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मानुष -गन्ध/ मनखी की बास

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गढ़वाली अनुवाद: डॉ. कविता भट्ट

हवा माँ हळकि सरसराट अर छिबड़ाट सि लगि; ना , यु मातर हवा कु फफराट नि छौ। ये माँ मनखि कि बास मिलीं छै। जु लोग सदानी, घड़ी घड़ी ये का ध्वारा रंदन, वु ये भूली सकदन। बल्कि भूली जाँदन। पर वा ये पछाँण माँ कनकै भूल कर सकदि, जौं तैं बिजाँ – बिजाँ दिन ह्वे जाँदन ये कि कमी का दगड़ ज्यूँदी रै कि तब कुछ घड़ी मिल्दिन मैसूस कन्न का। हैंसदु बोल्दू सुणदु ‘बास भरीं’ कुछ घड़ी।

नाम मातरा रौ रिस्तौं मन मैना माँ एकाध बगत क्वी औंदु च।

 बज़ार बटी जरूरी सामानै व्यवस्था कन्नौ। (बकी काम वा अपड़ा दुखद  कौंपद सरील तैं कन्नौ तैं बिबस च) अर वे ‘व्यवस्था दिवस’ क औण  म अबी पूरा बीस दिन कु इन्तज़ार बाकी च। सुबेर ही त वूँन गैणी च।  फिर यु कु …..

आँखा कमज़ोर सै, पर वे झुटपुट अँधेरा म गौर से देखी, त नज़र ऐ ही गै। सचमुच एक ज्यूँदु जागदू मनखी! अचाणचक वूँ का मुक म कंदूड़ तकै हैंसी फैल गी।

भै, आतंक, लचारी देखण कि आदत क लुटेरा की लाटी नजर आँखी देखणी छै। कबि अपणा हाथ क हथियार तैं अर कबि वे अपछाँण मुकै कि स्वागत वळि हैंसी तैं ।

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