पर चर्चा मैं विस्तार से ऊपर कर चुका हूँ।

मित्रो! इस जगत् में कोई भी चीज़ निर्दोष नहीं है, निर्दोष है तो केवल स्वयं भगवान्। वैसे निर्दोष तो भगवान् के हाथों निर्मित भी बहुत-सी चीज़ें नहीं हैं, क्योंकि अगर ऐसा होता तो चाँद में दाग़ न होता। इनसान के हाथ से निर्मित तो कोई भी वस्तु, कोई भी कृति निर्दोष नहीं हो सकती। इस रचना में भी एक दोष है जिसका उल्लेख यहाँ करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। देखिए,

इस लघुकथा के अंतिम परिच्छेद में चिड़िया को मारने के बाद तोता मन-ही-मन बुदबुदाता है,
“मैंने अपने को अहिंसा के मज़बूत पिंजरे में क़ैद अवश्य कर रखा है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं कमज़ोर हूँ और किसी को अपनी सीमा का अतिक्रमण करने दूँगा या अपना हक़ किसी को छीनने दूँगा। आक् थू!”

विद्वानों का कथन है कि लघुकथा में संवाद संक्षिप्त, चुस्त और चुटीले होने चाहिएँ। दरअसल 164 शब्दों की लघुकथा का उपर्युक्त संवाद 42 शब्दों का है जो कथा के अनुपातानुसार बहुत लंबा और कुल कथा का लगभग 25 प्रतिशत है। अत: इसे संक्षिप्त अथवा चुस्त-चुटीला नहीं कहा जा सकता। इस संवाद को दो भागों में बाँटकर इसका विश्लेष्ण करते है।

(अ). “मैंने अपने को अहिंसा के मज़बूत पिंजरे में क़ैद अवश्य कर रखा है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं कमज़ोर हूँ।।।”

(संवाद का यह हिस्सा बिल्कुल सही है-संदेश एकदम स्पष्ट है)
(ब). “और किसी को अपनी सीमा का अतिक्रमण करने दूँगा या अपना हक़ किसी को छीनने दूँगा।”

(यहाँ या तो सीमा के अतिक्रमण की बात होती या फिर हक़ छीनने वाली- क्योंकि संवाद अनावश्यक रूप से लंबा होकर बोझिल-सा हो रहा है जिससे लघुकथा का प्रवाह मंथर हुआ है)

अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि कुल मिलकर यह एक अविस्मर्णीय लघुकथा है जो लघुकथा के अधिकांश तक़ाज़ों को पूरा करती है और शिल्प व कलात्मकता की हर कसौटी पर खरी उतरती है। या फिर यूँ भी कह सकते हैं कि एक सफल लघुकथा ऐसी ही तो होती है।


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