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लघुकथा में स्त्री

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नव लघुकथाकारों पर हमारे वरिष्ठ लघुकथाकारों ने काफी कलम चलाई है। नए आयोजन भी किए हैं और नई किताबें भी निकाली हैं। यह एक तरह से अच्छा है। आने वाली पीढ़ी को तैयार करना, आने वाले खतरों के लिए अलर्ट करना, नई ऊर्जा का प्रयोग बेहतरी के लिए करने का तो किसी भी दृष्टि से गलत नहीं कहा जा सकता।

जब हम नई ऊर्जा की बात करते हैं तो भूल जाते हैं कि नई ऊर्जा तो वरिष्ठों में भी बकाया है। और क्यों न हो? जब वे लेखकों की नई पीढ़ी को तैयार कर सकते हैं, और साथ-साथ अपना लेखन भी साध सकते हैं तो उनमें ऊर्जा तो होगी ही।

मैंने इधर वरिष्ठों की कुछ नई लघुकथाएँ पढ़ीं। इन लघुकथाओं ने मुझे प्रेरित किया कि मैं उन लघुकथाओं को अपने विचार के साथ पुनः प्रस्तुत करूं तो शायद वो बात बने जो अभी तक मिस हो रही थी। मैं वरिष्ठों की वही लघुकथाएँ  ले रहा हूँ जो मुझे सहज उपलब्ध हैं।

अपने व्यक्तिगत कारणों से व्यस्तता के चलते/आयोजनों में मिसफिट होने के कारण मेरे पास सहज प्राप्य लघुकथाओं की एक निश्चित मात्रा ही है, जिन्हें मैं इस लेख में ले रहा हॅूं। इसे मेरी सीमा मानिए।

कभी-कभी हैरानी होती है कि सुभाष नीरव जैसे कथा-पुरुष लघुकथा के लिए कैसे वक्त निकाल पा रहे हैं। कहानी के साथ-साथ इनका लघुकथा में भी गंभीर कार्य है। बलराम अग्रवाल ने हिन्दी कहानी में काम किया है, पर कम किया है। उन्हें लघुकथा वाले बाहर निकलने ही नहीं देते हैं। मेरा ख्याल है कि बलराम अग्रवाल को हिन्दी लघुकथा के साथ अन्य विधाओं का भी कंसेप्ट जितना क्लीयर है, उतना किसी और लघुकथाकार को नहीं। अन्य विधाओं के साथ भी वे इतने ही सहज हैं जितने लघुकथा के साथ। यही कारण है कि वे बोलने से पीछे नहीं हटते और हम बुलवाने से।
मधुदीप ने लघुकथा में क्या किया है, यह बार-बार कोट करने की आवश्यकता नहीं है। भीष्म की भाँति लघुकथा के ये पितामह भी अपने हस्तिनापुर की सेवाओं और चिन्ताओं में लीन हैं।
सुकेश साहनी ने कभी ‘ठंडी रजाई’ लिखी थी। उनकी रजाई की गर्मी दुनिया भर के पाठकों ने ली। इस बार वे ‘सेल्फी’ लेकर आए हैं। सेल्फी एक ऐसे कपल के बारे में बुना हुआ कथानक है जिसमें आने वाले बच्चे की प्रतीक्षा के क्षणों को पिरोया गया है। इस बच्चे की प्रतीक्षा दोनों अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं। लघुकथा को स्नैपशाट मानने वाले सुकेश साहनी का कैमरा आसपास की कशमकश और जद्दोजहद पर भी निगाह रखता है। यही वजह है कि समस्या और समस्या पैदा करने वाले (पुरुष मानसिकता), दोनों पुराने होने के बावजूद यह कैमरा उस स्त्री पर फोकस करता है, जिसने गत सदी से इस सदी में अपने मनोविज्ञान का संवारा है, भावनाओं से ऊपर उठी है, अनिर्णय की स्थिति से यथासंभव किनारा किया है और जो बताना जानती है कि वो ऐसी नहीं, ऐसी है। इसी लिए यह लघुकथा सुकेश साहनी की ठंडी रजाई के साथ-साथ नई सदी का सफ़र भी तय करेगी।

इस लघुकथा में जहां पुरुष अपने उन पुराने पुरुषवादी विचारों का ही पोषक बना खड़ा दीखता है, वहीं स्त्री ने गत सदी के अपने स्टेटमेंट में परिवर्तन किया है। यह संशोधन से जुदा है। उसने पुरुष के साथ रजामंदी न दिखाकर उसे ललकारा है। लड़का जनने की दवा वाली अपने पति की हथेली को अपने मुँह तक आने न देकर उसने समाज को यह मैसेज देने की कोशिश की है कि अपनी ही तरह के बच्चे के जन्म की कामना करना पुरुषार्थ नहीं, एक दुष्कृत्य है; जो विभिन्न कालों में विभिन्न नामों से जाना जाता रहा है और वर्तमान काल में इसे ‘सेल्फी’ के नाम से जाना जायेगा।

बलराम अग्रवाल की ‘प्रेमगली अति सांकरी’ का पुरुष प्रेम और पीड़ा से ओतप्रोत पुरुष है। प्रेम जहां उसके कंठ तक भरा हुआ है और उसके सम्पूर्ण मन को आच्छादित किया हुआ है, वहीं पीड़ा की वजह भी प्रेम ही है। वही प्रेम जो वह अपनी स्त्री से उसके देहावसान के बाद भी करता है। बहुत सम्भव है कि लघुकथा में लोगों को उसका प्रेम तो दिखाई दे, उसकी पीड़ा नहीं। यह पीड़ा उसकी पत्नी के साथ विछोह की तो है ही, एक और पीड़ा है जो उसे संताप से भरे देती है। वह पीड़ा है, पत्नी का वह छिपा हुआ प्रेम, जिसे पत्नी के जीते जी सारी दुनिया की तरह वो भी नहीं जानता था। पुरुष को अपनी मृत स्त्री के विछोह से जो पीड़ा मिल रही है उससे कहीं अधिक पीड़ा इस सत्य को जानकर हो रही है कि उसकी स्त्री विवाह से पहले किसी अन्य पुरुष से प्रेम करती रही और उसके पति को, जिसने उससे प्रेम-विवाह किया था, इस सत्य का पता नहीं चला।

और मजेदार बात यह कि आहत होने के बावजूद पति यह नहीं जानना चाहता कि दिवंगत पत्नी के रिकॉर्ड से मिले पत्र किसके थे? बल्कि उन पत्रों को पत्नी का पहला प्यार मानकर, सँजोए रखने की उसकी भावना का सम्मान करता है-‘‘कनु, उम्रे-खास में यह अंकुर फूटता ही है सब में। लड़का-लड़की का भेद मिटाकर यही हमें मनुष्य बनाता है। सही से बोलने, बैठने, चलने, देखने का सलीका सिखाता है। मुझमें वह देर से फूटा, उसमें जल्दी फूट पड़ा होगा!’’  कम शब्दों में ‘प्रेम’ का इतना सूक्ष्म विवेचन और महत्व कथा-साहित्य की लघुकथा विधा में ही संभव है। वह उस पराई स्त्री को, जो उसके पास उसकी पत्नी का शोक व्यक्त करने आयी थी, बता देता है कि विवाह-पूर्व उसकी पत्नी किसी अन्य से प्रेम करती थी क्योंकि उसके प्रेम पत्र उसे मिले हैं। हैरानी है न! यह बात तो उसे छिपानी चाहिए थी; लेकिन वह नहीं छिपाता। पति चाहता तो इस प्रसंग की चर्चा तक न करता। चाय पिलाता और वापिस भेज देता; वैसे ही जैसे सभी को भेजा। शोक व्यक्त करने आने वालों के साथ इतना अंतरंग हुआ भी कब जाता है? अक्सर तो चाय भी नहीं पिलायी जाती। ज़रूरत ही नहीं होती। लेकिन यहां पर पति ने चाय पिलाई और अंतरंग बात भी बताई। वो जानता था कि पत्नी के इस रहस्य़ को जानने की उपयुक्त और सुरक्षित पात्र वही है।

पति ने सोचा होगा कि जिस प्रथम प्रेम को उसकी पत्नी ताउम्र अपने सीने में दबाए रखने को विवश रही, उसका सम्मानपूर्वक कहीं प्रकट करने की जिम्मेदारी अब उसकी है। यहीं पर यह लघुकथा पुरुष-मन के दो क्लिष्ट छोरों, प्रेम और पीड़ा, को एक-साथ प्रकट करती है। उसका (पूर्व पत्रों को) ‘नष्ट कर ही दिया होता तो अच्छा था’ सोचना उसकी पीड़ा और व्यवहारिक दृष्टिकोण को व्यक्त करता है। यह पीड़ा ही इस लघुकथा के शीर्षक और पति के व्यवहार को स्वाभाविकता देती है।

लेकिन क्या कोई ऐसे पुरुष को किसी तरह की सांत्वना दे सकता है, जिसने अपनी पत्नी से जीवन भर खूब प्रेम किया हो और पत्नी के मरने के बाद भी पत्नी से खूब प्रेम करता हो और मृत्यु के उपरांत ही सही, उसके पूर्व प्रेम को कहीं न कहीं जस्टीफाई करने की कोशिश करता हो? क्या किसी ने ऐसे पुरुष के दर्शन किये हैं?

ऐसा पुरुष सभी के भीतर होना चाहिए, बलराम अग्रवाल ने शायद यही बताने की कोशिश की है।

मधुदीप की एक लघुकथा है- ‘खुशगवार मौसम’, जिसमें एक नवविवाहित स्त्री के पुरुष को गे दिखाया गया है। कथानक में एक पहाड़ी स्थान का चित्रण है। बाहर भयानक बर्फबारी है और अंदर होटल के कमरे में तूफान उठा हुआ है। स्थिति यह है कि प्रथम रात्रि में ही स्त्री को ज्ञात हो जाता है कि वह एक गे से ब्याही गयी है। स्पष्ट है कि मामला अरेन्ज मैरिज का है। लव मैरिज में ऐसे केस नहीं होते हैं क्योंकि स्त्री – पुरुष दोनों को पारस्परिक अंडरस्टैंडिंग के लिए पर्याप्त अवसर मिल जाता है। स्त्री इस बात से ख़फा है कि जब उसके पति को मालूम था कि वह गे है तो उसने विवाह क्यों किया। पति कहता है कि वह मुक्त कर देगा अपनी पत्नी को इस विवाह से। नवविवाहिता संशय में है कि यह इतना आसान नहीं है। नवविवाहित अपनी पत्नी के आगे समर्पण करता है और पूछता है कि इसका कोई तो समाधान होगा। पत्नी कहती है कि समाधान तो हर समस्या का होता है लेकिन इरादा चाहिए।
मधुदीप की इस स्त्री की सोच पॉजिटिव है लेकिन यह एक भयानक पॉजिटिव सोच है। गर्ज़ यह है कि वह पुरुष, जो जानता है कि वह गे है, उसके बावजूद वह विवाह करने निकला है, विवाह किया है, क्या वह इस समस्या और समाधान के दौर से नहीं गुज़रा होगा। गुज़रा होगा तो फिर यहां इस रात को यह क्या ड्रामा स्टेज किया हुआ है उसने? क्यों नहीं कहता कि वह गे है और उसे गर्व है कि वह गे है। कि उसने अपने माँ-बाप का ख्याल करके विवाह किया, क्योंकि हमारे यहां गे मैरिज सामाजिक या कानूनन स्वीकार्य नहीं है या कि गे होना कोई समस्या नहीं है और यह केवल अपने सैक्यूअल ओरियन्टेशन को ईमानदारी से समझने जैसी बात है और यदि तुम इसे समस्या ही मानती हो और यह भी समझती हो कि मुझे इस समस्या से पार लगाने में तुम सक्षम हो और मेरे इस ओरियन्टेशन के बावजूद मुझे स्वीकार कर रही हो तो मैं भी प्रयत्न करूंगा, हालाँकि मुश्किल है क्योंकि ऐसी सारी कोशिशें मेरे द्वारा पूर्व में ही की जा चुकी हैं और यह एक असंभव सा कार्य है लेकिन तो भी, इस विवाह के प्रति एक सम्मानजनक रवैया अख्तियार करते हुए मैं तुम्हारी इस कोशिश में अपना पूरा साथ दूंगा।

वस्तुतः सुहागरात को पड़ रही बर्फबारी के चित्रण में तो कामयाब हुए हैं मधुदीप ; लेकिन उन्हें नवविवाहित युगल के मन में चल रहे तूफान के चित्रण में उतनी सफलता नहीं मिली है।

मधुदीप की एक और लघुकथा है – नमिता सिंह। उनकी इस लघुकथा की स्त्री भी अपने टिपिकल कैरेक्टर के कारण कई सवाल खड़े करती है। लघुकथा में नमिता सिंह के दिन के तीन हिस्से प्रस्तुत किए गए हैं। ये तीन हिस्से जहाँ उसकी ज़िन्दगी के तीन पन्ने दर्शाते हैं वहीं उसकी मनोदशा के दर्शन भी कराते हैं।

पहले हिस्से में नमिता सिंह (क्योंकि नमिता सिंह लघुकथा का कोई एक चरित्र मात्र नहीं है, मधुदीप ने इस पात्र के बहाने पूरी स्त्री जगत की पड़ताल की है, इसलिए यहां सिर्फ नमिता लिखने से काम नहीं चलेगा, पूरा नाम नमिता सिंह ही लिखना पड़ेगा) रिक्शे में बैठकर जा रही है कि तभी एक बाहक सवार आकर फिकरा कसता है और नमिता सिंह तुरन्त ही रिक्शे से उतर कर उसे थप्पड़ मार देती है।

दूसरे हिस्से में नमिता सिंह ऑफिस में अपने सहकर्मी की क्लास ले लेती है, जो उसे लगातार घूर रहा होता है।

तीसरे हिस्से में नमिता सिंह अपने घर पर रिश्ते के लिए आए उस व्यक्ति को शादी करने से पूर्व अपनी शर्तों के बारे में बतला देती है कि वह बिना दान-दहेज के शादी करेगी और शादी के बाद अपने माॅ-बाप का दायित्व उसी प्रकार वहन करेगी जिस प्रकार एक पुरुष करता है।
मधुदीप की यह नमिता सिंह उस नमिता सिंह से भिन्न नहीं है जिस नमिता सिंह को हम आजकल अपने आसपास देख रहे हैं। अंतर सिर्फ यह है कि यह नमिता सिंह अपने मधुदीपीय तेवरों के साथ लघुकथा में पहली बार अवतरित हुई है। यह नमिता सिंह साहसी तो है ही, दुस्साहसी भी कम नहीं है। वह प्रतिवाद करना जानती है। वह रिक्शे से कूदकर छेड़ने वाले का विरोध करती है, भले ही ऑफिस जाने में विलम्ब ही क्यों न हो जाये। जबकि नमिता सिंह की पिछली पीढ़ी में इस प्रकार के चरित्र के दर्शन दुर्लभ थे। आॅफिस में जाकर भी नमिता सिंह अपने सहकर्मी को घूरता पाकर अपने कार्य में ध्यान नहीं लगा पाती और विरोध करती है। रिक्शे में और ऑफिस में, दोनों ही जगहों पर, सार्वजनिक होने के बावजूद भी उसके तेवरों में कोई नरमी नहीं आती। घर पर जाकर तो वह सर्वाधिकार सम्पन्न हो जाती है परन्तु पूरी नरमी के साथ अपने विशेष मेहमानों को अपनी इच्छा से अवगत कराती है।

मधुदीप की दोनों लघुकथाओं में स्त्री ने झंडा हाथ में लिया है और नई सदी की ओर कदम बढ़ाये हैं।

सुभाष नीरव की इधर दो लघुकथाएँ  पढ़ीं- वेश्या नहीं और डूबते को किनारा। दोनों लघुकथाओं में स्त्री की मनोदशा चित्रित की गई है। ‘डूबते को किनारा’ मुझे एक ऐसी लघुकथा लगी जिसमें पुरुष को स्त्री के मोहपाश में बिछते और स्त्री को उस पुरुष की फैन्टेसी का उपहास करते दिखलाया गया है। यह वस्तुतः एक पुरुष की करूण – गाथा है जिसके पुरुषत्व का उपहास एक स्त्री ने उड़ाया और गरीब बेचारा समझ नहीं पाया। कोई भी स्त्री किसी पुरुष से अपने जिस्म को दबाने की लालसा नहीं रखेगी, भयंकर ज्वर में भी नहीं, यदि होश में है तो, तब तक नहीं, जब तक कि वह खुद उस पुरुष के साथ काम-कामना न रखती हो। अगरचे वह स्त्री अत्यन्त चालाक है अथवा मानसिक विक्षिप्तता की शिकार। तथ्य यह है कि भाई बनाने की वास्तव में इच्छुक होती तो वह स्त्री अपना स्नेह, अपना सोचा हुआ रिश्ता, अपनी सेवा कराने से पहले ही ज़ाहिर कर देती। और दूसरा तथ्य यह है कि जिस पुरुष को वह अपनी कुटिलता से साध नहीं पायी, उसे भाई घोषित कर दिया। नीरव की इस लघुकथा में इक्कीसवीं सदी की स़्त्री, जहाँ अपनी कामलिप्सा के देहदर्शन कराने में सक्षम रही, वहीं नीरव की इस लघुकथा का पुरुष पात्र, उसी इक्कीसवीं सदी का पुरुष पात्र, अपनी यौन इच्छाओं के आगे बेचारा बनकर रह गया। यह लघुकथा की सफलता है। अगर इसे प्रेरक लघुकथा की भांति ना पढ़ा जाये तो।

सुभाष नीरव की एक और लघुकथा – वेश्या नहीं- में स्त्री ने उसी प्रतिरोध को अंगीकार किया है जिसे मधुदीप ने नमिता सिंह में जगह दी थी। नमिता सिंह, रिक्शे वाले को थप्पड़ मारकर, अपनी सहकर्मी को लताड़कर और रिश्ता लेकर आए चन्द्रशेखर को अपने सिद्धान्तों की घुट्टी पिलाकर जब अपनी उम्र के अगले पड़ाव पर पहुंचती है तो उसका सामना अपने पूर्व प्रेमी से होता है। बस यहीं से सुभाष नीरव की स्त्री की कथा प्रारम्भ होती है (हालाँकि मधुदीप की नमिता सिंह के तेवरों को देखते हुए यह मुमकिन नहीं है कि उसका कोई प्रेमी किसी भी जन्म में हो)। नीरव की इस लघुकथा में स़्त्री उस पुरुष से अपनी दोस्ती को निभाती है और तृप्ति के क्षणों के गुज़र जाने के बाद अपनी समस्या को उजागर करती है। नीरव की यह स्त्री तलाकशुदा है और अपनी दो बच्चियों के साथ अलग रह रही है। उसकी समस्या को सुनने – समझने से पूर्व ही पुरुष उसके आगे नोट फेंक देता है ताकि वो अभी-अभी हुए अभिसार की कीमत अदा कर सके। विडम्बना देखिए कि अहम् में भीगा हुआ यह पुरुष – किरदार उस इक्कीसवीं सदी की स्त्री के सामने नोट फेंकता है जिसकी अपनी प्राथमिकताएँ  हैं। मनमर्जी से जीना उसकी पहली प्राथमिकता है और इसके लिए वह अपने पूर्व प्रेमी के साथ वक्त गुज़ारने से भी गुरेज़ नहीं करती। समस्याएँ  तो बाद में।

सुभाष नीरव की लघुकथा – वेश्या नहीं- की इसी स्त्री का रूप, मधुदीप की लघुकथा -नमिता सिंह – के चरित्र का एक्सटेंशन बनकर प्रकट हुआ है। और यह सोचकर तो हैरानी ही होगी कि सिलसिला तो कब से चला आ रहा है। वरना बलराम अग्रवाल की लघुकथा – प्रेम गली अति साँकरी- की शालिनी की कड़ी भी इन सबसे न जुड़ी होती, जिसके प्रेम पत्र हमारी इक्कीसवीं सदी में दम तोड़ते पुरुष (प्रत्यूष- बलराम अग्रवाल की लघुकथा का पुरुष) के गले में अटके हुए हैं। और सुकेश साहनी की स्त्री अपने पति की जिस हरकत को -सेल्फी – कहकर विरोध करती है, क्या वह इन सबसे अलग है।

वस्तुतः इन सभी वरिष्ठ लघुकथाकारों की इक्कीसवीं सदी की लघुकथाओं में स्त्री की छवि उनके अपने मेगापिक्सल कैमरे से ली गईआधिकारिक तस्वीरें हैं, जिन्हें अभी पाठकों और आलोचकों द्वारा ज़ूम करके देखा जाना बाकी है।

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1-सेल्फी / सुकेश साहनी

उसका पूरा ध्यान आँगन में खेल रहे बच्चों की ओर था। शुचि की चुलबुली हरकतों को देखकर उसे बार-बार हँसी आ जाती थी। कल शुचि जैसी बच्ची उसकी गोद में भी होगी, सोचकर उसका हाथ अपने पेट पर चला गया। उसे पता ही नहीं चला कब राकेश उसके पीछे आकर खड़ा हो गया था।

‘‘जान! आज हम तुम्हारे लिए कुछ स्पेशल लाए हैं।’’

‘‘क्या है?’’

‘‘पहले तुम आँखें बंद करो, आज हम अपनी बेगम को अपने हाथ से खिलाएँगे। ’’ राकेश ने अपने हाथ पीठ पीछे छिपा रखे थे।

‘‘दिखाओ, मुझे तो अजीब-सी गंध आ रही है।’’

‘‘पनीर पकौड़ा है-स्पेशल!’’ उसके होठों पर रहस्यमयी मुस्कान थी।

उसका ध्यान फिर शुचि की ओर चला गया, वह मछली बनी हुई थी, बच्चे उसके चारों ओर गोलदायरे में घूम रहे थे, ‘‘हरा समंदर, गोपी चंदर। बोल मेरी मछली कितना पानी? शुचि ने अपना दाहिना हाथ घुटनों तक ले जाकर कहा, ‘‘ इत्ता पानी!’’

‘‘कहाँ ध्यान है तुम्हारा?’’ ,राकेश ने टोका, ‘‘लो, निगल जाओ!’’

‘‘है क्या? क्यों खिला रहे हो!’’

‘‘सब बता दूँगा, पहले तुम खा लो….।’’

आंगन से बच्चों की आवाजें साफ सुनाई दे रही थी, ‘‘बोल मेरी मछली…  पानी’’ छाती तक हाथ ले जाकर बोलती शुचि, ‘‘इत्ता .. इत्ता पानी!’’

‘‘मुझसे नहीं खाया जाएगा।’’

‘‘तुम्हें आने वाले बच्चे की कसम…. खा लो।’’

‘‘तुम्हें हुआ क्या है? कैसे बिहेव कर रहे हो, क्यों खिलाना चाहते हो?’’

‘‘यार, तुम भी जिद करने लगती हो, दादी माँ का नुस्खा है आजमाया हुआ। इसको खाने से शर्तिया लड़का पैदा होता है।’’

सुनते ही चटाख से उसके भीतर कुछ टूटा,राकेश उससे कुछ कह रहा था, पर उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वह डबडब करती आँखों से देखती है….शुचि की जगह वह खड़ी है, बच्चे उसके चारों ओर गोलदायरे में दौड़ते हुए एक स्वर में पूछ रहे हैं….बोल मेरी मछली….कित्ता पानी? उसकी आँखों में दृढ़ निश्चय दिखाई देने लगता है…अब तो पानी सिर से ऊपर हो गया है। वह अपना हाथ सिर से ऊँचा उठाकर कहती है,… इत्ता …इतना पानी!!!

‘‘क्या हुआ?’’राकेश ने मलाई में लिपटी दवा उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा,’’आइ लव यू, यार!!’’

‘‘नहीं!!’’राकेश के हाथ को परे धकेलते हुए सर्द आवाज में उसने कहा, ‘‘दरअसल तुम मुझे नहीं, मुझमें खुद को ही प्यार करते हो!’

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2-प्रेमगली अति साँकरी / बलराम अग्रवाल

शालिनी मैम के निधन पर गई थी कनु। उसके बाद आज, कल… आज, कल होता रहा—जाना नहीं हो पाया। महीनों बाद अब कदम घूमे उनके घर की ओर। क्या सोचते होंगे प्रत्यूष सर? उनके प्रति उसके आदर और सम्मान का सारा भाव शालिनी मैम के साथ ही तिरोहित हो गया! गहरे संकोच के साथ बेल का बटन पुश किया। स्वयं प्रत्यूष ने ही खोला दरवाजा। घर में कोई-और था नहीं शायद। कनु को पहले जितने उत्साही नहीं लगे सर। चेहरे और चाल दोनों पर ‘अकेलापन’ हावी नजर आया। डाइनिंग रूम में उसे बैठाकर वे भीतर चले गये। दसेक मिनट बाद, कॉफीभरे दो मग लेकर लौटे।

‘‘दोनों बच्चे कॉलेज गये हैं।’’ उसके कुछ पूछने से पहले ही वे बोले, ‘‘बहुत देर से आलस में पड़ा था। तुम्हारे बहाने अब मैं भी पी लूँगा थोड़ी कॉफी।’’

‘‘थैंक्यू सर। कैसे हैं आप?’’ कनु ने औपचारिक-सा सवाल किया।

‘‘देख ही रही हो।’’ अपनी और कमरे की अस्त-व्यस्त हालत की ओर इशारा करते वे बोले। फिर, इधर-उधर की बातें शुरू कर दीं।

‘‘मैंने खुद प्रपोज करके प्रेम-विवाह किया था शालू से; जानती ही हो।’’ पता नहीं किस बात पर वे बोले, ‘‘विवाह के बाद उसने बड़ी निष्ठा से दाम्पत्य को निभाया… ’’

‘‘वह वाकई प्रेरक महिला थीं।’’ कनु ने प्रशंसा-भाव से जोड़ा।

‘‘बेशक।’’ वे बोले, ‘‘लेकिन, एक बात बताऊँ?’’

क्या ?—पूछने के अन्दाज़ में कनु ने उनकी ओर देखा।

“पिछले दिनों फाइलें पलट रहा था उसकी।” वे धीमे स्वर में बोले, “एक फाइल ऐसी मिली, जिसमें अपने नाम आए किसी के बहुत सारे प्रेम-पत्र सँभालकर रखे हुए थे।… ”

शालिनी सरीखी, हर तरह से सलीकेदार महिला के बारे में स्वयं उनका प्रेमी रह चुके पति द्वारा दी जा रही यह जानकारी कनु के लिए अप्रत्याशित और ठेस पहुँचाने वाली थी। उसने अविश्वास के अन्दाज़ में प्रत्यूष की ओर देखा।

‘‘किसी पूर्व-प्रेम का कभी जिक्र ही नहीं आया! न मैंने कभी पूछा न उसने बताया…’’ कुछ देर की चुप्पी के बाद वह अफसोसभरे अन्दाज में बुदबुदाए; फिर कनु को सुनाते हुए बोले, ‘‘लेकिन, मैंने बुरा नहीं माना है इन खतों के मिलने का। कनु, उम्रे-खास में यह अंकुर फूटता ही है सब में। लड़का-लड़की का भेद मिटाकर यही हमें मनुष्य बनाता है। सही से बोलने, बैठने, चलने, देखने का सलीका सिखाता है। मुझमें वह देर से फूटा, उसमें जल्दी फूट पड़ा होगा!”

कनु चुपचाप सुनती रही। फिर अफसोसभरे अन्दाज में मन ही मन बुदबुदाती-सी बोली, “उन्होंने सँभालकर क्यों रखा उन्हें… जला क्यों नहीं डाला?”

“यही तो मैं भी सोचता रहता हूँ इन दिनों।” प्रत्यूष ने जैसे सुन ली हो उसकी बुदबुदाहट, “फिर मन को समझाता हूँ—उसका पहला प्यार रहे होंगे ये। इन्होंने उसकी साँसों को महकना और होठों को मुस्कुराना सिखाया होगा। इनके बने रहने भर से ताजगी महसूस करती रही होगी वो… ”

“प्रेमिका बनी रहने तक सर, हर लड़की महसूस करती है यह ताजगी।” कनु किंचित अनुभवभरे अन्दाज में साहसपूर्वक बोली, “लेकिन, पत्नी के रोल में आने पर ताजगी के इन एहसासों से मुक्त हो जाना पड़ता है। मैम को आप पर अकूत विश्वास रहा होगा। न रहा होता तो वे भी जरूर ही नष्ट कर डालतीं इन सबूतों को?”

प्रत्यूष कुछ न बोल सके। नष्ट कर ही दिया होता तो अच्छा था—उदास आँखें लिए यही सोचते रहे।

उनके मग वाली कॉफी…ठण्डी होती रही।

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डूबते को किनारा…/ -सुभाष नीरव

एक पहाड़ी नदी के बीच बड़े से पत्थर पर बैठा हूँ। सरिता, मेरे सामने एक छोटे पत्थर पर बैठी मुस्करा रही है। उसके गोरे सुडौल पैर पत्थरों के बीच से कलकल करती बहती पतली जलधारा से अठखेलियाँ कर रहे हैं। ढलती शाम की सुनहरी धूप उसके चेहरे के सौंदर्य को बढ़ा रही है। देखते ही देखते, पतली-पतली जलधाराएँ विलुप्त हो जाती हैं और उफनता, हरहराता जल पूरी नदी को अपने आगोश में भर लेता है। हम किनारा पकड़ने योग्य भी नहीं रहते। दोनों के चेहरों पर भयानक घबराहट है। तेज़ जलधारा में हमारा बह जाना निश्चित है।

एकाएक मेरी तंद्रा टूटती है। मेरी बगल की सीट पर बैठी सरिता मेरा बायाँ कन्धा पकड़कर हिला रही है, “सागर जी, सो गए क्या ?”

शताब्दी तेज़ गति से आगे बढ़ रही है।

“सागर जी, आप संग न होते तो इस सम्मेलन में जाने के लिए मैं कदापि तैयार न होती। अकेले मैं कभी लम्बी यात्रा पर नहीं गयी।” सरिता कह रही है।

“आपके ही प्रोत्साहन और मार्गदर्शन से पिछले कुछ वर्षों में साहित्य में मेरा कुछ नाम हुआ है। पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी हूँ। दूर-दराज के साहित्यिक सम्मेलनों में आयोजक मुझे भी बुलाने लगे हैं। पतिदेव तो बहुत कहते रहते हैं कि मैं इन अवसरों को मिस न किया करूँ। पर मैं ही नहीं मानती। पति बहुत व्यस्त रहते हैं बिजनेस में। साथ चलने के लिए समय नहीं निकाल पाते। इसबार आपने इसरार किया और ज़ोर डाला तो मैं तैयार हो गयी।” सरिता के पास जैसे कहने को बहुत कुछ है। वह थोड़ा रुक कर फिर शुरु हो जाती है।

“सागर जी,  कॉलेज के समय थोड़ा-बहुत लिखती थी। कालेज से निकलने के बाद शादी हो गयी। फिर बच्चे भी। लिखना-पढ़ना सब छूट गया। आप न मिले  होते तो मेरे अंदर लेखन की यह सरिता सूख ही गयी थी। इसे आपने ही सूखने से बचाया।” ये बातें वह पहले भी की बार कर चुकी है। मैं हमेशा की तरह मंद मंद मुस्करा भर देता हूँ।

आयोजकों ने हम दोनों के ठहरने की व्यवस्था एक होटल में पहले से कर रखी है। दोनों के कमरे अगल-बगल हैं। सोने से पहले गुड-नाइट कहने के लिए मेरे कदम बगल वाले कमरे की ओर बढ़ते हैं। दरवाजा अंदर से बंद न होने से हल्का-सा पुश करते ही खुल जाता है। सरिता बेड पर कम्बल ओढ़े लेटी है। उसका चेहरा म्लान-सा लग रहा है।

“क्या हुआ सरिता ?” मैं पूछता हूँ।

“पूरा बदन दर्द कर रहा है। सर भी भारी-भारी-सा है। मैं इतनी लंबी यात्रा बैठकर करने की आदी नहीं हूँ न। थकान हो गयी लगता है।”  सरिता लेटे लेटे कहती है। मैं उसका माथा छूकर देखता हूँ, कुछ गर्म है। मैं तुरंत अपने कमरे में जाकर सूमो की टेबलेट ले आता हूँ। पानी का गिलास पकड़ा गोली उसकी हथेली पर रख देता हूँ। गोली गटककर वह फिर लेट जाती है। हल्की-सी कराहती भी है। मैं उसके ऊपर ठीक से कम्बल ओढ़ाता हूँ और सिरहाने बैठ उसका सिर दबाने लगता हूँ।

“टाँगों और कमर में बहुत दर्द है।” वह बुदबुदाती है।

मुझे लगता है, अब मैं उसकी टाँगें दबाने लगा हूँ। वह कोई एतराज नहीं करती है। हौले-हौले उसके  पैर, एड़ियाँ और पिंडलियाँ दबाते मेरे हाथ उसकी टाँगों पर नीचे से ऊपर की ओर यात्रा करने लगते हैं। मैं फिर खुद को एक उफननी नदी से घिरा पाता हूँ। डूबने को होता हूँ कि…

सरिता सीघी होकर उठ बैठती है। उसके कहे शब्द मेरे कानों में पड़ने लगते हैं।

“शुक्रिया सागर भाई, अब मैं ठीक फील कर रही हूँ।  रात काफी हो चुकी है, अब जाकर आप भी आराम करें। सुबह मिलते हैं।” कहती हुई वह कमरे का दरवाजा बंद करने के लिए उठती है। उसके चेहरे पर कुछ देर पहले की म्लानता अब दूर हो चुकी है।

उसके ‘गुड नाइट’ का जवाब देकर मैं कमरे से बाहर निकलता हूँ। अपने कमरे की ओर बढ़ते हुए मेरे होंठ बुदबुदाते है, ‘तुम्हारा भी शुक्रिया सरिता, आज सागर नदी में डूबने को था, तुमने बचा लिया।’

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वेश्या नहीं/ सुभाष नीरव

कमरे में घुसते ही वह तपाक से मुझसे लिपट गयी और ताबड़तोड़ उसने मेरी गालों पर, होठों पर, माथे पर बोसे जड़ दिए। करीब दस-बारह बरस बाद हम मिल रहे थे। मैं उसके शहर में था और एक छोटे से होटल में ठहरा था। बावजूद इसके कि बढ़ती उम्र के निशान उसके चेहरे और बालों से झलक रहे थे, पर अभी भी सुन्दर थी।

मैंने दरवाजा बंद किया, उसे कन्धों से पकड़ कर उसका माथा चूमा और बेड पर बिठा दिया। खुद उसके सामने कुर्सी खींच कर बैठ गया।

“मुझे उम्मीद नहीं थी कि तुम मेरे एक फोन पर दौड़ी चली आओगी?” मैंने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा।

वह मुस्करा दी। उसने बैठे बैठे बेड पर पीठ के बल लेटते हुए मुझे अपने ऊपर खींच लिया। वर्षों पहले वाली देहगंघ मुझे उसके बदन से फूटती महसूस हुई और देखते ही देखते मुझे पागल कर गयी। अब मैं होश में नहीं था। मेरी और उसकी सांसों में होड़ लग गयी। हम पसीने पसीने हो गए। जब शांत हुए तो वह सिमट कर बेड के एक कोने में बैठ गयी और मुझे एकटक निहारने लगी।

“तुम तो सीनियर सिटीजन लगते ही नहीं। रिटायर होने के बाद और स्मार्ट हो गये।” उसने एकाएक हँसते हुए कहा और दायां हाथ बढ़ाकर मेरे बालों में उँगलियाँ फिराने लगी।

मुझे पुराने दिन याद हो आये। वह ऐसे ही किया करती थी।

वह मेरे करीब खिसक आयी।  उसने अपने होंठ गोल किये और आँखें फैला लीं। मुझे लगा, वह कुछ कहना चाहती है।

“मुझे कुछ पैसों की ज़रूरत है। बड़ी परेशानी में हूँ।”

“किस परेशानी में हो ?” मैंने उसके चेहरे पर आँखें गड़ा कर पूछा।

“बहुत सारी परेशानियां हैं। एक हो तो बताऊँ।”

“फिर भी।” मेरी नज़र अभी भी उसके चेहरे पर गड़ी थी।

“तुम्हें नहीं मालूम, मैं अपने पति से अलग रहती हूँ, अकेली, अपनी दो बेटियों के साथ। पाँच साल से ऊपर हो गए डिवोर्स को।”

“क्यों?” मैं पूछना चाहता था, पर यह ‘क्यों’ मेरे मुँह की बजाय मेरी आँखों में लटक गया जिसे उसने आसानी से पढ़ लिया।

“नरक बना कर रख दी थी उसने मेरी ज़िन्दगी?” और वह ढुसकने लगी। आवाज़ भर्रा गयी।
मैं बेड पर से उठा और कुर्सी पर उसके ठीक सामने बैठ गया।

उसने अपनी नम आँखें रुमाल से पौंछते हुआ खरखराती आवाज़ में कहा, “तुम्हारा फोन आया तो मुझे कुछ उम्मीद बंधी। बड़ी उम्मीद लगाकर…।” आगे के शब्द उसके गले में अटक कर रह गये।

मैं कुर्सी पर से उठा। मुझे लगा, वह अपना मेहनताना…

“तुम भी…” मैंने मुँह बिचकाया और अपने बटुए में से कुछ बड़े नोट निकाल उसकी ओर हिकारत से फ़ेंक दिए।

बेड पर बिखरे नोटों को उसने जलती आँखों से देखा, फिर मेरी ओर एकटक देखने लगी। वह बिना नोटों को छुए बेड से उतरी। खड़ी होकर उसने अपने  कपड़े सही किए।

इससे पहले कि मैं कुछ कह पाता, वह तेजी से दरवाज़ा खोल बाहर निकल गई।

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