1-अपनी ही आग में
भाईचारे का युग था। सब मेल-मिलाप और प्यार-प्रेम से रहते। हुनरमन्द औजारों तक को इस अपनत्व से हाथ में लेते और काम को इस श्रद्धा से करते कि पूजा कर रहे हों। वह जुलाहा बड़े जतन और प्रेम से बुनता था कपड़ा। शब्द गुनगुनाते हुए पहले वह ताना बुनता फिर इस कौशल से बुन देता बाना, कि न ताना दिखता न बाना। दिखता तो बस कपड़ा। दोनों मिलकर बन जाते कपड़ा। बात भी कपड़े की होती। ताने और बाने का अलग से जिक्र तक न होता। कई बार ताना अलग रंग का होता, बाना अलग रंग का, लेकिन कपड़े में ताने का रंग दिखता, न बाने का। दिखता तो बस कपड़े का रंग, जो हालाँकि कुछ-कुछ बाने के रंग-सा, मगर पूरी तरह किसी-सा न होकर कपड़े के रंग जैसा होता। प्यार-मुहब्बत से रहने वालों की ताने-बाने से तुलना की जाती, ‘‘उन्हें देखो, कैसे ताने-बाने की तरह रहते हैं।’’
एक दिन, लेकिन अनहोनी हुई। हालाँकि था तो यह अप्रत्याशित, लेकिन हुआ कि ताना और बाना झगड़ पड़े उस दिन। दोनों गुस्से में तमतमाए हुए और एक दूसरे के प्राण लेने का आतुर। जुलाहा जा चुका था। बीच-बचाव करने को कोई था नहीं। झगड़ा बढ़ता ही गया और आवेश के एक पागल पल में बाने ने ताने के वहाँ आग लगा दी, जहाँ कि बाना अभी बुना नहीं गया था। लपटों में घिर गया ताना तो खुश हुआ बाना। लेकिन बहुत थोड़़ी देर । जल्द ही आग आगे बढ़ी और बाना भी अपनी ही आग में जलकर खाक हो गया।
सुबह जुलाहा आया। गहरे अफसोस के साथ उसने उन दोनों की इकट्ठी पड़ी मुट्ठी भर राख को देखा। वह गमगीन था कि हमेशा साथ रहने वाले आपस ही में लड़ मरे थे। यह गहरा सदमा था उसके लिए। देर तक निर्जीव सा बैठा रहा जुलाहा। आखिर उसने खुद को गम से उबारा। उसने फिर से ताना कसा और बाना बुनने लगा।
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2-धरोहर
चकित–सा मैं राजघराने के विशाल संग्रहालय को देख रहा था। राजघराने का गौरवशाली अतीत अपने सम्पूर्ण वैभव और पराक्रम के साथ मौजूद था वहाँ, जबकि देश के ज्यादातर लोगों का वर्तमान भी बिगड़ा जा रहा था। वहाँ, अपनी चमक–दमक से आँखें चुँधिया देने वाले बहुत–से मुकुट थे, जिनके बारे में प्रसिद्ध था कि हरेक उनके आगे झुकता,मगर वे किसी के आगे नहीं झुकते थे। थोड़ा आगे वे तलवारें, भाले और धनुष–बाण थे, जिनसे दुश्मन की छाती छेदकर मान मर्दन किया गया था। वे शेर, चीते और दूसरे खूँखार जंगली जानवर थे, जिनका किसी–न–किसी राजा ने शिकार किया था। यह राजा का प्रताप होता था कि कोई उनके हाथों अगर मारा भी जाता था, दर्शनीय और इतिहास की धरोहर बन जाता। अलग–अलग आकार और डिजाइन की मदिरा की सुराहियाँ और प्याले थे, हालाँकि खाली थे। उगालदान था, जिसमें किसी राजा ने थूका था। पहली बार लगा कि महान लोगों का किसी में थूक देना भी उसे महत्त्वपूर्ण बना देना है।
रानियों–महारानियों के रत्न जडि़त लिबास रखे थे, वे दर्पण थे, जिनमें सज–सँवर कर हरेक रानी खुद को निहारती होगी और सोचती होगी कि राजा उसे निहारेगा तो कैसा लगेगा? कलात्मक ढंग से बने कई सिंगार दान थे। किसी सिंगारदान की अहमियत इस लिए नहीं थी कि कारीगर ने उसे कितने कलात्मक ढंग से बनाया था, बल्कि इसलिए थी कि अमुक रानी इसका प्रयोग करती थी। सोने और चाँदी के काम वाले छोटे–छोटे नोकदार जूते थे। ठीक उन दिनों,जिन दिनों छोटे–छोटे राजकुमारों के नन्हे–नन्हे पाँव इन सुन्दर–सुन्दर जूतों से सजे होंगे, देश का ज्यादातर बचपन गर्मियों में गर्म रेत पर नंगे पैरों जल रहा होगा, जबकि सर्दियों में ठंडी रेत पर ठिठुर रहा होगा।
वे महाकाव्य थे, जिन में कवियों ने राजाओं की वीरता के गुण गान किए थे। दूसरे राजाओं को लिखे पत्र रखे थे। वे हुक्मनामे थे, जिन्हें खास–खास मौकों पर जारी किया गया था। हरेक हुक्मनामे के नीचे उसे जारी करने वाले राजा के हस्ताक्षर थे।
राजघराने के अतीत के रू–ब–रू होते हुए यह विचार एकाएक आया कि मेरे पास अपने पूर्वजों से जुड़ी एक भी चीज नहीं है, हालाँकि होनी चाहिए थी। बेशक कोई बहुमूल्य चीज नहीं, मगर पूर्वजों का प्रयोग किया हुआ कुछ भी । पिता की पगड़ी या धोती का फटा–पुराना कोई हिस्सा। माँ का पहना कोई कपड़ा या चूड़ी का कोई टुकड़ा,या…नहीं,जेवर मिलने की कोई सम्भावना नहीं थी। माँ के पास कोई जेवर नहीं था। अपने बचपन का मिट्टी का कोई टूटा–फूटा खिलौना भी मिल सकता था।
जल्दी से घर पहुँचा और अतीत की कोई धरोहर खोजने लगा, मगर निराश हुआ, क्योंकि मिला कुछ भी नहीं। अलबत्ता तो गरीबी और अभाव कुछ भी बचा रखने की मोहलत नहीं देते, फिर यह भी याद आया कि पिता का बनाया झोंपड़ा तो पिछले दिनों आई बाढ़ बहा ले गई थी। इस नए झोंपड़े में पुराना कुछ मिले भी तो कैसे?
सब कुछ गँवा चुके व्यक्ति–सा दुख में डूबा था कि गाँव का साहूकार बगल में बही दबाए, आया।
‘‘शायद तुम्हें मालूम नहीं, तुम्हारे पिता की तरफ कुछ कर्ज बकाया है।’’ बही के पन्ने पलटते हुए उसने कहा, ‘‘लो, खुद देख लो। एक–एक पाई का हिसाब लिखा है। तुम्हारे पिता का अँगूठा लगा है।’’
मैं रोमांचित हो उठता हूँ। मेरे किसी पूर्वज का कुछ तो मिला। और कुछ नहीं तो पिता के अँगूठे का निशान ही सही। उतावला–सा अँगूठे का निशान देखता हूँ। जैसे हुक्मनामे के नीचे राजा के हस्ताक्षर थे, वैसे ही कर्ज के नीचे पिता का अँगूठा था। तो ऐसा था उनका अँगूठा! मुँह माँगी मुराद पाए इन्सान की तरह, खुशी से पागल–सा मैं, देर तक अँगूठे के निशान को देखता रहता हूँ। फिर थोड़े से मूलधन और बहुत से ब्याज के जोड़ को देखता हूँ। पैरों के नीचे की जमीन खिसकती–सी लगती है। साहूकार के ऋण से छुटकारा पाने के लिए पैसा था नहीं। मूलधन और ब्याज का जोड़ इतना था कि अपना झोंपड़ा बेचकर भी चुकाया जा नहीं सकता था।
अपने अतीत की किसी धरोहर को पाने के लिए कुछ ही देर पहले तड़प रहा था मैं।; लेकिन अब छटपटा रहा था कि साहूकार के पास गिरवी रखे अपने पिता के अँगूठे के निशान से छुटकारा मिले तो—-
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3-कटघरा
निर्मल बाबू रोज-रोज असंभव होते जा रहे उन नेताओं में से थे, जिनकी दुर्लभ प्रजाति लुप्त होने के कगार पर थी। दूसरे नेताओं के भ्रष्टाचार और घोटालों के किस्से उन्हें बेचैन कर देते थे। वे अक्सर कहते थे, ‘‘देख लेना जनता और देश के साथ विश्वासघात करने वालों को राष्ट् के भावी नागरिकों के सामने कटघरे में खड़ा होना पड़ेगा। हाँ,उन्हें अपने ही बच्चों के सामने अपनी काली करतूतों के लिए जवाबदेह होना पड़ेगा।’’
निर्मल बाबू राजनीति से संन्यास ले चुके थे,सचमुच ही उन्हें जवाबदेह होना पड़ा था। बेटे ने झुँझला कर उनसे पूछा था, ‘‘जिस समय दूसरे नेता देश के खजाने से अपनी जेबों को भर रहे थे,आखिर आप कर क्या रहे थे?’’ तो लज्जित से निर्मल बाबू से कोई जवाब देते नहीं बना था। वे कटघरे में थे।
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4-उतरन
बेशकीमती जेवर पहने,सुन्दर परिधान में सजी–सँवरी और गरिमामय ढंग से चलते हुए, वह अपना महलनुमा घर मुझे दिखा रही थी। उसके पीछे चलती चकित और संकुचित -सी मैं देख रही थी। एक दर्जन के करीब वे सभी कमरे वातानुकूलित थे। आधुनिक सुख -सुविधाओं और सम्पन्नता की प्रतीक सभी चीजें सभी कमरों में थीं। मकान में एक तरफ स्वमिंग पूल था, खेलने का मैदान था। पाँच कीमती गाड़ियाँ मैंने देखीं। नौकर–चाकर और माली अपने–आपने काम में व्यस्त थे। चौकीदार व अंगरक्षक चौकस निगाहों से इधर–उधर देख रहे थे।
वह मुझे अपने जेवर दिखाने लगी। जेवरों की सुन्दरता देख और इतनी अधिक कीमतें सुन मैं दंग रह गई। अचानक उसे कुछ याद आया, ‘‘अरे हाँ! वह दिखाना तो मैं भूल ही गई।’’ वह हाथ में चुनरी लहँगा और चोली लिये हुए थी।
तुमने फिल्म “घूँघट’’ का वह डांस तो देखा तो देखा ही होगा जो हीरोइन ने घूँघट के अन्दर क्या है? वाला गीत गाते हुए किया था क्या मदमस्त करने वाला डांस था। लोगों ने इसी एक डांस को देखने के लिए फिल्म को कई–कई बार देखा था।
मैंने हालाँकि फिल्म नहीं देखी थी, फिर भी अपनी इज्जत बचाने के लिए झूठ बोला, ‘‘हाँ–हाँ वह फिल्म मैंने देखी थी।’’
‘‘यही है। वे चुनरी, लहँगा और चोली, जिन्हें पहनकर हीरोइन ने वह डांस किया था। बहुत मुश्किल से इन्हें ले पाई थी मैं, क्योंकि इन्हें लेने की चाहत बहुत से धनवान घरों की औरतों में थी। लेकिन मैं तो घर से निश्चय करके गई थी कि चाहे कितने भी पैसे देने पड़े, लेकिन इन्हें लूँगी मैं ही। सबको पछाड़ते हुए सबसे ऊँची बोली देकर आखिर मैंने ही इन्हें लिया। सबको तो मैं यह दिखाती भी नहीं लेकिन तू तो मेरी बचपन की सहेली है ना, इसलिए दिखा रही हूँ’’
बचपन तो हम दोनों का साथ–साथ और अभावों में गुजरा था लेकिन अब….? अब वह कहाँ, मैं कहाँ! वह अर्श पर, मैं फर्श पर, वह धन से खेल रही थी मैं अभावों से जूझ रही थी। अब हमारे बीच कोई समानता नहीं थी, बल्कि बेहद सम्पन्नता और घोर विपन्नता के बीच पैदा होने वाली तमाम असमानताएँ थीं। लेकिन तमाम असमानताओं के बावजूद यह अद्भुत समानता थी कि उतरनें वह भी पहनती थी, हम भी। मगर कैसी समानता? हम छुपते–छुपते और यह देखते हुए कि कोई देख न ले, रेहड़ी मार्केट से सस्ती–सस्ती उतरनें खरीदते और हमेशा आशंकित रहते कि कोई जान न ले कि हम उतरन पहने हैं। जबकि किसी की उतरन वह मुझे गर्व से दिखा रही थी।
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5-स्वाभिमान
एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर के चक्कर लगाते-लगाते बेहद थक गया था मैं। बस अड्डा हालाँकि बहुत दूर नहीं था, मगर एक तो गर्मी फिर थकान की वजह से मुझमें पैदल चलने की हिम्मत रही नहीं थी। लाचार होकर मैंने रिक्शे वाले को पुकारा उससे वहाँ तक का किराया पूछा। उसने पाँच रुपये माँ गे। मैं, लेकिन चार पर अड़ा रहा।कुछ देर सौदाबाजी करने के बाद आखिर वह चार रुपये में मान गया।
रास्ता चढ़ाई का था और मौसम बेहद गर्मी का। सामने की तेज हवाओं ने उसकी दिक्कत और भी बढ़ा दी। उसके शरीर से पसीना चू रहा था और वह बुरी तरह हाँफ रहा था। उसकी स्थिति दयनीय थी। मैं द्रवित हो उठा, कैसे हाँफ रहा है बेचारा। इसे तो मुँह माँगे रुपये देने भी कम हैं। इस बेचारे को पाँच ही दूँगा। किराया चार तय हुआ तो क्या।
रिक्शे से उतरकर मैंने उसे पाँच का नोट थमाया और एक रुपया लौटाने की प्रतीक्षा किए बगैर चल पड़ा। उसने मुझे रोका, ‘‘साब एक रुपया लेते जाइये।’’
‘‘अरे रहने दे। तू पाँच ही रख ले।’’
‘‘लेकिन किराया तो चार रुपये तय हुआ था।’’ वह एक रुपया मेरी तरफ बढ़ाए हुए था।’’
‘‘क्या फर्क पड़ता है, तू रख इसे। तुमने किराया माँगा भी पाँच ही था।’’
‘‘माँगा तो था, पर आप राजी तो नहीं हुए थे। किराया अगर पाँच रुपये तय हुआ होता, तो मैंने ले लिया होता, लेकिन अब…’
‘‘अरे कोई नहीं, रख ले इसे। बख्शीश समझकर ही रख ले और नहीं तो।’’
‘‘उसका चेहरा उत्तेजना से तमतमा आया, ‘‘वाह साब, क्या खूब सोच है आपकी।
पहले मजदूर की लाचारी का फायदा उठाते हुए, उसकी मजदूरी कम तय कर उसका शोषण करना, फिर दान का टुकड़ा डाल उसे भिखारी बना देना…उसके श्रम का सम्मान तो नहीं देंगे आप, भिखारी का अपमान उसे जरूर देंगे।’’ उसकी आवाज में नफ़रत थी । उसने रुपया थमा दिया था।
वह चला गया। मैं अपराधी की तरह सिर झुकाए खड़ा था।
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