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लघुकथा:परिपक्व विधा

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हिंदी गद्य साहित्य की एक सशक्त और स्वतंत्र विधा लघुकथा के नाम से इंगित है ‘लघु आकार की कथा।’ कथा के कुल की यह सबसे छोटी परंतु एक अहम इकाई है, जिसका मूल कथा -तत्त्व ही है और जिसका अपना एक अलग अस्तित्व है। अपने रूप- गठन की दृष्टि से आज यह एक परिपक्व विधा बनकर हमारे सामने है। हर नई विधा में हाथ आजमाने का आदी यदि इस भ्रम के साथ इसे लिखना चाहे कि यह तो छोटी- सी कहानी है, बड़ी आसानी से लिखी जाएगी, मेरे विचार से वह कुछ भी हो, लघुकथा तो कभी नहीं बन सकेगी।

लघुकथा क्षणिक इन्द्रिय बोध की नींव पर निर्मित कथ्य का वह भवन, जिसमें जहाँ- तहाँ व्यर्थ के झरोखे नहीं होते, एक ही खिड़की से प्राणवायु हर कोने में पहुँचती है।

लघुकथा को समर्पित विभूति स्मृतिशेष डॉ. सतीश राज पुष्करणा इस विधा के उत्कर्ष के लिए निरंतर प्रयासरत रहे। उनका यह अभूतपूर्व योगदान अविस्मरणीय है।

लघुकथा को शीर्ष पर पहुँचाने का भगीरथ संकल्प लेने वाले साहित्य के साधक सुकेश साहनी व रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ द्वारा सम्पादित- लघुकथा को अपनी परिधि से बाहर लाकर उसे विस्तार देने वाली विश्व की एकमात्र वेबसाइट ‘लघुकथा डॉट कॉम’ पर प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की लघुकथाएँ पढ़ने का संयोग जितना सुखद रहा, उन्हें समझना उतना ही कठिन। एक बार शुरू से आखिर तक पढ़कर लगा- कुछ छूट गया, दुबारा पढ़कर लगा- अभी भी कुछ शेष है, और इस तरह तीसरी, चौथी, पाँचवीं बार पढ़कर उसका निहितार्थ समझ आया।

वास्तव में एक लघुकथा अपने सूक्ष्म आकार में व्यापक अर्थ प्रकट करने की सामर्थ्य रखती है, जिसके भीतर एक और अर्थच्छाया दिखाई देती है। लघुकथा को पढ़ने के लिए आँखों को माइक्रोस्कोप जैसी क्षमता चाहिए; क्योंकि जो कुछ नंगी आँखों से देख पाना असम्भव है, लघुकथाकार उसी एक परिस्थिति विशेष के एक क्षण विशेष को उभारकर सबके सामने रख देता है, गिनी- चुनी शब्द- रेखाओं के द्वारा।
स्थूल से सूक्ष्म की ओर लघुकथा का एक आवश्यक सूत्र है, जिसमें बँधकर ही वह अपने उद्देश्य में पूर्ण हो सकती है। अनावश्यक ब्यौरे, भारी- भरकम भाषण, बड़े- बड़े उपदेश का इसमें कोई भी स्थान नहीं, अतिरिक्त विवरण की इसमें स्वतंत्रता नहीं है। एक संकेत भर पर्याप्त है सब कुछ कह देने के लिए।
लघुकथा का वैशिष्ट्य यह है कि सीमित शब्दों में किसी विचार की अभिव्यक्ति, किसी सत्य के उद्घाटन की प्रक्रिया इस प्रकार होती है, जैसे साफ आसमान में अचानक बिजली कौंध गई हो, जैसे शांत समुद्र में ज्वार- भाटा उठा हो।

इस विधा की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अत्यल्प साधनों में अभीष्ट को अभिव्यक्त करना है। कहानी जितनी सुविधा इसमें नहीं मिलती। अभिव्यक्ति की यात्रा में कहानी अगर एक लम्बा- चौड़ा राजमार्ग है, तो लघुकथा एक पतली पगडण्डी, जिस पर सावधानीपूर्वक सधे कदमों से चलते हुए ही अपने उद्देश्य तक पहुँचा जा सकता है। यही कारण है कि प्रत्येक अच्छा साहित्यकार एक अच्छा लघुकथाकार नहीं बन सकता।

लघुकथा जगत् में डॉ. सुषमा गुप्ता एक संवेदनशील लघुकथाकार हैं, जिनकी लघुकथाएँ भाषा, भाव, शिल्प, शैली की दृष्टि से बेजोड़ हैं। मेरी पसंद के अंतर्गत प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा- ‘ब्रेकिंग न्यूज’

आज के समय में आदमी को जितनी अभिव्यक्ति की आजादी मिली है, उतना ही वह अपने मानवीय गुणों के बन्धन से भी मुक्त हो गया है। किसी दूसरे के प्रति दया, करुणा जैसे संवेग अब उसके भीतर नहीं रहे। वैज्ञानिक युग में तकनीक के सहारे जीने का अभ्यस्त हो चुका आदमी भी आज एक यंत्र बन गया है।
किसी के मरने- जीने का अब उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पत्थर में प्रभु की प्रतिष्ठा हुई; परंतु धीरे- धीरे आदमी पत्थर हो गया, भावशून्य हो गया, या यों कहें कि उसके भीतर के मानव की मृत्यु हो गई। विज्ञान ने जितनी तरक्की की है, उतना ही मानवता का स्तर लगातार गिरता चला जा रहा है।
पहले एक समय था, जब कोई दूर- दराज से आया व्यक्ति किसी मुहल्ले में रहने वाले अपने परिचित का पता सड़क पर किसी से पूछता था, तो लोग उसे ससम्मान घर तक छोड़कर आते थे, और आज तो मोबाइल ही बातों, मुलाकातों का खास अड्डा बन गया है। हर अवसर के लिए एक इमोजी भेज दो जी। पहुँच गई बधाई। सारे तीज- त्योहार डिजिटल हो गए हैं। फिर भी किसी कारणवश यदि किसी के घर जाना ही पड़े, तो जब तक मोबाइल पर लोकेशन नहीं भेजी जाएगी, घर ढूँढा ही नहीं जा सकता। फेसबुक, व्हाट्स ऐप पर कौन कितने समय तक ऑनलाइन था और कब ऑफलाइन हुआ, ये सबको पता रहता है; मगर पड़ोस में रहने वाला एक व्यक्ति कब बीमार हुआ और कब मर गया किसी को पता नहीं होता। मशहूर अदाकारा परवीन बॉबी का शव दो दिन बाद उन्हीं के घर से सड़ी- गली हालत में बरामद हुआ और आसपास में किसी को भी इसके बारे में कुछ पता नहीं चला।
समाज में घटती ऐसी और भी न जाने कितनी घटनाएँ टी. वी. एवं समाचारपत्रों के माध्यम से आए दिन देखने- सुनने को मिलती हैं, जिनके बारे में जानकर दिल दहल जाता है।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री ‘मैकाइवर व पेज’ ने समाज को परिभाषित करते हुए कहा था- “समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।”

ये घटनाएँ हमें यह बताती हैं कि आज का समाज सामाजिक सम्बन्धों के उस जाल को काटकर, हर किसी के प्रति उदासीन होकर अपने आप में कितना सिमट गया है।

डॉ. सुषमा गुप्ता ने अपनी इस लघुकथा में आज के समाज की एक ऐसी तस्वीर दिखाई है, जिसमें उन्नति की ओर भागते- दौड़ते आदमी के चेहरे से उपेक्षा झलकती है, जो दूसरों के लिए कठोर, निर्मम और संवेदनहीन है। ऐसा आदमी आज हर गली- चौराहे पर घूमता- फिरता दिखता है। किसी की मौत उसके लिए दुखद घटना नहीं,, बल्कि एक तमाशा है, जिसका खड़े- खड़े वह आनंद लेता रहता है।
एक व्यक्ति के गाड़ी में जलकर मरने की सूचना पर पुलिस घटनास्थल पर पहुँचकर पूछताछ करती है। पाँच- पाँच चश्मदीदों से यह प्रश्न पूछे जाने पर कि उन्होंने उसे बचाने का कोई प्रयास क्यों नहीं किया, इस पर वे जिस सहजता से उत्तर देते हैं, उसे सुनकर दुनिया में यदि कहीं भी थोड़ी- सी मानवता बची हो तो वह शर्म से जमीन में गढ़ जाए-
“तो आप सब खड़े देखते रहे?”
“नहीं सर! हमने वीडियो बनाई है न। अलग-अलग ऐंगल से। आजकल बहुत डिमांड है ऐसे वीडियो की मीडिया में।”
यह उत्तर पाठक की आत्मा को बुरी तरह से झकझोर कर रख देता है। वह रोष से भर उठता है कि मौत के मुँह में जा रहे व्यक्ति को बचाने के बजाय मरते हुए उसका वीडियो बनाते लोगों का जरा भी दिल नहीं पिघला? क्या उनके सीने में दिल नहीं है? क्या वे इंसान हैं?
लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्मी है, वही विसंगति इस लघुकथा में दिखती है कि किस प्रकार आज का आदमी संवेदनहीन हो गया है। 

मेरी पसंद में दूसरी लघुकथा है डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’ की ‘गाइड’

वर्तमान में शिक्षा के केंद्रों में जिस प्रकार की स्थिति है, इस लघुकथा को पढ़कर अच्छी तरह से जाना जा सकता है। शिक्षा के केंद्र जो कभी मंदिर माने जाते थे, उनका वातावरण अब कितना कलुषित हो गया है, यह एक कोरी कल्पना नहीं, एक कटु सत्य है।
गाइड का अर्थ है- मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक। जब पथ प्रदर्शन करने वाला ही पथभ्रष्ट होकर राह का रोड़ा बन जाए, तो अनुगामियों का अपने लक्ष्य तक पहुँचना पहाड़ चढ़ने से भी कहीं अधिक जटिल कार्य हो जाता है।
उच्च शिक्षा के लिए शालिनी जैसी स्त्रियों को जो प्रयास करने पड़ते हैं, उससे पहले उन्हें अपने आत्मसम्मान को बचाए रखने की हर रोज क्या, हर क्षण परीक्षा देनी पड़ती है। शालिनी के शब्दों में-
“अरे क्या बताऊँ, तूने नहीं देखा क्या? पहले तो वह अच्छे से बात करता रहा, लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह मुझे कहाँ- कहाँ और किस तरह देख रहा था, यह मुझसे ज़्यादा कौन जान सकता है।…

स्त्री को वेदों में देवी की मान्यता दी गई। मानवीय दृष्टिकोण से भी वह पूजनीय है;  क्योंकि वह पुरुष की जननी, सहोदरा, आत्मजा है। ये सभी सम्बन्ध पूर्णत: पवित्र हैं, जिन्हें अब पुरुष कलंकित कर रहा है।
एक स्त्री को कहाँ- कहाँ और किस तरह से देखने का संकेत- शिक्षा संस्थानों में मौजूद निर्लज्ज गाइड की किसी सड़कछाप मनचले की तरह घटिया करतूत का सबूत है, जो शिष्टता की श्रेणी में कतई नहीं आती। खेद है कि ऐसी ओछी मानसिकता वाले प्रतिष्ठित संस्थानों में जमे बैठे हैं।
बड़े दुख और शर्म की बात है कि उच्च शैक्षणिक पदों के लिए पीएच डी की अनिवार्यता के चलते आज अधिकतर गाइड अपनी गैर- शैक्षणिक माँगों की पूर्ति के उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही उन्हें निश्चित समयावधि में शोध कार्य पूरा कराने का प्रलोभन देते हैं।
इस प्रकार की अनैतिक माँगों का विरोध करने वाली व किसी भी प्रकार के प्रलोभन के आगे कभी न झुकने वाली स्वाभिमानी स्त्रियों में प्रतिभा होते हुए भी उन्हें उस पद तक नहीं पहुँचने दिया जाता, जिसके योग्य वे हैं। उन्हें जान- बूझकर किनारे कर दिया जाता है। धरातल पर स्त्रियों की ऐसी स्थिति को देखकर ये आकलन किया जा सकता है कि नारी सशक्तीकरण की जितनी भी पहल है, वह केवल और केवल कागजों में ही हो रही है।
कुछ इस तरह के अराजक माहौल से ऊबकर खुद ही अपने सपनों को छोड़कर घर बैठ जाती हैं और कुछ अंत तक एक अंतहीन संघर्ष करती रहती हैं और अपने जीवन को स्वाहा कर देती हैं।
डॉ कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’ के शब्द- संयोजन में एक चुम्बकीय बल है, जो आरम्भ से ही आँखों पर अपनी पकड़ कसकर बनाए रखता है। यह न केवल अंत में विस्मित स्थिति में लाकर छोड़ता है, बल्कि एक गहरे अर्थ- बोध से जोड़ता है।
उनकी यह लघुकथा शिक्षण- संस्थानों में पदस्थ उन लोगों का मुखौटा उतारकर उनकी वास्तविकता को दिखाती है, जो किसी मंच पर आकर तो अपने मुँह से नारी के प्रबल पक्षधर बनकर उसके हित में लम्बे- चौड़े ऐतिहासिक वक्तव्य देकर महान बनने का ढोंग करते हैं ; परंतु अपनी आँखों में उसके लिए ओछी दृष्टि और अपने मन में उसके लिए छिछली सोच रखते हैं।
गाइड के इस तरह के दोरंगे व्यवहार से आहत होकर कई शोधार्थी तो अवसाद में चले जाते हैं, आत्महत्या की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि आत्महत्या करके अपना जीवन खत्म कर लेते हैं, यह एक बहुत बड़ी त्रासदी है।
ऐसे मामलों की तह में जाएँ, तो पाएँगे कि देशभर के कई विश्वविद्यालयों में शोधार्थियों ने अपने गाइड के विरुद्ध यौन -शोषण की शिकायतें दर्ज करवाईं।
शोध छात्रों का मानसिक, शारीरिक शोषण उनका तनाव में आकर आत्महत्या कर लेना और देशभर के उन कुलीन संस्थानों पर शोषण और आत्महत्या के मामले दर्ज होने के बावजूद कोई कार्रवाई न होना,
संस्थान में कार्यरत उन शोषक गाइड की गुंडागर्दी का नमूना है।
एक उत्कृष्ट लघुकथा की विशेष बात यह है कि क्षण की अनुभूति आरम्भ से ही भले कटु रही हो, मगर उसका अंत सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में पाठक को आश्वस्ति की ओर ले जाने वाला हो।
शालिनी का कथन- “दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है, इन जैसों को सबक़ हम ही सिखाएँगे।” शैक्षिक वातावरण में फैले संक्रमण से स्वयं को सुरक्षित रखकर आगे बढ़ने के लिए एक नई चेतना का संचार करते हुए जीवन में कभी न हारने के संकल्प को दृढ़ करता है। यही जीवन है।
स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है-उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।
अपने उद्देश्य में ये पूरी तरह से सफल लघुकथाएँ हैं। ‘मेरी पसंद’ आपकी पसंद बने, ऐसी आशा है।

1-ब्रेकिंग न्यूज- डॉ. सुषमा गुप्ता

“साहब ये तो मर चुका है। बुरी तरह जल गई है बॉडी और कार भी बिल्कुल कोयला हो रखी है। आग तो भीषण ही लगी होगी।” कॉन्स्टेबल रामलाल अपने इंस्पेक्टर साहब से हताश- सा बोला। बहुत भयानक बदबू फैली थी माँस जलने की। वह बदबू से बेहोश होने को था। फिर भी बड़ी हिम्मत से उसने जाँच की।
“अरे पूछ तो रामलाल आसपास के लोगों से, कुछ देखा इन्होंने” इंस्पेक्टर साहब गरजकर बोले।
भीड़ में से एक आदमी बोला- “सर कुछ क्या सब कुछ देखा। दस मिनट में तो पूरी तरह से सब जलकर राख हो गया। हम पाँचों यहीं थे तब।”
“आप क्या कर रहे थे पाँचों यहाँ। आपने कोशिश नहीं की आग बुझाने की?”
“सर हम आग कैसे बुझाते?”
“तो आप सब खड़े देखते रहे?”
“नहीं सर! हमने वीडियो बनाई है न। अलग-अलग ऐंगल से। आजकल बहुत डिमांड है ऐसे वीडियो की मीडिया में।”
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2-गाइड / डॉ.कविता भट्ट

भोजनावाकाश में भी ‘नारी स्वतन्त्रता और सम्मान’ विषय पर कुछ चर्चा चल रही थी। प्रो. शेखर कुमार कुछ बोले जा रहे थे। डायनिंग टेबल पर उनके ठीक सामने बैठी सुन्दर गौरवर्णा शालिनी ने साड़ी का पल्लू कसते हुए, उसकी ओर आग्नेय दृष्टि से घूरकर देखा। शेखर कुमार हड़बड़ा गया।
शालिनी गुस्से में तिलमिलाती एकदम खड़ी हो गई और पास ही में बैठी अपनी सहेली निशा से बोली, “चल यार!”
“क्या हुआ” -निशा ने आश्चर्य से पूछा
“उठो भी” -शालिनी ने उसको उठाते हुए कहा और आगे बढ़ गई। निशा हडबडाकर उठी और उसके पीछे चल पड़ी।
“शालिनी, तुम्हें क्या हुआ अचानक!” निशा ने फुसफुसाकर पूछा।
“मैं तो इस प्रोफेसर से कुछ पूछना चाहती थी, लेकिन यह तो बहुत कमीना निकला।”
निशा बोली, “अरे यार! अचानक तुझे क्या हुआ? बता तो सही, कुछ किया क्या उसने?”
शालिनी बोली, “देख यार, मेरा रिसर्च में दूसरा साल है, मैंने सोचा- यह प्रोफेसर मंच से महिला स्वतंत्रता एवं सशक्तीकरण पर बड़ा अच्छा लेक्चर दे रहा था, तो इससे रिसर्च के कुछ कॉन्सेप्ट क्लियर करूँ।”
निशा बोली, “तो इसमें क्या बुराई है, बात कर लेती तू।”
शालिनी बोली, “अरे क्या बताऊँ, तूने नहीं देखा क्या? पहले तो वह अच्छे से बात करता रहा, लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह मुझे कहाँ- कहाँ और किस तरह देख रहा था, यह मुझसे ज़्यादा कौन जान सकता है। फिर मेरी ओर अर्थपूर्ण ढंग से देखते हुए उसने यही तो कहा था- आप तो बहुत ही स्मार्ट हो, आपकी रिसर्च तो चुटकियों में पूरी हो जाएगी, बेहया कहीं का!”
निशा बोली, “चल यार, मैंने भी कई बार ऐसे प्रोफेसरों को झेला है, जो बहुत बड़ी-बड़ी बात करते हैं मंच से, शास्त्रों के उदाहरण देते हैं। ये और कुछ नहीं वास्तव में भेड़िए हैं। न चाहते हुए भी सिस्टम में ऐसे ही लोगों की गाइडेंस में रिसर्च करनी पड़ती है।”
“दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है, इन जैसों को सबक़ हम ही सिखाएँगे।” अपने कमरे में जाने से पहले शालिनी ने पीछे मुड़कर देखा, शेखर कुमार के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

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