गढ़वाली में अनुवादः डॉ. कविता भट्ट
“पिताजी राहुल छौ बुन्नु कि आज तीन बजि—” विक्की न बतौण चाई ।
“चुपचाप पौड़ी लि!” वूंन अखबार बिटी नजर हटयाँ बिना बोलि, “पड़े क टैम बुन्न-बच्यांण बिल्कुल बंद !”
“पिताजी कतुग बजि गेनी?” थोड़ी देर म विक्की न पूछि।
“तेरु मन पढे माँ किलै नि लगदु? क्य उच्चपटाक सुचदी रैंदी तु? मन लगैकि पड़ी कौर, नितर त्वेन मेरि मार खांण।”
विक्की न किताबी पर छरै कि देखण लगी गे ।
“पिताजी! अचाणचक इत्गा अँधेरू किले ह्वे गे?” विक्की न मोरी बिटी भैर खुला सरग तैं छरै देख्दा देखदी पूछि।
अबि ब्याखुंन बि नि ह्वे अर बदळ बि नि छिन।
राहुल बुन्नु छौ —”
“विक्की!!” वूंन गुस्स म बोलि – बिज्याँ होमवर्क पड़यूं च अर तु एक पाठ माँ इ अटक्यूं छै!”
“पिताजी, भैर इतगा अँधेरू —” वे न बुन्न चाई।
“अँधेरू लगणु च त, मी लैट जगै दीन्दौं। पाँच मिनट म पाठ याद नि ह्वे, त मी त्वे दगड़ी सुलूक करदु छौं?”
विक्की डरि गे। वू ज़ोर-ज़ोर सि रटण लगी गे, “सूर्य अर पृथी का बीच म जूँन का औंण सि सूर्यगरण हूंद –
– सूर्य अर पृथी का बीच —”