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Channel: लघुकथा
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थाती

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गढ़वाली अनुवादः डॉ. कविता भट्ट

सैरू  सामान ट्रक म धरे गे छौ। कवि शिवा आज नयाँ मकान म जाणा छा, “अरी गुड़िया!” माँ न जोर से धै लगाई, “चल, सैरू सामान धरे गे।”

चार सालै गुड़िया मठु– मठु हिटिक भैर आणी छै। वींक झगुली कि झोळी उन्द गारा–ढुंगौं कु बोझ भुर्यूं छौ।

देखदु ई माँ खिजे, ” यु क्या?  ढुंगौं कु क्या कन्न? फुन्ड धोळ।” माँ न गुड़िया का सौब ढुंगा फोळी देनी। द्वी घड़ी गुड़िया ढुंगू बणी फोळयाँ ढुंगौं तैं दिखणी राई अर तब जोर-जोर सि रूंण लगी गे।

“क्य ह्वे, बाबा?”  पिताजी न खुखला माँ गाड़ी कि गुड़िया तैं पूछी।

गुड़िया रूंणी लगीं छै। माँ न अगिनें ऐकि बोलि, “देखा, तुमारी लाडी यूँ ढुंगौं तैं झगुली माँ भोरिक लिजाण लगीं छै। नयी झगुली भि बिगाड़ी याली।”

“हरे सरिता! कुछ त सोचदि वींका ढुंगौं फेंकण सि पैली। यु वींका बाल़ापन कि सम्लौंण च, तुमारा ट्रक–भरी सामान सि जादा कीमत च गुड़िया तैं यूँ ढुंगौं कि।”

सरिता न गुड़िया  तैं साँकि म भेंटी क बोलि, “मि तैं माफ करि दे बाबा, मिन त्वी तैं दु:ख द्याई।” अर तीन्नी मिलिक फुळीयाँ ढुंगौं उकन्न लगी गेनी। गुड़िया खुस ह्वे कि नाचणी छै।

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