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लघुकथाएँ

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dr-harish-naval1-संस्कार
‘‘हम सांस्कृतिक कविता के पोषक हैं, हमने एक दल ऐसे नए प्रतिभाशाली कवियों का बनाया है,जिनका लेखन बहुत श्रेष्ठ है और कविता पिछले कवि सम्मेलनों की छवि को सुधारने की क्षमता रखती है’’, कहकर प्रोफेसर महेश्वर ने उस बड़े संस्था के सम्मेलन आयोजक की निगाहों में झांककर अपने प्रति बने विश्वास को पहचान लिया और संतोष की साँस ली।
आयोजक ने कहा, ‘‘आप ही क्यों न इस बार हमारे लिए कवियों को तय कर लें और हमें दस ऐसे आदर्श कवि दिला दें, जो आपके जैसे संस्कारी और निष्ठावान हों।’’
‘‘अवश्य मुझे प्रसन्नता होगी तभी माहौल बदल सकेगा’’ प्रोफेसर महेश्वर ने सुसांस्कृतिक मुस्कान बिखेरते हुए कहा।
कवि–सम्मेलन का समय समीप आया, सम्मेलन आयोजक श्री मनोज जी ने प्रोफेसर महेश्वर को बुलाया और उन्हें पचास हजार रुपये से भरा लिफाफा सौंपते हुए निवेदित किया कि वे उपर्युक्त कार्य समय से संपन्न करा दें।
घर लौटकर प्रोफेसर महेश्वर ने लिफाफे में से आधे रुपये निकालकर अपनी सेफ में रखे और शेष आधे लेकर अपने दस संस्कारी कवियों की खोज में निकल गए।
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2-सैम्पल
मनोहर एक बड़े दफ्तर में छोटा कर्मचारी था। हिंदी कार्यशाला रूचि रजिस्टर में उपस्थिति दर्ज करने और बेहतर नाश्ता मिलने के कारण थी।
इस बार भी नाश्ते का डिब्बा राजधानी के सबसे प्रसिद्ध हलवाई की दुकान से आया था। दो तरह की रसीली मिठाई, पनीर का पकौड़ा , खस्ता कचौड़ी, चिप्स और सॉस के पैकेट थे।
सब नाश्ते का आनन्द ले रहे थे। अचानक मनोहर की आवाज गूंजी ‘‘कौन लाया था यह मिठाई, इसमें बाल है, हमें नहीं खानी।’’ संयोजिका ने विशिष्ट अतिथियों के समक्ष संयत स्वर में कहा, ‘‘कहीं से बाल गिर गया होगा। आप कृपया दूसरा डिब्बा ले लें।’’ और उन्होंने मनोहर को दूसरा डिब्बा दे दिया।
गम्भीरता से डिब्बा उपयोग करने के बाद मनोहर ने ऊँचे स्वर से संयोजिका से कहा, ‘‘मैडम! बाल वाला डिब्बा मुझे दे दीजिए। इसका सैंपल चैक करवाऊँगा स्वास्थ्य विभाग तक शिकायत पहुँचाऊँगा, देख लूँगा हलवाई को जिसने ऐसा गलत कार्य किया। क्या समझ रखा है हमारे स्वास्थ्य को?’’
विशिष्ट अतिथियों के सामने संयोजिका ने बिना कुछ कहे पहले वाला डिब्बा मनोहर को पकड़ा दिया।
मैं एक विशिष्ट अतिथि के साथ था, लौटते हुए कार पार्किंग से कार निकाल रहा था। मैंने साफ–साफ देखा साथ के साइकिल स्टैण्ड पर अपनी साइकिल के कैरियर पर बाल वाला डिब्बा रख मनोहर लाल बहुत ही मनोयोग से उसका उपभोग कर रहा था।

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3-लाठी

छोटेलाल को सैर की आदत थी, रोज सुबह शहर की सीमा तक लगभग दो मील घूमने जाता था। शहर के बाहर छोटा–सा जंगल था, छोटेलाल का मन करता कि वहाँ घूमने जाए, किंतु वहाँ कुो बहुत थे। बचपन से ही छोटेलाल कुाों से बेहद डरता था। मन की इच्छा उसने एक सयाने को बताई, सयाना बहुत सयाना था। उसने कहा, ‘‘ कुाों से कभी डरो नहीं, जितना डरोगे उतना ही वे तुम्हें परेशान करेंगे, लाठी आत्मरक्षा के लिए और कुछ रोटियाँ कुाों को डालने के लिए ले जाना, पहले लाठी दिखाना, फिर रोटियाँ डाल देना, वे कुछ नहीं कहेंगे, फिर आनंद से ूमना।’’
लाठी और रोटी लेकर छोटेलाल अगली सुबह ही शहर के बाहरी जंगल में गया। कुत्तों ने दूर से देखा, भौंकने लगे। फिर तेजी से जीभ लपलपाते छोटेलाल के पास आए, छोटेलाल ने लाठी ऊँची की, कुो पीछे हटे, छोटेलाल ने रोटी के टुकड़े डालने शुरू किए, कुत्तों ने दुम हिलानी आरंभ की।
छोटेलाल अब हर सुबह वहीं घूमने लगा, कुो उसे देखते ही आते और दुम हिलाते हुए उसकी दी हुई रोटियाँ खाते। धीरे–धीरे छोटेलाल ने लाठी ले जानी भी बंद कर दी,तब भी कुत्ते दुम हिलाते। कभी–कभी वह रोटी नहीं भी लेकर जाता ,तो भी कुत्ते उसके चारों ओर खुशी से मँडराते।
एक दिन छोटेलाल बीमार पड़ गया और बहुत दिनों तक घूमने नहीं गया। उसकी बीमारी के दिनों में उसका मित्र रतनचंद उसकी लाठी लेकर शहर के बाहर घूमने जाता रहा।
,जब छोटेलाल स्वस्थ होकर एक सुबह घूमने निकला और शहर के बाहर पहुँचा तो उसने देखाकि कुत्ते रतनचंद के सामने दुम हिला रहे हैं;जो छोटे लाल की लाठी लिये था और छोटेलाल के पहुँचते ही वे कुत्ते भौंकते हुए छोटेलाल को काटने के लिए दौड़े।
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4-गृहप्रवेश

बाबू रामदीन ने छब्बीस वर्ष तक क्लर्की करते–करते एक छोटा–सा फ्लैट किसी तरह से अपने नाम कर ही लिया–अपने नाम भी क्या, वास्तव में तो उस बैंक के नाम ही अभी हुआ, जिसने रामदीन को चौदह प्रतिशत ब्याज की दर से फ्लैट खरीदने का पैसा दिया था।
बाबू रामदीन और उसका परिवार अभी वर्षों से एक कोठरीनुमा कमरे में रहने की विवशता को तोड़कर फ्लैट में तब नहीं रह सकता था जब तक कि आगामी नौ वर्ष तक वे उसे किराए पर चढ़ा ऋण चुकता न कर दें।
फिर भी गृह–प्रवेश का एक छोटा-सा उत्सव तो रामदीन और उनकी पत्नी करवाना ही चाहते थे। पचास व्यक्तियों को निमंत्रित करने के विचार को छोटा करते–करते वे केवल दस तक आ गए, जिनमें से, उनकी पत्नी ओर दोनों बच्चे भी सम्मिलित थे, शेष छह में उनके मित्र दीपक मल्होत्रा का परिवार था। दीपक मल्होत्रा शहर में एक प्राइवेट टैक्सी चलाता था। उसका परिवार भी इसलिए ताकि घर से फ्लैट तक की छब्बीस किलोमीटर की दूरी को शान से और सरलता से तय किया जा सके।
पंडितजी ने बताया कि तारा तेरह मई को डूब जाएगा, उससे पहले–पहले मुहूर्त करवा लिया जाए तो परिवार खुशियों से भरपूर रहेगा।
सात मई का सख्त लू से भरा दिन,तिस पर पंडितजी ने झुलसती दोपहर के दो बजे का ही मुहूर्त गृह–प्रवेश के लिए सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया था।
पंडितजी तेा फ्लैट के समीपवर्ती मंदिर में ही रहते थे, अत: उन्हें सिर पर गीला तौलिया और बगल में प्याज की गाँठ दबाकर आने पर गर्मी का असर नहीं हुआ, परंतु मल्होत्रा की ठसाठस भरी हुई एंबसेडर टैक्सी की ठीक से बंद न होने वाली खिड़कियों से आ रहे लू के थपेड़ों से रामदीन का तेरह वर्षीय एकमात्र पुत्र रामेश्वर फ्लैट पर पहुँचते–पहुँचते भारी सिर दर्द की शिकायत कर गरम फर्श पर ही लेट गया। हवन आरंभ्ल होने पर कुंड से निकल रही ज्वालाएँ मानो उसे अपनी ओर लपकती हुई लगीं। विचार भी हुआ कि रामेश्वर को किसी पड़ोसी के घर पंखे या कूलर की हवा में लिटाकर डॉक्टर को बुलवाया जाए:परंतु पंडितजी का कथन और रामदीन की बीवी का आग्रह कि पुत्र के हाथों हवन में अवश्य आहुति देनी चाहिए, उसकी उपस्थिति अनिवार्य है। इससे विचार ठंडा पड़ गया । उधर रामेश्वर की बेचैनी बढ़ने लगी।
दो घंटे दीर्घ अनुष्ठान के बाद घर की ओर लौटते समय भी गर्मी और लू का प्रकोप कम नहीं हुआ था। रामेश्वर के चलती टैक्सी में ही कै करना आरंभ कर दिया था…तेरह मई का तारा पता नहीं डूबा कि नहीं डूबा पर बाबू रामदीन का परिवार अवश्य डूब गया। गृह–प्रवेश के हवन में सा़क्षात् रामेश्वर की ही आहुति जों उस दिन दे दी गई।
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