मेरी पसंद (दो लघुकथाएँ )
लघुकथा यानी छोटी सी कहानी जो बगैर किसी लाग-लपेट के कम शब्दों में गहरी बात पाठक के मन-मस्तिष्क तक पहुँचा दे । जिसका पूरा सार अंत की एक पंक्ति में व्यंगात्मक लहजे में आ जाये । जिसे हम लघुकथा की पञ्च-लाइन भी कह सकते हैं ।
वैसे तो लघुकथा क्षेत्र में बहुत से जाने-माने हस्ताक्षर हैं । सभी के नाम का उल्लेख करना यहाँ मुश्किल होगा । सिर्फ कुछ हस्ताक्षरों का नाम लेना और कुछ को छोड़ देना भी उचित नहीं लगता । इसलिए बिना किसी लम्बी-चौड़ी भूमिका के मैं अपनी पसंद की दो लघुकथाओं की चर्चा यहाँ करने जा रही हूँ ।
लघुकथा चयन का आधार बहुत ही सिंपल सा है । एक हमारे वरिष्ठ पुराने लघुकथाकार और दूसरे हमारे समकालीन । इसलिए मैं ने “स्वर्गीय विष्णु प्रभाकर” जी की लघुकथा “फर्क “ का चयन किया जो आज भी सामयिक है ।
दूसरी लघुकथा, इन्ही दिनों पढी लघुकथा है जो मुझे बेहद पसंद आई और याद भी रही । दूसरी लघुकथा है “दरिन्दे” जो अक्षर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका हँस के फरवरी २०२१ में प्रकाशित हुई । इस लघुकथा के लेखक हैं “भगवान वैद्य, प्रखर” ।
अब पहली लघुकथा “फर्क” के बारे में बात करते हैं । देश के बंटवारे के पश्चात एक शख्स भारत-पाक सीमा को देखने के लिए उत्सुक हो अपनी पत्नी के साथ वहां जाता है । वह दोनों देशों के बीच की भूमि पर खड़ा है और साथ में उसकी सुरक्षा के लिये अट्ठारह सशस्त्र सैनिक एवं कमांडर भी हैं । उसे हिदायत दी जाती है कि वह पाक सैनिकों द्वारा दी गयी चाय न पी ले । वह स्वयं भी मन ही मन सोचता है कि मैं इतना मूर्ख थोड़े ही हूँ जो उस पार के सैनिकों का भरोसा कर लूंगा । मै तो इंसान हूँ, दिमाग पाया है, अपने-पराये का भेद खूब समझता हूँ ।
ईद का दिन है, वह दिखावे के लिए पाक सैनिकों को ईद की मुबारकबाद देता है लेकिन जब वे अपने साथ चाय पीने का आग्रह करते हैं तो वह शख्स उन्हें बहाना बना कर माफी माँगते हुए टाल देता है ।
लघुकथा के अंत में बकरियों का एक दल पाकिस्तान की तरफ से कुलाचें भरता हुआ उनके पास से गुजरता है और भारत सीमा में बेधड़क दाखिल हो जाता है ।
उन बकरियों को देख कर वह शख्स पाक सैनिकों से पूछता है “ये आपकी हैं ?”
जवाब में पाक सैनिक जवाब देता है- “जी हाँ, जनाब ! हमारी हैं । जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते ।”
अब देखिये यह पंक्ति “जी हाँ जनाब ! हमारी हैं जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते ।” यह एक पंक्ति ही पूरी लघुकथा को समझा देती है । बगैर ज्यादा वार्तालाप के पाक सैनिक स्वतः ही समझ जाते हैं कि वह शख्स उनके साथ चाय नहीं पीना चाहता क्यूंकि वे पाकिस्तानी हैं । जबकि वह भारतीय सैनिकों द्वारा दी गयी सुरक्षा पर भरोसा करके ही उनके समक्ष खड़ा है ।
यह अंतिम पंक्ति दर्शा देती है कि आज जो दो मुल्क हैं वे कल एक ही थे । किन्तु वह शख्स क्यूंकि इंसान है अब उसकी मानसिकता में फर्क आ गया है । जबकि बकरियों का दल बगैर किसी आशंका के उस देश की सीमा से निकल इस देश में घुस जाता है ।
दूसरी लघुकथा “दरिन्दे” दहेज़ प्रथा पर आधारित अत्यंत मार्मिक लघुकथा है । एक लड़की है “गौरांगी” जो नव विवाहिता है और सावन में मायके आयी है । उसकी माँ लाड-प्यार से उसके बाल स्वयं धोने पर जोर देती है ।
लेकिन जैसे ही वह उसके बाल खोलती है उसकी पीठ पर पड़े हरे-नीले निशान देख कर चौंक जाती है ।
अब यहाँ गौर करिए लेखक ने लड़की का नाम “गौरांगी” दिया है । निश्चित रूप से नाम पढ़ते ही सुन्दर गोरी देह की लड़की ही सामने नज़र आती है । अब यदि उसकी पीठ पर हरे-नीले निशान पड़े हों तो मन आशंका से भर ही जाएगा । जो दृश्य हमारी आँखों के सामने उभर कर आता है सचमुच बहुत मार्मिक होगा ।
ऐसे में उसकी माँ की मनःस्थिति हम स्वयं ही सोच सकते हैं । लेखक ने इस मनःस्थिति को जो शब्द दिए हैं कितने प्रभावशाली हैं “अरी दैय्या, ये तो पूरी पीठ ही हरी-नीली पड़ गयी है ……! ऐसा क्या किया है तुमने ……बोलो….बताओ ये किस चीज के निशान हैं ?”
लेकिन गौरांगी अपनी माँ को सच्चाई बता कर दुखी नहीं करना चाहती सो चुप, क्या जवाब दे……उसकी आँखें पोखरा गयीं । उनमें ज्वार उठने लगा ।
अब यहाँ लेखक की लेखन शैली, शब्दों की बुनावट, कथ्य कहने की कला देखिये “उसकी आँखें पोखरा गयीं, उनमें ज्वार उठने लगा”
बात साधारण सी है कि “आँखों में आंसू आ गये” लेकिन लेखन शैली अति प्रभावशाली ।
उसकी चुप्पी से माँ की आशंका और गहरी हो गयी “अरी बोल न क्या हुआ ….? बता सच-सच मुझे …नहीं तो मेरा मरा मुंह देखेगी” मम्मी जैसे बौरा गयी थी ।
इस वाक्य में माँ के अंतस में छुपा डर देखिये । दहेज़ के लालची क्या जानें माता-पिता ब्याह कर अपनी बेटियों की सुरक्षा के लिए कितने चिंतिति रहते हैं । लेकिन यह वाक्य माँ की उस फ़िक्र और घबराहट को दर्शाता है ।
जब गौरांगी कहती है “ससुराल वाले दरिन्दगी पर उतर आये । चार-चार दिन कमरे में बंद रखते थे, खाना नहीं कि पीने को पानी नहीं । किसी ने भी आना और पिटाई करके चले जाना । मैं ने कहा , मैं जुतुंगी हल में ……
“और ये पीठ…..!” फिर माँ की फ़िक्र देखिये ।
“अब छोड़ो भी मम्मी ….जो हो गया सो हो गया ।” गौरांगी अपनी माँ से फिर कुछ छुपा रही है । यहाँ पारिवारिक स्थिति को समझते हुए गौरांगी की सहनशीलता देखिये ।
नहीं.. मुझे… बताओ ….ये सांप जैसे लम्बे-लम्बे निशान काहे के हैं । पूरी पीठ हरी-नीली पड़ गयी है मेरी बेटी की…..! धीरज का पहाड़ दरकने लगा था ।
उपरोक्त वाक्य माँ की ममता को दर्शा रहा है । कैसे वह अपने बच्चे के शरीर पर जख्म देख कर चुप रह सकती है भला ?
अब अंतिम पंक्ति पढ़िए “हल जोतते वक़्त वे नशे में भूल जाते थे कि हल में बैल नहीं …..मैं जुती हूँ ।”
कितनी मार्मिक है ये पंक्ति कितनी दरिन्दगी दिखाई पड़ती है इस एक ही पंक्ति में । लघुकथा के लिए शीर्षक बहुत सही चुना है लेखक ने । अब मैं दोनों लघुकथाएँ यहाँ प्रस्तुत करती हूँ.
1-फर्क -विष्णु प्रभाकर
उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं।
वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, “उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं।
पता नहीं क्या हो जाये? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।”
उसने उत्तर दिया,”जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?” और मन ही मन कहा – मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराये में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझमें है। वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया। उस दिन ईद थी।
उसने उन्हें ‘मुबारकबाद’ कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोले, “इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।” इसका उत्तर उसके पास तैयार था।
अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा, “बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफी चाहता हूँ।”
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुजरा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा।
एक क्षण बाद उसने पूछा, “ये आपकी हैं?” उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया, “जी हाँ, जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।”
2-दरिंदे- भगवान वैद्य प्रखर
‘‘गौरांगी… चल, मैं तेरा सिर धो देती हूं। क्या हाल बना रखा है, इतने सुंदर बालों का। पता नहीं, कभी दो बूंद तेल भी डालती है सिर में कि नहीं …!’’ सावन में मायके आयी बेटी से मम्मी ने कहा।
गौरांगी पहले तो तैयार हो गयी पर फिर पता नहीं क्या सोचकर मना कर दिया। बोली, ‘‘मैं खुद धो लूंगी मम्मी । आप वो सीकाकाई वाला साबुन भर लाकर रख देना,बस्स।’’
‘‘अरी, मैंने लाकर रखा है इसीलिए न कह रही हूं। चल…।’’
गौरांगी मना करती रही पर मम्मी कहाँ माननेवाली थी! जबरदस्ती ले जाकर बिठा दिया गुसलखाने में और खोल दिये गौरांगी के केश।
‘‘अरी, ये इत्ता बड़ा निशान काहे का है यहां !’’ गर्दन पर नजर पड़ी तो मम्मी जैसे चौंक गयी ।
‘‘वो …घर के पिछवाड़े एक पेड़ गिर गया था। इंधन के काम आयेगा सोचकर मैं उसका एक लक्कड़ उठा लायी थी । उसीका निशान है।’’
‘‘नहीं… ये इत्ता बड़ा निशान लक्कड़ का नहीं हो सकता! लक्कड़ तो कंधे पर लाया जाता है…ये निशान कुछ और ही कह रहा है।… अरी दय्या, ये तो पूरी पीठ ही हरी-नीली पड़ गयी है…!’’ मम्मी ने गौरांगी की पीठ अनावृत्त कर दी थी ।
‘‘ऐसा क्या किया है तुमने … बोलो…बताओ ये किस चीज के निशान हैं ?’’ मम्मी ने गौरांगी का चेहरा अपनी ओर मोड़ लिया और दुनियाभर की आशंका से ग्रस्त होकर उसकी आंखों में देखने लगी।
गौरांगी चुप! सोच रही थी, क्या जवाब दें। …उसकी आंखें पोखरा गईं। उनमें ज्वार उठने लगा।
‘‘अरी बोल ना क्या हुआऽऽ? बता…सच-सच बता मुझे …नहीं तो मेरा मरा मुंह देखोगी।’’ मम्मी जैसे बौरा गई थी।
‘‘गर्मियों में एक बैल मर गया था । … सास, ससुर और तुम्हारे दामाद पीछे पड़ गये कि मायके जाकर बैल खरीदने के लिए पैसे लेकर आओ।… रोज मारपीट करते। …तुम लोगों के हालात तो मैं जानती थी । उन्हें बताया पर वे सुनने को तैयार न थे। दरिंदगी पर उतर आये। चार-चार दिन कमरे में बंद करके रखते थे। खाना नहीं कि पीने को पानी नहीं। बस, किसी ने भी आना और पिटाई करके चले जाना। मैंने कहा, मैं जुतुंगी हल में …।’’
‘‘और ये पीठ …!’’
‘‘अब छोड़ो भी मम्मी…। जो हो गया सो हो गया।’’
‘‘नहीं …मुझे बताओ … ये सांप जैसे लंबे-लंबे निशान काहे के हैं। पूरी पीठ हरी-नीली पड़ गयी है मेरी बेटी की…!’’ धीरज का पहाड़ दरकने लगा था।
‘‘हल जोतते वक्त वो नशे में भूल जाते थे कि हल में बैल नहीं …मैं जुती हूं।’’
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