डॉ उपेन्द्र प्रसाद राय की इन लघुकथाओं को किसी भी कहानी संग्रह के समक्ष रखकर देखिए, ये आपको कहीं भी कमतर महसूस नहीं होगीं। कहानी जीवन का एक टुकड़ा मात्र होती है। और यह टुकड़ा जीवन से अपनी अनिवार्य प्राकृतिक सन्नद्धता के बावजूद अपनी सीमाबद्धता में संपूर्णता का भी अहसास कराता है। इसका भी एक आरंभ और अंत होता है। जैसे मनुष्य का एक हाथ जिसकी अपनी खास संरचना होती है, जिसका अपना सौन्दर्य होता है, और जो अपने आप में एक संपूर्णता की भी अनुभूति देता है। इस सीमाबद्ध सौन्दर्य का अपना अप्रतिम आकर्षण होता है। इसी प्रकार लघुकथा में विस्तृत जीवन का लघुतम अंश होता है। समीक्ष्य संग्रह की किसी भी लघुकथा को ले लें, वह आरंभ से ही क्षिप्रता से अग्रसर होती है, और अपनी समाप्ति पर फाईनेलिटी का अहसास कराती है।फाईनेलिटी यह कि वह यहीं खत्म होती है; इसके आगे उसका विस्तार नही हो सकता । इसें मै सीमाबद्ध संपूर्णता कहूँगा। उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत संग्रह की प्रथम लघुकथा ‘चयन’ को ही लें। एक कहानी अपनी अपेक्षाकृत बड़ी आकृति में जितना कुछ महत्वपूर्ण कह पाती है उतना लघुकथा की अपेक्षाकृत छोटी आकृति भी सफलता पूर्वक अभिव्यक्त कर देती है। कैसे एक ईमानदार सरकारी कर्मचारी की मंगतेर उसे ठुकऱाकर भ्रष्टाचार द्वारा अर्जित सुख-सुविधाओं वाले कर्मचारी के संपर्क में आते ही उसका चयन कर लेती है। प्यार में पैसे का यह दुर्निवार हस्तक्षेप हर जगह मौजूद है, यहॉं तक कि पेशेवर भिखारियों के मध्य भी। यहॉं भी वही भिखारी चयनित होता है जो सबसे भ्रष्ट और सबसे अधिक पैसे वाला होता है। जीवन-मूल्यों का क्षरण समाज के रेशे-रेशे में व्याप्त हो चुका है, जहॉं ईमानदारी दो कौड़ी की है, जबकि भ्रष्टाचार विजयी होता है, पुरस्कृत होता है। और यह सब जीवन की भौतिकता के क्षेत्र में ही नहीं वरन तथाकथित प्यार और भावनात्मक समर्पण के क्षणों में भी घटित होता है। मै तो यहॉं यह भी कहना चाहूँगा कि उपरोक्त लघुकथा जिस क्षिप्रता से, जिस प्रभावोत्पादकता के साथ जितनी सफलतापूर्वक अपने सीमित शब्द दायरे में इतना कुछ कह लेती है, वह कहानी विधा के लिए एक चैलेंज ही है, क्योंकि वहॉं अपेक्षाकृत बड़ी आकृति में बिखराव की एक संभावना हमेशा बनी ही रहती है। लघुकथा विधा के इस सामर्थ्य और सौन्दर्य के उदाहरण ‘सर्वोत्तम लघुकथाएँ’ के नाम से प्रकाशित इस संग्रह में हर जगह उपलब्ध हैं। ऐसी लघुकथाएँ अपनी लघुता में विराटता के दर्शन कराती हैं।
लेखक की परिपक्व वैचारिकता इन कथाओ कीरीढ़ है। कथाओं में वैचारिकता के साथ संवेदनात्मकता का सही सम्मिश्रण उनकी सफल संरचना में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। यहॉं न भावों की नौटंकीबाजी है, न अखबारी खबरों के लघुकथात्मक संस्करणहैं, न समाज में रोज-रोज घटित होनेवाली अतिसाधारण घटना-दुर्घटनाओं की सस्ती रिपोटिंग है, और न कला को चोट पहुँचाने वाली उपदेशात्मकता का ही कोई आग्रह है। यहॉं संवेदनात्मकता के मांस,मज्जा, और रक्त-वाहिनी नसों के लिए वैचारिकता एक आधार उपलब्ध कराती है जिसके बिना कथा की ऐसी बेजोड़ संरचना संभव ही नहीं हो पाती। उदाहरण भरे पड़े हैं। कुछ का जिक्रभर ही इस छोटी-सी समीक्षा में संभव है। ‘जायज-नाजायज की प्रिया अपने पिता से कहती है,‘‘ यह बच्चा मेरी नाजायज संतान है। कुछ रोटियों और कपड़ों के लिए मैंइस आदमी के साथ सोती रही हूँ। लेकिन है तो यह अजनबी ही मेरे लिए। और में इसकी रंडी हूँ, शादी का नाटक सच्चाई को तो नही झुठला सकता है न। ’’ अगर प्यार किसी और से है और विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक कारणों से विवाह किसी और से करने की वाध्यता है तो प्रिया के उपरोक्त कथन की सच्चाई के लावा को महसूस किया जा सकता है। यहॉं वैचारिकता अपनी अहम भूमिका का निर्वाह करती है। वह कथा की आधार भूमि बन जाती है। संग्रह में यहॉं से वहॉं तक ऐसी विचारोत्तेजक लघुकथाएँ बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। ऐसी कथाओं मे रोज-रोज की साधारण -सी लगने वाली घटनाएँ असाधारण स्वरूप ग्रहण कर
लेती हैं और जीवन एंव समाज की सच्चाइयॉं विस्फोटक रूप में प्रस्तुत हो जाती है। इस संग्रह की ऐसी कथाएँ लघुकथा विधा की लंबी यात्रा और उस दौरान प्राप्त अमूल्य उपलब्धियों की दास्तान है।
डॉं राय का लघुकथा-संसार बेहद विस्तृत है। समाज में सैकड़ांे स्तर पर चलने वाला जीवन-व्यापार इस संग्रह में सफलतापूर्वक चित्रित हुआ है। कहीं-कहीं ऐसे चित्र विस्फोटक हो उठते हैं, जैसे ‘नृसिंह अवतार’ या ‘अंधा मनु और वह’ में। सामाजिक सरोकार में लेखक की गहरी संलिप्ति कथाओं के भीतर एक सशक्त अन्तर्घारा के रूप में प्रवहमान होती रहती है। ऐसा कहीं नहीं लगता कि टिप्पणी पात्र नही, लेखक दे रहा है। कथाओं पर एक सरसरी निगाह डालने से ही पता चल जाता है कि लेखक ने यहॉं जिस रंगमंच का सृजन किया है उस पर सारा समाज ही अपनी भूमिका अदा कर रहा है।
डॉं राय का शिल्प बहुआयामी है। ‘सड़क पर पिघलता कोलतार’ का अंतिम वाक्य है, ‘हवा जल रही है, धरती तप रही है ओर सड़क पर कोलतार पिघल रहा है। मैं आगे बढ़ जाता हॅँ”। यहॉं हवा की जलन, धरती की तपन, कोलतार का पिघलन ऐसी सामाजिक व्यवस्था के प्रतीक हैं जो मनुष्य को जानवर में तब्दील कर देती है। यह प्रतीकात्मकता कथा की प्रभावोत्पादकता को कई गुणा बढ़ा देती है। एक दूसरी कथा है, ‘ तुम अभी भी उतनी ही सुन्दर हो’। पृष्ठभूमि दार्जिलिंग की है। यहॉं कथावस्तुके ट्रीटमेंट में काव्यात्मकता का हस्तक्षेप है। जीवन भर के साथ संग और प्यार की इस कथा में काव्यात्मकता का स्पर्श इसे प्रभावी बनाता है। इससे गद्य में चार चॉंद लग जाते है। पंक्ति देखें-वृद्ध दंपति प्यार, शर्म, गौरव और कृतज्ञता से हॅंस पड़े। उसी समय बादलों को चीर कर धूप निकल आई और सारी बादियॉं हॅंस पड़ीं और हॅंसती हुई बादियों में देर तक यह गूंजता रहा- तुम अभी भी उतनी ही सुंदर हो”। डॉ राय का शिल्प बृहत् विष्लेषण खोजता है। छोटी-सी समीक्षा में यह संभव नही । इनकी लघुकथा में कही व्यंग्यात्मकता का प्रहार है, तो कहीं हास्य की चासनी है;कहीं लोगोंकी आपसी बातचीत की साधारणता का विशिष्ट अंदाज है तो कही बिजली के जीवंत नंगे तार के स्पर्श काआघात है।
मैं डॉ बालेन्दुशेखर तिवारी के इस मंतव्य से सहमत हूँ कि डॉ राय की लघुकथाएँ कथ्य और शिल्प, भाषा और विचार, संप्रेषण और चिंतन, लघुता और प्रभाव सभी स्तरों पर इस विधा के मानकों की प्रस्तावना करती है। कथ्य और शिल्प के कई नए आयाम उनकी कलम में मौजूद है।’ इसी प्रकार ‘शुक्रवार’ साप्ताहिक (दिल्ली) के मार्च-09 के अंक में बड़ी ही सटीक राय इनकी लघुकथाओं पर व्यक्त की गई थी-‘इन लघुकथाओं में….. कहीं बनावटीपन नही; थोपे गए निष्कर्ष नहीं। सब कुछ जीवन की गत्यात्मकता के समानांतर चलने वाला। सरल, सहज, इसलिए सुन्दर भी।’
‘सर्वोत्तम लघुकथाएँ के प्रकाशन पर एक सिद्ध किस्सागो को बधाई।
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पुस्तक डॉं उपेन्द्र प्रसाद राय की सर्वोतम लघुकथाएँ-प्रस्तुति प्रतिभा राय, पुराना एम.को.कैंपस, संदलपुर, महेन्द्रु- 800 006 पटना.प्रकाशक-सारस्वत प्रकाशन, मुजफ्फरपुर-842001 (बिहार)
प्रकाशन वर्ष -2016,मूल्य- 150.00 रुपये
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शशांक शेखर,मोकामा, पटना, बिहार
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लघुता में विराटता के दर्शन
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