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Channel: लघुकथा
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कलाकृति

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गढ़वाली अनुवादः  डॉ. कविता भट्ट

रेलवे स्टेशन क विश्रामघर क भैर बण्याँ चबूतरा माँ वु नी दिखे, त वु डरि गे। अबि ब्याळि त त वु इक्खि छौ!

पिछला कै मैंनों बिटि वु ये दरवेश भिकारी तैं दिखणू छौ। वु पैली गाड़ी सि अपडी ड्यूटी पर जाँदू । वु एक चित्रकार च अर अपड़ा रंग  अर ब्रुश दगडा ई रखदु।

वु भिकारी कै मन बि कुछ नी माँगदु। बस जु मिल जाउ वी खै लेंदु। अळगसी सी, न नहेण क इच्छा, न दाँत मंजन-कुल्ला कन्न कु मन। सदानी माटा  माँ भ्वर्यूं सी रैंदु। आण-जाण वळौं की तरफाँ टेवा आँख यूँ न दिखदु रैंदु। सिक्का मुंजरा सुंदर, आँख्यूँ  माँ कुजणी कन चमक। पता नि किलै वु जीवन सी हार माणि गे। चित्रकार वे तैं रोज देखदु। वे का मन माँ वे कु चित्र बणौण क इच्छा छै। ब्याळि वे थैं समय मिलि ग्याई। गाड़ी आधा घंटा लेट छै। वु वे का नजदीक एक बैंच पर बैठ ग्याई अर वेकी तरफ देखिक ब्रुश चलाण लगी गे ।

चित्रकार थैं बार-बार अपडी तरफाँ जुळमंडी मर्दु देखि क, भिखारी चिरडे़ गे, “क्य छाँ कन्ना ? मि थैं किलै छाँ घुन्ना ?”

“कुछ ना, कुछ ना…बस…।”

पंद्रा मिन्ट माँ ई  चित्र बणै कि चित्रकार न वे थैं दिखै त वेन बोली , “यु को च?

“यु त तुम्मि छाँ। तुमारू ई चित्र च यु…तुमरी फोटो।”

“मि इतगा सुंदर!” वु चाव से उठिक बैठी गे।

“हाँ, तुम त याँ से बि सुंदर छाँ …भौत सुंदर।”

अर आज भिकारी थैं इकम नि देखिक , चित्रकार न वे का बारा माँ स्टेशन मास्टर सि पूछ़ी।

“ब्याळि आपक जाण क बाद वु नळ नीस नहेक मी मूँ ऐ छौ।  मिन अपणु पुराणू सूट वे थैं पैन्नौ कु दे द्याई। सूट पैरी क वु भौत खुस ह्वे।”

“पर वु गे कख च ?”

“वु देखा, स्टेशन पर नयु फर्श लगणू च। वु उक्खि मज़दूरी कन्नु च।”

चित्रकार न अपड़ी ज्यूँदी -जागदि कलाकृति की तरफ देखी अर मुल मुल हैंसण बैठी ग्याई।


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