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लघुकथाएँ

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1- ऐसा नहीं देखना

बैग को मेज पर रखकर वह सोफे पर निढाल बैठ गया। दिमाग अभी भी भन्ना रहा है।  

पत्नी भीतर से गिलास में पानी लेकर आ गई।

“रख दो।” मेज की तरफ इशारा कर वह बोला।

पत्नी ने पानी का गिलास मेज पर रखा, “क्या हुआ?”

वह कुछ नहीं बोला। उसे लगा कि दिमाग की नसें फट पड़ेंगी।

“बताओ ना… क्या हुआ?” पत्नी ने फिर पूछा। ”       

“आजकल के लड़कों में कोई मैनर्स नहीं रहा।”      

“मतलब?” 

वह चुप रहा। कुछ नहीं बोला। बताएगा तो नाहक ही पत्नी चिंता करने लगेगी। वैसे ही शुगर की पेशेंट है।     

“चाय पिला दो।” उसने कहा। 

“बनाकर लाती हूँ।” कहकर पत्नी किचन में चली गई। 

सोफे पर बैठे-बैठे उसने अपनी दोनों आँखें बंद कर लीं। अपने घर से चालीस किलोमीटर दूर ऑफिस अप-डाउन करते समय ऐसे किस्से अमूमन देखने को मिलते हैं। फिर से आज हुई घटना चलचित्र की तरह चलने लगी। सामने वाली सीट पर बैठे दो लड़के… सुमित की उम्र के… मोबाइल पर कुछ देख रहे हैं… ईयर फोन लगाकर… कुछ अश्लील-सा… उसकी बगल में बैठी हुई लड़की को भद्दे-भद्दे कमेंट करते हुए… लड़की विचलित है… अपनी आँखों में आँसू दबाए… उसने मना किया… बात बढ़ी… दोनों लड़कों ने उसकी कॉलर पकड़ ली… बैठी हुई सवारियों ने बीच-बचाव  किया… बस उसके मुँह से  ‘शट-अप!… शट-अप!… लीव मी!… लीव मी!’… की घरघराती आवाज निकली… अगले स्टॉप पर लड़की उतर गई… पर लड़कों के कमेंट बंद नहीं हुए।

“चाय लो… बिस्कुट लाऊँ… खाओगे?” पत्नी ने पूछा।

“नहीं-नहीं… बस।”

“कुछ परेशान लग रहे हो?”

“नहीं तो।” कहते हुए चाय का कप उठाकर वह चाय पीने लगा। 

“ऑफिस में कुछ हो गया है क्या?” पत्नी को चिंता होने लगी। बस में हुई घटना पर उसने चुप्पी साध ली।

चाय पीते -पीते उसने देखा कि सुमित कान में ईयर फोन लगाए और हाथ में मोबाइल पकड़े अपने कमरे से निकला। उसने सोचा- शायद कोचिंग जा रहा है। अचानक उसके जेहन में सुमित के चेहरे पर बस के उन लड़कों के चेहरे दिखाई देने लगे… “नहीं-नहीं…! सुमित ऐसा नहीं हो सकता!”… वह सुमित को उन दोनों लड़कों जैसा नहीं देखना चाहता। उसके मुँह से ‘शट-अप!.. शट-अप!… लीव मी!… लीव मी!…’ की घरघराती आवाज निकल रही है- ऐसा उसे लगने लगा!

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2-हैप्पी बर्थ-डे

“आज मेरा बर्थ-डे है!” कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा ।

“मालूम है मुझे… हैप्पी बर्थ-डे ।” अखबार पढ़ते हुए मनीष ने कहा ।

“बस…?”

“और क्या?”

“आज मूवी देखने चलेंगे ।” कुसुम ने कहा ।

“आज नहीं… फिर कभी ।” मनीष ने मना किया ।

“आज क्यों नहीं?” कुसुम थोड़ा झल्ला गई ।

“फालतू खर्च होगा, वैसे भी आजकल हाथ तंग चल रहा है ।” मनीष ने समझाया ।

“मैं कुछ नहीं जानती ।” कुसुम और झल्ला गई, “नहीं गए तो देख लेना आप।”

झल्लाती हुई कुसुम किचिन में चली गई । मनीष का अखबार पढ़ने में मन नहीं लगा । अब नहीं मानेगी… और आज उसकी बात नहीं मानी ,तो हफ्ते भर की हँसी-खुशी खत्म हो जाएगी… आज का दिन एक अच्छा दिन है… आज ही उसे अपनी कहानी पूरी करके पत्रिका को ईमेल करनी है ।

“क्या सोचा?” किचिन से आती हुई कुसुम ने पूछा ।

“घर में सेलिब्रेट करेंगे…” बाथरूम की ओर जाते हुए मनीष ने कहा ।

“इनकी सेवा करो… मम्मी-पापा की करो… घर के पूरे काम करो… बस, यही रह गया है जिंदगी में… घर में सेलिब्रेट करेंगे!” कुसुम झल्लाने लगी, “देखती हूँ, कैसे करते हैं?”

थोड़ी देर बाद मनीष बाथरूम से फ्रेश होकर आया, तो कुसुम से बोला, “चलो, तैयार हो जाओ… मूवी देखेंगे, घूमेंगे- फिरेंगे… इंजॉय करेंगे ।”

“नहीं जाना मुझे ।”

“शाम का डिनर भी किसी रेस्तरां में करेंगे… अच्छा, तुम अपने लिए एक अच्छी-सी साड़ी ले लेना… मम्मी-पापा के लिए कपड़े, वो भी रेडीमेड कपड़े… खुश हो जाएँगे ।”

“पहले मूड खराब करते हो, फिर मनाते हो ।”

“प्लीज! “

“रहने दो… घर में ही सेलिब्रेट कर लेंगे… फिजूल का खर्च होगा ।”

“आज ही रेडियो स्टेशन का पारिश्रमिक अकाउंट में जमा हुआ है मेमसाब… मैसेज आया था… अखबार में छपी कहानी का भी दो-चार दिन में आ जाएगा… क्यों चिंता करती हो… एडजस्ट हो जाएगा ।” कहकर मनीष मुस्कुराया ।

मनीष की आँखों में भरे प्यार को कुसुम महसूस करने लगी और धीरे-धीरे डूबने लगी ।

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3-कैसे सपने? 

झिझके और सहमे हुए काका उनके पास ही सोफ़े पर बैठ गए । काका और उनके बीच थोड़ी देर खामोशी छाई रही । समझ में नहीं आ रहा था कि कौन इस खामोशी को तोड़े?

“काका, आपका बेटा बड़ा होनहार था । उसकी बदौलत ही कंपनी ने बेतहाशा तरक्की की ।” खामोशी को तोड़ते हुए वे बोले ।

उनकी बात सुनकर काका ने उनके चेहरे को बड़े गौर से देखा और कहा, “तभी तो हम सपनों में जीने लगे थे ।” 

“समझ सकता हूँ कि गाँव का कोई लड़का किसी बड़ी कंपनी में अपनी जगह बना ले… बहुत बड़ी बात है ।”

“उसे आपने और आपकी कंपनी ने जगह दी, नौकरी दी… नहीं तो तीन साल से भटक रहा था, नौकरी के लिए ।” कहते हुए काका ने हाथ जोड़े ।

“ये उसका टैलेंट था काका ।”

चाय आ गई।  साथ ही बिस्कुट और नमकीन भी । उन्होंने उठ कर चाय का कप काका को दिया और एक कप खुद लेकर धीमे-धीमे चाय पीने लगे ।

“पता नहीं, हमारे अभागे सुख कहाँ जाकर सो गए हैं?… पूरी जिनगी दुःख झेलते और दुःखों से खेलते बीती। थोड़े सुख आए, वो भी चले गए ।” काका ने कहा और ड्राइंगरूम की भव्यता को गहरी नजरों से देखा । ड्राइंगरूम की सीलिंग पर बीचों-बीच लटके झूमर, बड़ी टी. वी., बड़े-बड़े गद्देदार सोफ़े, खिड़कियों-दरवाजों पर लटके हुए पर्दे, कोने में रखा हुआ फिश पॉट ड्राइंगरूम को और भी भव्य बना रहे हैं ।

वे चौंके । काका जिस पीड़ा को दबाए बैठे हैं, वही बाहर निकलने लगी है ।

“उसके सिर में बुखार क्या चढ़ा… हमारी जिनगी ही ले गया ।” काका ने कहा, फिर जल्दी-जल्दी चाय खत्म की और बोले, “अब चलूँगा ।”

उन्होंने कम्पनसेशन का चैक काका की ओर बढ़ाया, “लीजिए, इस राशि से कुछ मदद मिलेगी ।” 

काका ने चैक हाथ में नहीं लिया, “मरे आदमी का पैसा क्या लेना!… आपने बुलाया था, सो चला आया ।”

खामोशी फिर उतर आई ।

उसी खामोशी में काका बाहर निकल गए ।

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4- डूब की जमीन का दुःख

सब कहते हैं कि मैं रोता हूँ- बड़ी जोर-जोर से। पता नहीं क्यों कहते हैं?… मैं नहीं मानता, नहीं तो मुझे मेरा रोना तो सुनाई देता न।

सोचते-सोचते दिमाग भन्ना जाता है।

लोग तो ये भी कहते हैं कि जो लोग आँसुओं को पीते हैं, जो अभावों में जीते हैं, वो लोग दिन भर दुःख उठाए फिरते हैं, पर मुझे ये सब बेमानी लगता है। दुःख – सुख तो आते-जाते हैं। 

पर इनके दिन तो एक जैसे ही हैं। कुछ भी नहीं बदला। घुप्प, अँधेरी सुरंग में चलते हुए से। निपट अकेलापन, विवशता में भरे हुए से… निरुपाय से।

उनका जीवन जैसे बिल्कुल ऐसा, जैसे कोई विछोह भरी कथा बाँच रहा हो।

उफ्फ! इन मरुस्थल से शहरों में क्यों भटक रहा हूँ? 

ऐसा क्यों कहते हैं सब? 

फिर दिमाग भन्नाने लगता है।

सच को पहचानने की जरूरत है। डूब में आने वाली जमीन से बेदखली का दुःख होता है, मुआवजा न मिलने का दुःख होता है और मैं रोने लगता हूँ।

अब क्या होगा? 

होगा क्या- लोग न कुछ देख सकते हैं, न सुन सकते हैं, न आवाज उठा सकते हैं । लगता है कि सब अंधे, बहरे और गूँगे हो गए हों।

लगता है कि कुछ आदमखोर बस्तियों में जश्न मनाने आ बैठे हों! 

डूब की जमीन से बेदखली का दुःख! 

मुआवजे का न मिलने का दुःख! 

इसीलिए लोग कहते हैं कि मैं रोता हूँ, क्योंकि मेरे नेत्रों में आज भी दुःख भरा हुआ है।

डूब की जमीन से बेदखली का दुःख! 

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5-  लड़की

 “चेहरे का रंग क्यों उड़ा हुआ है?”

“पापा के साथ पुलिस स्टेशन जाना है।”

“क्यों?… किसी की एफ.आई.आर.करनी है?”

“वो ऊपर वाले फ्लैट में जो अंकल रहते हैं, उनकी।”

“बता… बता… क्या हुआ… क्या किया उन्होंने?”

“ट्यूशन जाते-आते सीढ़ियों पर मेरे बराबर चढ़ते-उतरते हैं। उस समय कभी मेरे कंधे पर तो कभी मेरी कमर पर हाथ रखकर सहलाते हैं…आज कुछ अधिक ही।”

“अरे!… कोई गलत इरादा नहीं होगा उनका।”

“समझती हूँ… नाइंथ में पढ़ती हूँ… गुड टच और बेड टच भी समझती हूँ मम्मी।”

“किसने बताया?”

“हमारी प्रिन्सिपल मैडम ने… और ये भी बताया कि कोई जेन्ट्स ऐसा बार-बार और जानबूझकर करे, तो उसकी शिकायत पुलिस में करनी चाहिए।”

“मरने दे, जाने दे… पापा को बताएगी, तो वे गुस्सा करेंगे और लड़ने पहुँच जाएँगे… अपनी बदनामी होगी।”

“आप बदनामी से डर रही हो?”

“हाँ, लड़की की जात है, इसलिए।”

“………………………………………।”

“चुप रहना समझी… मिट्टी डाल इस मैटर पर।”

“मैं चुप नहीं रहूँगी… कहे देती हूँ!”

-0-● सम्पर्क / पता : विद्या भवन, वार्ड नंबर – 17, सुकरी चर्च, जुन्नारदेव – 480551 ,जिला – छिंदवाड़ा  (मध्य प्रदेश), 

● फोन / मोबाइल : 9425837079 / 8319714936.

● ईमेल : pawansharma7079@gmail.com

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