मैं बाबूजी के साथ बरसों-बरस रही। गर्मी हो बारिश हो या हड्डियों को भी ठिठुराती ठंडी हवा ,जब बाबूजी पैडल मारते तो मैं सरपट दौड़ती। इस घर ,उस घर, पेपर बाँट मैं और बाबूजी घर लौटते। जब तक बाबूजी दो निवाले गटकते मैं सुस्ता लेती। फिर हम दोनों दुकान की ओर भागते। जरा सी भी देरी हो जाए तो सेठ जी तनख्वाह काटने में जरा देर न करते।
पैडल मार-मार के बाबूजी की सांस धौंकनी सी चलने लगती पर क्या करते जिंदगी की गाड़ी भी तो चलाए रखनी थी।
बीतते सालों संग बाऊजी और मैं दोनों जंग खा रहे थे। बाऊ जी के कठोर परिश्रम से बच्चे अच्छे खासे कमाने लगे थे।
और समय के साथ सब कुछ छूटता चला गया। बस साथ रह गए मैं और बाबूजी।
बाबू जी की बढ़ती उम्र के साथ मेरी चिंता भी बढ़ रही थी। ट्रैफिक इतना फास्ट और ज्यादा है कि बाबूजी को कुछ हो गया तो…? बावजूद इसके मेरे तेल पानी और खुद की रोजी- रोटी के लिए दोनों ही दौड़ लगाते रहे..।
आज जिंदगी के बोझ से चरमराते मैं और बाबूजी हवा में बातें करती गाड़ियों के बीच तालमेल नहीं बैठा सके और तेज रफ्तार मोटरसाइकिल की चपेट में आ गए ।
…..बाबूजी मुझे तो थामे रहे पर अपनी साँसें न थाम सके।