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लघुकथा में शिल्प, भाषा और संवेदना

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गोपाल राय के अनुसार, ‘किसी साहित्यिक कृति के शिल्प का विवेचन करने का अर्थ उस कौशल का उद्घाटन करना है, जिससे उसके रूप या आकार की निर्मिति हुई है ।’ मार्क शोरर कहते हैं, ‘जब हम शिल्प की बात करते हैं तब हम लगभग हर चीज की बात करते हैं, क्योंकि शिल्प ही वह साधन है, जिसके माध्यम से लेखक का अनुभव, जो कि उसकी विषयवस्तु है, उसे अपनी ओर ध्यान देने को विवश करता है। शिल्प वह एकमात्र साधन है जिसके द्वारा लेखक अपने विषय को खोजता है, उसकी छानबीन करता है, उसका विकास करता है जिसके माध्यम से वह उसके अर्थ को संप्रेषित कर सके, और अंततः उसका मूल्यांकन करता है ।’

    सीधी सपाट भाषा में बात करें तो शिल्प यानी गढ़ना, अंदाजे बयाँ, कहन पद्धति, रचना विधान, रचनाकार द्वारा स्वयं को तलाशने की बेचैनी। लघुकथा के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि इस बेचैनी के चलते ही लघुकथाकार प्रस्तुति के ऐसे नये-नये ढंग आविष्कृत करता है जिनके द्वारा वह पाठकों के दिलोदिमाग तक अपनी राह बना सके। वैसे शिल्प लघुकथाकार का आंतरिक लोकतन्त्र है जिसके अंतर्गत उसे यह निर्णय करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है कि किसी कथ्य विशेष के लिए कौनसी कहन पद्धति अपनायी जाए। कई बार यह देखा गया है कि समान कथ्य के लिए दो अलग-अलग रचनाकार सर्वथा भिन्न शिल्प की बुनावट करते हैं। यहाँ कोई नियम-कायदे, कोई शास्त्र काम नहीं देते। दूसरी ओर कई बार ऐसा भी होता है कि कथ्य अपने साथ रूप भी लेकर आता है। यह रचनाकार के अंतस की एक विस्मयकारी घटना है। जब अवचेतन में कोई कथ्य उमगता है तो इसके साथ ही प्रस्तुति का एक अमूर्त खाका भी चमक उठता है। यह स्वस्फूर्त शिल्प है। परंतु जब यह परिघटना नहीं होती है, तब लघुकथाकार को अपना मार्ग स्वयं तलाशना पड़ता है ।

   एक लघुकथाकार के लिए रूप की तलाश बहुत टेढ़ा काम है। वह उपन्यासकार या कहानीकार की तरह निश्चिंत होकर कल्पना के घोड़े नहीं दौड़ा सकता। वह इस प्रकार का एक भी वाक्य, एक भी शब्द, एक भी दृश्य, एक भी चित्रण, एक भी संवाद, एक भी हाव-भाव समाविष्ट नहीं कर सकता जो लघुकथा की कसावट को लुंजपुंज कर दे। यहाँ तक कि उसे एक कवि की भाँति इस बात के प्रति भी सचेत रहना पड़ता है कि कहाँ अर्द्ध विराम आयेगा, कहाँ पूर्ण विराम और किस स्थान पर प्रश्नवाचक व विस्मयादिबोधक चिह्न लगाये जाएंगे। उसे यह भी ध्यान रखना होता है कि कहाँ पैराग्राफ बदलना है और कि उसकी लंबाई कितनी रखनी होगी। इस तरह लघुकथा को उस मंज़िल पर पहुंचाना होता है जहां यदि एक शब्द भी निकाल दिया जाए  तो लगे कि इमारत ढह जायेगी। सब कुछ बहुत कसा हुआ, सुगठित, मितव्ययता के साथ।

   लघुकथा के तीन अंग होते हैं; क्या(कथ्य), कैसे(शिल्प) और क्यों( लक्ष्य, दृष्टिकोण या विचार)। शिल्प कथ्य और लक्ष्य के मध्य एक सेतु का कार्य करता है। शिल्प जितना आकर्षक होगा पाठकों की आवाजाही भी उतनी ही अधिक होगी। इस सेतुबंध के लिए लघुकथाकार कई-कई शैलियों का सहारा लेता है यथा वर्णनात्मक, संवादात्मक, प्रतीकात्मक, व्यंग्यात्मक, आत्मकथात्मक, रेखाचित्रात्मक आदि। कुछ लघुकथाकार पत्र शैली, डायरी शैली, नाटक शैली, रिपोर्ताज शैली का भी प्रयोग करते हैं, यद्यपि इस तरह के उदाहरण कम ही हैं। अनेक लघुकथाओं में जातक कथा, लोककथा, फैंटेसी, फ्लैश बैक, पौराणिक आख्यान के कथा शिल्प भी प्रयुक्त हुए हैं, जिनके माध्यम से समसामयिक परिदृश्य का खूबसूरती से उद्घाटन हो सका है। भगीरथ परिहार शिल्प यानी तकनीक और शैली के अंतर को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘तकनीक और शैली क्या है ? अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की योजना ही तो है। तकनीक जहाँ पर रचना की आंतरिक बुनावट पर ध्यान केन्द्रित करती है, वहाँ शैली अभिव्यक्ति की विशिष्टता पर केन्द्रित होती है। तकनीक व शैली का संबंध लेखक के रचना कौशल और कथा की आत्यंतिक जरूरतों पर निर्भर करता है ।’

     लघुकथाकार के रचना-कौशल का अनुमान उसके द्वारा दिए गये शीर्षक से ही हो जाता है। शीर्षक न केवल ध्यानाकर्षक व उत्सुकता जगाने वाला बल्कि लघुकथा के केंद्रीय विचार का संवाहक भी होना चाहिए। बलराम अग्रवाल की एक लघुकथा का शीर्षक है ‘आखिरी उसूल’। इस शीर्षक से एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है जो लघुकथा को पूरा पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। इसी प्रकार निम्न शीर्षक भी बहुत कुछ कह जाते हैं, अभी बहुत कुछ शेष है(सूर्यकांत नागर), कलेजा बंदर का(सतीश राठी), कैसी बदनामी(रेणु चन्द्रा), रामदीन का चिराग(गोविंद शर्मा), अयोध्या में खाता बही(हरिशंकर परसाई), उँगली के पोरों पर उतरे आँसू(पारस दासोत), भ्रम के बाज़ार में(संतोष सुपेकर), अनंत में अम्मा हँसती है(मुकेश वर्मा), कपों की कहानी(अशोक भाटिया) आदि। जाहिर है इनमें से कुछ शीर्षक काव्यात्मक हैं, कुछ व्यंग्यात्मक तो कुछ कथात्मक हैं ।

   लघुकथा का आरंभ और अंत भी शिल्प का एक अहम हिस्सा है जिसे नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। लघुकथाकार इन दो बिन्दुओं को लेकर जितना ऊहापोह में रहता है उतना मध्य को लेकर नहीं। प्रभावी आरंभ और सटीक समापन अलग कौशल की अपेक्षा रखते हैं। आरंभ के लिए प्रेमचंद का यह कथन लघुकथा के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कहानी के लिए, ‘कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूरित कर देता है , जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता ।’

   लघुकथा का आरंभ चाहे संवाद से हो, चाहे वर्णन से या फिर चरित्र-चित्रण से; परंतु कुछ ऐसे हो कि इसमें रचनाकार का सम्पूर्ण रचना-कौशल दिखाई दे; ‘ध्रुपद की तान’ की तरह। कहानीकार किरण सिंह कहती हैं, ‘कथा की पहली पंक्ति आसमान की चील होती है जो झपट्टा मारकर सुनने आए शिकार को दबोच ले और अपने साथ ले उड़े ।’ सुकेश साहनी अपनी लघुकथा ‘बिरादरी’ का आरंभ यों करते हैं;

   “बाबू ।” मैं कार से उतरा ही था कि अपने बचपन का सम्बोधन सुनकर चौंक पड़ा। किसी पुराने परिचित से सामना होने की आशंका मात्र से मेरे कान गर्म हो उठे…।’

   यह आरंभ एक साथ कई बातों की ओर संकेत कर देता है। यह कि कथा नायक बड़ा आदमी बन गया है। वह अपने बचपन से पीछा छुड़ाना चाहता है। यानी एक किस्म का झूठा बड़प्पन उसके भीतर घर कर गया  है। पाठक देखना चाहेगा कि इस अहंकार का क्या हश्र होता है ; खण्ड-खण्ड होता है कि और भी परवान चढ़ता है।

  जोगिंदर पाल अपनी लघुकथा ‘प्रेत’ का आरंभ इस वाक्य से करते हैं-मैं भूतों में पूरा विश्वास रखता हूँ। अब इस आरंभ को देखकर कौन पाठक लघुकथा को पूरा पढे बिना छोड़ देगा ?  यह आरंभ ‘चील के झपट्टा मारने’ की तरह ही है। पूरी लघुकथा इस प्रकार है-

मैं भूतों में पूरा विश्वास रखता हूँ ।

  क्या हुआ कि मैं कई साल बाद अपने पुराने शहर औरंगाबाद दक्खिन लौटा और सबसे पहले अपने पुराने मित्र रमैया से मिलने गया ।

   दूसरे दिन जब मैंने अपने एक और मित्र अकबर को बताया कि कल सारी शाम मैंने रमैया के साथ बिताई तो वह बोला, “किन्तु उसे मरे तो पूरे बारह बरस हो गए हैं।”

   मैं आश्चर्य से स्तब्ध उसे ताकने लगा, “मगर मैंने तो तीन घंटे उससे बातें कीं, फिर वह कौन था?”

   “अपना भूत!” उसने उत्तर दिया, “आइंदा हरगिज मत जाओ।”

   “मगर यार वह तो हूबहू वही था।

   “भूत भी हूबहू वही होते हैं ।” उसने कहा, “सुनो, मैं तुम्हें सारा किस्सा सुनाता हूँ। कई वर्ष पहले गबन के एक केस में जब उसे नौकरी से निकाल दिया गया, तो उसने आत्महत्या कर ली।”

  “आत्महत्या कर ली?”

  “हाँ, आगे की सुनो। फिर कुछ प्रभावशाली लोगों ने उसके मुर्दे पर दया करके उसे टूरिस्ट गाइड का लाइसेन्स दे दिया और मुर्दा चलने-फिरने के योग्य हो गया।”

   “मगर वह तो बहुत ठाठ से जी रहा है ।

   “भूतों का क्या, जैसे चाहें जी लें। एक बार किसी विदेशी पर्यटक ने उसे बढ़िया औरत लाने को कहा। उसकी मौत तो हो चुकी थी। उसने सोचा होगा कि पत्नी और बच्चे तो बचे रहें, इसलिए वह अपनी पत्नी को बना-सँवारकर रात के अंधेरे में विदेशी पर्यटक के होटल में ले गया।”

   “मेरी समझ में कुछ नहीं आया ।

   “इसीलिए तो समझा रहा हूँ। एक बार मर-खप गए, तो फिर जैसे भी चले। वह आज भी बराबर अपना धंधा चलाए जा रहा है। पत्नी बूढ़ी होने में आ रही है, मगर बेटी भी तो जवान निकल आई है …।”

   “किन्तु, वह तो बड़ा अच्छा आदमी था अकबर…।”

   “जब तक आदमी था, तब तक। भूत तो बस भूत होते हैं।”

   तो लघुकथा का अंत आते-आते यह ज्ञात होता है कि लेखक किस भूत की बात कर रहा है। अर्थात् वह आदमी जो अपनी आदमियत छोड़ बैठा है ।

    आगाज़ बता देता है कि अंजाम क्या होगा। मतलब, आरंभ देखकर अंत का अनुमान लगाया जा सकता है। परंतु पाठक के मन-मस्तिष्क पर वे लघुकथाएँ सदा के लिए अंकित हो जाती हैं जिनका समापन उसकी कल्पना के विपरीत बिन्दु पर जाकर होता है। जरूरी नहीं कि ऐसा अंत चमत्कारिक हो, प्रतीकात्मक या प्रश्नाकुल कर देने वाला हो। बल्कि सहज भी हो सकता है। उदाहरण के रूप में हम रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’ लघुकथा ले सकते हैं। इसका आरंभ इस तरह होता है-

    ‘पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी-“लगता है बूढ़े को पैसों की जरूरत आ पड़ी है, वरना यहाँ कौन आने वाला था ! अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घरवालों का कहाँ से भरेंगे ?” मैं नज़रें झुकाकर दूसरी ओर देखने लगा ।’

  इस आरंभ को देखकर पाठक अनुमान लगाता है कि पिताजी यहाँ बस एक-दो दिन के ही मेहमान हैं। बहू के पटकों-झटकों से अपमानित व बेटे की उपेक्षा का शिकार होकर बैरंग ही गाँव लौट जाएँगे। परंतु लघुकथाकार बड़ी कुशलतापूर्वक कहानी को अलग ही अंज़ाम पर पहुंचाता है। पिताजी घर की हालत देखकर कुछ माँगने की बजाय  सौ-सौ के दस नोट बेटे को थमा देते हैं ।

   लघुकथा के मध्य भाग पर काम करते हुए सदैव यह खतरा रहता है कि अनावश्य विस्तार न हो जाए, लघुकथा अपने शिल्प का अतिक्रमण करते हुए कहानी के क्षेत्र में प्रवेश न कर जाए, लफ़्फ़ाज़ी का शिकार न हो जाए, रूप के बोझ तले दबकर कराह न उठे। मध्य भाग रीढ़ की हड्डी है। लघुकथा की रीढ़ नाजुक होती है, इस पर कहानी की तरह अधिक बोझ वांछित नहीं है। इसीलिए निष्णात लघुकथाकार ऊपर वर्णित शैलियों के दायरे में रहते हुए भी संक्षिप्तता, सांकेतिकता व कलात्मकता का संतुलन बनाए रखता है। कभी-कभी तो वह रूढ़ कथा शैलियों के पार जाकर बिलकुल मौलिक कथा पद्धति आविष्कृत कर लेता है, जो मील का पत्थर सिद्ध होती हैं। गुलशन बालानी की लघुकथा ‘गुप्त सूचना’ का शिल्प देखते ही बनता  है। यहाँ कथ्य केवल तीन फोन कॉल में सिमटा हुआ है। प्रथम फोन किया जाता है दारोगाजी को यह बताने के लिए कि सेठ ज्वालाप्रसाद के गोदाम में दो नंबर का माल पड़ा   है। दूसरा फोन सेठ को दारोगा करता है कि आपके गोदाम में छापा पड़ने वाला है। तीसरा फोन पुनः दारोगा को किया जाता है। परंतु यह फोन सेठ करता है। इन तीन फोन संवादों से दारोगा व सेठ का चरित्र तार-तार हो जाता है। लघुकथा सिर्फ आठ पंक्तियों की है –

   “हैलो दारोगाजी, एक गुप्त सूचना है। सेठ ज्वाला प्रसाद के हरीनगर वाले मकान में नंबर दो का माल भरा पड़ा है, छापा मारकर पकड़ लो, साला ब्लैक करता है ।”

   “हैलो सेठजी। एक गुप्त सूचना है, अपना गोदाम नंबर चार खाली करवा लो, अब से तीन घंटे बाद छापा मारने के ऑर्डर हो गए हैं ।”

   “हैलो दारोगाजी। आपने गुप्त सूचना देकर मेरी इज्जत बचाली, आज रात गप-शप करने आप हमारे गरीबखाने पर तशरीफ ले आएँ, शराब और शबाब दोनों का इंतजाम है…आपकी गुप्त सूचना की फीस अलग होगी ।”

   कुशल लघुकथा शिल्पी अधिक विस्तार में न जाकर केवल कुछ संवाद, पात्रों के हाव-भाव या प्रतीक से ही अपनी बात कह देता है। उसे अलग से चरित्र या परिवेश चित्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती। आनंद बिल्थरे की संवाद शैली में रचित लघुकथा ‘पक्की रिपोर्ट’ के आरंभिक कुछ संवादों से ही परिवेश के साथ-साथ पात्रों के चरित्र साकार हो उठते हैं। लघुकथा इस प्रकार है-

    “हजूर, रिपोर्ट लिखानी है ।”

    “अबे, काहे की रिपोर्ट ? कच्ची लिखूँ या पक्की ?”

    “मैं कच्ची-पक्की क्या जानूँ सरकार। गई रात डाकू मेरी जवान बेटी को उठाकर ले गए।”

    “अबे, तो हम क्या करें ? तू ने पहले रिपोर्ट क्यों नहीं लिखाई कि तेरी जवान बेटी भी है?”

    “कुछ उपाय करो हजूर।

    “कैसा उपाय ? क्या तेरी लौंडिया हमारी जेब में रखी है?”

    “हजूर, माई बाप, मेरी बिटिया नादान है।”

    “अबे, अब काहे की नादान रही। तेरी लौंडिया तो दूसरी फूलन बनेगी, फूलन।”

    “जात-बिरादरी में मेरी नाक कट जाएगी।

    “साले, नाक की इतनी ही चिंता थी तो उसे थाने में क्यों नहीं जमा करवा दिया?”

    “साहब, डाकू लोग मेरी दूसरी बिटिया को भी उठाने की धमकी दे रहे हैं।”

    “अच्छा, तो तेरे दूसरी लौंडिया भी है? अरे बैठ, बैठ जा। कितनी बड़ी है तेरी छुकरिया?”

    “ऐसी ही कोई तेरह-चौदह बरस की हजूर।

    “अच्छा, अच्छा जा। तेरी पक्की रिपोर्ट लिख ली है। कल हम तफतीश को आएँगे।”

     …सुनते हैं, दूसरे दिन उसकी दूसरी बिटिया भी उठा ली गई।

    ज़ाहिर है कि संवाद थाने में  दारोगा व गरीब नादान व्यक्ति के मध्य है। दारोगा काइयाँ है, वह येन-केन-प्रकारेण गरीब लाचार व्यक्ति को टरकाना चाहता है। संवाद, विधा के अनुरूप चुटीले और संक्षिप्त हैं। यहाँ पुलसिया मानसिकता और कार्य-प्रणाली केवल संवादों के माध्यम से ही अच्छी तरह उजागर हो रही है। संवाद शैली में पारस दासोत ने प्रचुर लघुकथाएँ लिखी हैं ,जो उनके संग्रह ‘मेरी अलंकारिक लघुकथाएँ’ में संकलित हैं। इनकी लघुकथाओं में आये संवाद टटके, संक्षिप्त और मारक हैं। एक लघुकथा प्रस्तुत है-

                              चौराहे पर/ पारस दासोत

“मदारी, चौराहे पर तमाशा दिखा रहा था।”

“बंदरिया, चोली पहन रही थी।”

“पापा…और जमूरा ?”

“जमूरा ! बेटे, जमूरा अपनी कमीज उतार रहा था ।”

      ‘वॉक आउट’(संतोष सुपेकर) में टोपियों और जूतों की दो विरोधाभासी स्थितियों को लेकर टोपियाँ अर्थात बड़बोले राजनेताओं पर जबर्दस्त कटाक्ष किया गया है। यह लघुकथा निर्जीव वस्तुओं के मानवीयकरण की अच्छी मिसाल है। इस शिल्प का उपयोग यों तो कई लघुकथाकारों ने किया है, परंतु यहाँ जिस सधे हुए अंदाज में अपनी बात कही गई है वह उद्धरणीय बन पड़ी है –

  टोपियों और जूतों की एक सभा जारी थी। टोपियाँ जूतों पर हँस रहीं थीं। लगातार उन पर फब्ति- कस रहीं थीं, व्यंग्य कर रहीं थीं-कहाँ टोपी और कहाँ जूते ? कहाँ ताज और कहाँ तख्त ? जूतों की क्या औकात जो टोपियों की ओर नज़र उठाकर भी देख सकें…क्या मजाल उनकी जो टोपियों से तुलना की बात भी कर सकें….

      तल्खियों भरी टिप्पणियाँ जब गले- गले तक आने लगीं, तो जूतों से रहा न गया। उन्होंने आपस में निर्णय किया और सभा में कुछ चित्र सामने रख दिये। इन चित्रों में विभिन्न वर्गों के टोपी वाले, अपने -अपने आकाओं के जूतों पर सिर रख रहे थे, उनके जूते साफ कर रहे थे, कुछ अपने -अपने बॉस को जूते पहना रहे थे। इन्हीं प्रयासों में कइयों की टोपियाँ उनके बॉस के जूतों पर गिरीं जा रही थीं ।

       देखकर टोपियों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई, उनकी बोलती बंद हो गई। घोर लज्जा का अनुभव करते हुए सभी टोपियाँ सभा छोड़कर जाने लगीं…

     जूतों ने मन ही मन फ्लेटरीकल्चर (‘चापलूसी संस्कृति’) का धन्यवाद किया।

   अशोक भाटिया ने ‘तीसरा चित्र’ में शिल्प का एक सुंदर प्रयोग किया है, जिसमें वृद्ध पिता अपने कलाकार पुत्र को तीन चित्र बानाने के लिए कहता है। पुत्र उच्च, मध्य व निम्न वर्ग के तीन चित्र बनाता है। तीसरा अर्थात निम्न वर्ग का चित्र सिर्फ पेंसिल से बनाया जाता है। पूछने पर पुत्र कहता है कि यहाँ तक आते-आते सारे रंग समाप्त हो गए थे। यह लघुकथा संकेत रूप में बहुत बड़ी बात कह जाती है। घनश्याम अग्रवाल ने अपनी लघुकथा ‘सरकारी गणित’ में सर्वथा मौलिक प्रयोग आजमाया है। यहाँ सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को टेबल नंबर 1 से 6 पर रखी फाइलों के माध्यम से बड़ी खूबसूरती से बेनकाब किया गया है। इस लघुकथा में कोई कथा नहीं है और न ही कोई पात्र। फाइलें ही पात्र हैं और उनमें कैद रिपोर्ट ही कथा ।

   शिल्प की दृष्टि से निम्न लघुकथाएँ भी उल्लेखनीय हैं; मधुदीप की ‘समय का पहिया घूम रहा है’(नाटक शैली), गोविंद शर्मा की ‘दो बूँदें’, ‘अंगूर खट्टे हैं’(प्रतीकात्मक), अशोक भाटिया की ‘समय की जंजीरें’(इतिहास का पात्र के रूप में आना), श्यामसुंदर दीप्ति की ‘मूर्तियाँ’ (दृश्यात्मक), पारस दासोत की ‘आदमी’(संवाद शैली), सुरेश तन्मय की ‘एकलव्य’ (पौराणिक), हरिशंकर परसाई की ‘जाति’(वर्णनात्मक), जसवीर चावला की ‘कौआ’(जातक कथा), घनश्याम अग्रवाल की ‘आज़ादी की दुम’(व्यंग्यात्मक), उपेंद्रनाथ अश्क की ‘गिलट’(फैंटेसी), कुमार नरेंद्र की ‘व्यापारी’(फ्लैश बैक) आदि ।

   दरअसल शिल्प का उपयोग जमूरे की डुगडुगी के रूप में नहीं होना चाहिए। शिल्प मकबरे के ऊपर की नक्काशी नहीं; बल्कि उस भवन की वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना होता है जिसमें ज़िंदगी की हलचल निवास करती है। यहाँ विचारों की गरमाहट, मानवीय संवेदनाओं की खुशबू, लोकजीवन के संघर्ष, रिश्तों के बनते-बिगड़ते समीकरण और समाज की धड़कनें आबाद रहती हैं। इन सबके बिना खालिस शिल्प का कोई अर्थ नहीं। डॉ.विद्या भूषण के अनुसार, ‘कथ्य शिल्प की नोक पर चढ़कर ही पाठक के मर्म को भेद पाता है। किन्तु जहां शिल्प की नोक कृत्रिम और खुरदरी होती है वहाँ वह पाठक के मर्म को न भेदकर स्वयं रचना को ही भेद जाती है ।’

  शिल्प का कार्य है लघुकथा को अधिक से अधिक संप्रेषणीय बनाना ताकि इसमें समाहित युगीनबोध ठीक उसी रूप में पाठकों तक पहुँच सके जिस रूप में लघुकथाकार चाहता है। इसमें भाषा, शैली, भाव, संवेदनाएँ, बिम्ब, प्रतीक, पात्रों की मनःस्थिति, संघर्ष चेतना, अंतर्विरोध, शब्दों की मितव्ययता, चरित्र चित्रण(यदि लघुकथा में गुंजाइश हो), एकान्विति, परिवेश आदि सभी कुछ आ जाता है।

  भाषा               

 भाषा  किसी रचना का प्राण तत्त्व है। कई सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की अनाम कृतियों को पढ़कर हम बता सकते हैं कि यह प्रेमचंद, जैनेन्द्र , वृन्दावनलाल वर्मा,  हरिशंकर परसाई या विष्णु प्रभाकर की है। यह कहानी और उपन्यास विधाओं की उपलब्धि है। लघुकथा भी शनै:शनै: इस मुकाम की ओर बढ़ती जा रही है। विक्रम सोनी, पृथ्वीराज अरोड़ा, डॉ.सतीश दुबे, सतीशराज पुष्करणा, बलराम अग्रवाल, सतीश राठी, अशोक जैन, रामकुमार आत्रेय, अशोक वर्मा, श्यामसुंदर अग्रवाल, श्यामसुंदर ‘दीप्ति’, अशोक भाटिया, जसबीर चावला, कमल चोपड़ा, कुमार नरेंद्र, मधुदीप, पवन शर्मा, रामायतन यादव, मुकेश वर्मा, मधुकांत, भगीरथ, रामकुमार आत्रेय, डॉ.रामकुमार घोटड़, रामयतन यादव, प्रबोध कुमार गोविल, सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, सुभाष नीरव, योगराज प्रभाकर, संतोष सुपेकर, चित्रा मुद्गल, आभा सिंह, नीरज सुधांशु, विभा रश्मि, शोभा रस्तोगी, संध्या तिवारी, कांता राय, दीपक मशाल, अनघा जोगलेकर, चंद्रेशकुमार छतलानी आदि कथाकार अपनी लघुकथा भाषा को साधने में काफी हद तक सफल हुए हैं। चैतन्य त्रिवेदी, रघुनन्दन त्रिवेदी, पारस दासोत जैसे लघुकथाकार भाषा को लेकर अलग से पहचाने जा सकते  हैं। वस्तुतः भाषा के दो पैर होते हैं; कथ्य और शैली। ये दोनों पैर जितने मजबूत होंगे भाषा उतनी ही सरपट भागेगी। भाषा कथ्य के अनुरूप अपना चोला बदलती है और शैली के अनुसार श्रृंगार करती है। भाषा लेखक की उँगलियों के निशान हैं। जब लेखक किसी रचना पर काम करता है तो कई चीज़ें एक साथ इकट्ठा होकर घनीभूत रूप लेने लगती हैं। लेखक के भाषायी संस्कार, उसका अनुभव संसार, अनुभूति की गहराई, परिवेश, पात्र और उनकी मनःस्थिति सहित कई बातें हैं जो रचना प्रक्रिया का हिस्सा बनकर किसी न किसी रूप में विधागत भाषा को प्रभावित करती हैं। इसी कारण किसी भी विधा के लिए भाषा का सवाल बहुत पेचीदा है। लघुकथा के लिए तो और भी अधिक क्योंकि यहाँ लघुकथाकार के हाथ बंधे होते हैं। उसे सीमित शब्दों में वह प्रभाव उत्पन्न करना होता है जो कहानी और उपन्यास जैसी विधाएँ सैकड़ों शब्द खर्च करके उत्पन्न कर पाती हैं। सुप्रसिद्ध कवि स्व.कुँवर नारायण का यह कथन गौर करने लायक है, ‘भाषा का मामला ज़िंदगी की तरह उलझा हुआ   है। इसका ऐसा कोई समाधान निकाल लेना संभव नहीं लगता जो सर्वमान्य हो। जीवन की तरह भाषा की उलझनों को भी स्वीकार करके ही उसे लिखना-पढना पड़ता है ।’

   भाषा का सवाल पेचीदा इसलिए भी है कि एक ही लेखक की भिन्न-भिन्न रचनाओं में भाषा के रूप बदल जाते हैं। यह होता है कथ्य की मांग के कारण। वस्तुतः भाषा लेखक की क्रीड़ास्थली न होकर कथ्य की कर्मभूमि होती है ।

   तात्पर्य यह है कि लघुकथा या किसी भी विधा को भाषा के नियमों में कैद करना संभव नहीं है। रसूल हमजातोव तो और आगे बढ़ते हुए कहते हैं, ‘मैं ऐसी पुस्तक लिखना चाहता हूँ, जिसमें भाषा व्याकरण के अधीन न होकर व्याकरण भाषा के आधीन हो ।’ अर्थात् वे व्याकरण से भी अधिक भाषा को महत्त्व देते हैं। प्रत्येक अनुभव समृद्ध कथाकार ऐसा करता है। कई अच्छी लघुकथाएँ पढ़ते हुए हमने देखा है कि जरूरत के अनुसार लघुकथाकारों ने शास्त्र का अतिक्रमण करते हुए भाषा के ऐसे तिलिस्म रचे हैं कि लघुकथा की संप्रेषणीयता और प्रभावशीलता दोनों में वृद्धि हुई है। दो उदहारण देखिए-

      ‘क्या हम यह ज़मीन साथ ले जाएँगे या फिर अपने हिस्से का आसमान ? और उसके देखते ही देखते आसमान एक विशाल घेवर में बदल गया ।’ (घेवर:किरण अग्रवाल)

    इसी संदर्भ में प्रस्तुत है आनंद हर्षुल की लघुकथा ‘खंडहर का देखना’-

    वह बहुत अच्छा घड़ीसाज है। उसके स्पर्श से समय बहता है। वह घड़ी को छूता है और समय नदी हो जाता है …समय झरना हो जाता है…पर एक घड़ी, वह आज तक ठीक नहीं कर पाया है-घर की घड़ी। अब घड़ीसाज बूढ़ा हो चुका है। दोनों एक दूसरे को देखते हैं-जैसे एक खंडहर दूसरे खंडहर को देखता है ।

   शास्त्र के अतिक्रमण का अर्थ यह नहीं है कि भाषा की अराजकता हो। नए लघुकथाकारों को ऐसे प्रयोग बहुत सावचेती से करने चाहिए। जरा सी असावधानी होने से अर्थ विचलन की पूरी संभावना रहती है ।

  लघुकथा के लिए एक-एक शब्द कीमती है; इसलिए पर्याप्त सोच समझकर लिखा जाना  चाहिए। लिखते हुए हमारे मन में एक ही अर्थ ध्वनि के लिए कई तत्सम, तद्भव और पर्यायवाची शब्द गूँजेंगे। इनमें से सर्वाधिक सटीक, सर्वाधिक अर्थवान् शब्द हमें चुनना है। हमारे दो आँखें और दो कान हैं, मगर ज़बान एक है। इसका मतलब यह है कि एक भी शब्द दुनिया के सम्मुख रखने से पूर्व हमें दो आँखों से अच्छी तरह देख लेना चाहिए, दो कानों से अच्छी तरह सुन लेना चाहिए; लेकिन ध्यान रहे कि शब्द क्लिष्ट न हों, वाक्य जटिल न हों। हमें अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित नहीं करनी है बल्कि पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित करना है।  

   लघुकथाकार को भाषा पर विचार करते समय रसूल हमजातोव की इस बात को जरूर याद रखना चाहिए, ‘लेखक के लिए भाषा वैसी ही है जैसे किसान के लिए खेत में फसल। हर बाली में बहुत से दाने होते हैं और इतनी अधिक बालियाँ होती हैं कि गिनना मुश्किल ।…दानों को भूसे, घास-फूस से अलग करना जरूरी होता है। किसान सबसे अच्छे दानों को बीज के रूप में इस्तेमाल करने के लिए रख लेता है। भाषा पर काम करने वाला लेखक सबसे अधिक तो किसान जैसा होता है ।’

    भाषा पर काम करने वाला लेखक कुम्भकार की तरह भी होता है। मेरे पड़ोस में एक वृद्ध कुम्हार सवाबा रहता था। सुबह पाँच बजे से ही उसकी थप-थप आरम्भ हो जाती। मैं उसके पास बैठकर बर्तन बनाने की प्रक्रिया को ध्यान से देखता। माटी रौंधना, चाक पर नमूने उतारना, थाप-थाप कर घड़े का रूप देना और फिर आवाँ पकाना। सुबह जब आवाँ खुलता, तो बरतनों की रंगत ही निराली होती। सवाबा उन्हें उँगली के टकोरों से बजा-बजाकर परखता। मैं स्वयं की सवाबा से तुलना करता-

    ‘मुझे सीखना है अभी भी/ यह हुनर/ यही-/ शब्दों को तपाने का/ तपाकर पकाने का/ पकाकर उनसे/ सवाबा के बरतनों की तरह/ खनकदार/ ठनकार/ निकलने का/ जिस पल/ यह हुनर फल जाएगा/ मुझमें और सवाबा में/ कोई फर्क नहीं रह जाएगा/ इसीलिए/ कभी-कभी/ सोचता हूँ/ माटी का कवि है सवाबा/ और मैं/ शब्दों का कुम्भकार’ 

  तो लघुकथाकार को शब्दों का कुम्भकार बनना पड़ेगा, तभी उसकी लघुकथा से पके बरतन की तरह खनकदार ठनकार निकलेगी जो पाठकों को मुग्ध कर देगी। ऐसे पके शब्द अनुभूति की गहराई से निकलते हैं। अनुभव से प्राप्त शब्द तो कच्ची मिट्टी से बनी आकृति की तरह होते हैं। जो लेखक अनुभव को अनुभूति में ढाल सकता है वही भाषा का कारीगर है। डॉ.अशोक भाटिया इस बात को यों कहते हैं, ‘एक बोलचाल की भाषा होती है। उसे रचनात्मक या साहित्यिक भाषा में इस प्रकार ढाला-तराशा जाता है कि भाषा में मूल संवेदना, स्वाभाविकता, ज़िंदगी की धड़कन सुरक्षित रहे ।’

   प्रत्येक लघुकथाकार चाहता है कि उसकी लघुकथा संप्रेषणीय हो। अर्थात् जो कुछ भी वह कहना चाहता है वह पाठक के मन-मस्तिष्क में हूबहू उतर जाए । अलग से व्याख्या की आवश्यकता न पड़े। जो कहना है वह रचना स्वयं कहे। इसके लिए प्रायः लेखक अलंकारविहीन, सपाट, सरल, सहज व लोकजीवन से जुडी भाषा का प्रयोग करते हैं। डॉ.शमीम शर्मा लघुकथा की भाषा पर विचार करते हुए कहती हैं, ‘लघुकथा की भाषा संस्कृतनिष्ठ, क्लिष्ट या शास्त्रीय अथवा अत्यधिक बौद्धिक नहीं है। इसमें सहजता, रोचकता, चुस्ती, बेधकता, पैनापन, प्रभावोत्पादकता, संप्रेषणीयता, सांकेतिकता का आधिक्य होता है ।’ इस सहज भाषा के निम्न उदाहरण देखिए-                     

‘सीढियाँ चढ़ते ही वह दिखाई पड़ती। गोरा रंग, घने काले बाल, तीखी ऊँची नाक। कुल मिलाकर बेहद आकर्षक चेहरा। जबसे दिवाकर ने इस पी.सी.ओ. में आना शुरू किया था, उसके दिन बेहद अच्छे गुजर रहे थे। जिन्दगी से लगाव-सा महसूस होने लगा था ।’

  (खूबसूरत लडकी:प्रतिभा श्रीवास्तव)

सुननेवाला खौफ, अफ़सोस और आक्रोश से भर जाता। कुत्ते-भेडि़ये हो गए हैं लोग ! घोर कलजुग ! अनर्थ ! कुछ ही देर में बात मोहल्ले भर में फ़ैल गई थी। पुलिस कार्रवाई करने से पहले मीडिया वाले भी आ पहुँचे थे। भीड़ मुरारी मास्टर के घर के बाहर जमा थी ।’  

    – (खौफ:कमल चोपड़ा)

मैंने जैसे ही भीड़ भरे चौराहे  से बायीं ओर जाने के लिए मोटर साइकिल आगे बढ़ाई ही थी कि तभी मेरे सामने अचानक एक हृष्ट-पुष्ट अनजान नवयुवक बाएँ हाथ में एक फ़ाइल और दस-बीस-पचास के कुछ नोट दायें हाथ की मुट्ठी में दबाए हुए मेरे सामने आ खड़ा हुआ ।’        (धोखाधड़ी:प्रभात दुबे)

 ‘बासु के बाएं हिस्से की तीसरी सीट पर बैठे सत्येन्द्र का ध्यान दाएँ कंधे से बाईं ओर को लटकाए शोल्डर-बैग तथा तीन-चार फीट का डंडा थामे वृद्ध को सहारा देकर चढ़ते अधेड़ व्यक्ति की ओर गया जो टिकट पर सीट का नंबर देखकर उसके निकट पहुँच गया ।’

  (थके पाँवों का सफ़र:डॉ.सतीश दुबे)

     सादगीपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हुए अलग-अलग कथाकार अपनी लघुकथाओं में अलग-अलग प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कई बार उनका प्रयोग संप्रेषणीयता में वृद्धि करता है तो कहीं-कहीं असावधानीवश बाधक भी बन जाता है। ऊपर प्रथम उद्धरण की दोनों लघुकथाओं में छोटे-छोटे वाक्यों की रचना की गयी है जिससे ये सुग्राह्य बन पड़ी हैं। जबकि द्वितीय उद्धरण के दोनों अवतरण में लगभग एक पैराग्राफ जितने लम्बे वाक्य हैं। इस हद तक लम्बे वाक्यों से गुजरते हुए पाठक के साथ ही लेखक को भी कितना दायें-बाएं होना पड़ता है यह हम अच्छी तरह समझ सकते हैं। इसलिए लघुकथा के विद्वानों ने यों ही नहीं कहा है कि वाक्य छोटे-छोटे हों, शब्दों में मितव्ययता बरती जाए  वगैरह-वगैरह। ऊपर उल्लिखित प्रतिभा श्रीवास्तव की लघुकथा ‘खूबसूरत लड़की’ का सौंदर्य देखने के लिए पूरी लघुकथा यहाँ प्रस्तुत है-

      सीढियाँ चढ़ते ही वह दिखाई पड़ती। गोरा रंग, घने काले बाल, तीखी ऊंची नाक। कुल मिलाकर बेहद आकर्षक चेहरा। जबसे दिवाकर ने इस पी.सी.ओ. में आना शुरू किया था, उसके दिन बेहद अच्छे गुजर रहे थे। जिन्दगी से लगाव-सा महसूस होने लगा था। उसे शिद्दत से महसूस हो रहा था कि इस लड़की से दोस्ती करनी चाहिए। वह लगातार वहाँ आता रहा। दिवाकर की कोशिश धीरे-धीरे सफल हो रही थी ।

   “आपका नाम क्या है ?” दिवाकर ने कुछ रुक-रुककर पूछा ।

   “दामिनी…!” कहकर जब उसने बड़ी-बड़ी आँखें ऊपर उठाईं तो दिवाकर उन आँखों की गहराई में देखता रह गया ।

   “आपका नाम…?” वह पूछ रही थी ।

   “जी… दिवाकर…!” वह बुरी तरह हकला गया था। दामिनी के गुलाबी होठों पर हल्की मुस्कराहट थी। क्रमशः दोनों की दोस्ती गहरी होती गई। दामिनी हमेशा हँसकर दिवाकर का स्वागत करती। बहुत सारी बातें भी  करती ।

   पी.सी.ओ. बंद होने का समय था। दिवाकर बड़ी तेजी से अंदर दाखिल हुआ। दामिनी सामने बैठी थी। वही गुलाबी मुस्कान चेहरे पर थी ।

   “आओ, दिवाकर ।” दामिनी का स्वर हवा में लहरा गया ।

   “आज तुमने देर कर दी। पी.सी.ओ. तो बंद होने वाला है।

   “दामिनी ।” दिवाकर सीधे अपनी बात पर आ गया, मैं आज तुमसे कुछ जरूरी बातें करना चाहता हूँ।”

   “कहो दिवाकर ।” दामिनी ने शांत स्वर में कहा ।

   “दामिनी, मैं तुम्हारे साथ जिंदगी का सफर तय करना चाहता हूँ…। क्या तुम मेरा साथ दोगी ?” दिवाकर ने जल्दी से अपनी बात पूरी की। वह कशमकश में था। दामिनी हौले से मुस्कराई और उसने दिवाकर की आँखों में झाँककर कहा, “दिवाकर, तुम मेरे साथ जिंदगी का सफर तय करना चाहते हो…तुम मुझे कितना जानते हो…जिंदगी तो बहुत बड़ी बात है…दिवाकर, तुम मेरे साथ सड़क तक भी नहीं चल सकते ।” दामिनी की आँखें लाल हो रही थीं ।

   “क्यों दामिनी ?” वह बौखला-सा गया। जवाब में दामिनी ने नीचे झुककर मेज के नीचे रखी बैसाखियाँ उठाईं और बाँहों के नीचे रखकर आहिस्ता से पी.सी.ओ. के बाहर निकल गई। दिवाकर उसे देखता रह गया, अवाक्।   

     लघुकथा में बिम्ब, प्रतीक, रूपक, लोकोक्तियों, मुहावरों के महत्त्व को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है। ये वे उपादान हैं जो लघुकथा की लघुता के अनुकूल हैं क्योंकि इनसे शब्दों की फिजूलखर्ची से बचा जा सकता है। साथ ही भाषा पर्याप्त सर्जनात्मक बन पड़ती है, उसका सौष्ठव बढ़ जाता है। युवा आलोचक जितेन्द्र ‘जीतू’ कहते हैं, ‘लघुकथा में, विशेष तौर पर, लघु होने की वजह से भाषा की सांकेतिकता का अतिरिक्त महत्त्व है। सांकेतिकता रचनाकार को अनावश्यक विवरणों से बचाती है, रचना में ख़ूबसूरती लाती है। सांकेतिक भाषा के उपादानों में प्रतीक, बिम्ब, रूपक, अलंकार का अपना महत्त्व  है ।’

   इसका अर्थ यह नहीं है कि आप मुहावरों की भीड़ जमा कर दें, या बिम्ब व प्रतीक की भरमार लगा दें, या लोकोक्तियों का लोक ही रच दें। हमें लघुकथा को छोटी-सी पार्टी में आयी उस प्रदर्शनप्रिय स्त्री की तरह नहीं बनाना है जो गहनों से लकदक है और जिसके श्रृंगार तले स्वाभाविक सौन्दर्य दबकर रह गया है। आप मुहावरे की महज़ एक बिंदी लगा दें, सौन्दर्य दस गुना बढ़ जाएगा। प्रतीक के कर्णफूल पहना दें या गले में बिम्ब का हार डाल दें। बस यह सादगीपूर्ण श्रृंगार ही भाषा को आभा मंडित कर देगा। यहाँ हम फिर से दागिस्तानी साहित्यकार रसूल हमजातोव की इस बात को रेखांकित कर सकते हैं, ‘शोरबे को मजेदार बनाने के लिए जिस तरह उसमें तरह-तरह के सुगन्धित पत्ते या मसाले डाले जाते हैं, उसी तरह अपनी नीरस फीकी कहानियों में मैं कहीं-कहीं एकाध कहावत या मुहावरा डाल देता हूँ ।’

   भाषा को सृजनात्मक ऊंचाइयों पर पहुंचाने वाले दो नाम लघुकथा विधा के आकाश पर अलग ही चमकते हुए दिखाई देते हैं। इनमें से एक है चैतन्य त्रिवेदी और दूसरे स्व.रघुनन्दन त्रिवेदी। इनके यहाँ बिम्ब व प्रतीक का रचाव देखने लायक है। रघुनन्दन की ‘नामुमकिन’ लघुकथा में आया यह वाक्य प्रयोग देखिये, ‘उसके जोर देने पर मैं समझ गया वह आकाश में उड़ते हुए पंछी की तरह बिना कोई पद चिह्न छोड़े मेरी ज़िंदगी में से होकर गुज़र जाना चाहती थी ।’ इसी लघुकथा(हालांकि इसे डॉ.सत्यनारायण ने कहानी की संज्ञा दी है। परन्तु 800 शब्दों की इस कथा की एकान्विति इतनी सघन है कि यह स्वतः लघुकथा की श्रेणी में आ विराजती है) से एक और उदहारण प्रस्तुत है-

  ‘मुझे आश्चर्य हुआ कि उसके चेहरे पर तमतमाहट के बजाए  अब वही शुरुआती दिनों वाली मासूम-सी मुस्कराहट फ़ैली हुई थी जो मुझे फूल और चाँद और ओस और आकाश वाली भाषा बोलने के लिए उकसाती थी ।’

   रघुनन्दन को पढ़ते हुए लगता है कि वे लघुकथा के आकाश पर भाषा का इन्द्रधनुष रचने वाले कुशल चितेरे हैं। उनकी ‘स्मृतियों में पिता’ श्रंखला की लघुकथाएँ पढ़ते हुए हम चकित रह जाते हैं। इतनी मुलायम, इतनी संस्पर्शी, इतनी मीठी भाषा रचना किसी रचनाकार के लिए कैसे संभव है ! आप भी देखिये- 

   “अकेले थे तब कठोर थे। जो कमाते खर्च हो जाता। कुछ बचता भी नहीं था। कोई चिंता भी नहीं थी। खाते-पीते और तानकर सो जाते थे। देखा जाए  तो मजे में थे, पर कुछ अधूरा-सा भी था तो सही। एक किस्म का अनमनापन। जीने का जैसे कोई मतलब नहीं। दरअसल कुछ होना था। कुछ इस तरह कि जैसे कोई सख्त और खट्टी-सी चीज़ किसी नरम और मीठी-सी चीज़ में तब्दील होना चाहे, मसलन आम या बेर तो वह क्या करे ?” पिता कह रहे थे ।

         किस्से की शुरुआत दिलचस्प थी। मैं और भाई और बहन उत्सुक सुन रहे थे। माँ सिर्फ मुस्करा रही थी ।

      मुस्कराती हुई माँ का चेहरा एकदम बहन से मिलता-जुलता था। वैसे ही जैसे कुछ उदास, कुछ गंभीर होकर बहन अपने चेहरे को माँ जैसा कर लिया करती थी ।

   अगर पिता को कहीं बाहर जाना होता, तो वे माँ की उस मीठी-सी मुस्कराहट को जरूर अपने साथ ले जाते। पर यह दिसंबर की सुबह थी। पिता को कहीं जाना नहीं था। वे फुरसत में थे। हमारे बीच अंगीठी पडी थी। अंगीठी पर चाय उबल रही थी। माँ की मुस्कराहट को हमने चाय में घुल जाने दिया।

  फिर जो पिता ने कहा, सब मुझे याद है। वे कह रहे थे- उन्होंने शादी की, घर बसाया, बाद में हम आए और यों उनकी सारी कठोरता जाती रही।  (स्मृतियों में पिता-एक)

   चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथाओं में भी भाषा का खिलंदड़ापन हमें कहीं गहरे तक आलोड़ित कर देता है-

   ‘पता नहीं उस राज्य का रिवाज ही कुछ विचित्र था। वहां दुश्मन राज करते थे। जो दुश्मन नहीं है किसी का , राज कार्य के सर्वथा अयोग्य समझा जाता। वहां अक्ल के दुश्मन राज करते। जो क़ानून का दुश्मन होता वह क़ानून की हिफाजत का काम देखता। गरीबों का दुश्मन गरीबी हटाने का काम देखता था। कुछ धर्म के दुश्मन थे। वे बड़े धार्मिक माने जाते थे। समाज के दुश्मन समाज सुधारक ।’          (अपना दुश्मन)

  लेखक ने अपनी बात कहने के लिए जो दुश्मन का बिम्ब सृजित किया है वह लघुकथा को कलात्मक ऊंचाइयों पर पहुँचाता है। साथ ही पाठक को यह समझने में कोई कठिनाई नहीं आती है कि यहाँ किस राष्ट्र की ऑर इशारा किया गया है। जहाँ रघुनन्दन त्रिवेदी की भाषा हमें संवेदनात्मक रूप से गहरे छू जाती है वहीं चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथा में उपस्थित व्यंग्य की महीन धार हमारे अंतस को छलनी कर देती है ।

  इधर कई लघुकथाकारों ने अपनी भाषा में मौलिक प्रयोग कर सर्जनात्मकता को बचाने की सार्थक पहल की है। कुछ उदहारण दृष्टव्य हैं-

  ‘दोनों को याद आते हैं तरुणाई के वे गज़ब दिन, जब इच्छाओं को चश्मे नहीं लगे थे…देहों के खुलते अग्निकुंड में कैसे छम-छम-छपाक किया करती थीं वे सखी’ (वासना:राजकुमार गौतम)

   ‘सीट पर सामान टिकाते-टिकाते मैं स्मृतियों की पगडंडियों पर निकल चुका था ।’

(मैं नहीं जानती:कमलेश भारतीय)

   ‘पहली बार उसकी हथेली और कलसा दोनों एक साथ भरे थे, पर आँखें बुझी-बुझी थीं ।’

          (तुलसा का कलसा:घनश्याम अग्रवाल)

   ‘सुर्ख जोड़े में टंके सलमे-सितारे मुझे ऐसे लगे जैसे दादी की हसरतें मुस्करा रही हों ।’

    (दर्द के रिश्ते:प्रतापसिंह सोढी)

   ‘मैंने उस नोट की रीढ़ को छुआ, उसकी नसें टटोलीं। उनमें दौड़ता हुआ लाल और नीला खून देखा ।’   (नोट:अवधेश कुमार)

   ‘ज़िंदगी किसी मजदूर के हाथों-सी कठोर होती है, भूखे बच्चे के पेट-सी खाली, माँ की आँखों-सी सूनी, कपड़ों-सी फटी-मैली, दिख रहे बदन-सी नंगी और बेबस होती है, जिसे ठेले की तरह खींचा जाता है ।’        (ज़िंदगी:अशोक भाटिया)

  ‘वो वचना जो धनसिंह के घर काम करता है, बता रहा था कि इस टोपी वाले ने धनसिंह को पट्टी पढाई कि भेड़ की ऊन मुड़ने के लिए ही होती है ।’   (जब से वह आया:कमल चोपड़ा)

‘वृद्ध पिता ने विचलित होते हुए कम्पित स्वर में कहा, ‘मन की इस आग को पानी मत बना  बेटे। ठंडी आग ठुकराई जाती है, पूजी नहीं जाती।    (ठंडी आग:श्यामसुंदर व्यास)

   स्थितियों की विद्रूपता को रेखांकित करने के लिए कई बार भाषा में व्यंग्य का पुट बड़ा कारगर होता है। व्यंग्य की तासीर ऐसी है कि पाठक तिलमिलाकर रह जाता है। हरिशंकर परसाई और शरद जोशी ने अपनी लघुकथाओं में व्यंग्यात्मक भाषा का खूब प्रयोग किया है। आरम्भ में कुछ लघुकथाकारों ने भाषा के इस मारक तत्व का इस्तेमाल अपेक्षाकृत प्रचुरता से किया था मगर धीरे-धीरे ऐसे तीखे तेवर गायब होते चले गए। फिर भी शंकर पुणताम्बेकर, घनश्याम अग्रवाल और संतोष सुपेकर जैसे लघुकथाकारों ने इस चीज को बचाए रखा। कुछ उदहारण प्रस्तुत हैं-

   ‘बच्चे से नतीजा सुनते ही स्कूल इन्स्पेक्टर जीप से स्कूल की ओर दौड़ा और हेड मास्टर के कमरे में पहुँचते ही दहाड़ा, ‘ए मास्टर के बच्चे, भूल गया कि मेरा बच्चा तेरे स्कूल में पढता  है ।’                            (चुनाव:शंकर पुणताम्बेकर)

  ‘भारत सरकार ने गंगी की उँगली पर एक काला टीका लगाते हुए इस फ्रीडम फाइटर को परिवार सहित ठाकुर के कुएँ के कुछ करीब कर दिया ।’(आज़ादी की प्यास:घनश्याम अग्रवाल)

  ‘पहली बार पक्ष-विपक्ष ने बिना किसी शोर-शराबे के पूरी फिल्म देखी। फिल्म समाप्त होने पर दोनों ने न केवल एक साथ तालियाँ बजाई, एक साथ चाय भी पी और फिर वे एक साथ सोचने भी लगे ।’  (गांधी की भ्रूण हत्या:घनश्याम अग्रवाल)

   ‘चुनावों के दौरान ’लोकतंत्र अपने देश में घूमने आया। रास्ते में उसका सामना एक औरत से हुआ। विशालकाय, काला शरीर, बड़े-बड़े सफ़ेद दांत, लाल-लाल आँखें, सर पर साठ-सत्तर सफ़ेद बाल। देखकर डर गया लोकतंत्र ..।’ (हाइटेक सैर:संतोष सुपेकर )                                      

  सतीश दुबे की ‘हमारे आगे हिन्दुस्तान’, रूप सिंह चंदेल की ‘गरीब बौद्धिक’, ‘कुर्सी संवाद’, ‘अंतर’, शशिकांत सिंह शशि की ‘पालतू कौए’ तथा विनोद दवे की ‘इंसानियत मरी नहीं’ लघुकथाओं की भाषा में घुले व्यंग्य का कटु-तिक्त स्वाद भी याद रह जाता है।

   कुछ लघुकथाकारों ने अपनी रचनाओं में आंचलिक भाषा का सटीक प्रयोग किया है। वस्तुतः जहाँ पात्रानुकूल भाषा का सवाल आता है वहाँ एकरसता से बचने के लिए और लघुकथा को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए आंचलिक भाषा और मुहावरे का प्रयोग जरूरी है। इस सन्दर्भ में लघुकथा के सिद्धांतकार भगीरथ का कहना है, ‘लघुकथा की भाषा निर्विवाद जनभाषा ही रही है। पात्र एवं परिवेश के अनुरूप भाषा, रचना में सौन्दर्य की सृष्टि करती है। अतः भाषा में आंचलिकता आना स्वाभाविक है। अंचल के मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ जनता के अनुभवों का निचोड़ होती हैं और लघुकथा के लिए उपयोगी हैं क्योंकि शब्दों की मितव्ययता से रचना में कसाव भी आ जाता है ।’ हाँ, यह जरूर है कि आंचलिकता के फेर में लघुकथा अपठनीय न हो जाए । इस दृष्टि से भगीरथ की ‘फूली’ एक आदर्श लघुकथा है। पति भानिया पर बार-बार वीरजी के आने की परेशानी को फूली जिन शब्दों में व्यक्त करती है उसके स्थानापन्न कोई दूसरे शब्द हो ही नहीं सकते-

   ‘सुबह पैली काम के टैम कांई भांड्यो है। हे वीरजी ! मैं थारा हाथ जोडूँ, क्यूं म्हारे पीछे लगो हो ।’

   चाँद मुंगेरी की ‘ठाकुर-हँसुआ-भात’ में आंचलिक संवादों के माध्यम से दारिद्र्यजन्य बेबसी का रेशा-रेशा उधेड़कर रख दिया गया है-

   ‘अम्मा, आज दू दिन बाद तू हमका खिलैयवेड़ भी तो रोटी-यूं भी मडुआ की ?’

   ‘अरे करमजला, अब ही साल भर पहले जब बड़का ठाकुर मारा रहा तो तू हुनका मरण भोज में भात खाया कि नहीं …बोल ?’ पूरी लघुकथा इस प्रकार है-

ठाकुर-हंसुआ-भात
-अम्मा !भूख लगी है हमका भात देय दो अम्मा.
-थोडा वखत और रुक बबुआ। बाप गेल हौs माडुआ पिसाबे खातिर मिल…हूनका औवते ही तोहका रोटी बना दे वौs
माँ के आश्वसन भरे शब्द भी बबुआ को आश्वस्त न कर सके…वह तुनक कर बोला-रोटी ! मडुआ की ? अम्मा आज दू दिन के बाद तू हमका खिलेयवेड़ भी तो रोटी-यू भी मडुआ की ?
-तब तोहका और का चाहीं खीरे पुडी ?

माँ खीज कर बोली . माँ के क्रोध को पचाकर बबुआ ने खुशामदी स्वर में कहा-अम्मा हमको भात दे दो अम्मा.बहुत जी चाहे भात खावेs ला .

-अरे करमजला अब ही साल भर पहले जब बड़का ठाकुर मारा रहा तो तू हुनका मरण-भोज में भात खाया कि नहीं ….बोल ?
-हाँ! खाया रहा.!. लेकिन अम्मा का ई दूसरा ठाकुर नहीं मरेगा ?
-मरेगा कैसे? बड़का को चोर मारा रहा…हिनका कौन..मारेगा ?
माँ के प्रश्न को सुन बबुआ की पकड़ हंसुआ पर सख्त हो गई…अब उसके समक्ष था सिर्फ-
ठाकुर …हंसुआ….भात.
ठाकुर …हंसुआ….भात

   आंचलिक भाषा के प्रभावी प्रयोग की दृष्टि से विक्रम सोनी की ‘जूते की बात’, बलराम की ‘बहू का सवाल’, चित्रा मुद्गल की ‘गरीब की माँ’, ‘बोहनी’, संजीव की ‘आतंक पूजा’, सिमर सदोष की ‘बढ़ता हुआ जहर’ आदि लघुकथाएँ भी उल्लेखनीय हैं ।

  संवादों में पात्रानुकूल भाषा का उपयोग बहुत मायने रखता है। आवश्यक नहीं कि पात्र की भाषा आंचलिक ही हो, हाँ उसके परिवेश से जुडी जरूर होगी। एक टपोरी, मवाली, माफिया, तस्कर, पुलिसकर्मी, किसान, विद्यार्थी, उद्योगपति, राजनेता, भ्रष्टाचारी, ईमानदार, अनपढ़, विद्वान , ग्रामीण, शहरी सभी को भाषा के लिहाज से हम एक ही लाठी से नहीं हांक सकते। जब ये बोलेंगे तो इनका पूरा परिवेश बोलेगा। जिस पेशे से पात्र जुडा हुआ है वह शब्दावली भी उसके संवादों में जरूर आएगी, चाहे उसकी भाषा अंगरेजी ही क्यों न हो, जैसे-

  ‘मिस्टर गौड़ ! इट्स अवर वर्क, नोट योर्स। आपका काम है-हमारे आदेश को फोलो करना, अंडरस्टैंड !’                             (ऐलान-ए-बगावत:मधुदीप)

  सामाजिक बदलाव के साथ भाषा में भी परिवर्तन आता है। सोशल मीडिया के इस दौर में हम यह बात आसानी से देख सकते हैं। ‘फेसबुक की एक पोस्ट’ (भगीरथ), ‘कसौटी’(सुकेश साहनी), प्रेम ब्लॉग(सतीश दुबे), आदि लघुकथाओं में रचनाकारों ने इस बदलती हुई भाषा को पकड़ने की सफल कोशिश की है। भगीरथ की लघुकथा का अंश देखिये-

   ‘फेसबुक की न्यूज़फीड पर एक फ्रेंड ने एक युवती का फोटो पोस्ट किया। जींस और टॉप पहने, एक हाथ में सुलगती सिगरेट और दूसरे हाथ में थमी बोतल ओठों से लगाकर सुरापान करती हुई। कुछ ही मिनटों में 312 बार लाइक बटन दब गया, पचास लोगों ने शेयर किया, चालीस लोगों ने कमेन्ट किये ।’

  सुकेश सहनी अपनी लघुकथा ‘खेल:रेनड्रॉप के चैटरूम से’ सोशल मीडिया की भाषा को इस तरह वर्चुअल संवादों में ढालते हैं-

   ‘मायसेल्फ:टेल मी एवरीथिंग अबाउट दिस, हम इस स्टोरी को अपनी पार्टी की वेबसाइट के मुख्य पृष्ठ पर डालेंगे ।

    रेनड्रॉप:वाट इस द नेम ऑफ़ योअर पार्टी ?

    मायसेल्फ:सेकुलर 2002 डॉट कॉम

कहने का तात्पर्य है कि बदलते समय की नब्ज को पहचानने वाला लघुकथाकार भाषायी शुद्धतावाद से बचता है। शुद्धतावाद के फेर में समय उससे आगे निकल जाएगा और वह सामाजिक परिवर्तनों का सही मूल्यांकन करने से वंचित रह जाएगा। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ठीक ही कहते हैं, ‘हम दुनिया से अलग नहीं हैं। लाठी लेकर बहती नदी को नहीं रोकी जा सकती। भाषा में आए बदलावों को महसूस ही नहीं, स्वीकार करना पड़ेगा। चैटरूम में फेरीवाले की या सब्जी मंडी की भाषा नहीं चलेगी और सब्जी मंडी में विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की भाषा या विवाह संस्कार की पारम्परिक शब्दावली की भाषा नहीं चलेगी। हमें कथ्य के अनुरूप अवसर, आवश्यकता और परिस्थिति को समझना होगा ।’

संवेदना

    रूस में खेले गए फीफा विश्वकप के क्वार्टर फ़ाइनल मैच की एक घटना है। फ़्रांस और उरुग्वे के बीच मुकाबला था। फ़्रांस का खिलाड़ी एंटोनी ग्रीजमेन गोल दागता है। फ़्रांस के सभी खिलाड़ी खुशी से उछल पड़ते हैं। स्टेडियम में बैठे फ्रांसीसी दर्शक भी। एंटोनी उनके लिए हीरो थे। लेकिन एंटोनी हाथ बाँधे चुपचाप खड़े रहते हैं। न वे उछले, न कूदे, न नाचे और न ही हाथ लहराते हुए मैदान का चक्कर काटा। बाद में उन्होंने जश्न न मनाने का कारण बताया। उन्होंने बताया कि उरुग्वे के एक कोच ने उन्हें फ़ुटबाल खेल की बारीकियाँ बतायी थीं, अपने पहले गुरु को सम्मान प्रदान करने के लिए मैंने जश्न नहीं मनाया ।

   यह नैतिकता का एक विरल उदहारण है, उच्च मानवीय मूल्य है जिसके चलते एक खिलाड़ी जोश में भी होश नहीं खोता है। यही योग है जिसके लिए गीता में कहा है, ‘सिद्धय सिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।’

   हमारे देश के हालात पर नज़र डालिए। अखबारों की शीर्ष पंक्तियाँ सब बता देंगी। हत्या, बलात्कार, लूट-पाट, धोखाधड़ी, ऑनर किलिंग, भीड़तंत्र की खबरों से अखबारों के मुख पृष्ठ अटे पड़े हैं। इन ख़बरों को पढ़-पढ़कर हमारी संवेदनाएं भोथरी हो गयी हैं। पहले अगर किसी एक की भी हत्या की खबर पढ़ लेते तो मन बेचैन हो जाता, बलात्कार की खबर पर हम आक्रोश से भर उठते, दुर्घटना में  इक्का-दुक्का किसी के मर जाने पर दिल उदासियों से घिर जाता। आज यह सब थोक में हो रहा है और हमें कुछ महसूस ही नहीं होता। मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं और यह देखा जा रहा है कि बलात्कारी की जात क्या है या उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं किसकी तरफ हैं। इतना पतन ! इसीलिए ‘सियाही’ लघुकथा(बलराम अग्रवाल) का पात्र अपनी अम्मा से कहता है कि वह रोटियाँ अखबार में लपेटकर न दे बल्कि फटे-पुराने अंगोछे में से ही सही, टुकड़ा निकालकर उसमें बांधा करे। वह दुखी स्वर में कहता है, “खाने को बैठते ही निगाह रोटियों पर बाद में जाती है अम्मा, ख़बरों पर पहले जाती है …इतनी गंदी-गंदी ख़बरें सामने आती हैं कि खाने से मन ही उचट जाता है ।” यह पात्र गरीब, मेहनतकश वर्ग से आता है, शायद इसीलिए इसकी संवेदनाएं अभी तक सान पर हैं।  

  ऐसी बात नहीं है कि देश-दुनिया में कुछ अच्छा घटित होता ही न हो। परन्तु अखबारों की बिक्री और चैनलों की टी.आर.पी. ‘गंदी’ ख़बरों से ही बढ़ती है। अच्छी ख़बरें तो उन्हें मजबूरी में देनी पड़ती हैं , जब सारी दुनिया के अखबार देते हों; जैसे कि थाईलैंड की गुफा में फंसे किशोर खिलाडियों को बचाने का साहसिक कारनामा। इसलिए अखबारों-खबरिया चैनलों से हम ज्यादा संवेदनशीलता की उम्मीद नहीं कर सकते। यह बात जरूर है कि कोरोना संकट के इस दुरूह समय में डॉक्टरों, नर्सिंग स्टाफ, सफाईकर्मियों, पुलिस, सोनू सूद जैसे लोगों की संवेदनशीलता पर चैनलों ने अच्छी कवरेज दी है जिससे लोगों में इस बात का विश्वास जगा है कि मानवीय संवेदनाएँ अभी तक पूरी तरह भोथरी नहीं हुईं हैं। ये साहित्यकार ही हैं जिनका मन अतिसंवेदनशील होता है और जो बार-बार उनकी रचनाओं में प्रकट होता है। आज चूंकि लघुकथा सर्वाधिक पढी जाने वाली विधा है इसलिए इसके रचयिताओं का दायित्व और भी बढ़ जाता है। रामविनय शर्मा कहते हैं, ‘मनुष्य में छिपी मानवता का दर्शन कराकर पाठक को संवेदनशील बनाना ही महान कृतियों का आत्यंतिक लक्ष्य होता है ।’ इसी बात को आलोचक चंचल चौहान यों कहते हैं, ‘साहित्य का काम उन तमाम अच्छी बातों को इस ढंग से रखना होता है कि ये बातें पाठक के हृदय को छूती हुई उसके भावों का परिष्कार करे। इन अच्छी बातों को हम मानवीय मूल्य भी कहते हैं। जैसे मनुष्य मनुष्य के बीच प्रेम, सद्भाव, उत्पीडित-दलित के प्रति सहानुभूति, अत्याचार के खिलाफ गुस्सा, समाज की बुराइयों के खिलाफ संघर्ष करने की भावना, समाज को बेहतर बनाने की ललक ।’

   तो आइए हम कतिपय ऐसी लघुकथाओं की शिनाख्त करते हैं जो मनुष्य मनुष्य के बीच करुणा, प्रेम, सहानुभूति, सहयोग, सौहार्द की बात करतीं हों, जो पाठकों में संवेदनशीलता जगाकर उन्हें और अच्छा इंसान बनने की प्रेरणा देती हों, जो हिंसा, बलात्कार, भय, भ्रष्टाचार, झूठ, ईर्ष्या, फरेब से मुक्त समाज का सपना जगाती हों ।

   सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘मन का सांप’ का कथानायक, जिसकी पत्नी पीहर है और जिसके कमरे में युवा नौकरानी सो रही है, भटकते मन पर विवेक का अंकुश लगाते हुए नौकरानी को जगाकर दूसरे कमरे में भेज देता है। आज जबकि मासूम बच्चियों के साथ दरिन्दगी करने से भी लोग नहीं चूक रहे हैं, ‘मन का सांप’ बहुत बड़ा सन्देश दे जाती है। रूप देवगुण की ‘जगमगाहट’ भी मनुष्य मनुष्य में विश्वास जगाने वाली खूबसूरत कथा है। बॉस लोगों की आदतों से परेशान लड़की तय करती है कि अगर नया बॉस कुछ ऐसी-वैसी हरकत करेगा तो चुप नहीं रहेगी बल्कि सामना करेगी। एक दिन बॉस उसे किसी काम से रिकॉर्ड रूम में बुलाता है। लड़की आशंकित सी पहुँचती है। काम करते हुए लाइटें चली जाती हैं। वह सिहर उठती है, अब तो अनर्थ होने वाला ही है। परन्तु जब बॉस कहता है कि तुम्हें अँधेरे से डर लगता होगा जाओ, तुम बाहर चली जाओ, तो लड़की की आँखों में विश्वास के सितारे झिलमिला उठते हैं ।

   बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को लेकर लिखी गई विनीता राहुरकर की लघुकथा ‘सजा तो अब शुरू हुई है’ बलात्कार मुक्त भारत की एक नई परिकल्पना प्रस्तुत करती है। मासूम बच्ची से दुष्कर्म करने वाला दरिंदा अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर बाइज्जत बरी हो जाता है। जब वह खुशी-खुशी घर पहुँचता है तो वहाँ का नज़ारा ही बदला हुआ पाता है। बीवी बच्चे सामान बांधकर जाने की तैयारी में हैं। बारह वर्षीय बेटी उसे देखकर सहम जाती है। जब वह बेटी को पुचकारने आगे बढ़ता है तो पत्नी कठोरतापूर्वक मना कर देती है। कहती है, ‘ तुम बाप नहीं बलात्कारी हो। अगर बाप होते तो किसी भी बेटी का बलात्कार नहीं कर सकते थे। बाप कभी किसी बेटी का बलात्कार नहीं कर सकता और जो बलात्कारी है वह कभी किसी का बाप हो ही नहीं सकता ।’ उसे लगता है कि वह क़ानून से चाहे बच गया, परन्तु सजा तो अब शुरू हुई है। आज के सन्दर्भ में जबकि बलात्कारियों को जाति, सम्प्रदाय या राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के चश्मे से देखा जाने लगा है, संवेदनाएं पीड़िता की अपेक्षा पीड़क पर शिफ्ट होने लगीं हैं,  यह लघुकथा और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।

   घर से भागी हुई लड़की के प्रति समाज का नजरिया कैसा होता है, किसी से छिपा नहीं है। ‘रांग नंबर’ (मुरलीधर वैष्णव) की भागी हुई लडकी जब पिता को फोन लगाती है तो उधर से हैलो सुनते ही गिड़गिड़ाने लगती है, माफी मांगती है, घर आने की मंशा प्रकट करती है। इस पर उसे सुनने को मिलता है, ‘बेटी, तुम कहाँ हो ? तुम जल्दी ही घर लौट आओ। मैंने तुम्हारी सब गलतियाँ माफ़ कर दीं हैं ।’ ये उसके पिता नहीं थे बल्कि पिता से मिलती-जुलती आवाज़ वाले एक अधेड़ सज्जन थे। गलती से फोन उनके लग गया था। ये सज्जन फोन काट देने या बुरा-भला कहने की बजाए  पछतावे की आग में झुलस रही एक भटकी हुई लड़की को सांत्वना के बोल बोलते हैं जिसकी कि वह बराबर हकदार है। यही तो इंसानियत है। कथा इस प्रकार है-

                              रांग नंबर/मुरलीधर वैष्णव

   “पापा प्लीज … फोन नहीं रखना, मैं जानती हूँ, मैंने आपका विश्वास तोड़ा। मैं बहुत पछता रही हूँ कि घर से भागकर मुंबई आ गई…मैं यहाँ बहुत परेशान हूँ, पापा ।…मैं तुरंत घर लौटना चाहती हूँ। पापा प्लीज…! एक बार… सिर्फ एक बार कह दीजिए कि आपने मुझे माफ कर दिया ।” उसने फोन पर हैलो सुनते ही गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया था ।

  “बेटी तुम कहाँ हो ? तुम जल्दी ही घर लौट आओ। मैंने तुम्हारी सब गलतियाँ माफ कर दीं…।” कहकर उस आदमी ने फोन रख दिया ।

   पचास वर्षीय वह कुँवारा प्रौढ़ सोचने लगा कि उसकी तो शादी ही नहीं हुई, यह बेटी कहाँ से आ गई ? लेकिन वह तत्काल समझ गया था कि किसी भटकी हुई लड़की ने उसके यहाँ रांग नंबर डायल कर दिया था। बहरहाल, उसे इस बात की खुशी थी कि उसकी आवाज उस लड़की के पिता से मिलती-जुलती थी और उसने उसे ‘रांग नंबर’ कहने की बजाए  ठीक जवाब दिया था ।

   रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की बहुचर्चित लघुकथा ‘ऊँचाई’ के पिता को जिस ऊँचाई पर खड़े दिखाया गया है वह न केवल रिश्तों में मिठास घोलने वाला है बल्कि लघुकथा को संवेदनात्मक दृष्टि से यादगार बना देता है।

   आज आपसी रिश्तों में जिस कदर कड़वाहट फैलती जा रही है उसमें पुनः मिठास भरने की चिंता कई लघुकथाओं में देखी जा सकती है। ‘चोरी’(रामयतन यादव) में नन्हें बच्चे की मासूम लीलाएं देख वह सब कुछ भूलकर दुश्मन(भाई) के बच्चे को उठाकर बेतहाशा प्यार करने लगता है। राधारानी की ‘दीवार’ लघुकथा में भी दोनों भाइयों के मध्य मनमुटाव की दीवार खड़ी है। जब भूकंप आता है तो छोटे भाई से रहा नहीं जाता और वह ‘भइया, भइया’ पुकारते हुए घर के अन्दर दौड़ता है और खाट पर बीमार पड़े बड़े भाई को उठाकर तेजी से बाहर ले आता है। तभी दीवारें भरभराकर गिर जाती हैं मानो दोनों भाइयों के दिलों के मध्य उठी दीवार ढह गयी हो। इसी तरह कुणाल शर्मा की लघुकथा ‘अपने-अपने’ में नन्हीं पिंकी मनमुटाव वाले दो परिवारों के मध्य सेतु बनती है। ‘परिधि’(वाणी दवे) का दूकानदार रामदयाल अधेड़ अवcस्था में भी अपने वृद्ध पिता से हिसाब-किताब चेक करवाता है और पिता हमेशा की भाँति गलतियाँ ढूँढकर उन पर लाल निशान लगा देते हैं। पत्नी खीजते हुए कहती है कि जबसे ब्याह कर आई हूँ पिताजी ने कभी आपकी तारीफ़ नहीं की। कभी शाबाशी नहीं दी ।’ इस पर रामदयाल जो बात कहते हैं वह सीधे दिल में उतर जाती है- दरअसल इन लाल घेरों को देखकर मुझे संतुष्टि मिलती है …ये लाल गोले हैं तो लगता है मैं चारों ओर से सुरक्षित हूँ क्योंकि मुझे पता है जिनके पास कोई गलती ढूंढकर लाल गोले बनाने वाला नहीं है, उनका जीवन कितना बिखरा हुआ और अधूरा है। ‘सपूत’(पूर्णिमा मित्रा) अमीर और गरीब के भावनात्मक और वैचारिक विरोधाभासों पर प्रकाश डालने वाली मर्मस्पर्शी लघुकथा  है। कार ड्राइवर बहादुर मालकिन से कुछ अग्रिम राशि तथा तीन दिन की छुट्टी मांगता है ताकि गाँव जाकर आपनी बीमार माँ को ला सके। इस पर मालकिन अपने वर्ग चरित्र के अनुसार समझाती है कि वह इन पचड़ों में न पड़े। अमीर बनने के लिए इमोशनल नहीं हुआ जाता। अपने साहब को ही देख लो,  इसी शहर में उनकी बूढ़ी माँ है , मगर उन्हें कभी परेशान होते देखा है ? इस पर बहादुर जो जवाब देता है उससे संवेदनहीन अभिजात संस्कृति की चूलें हिल जाती हैं, ‘नहीं बनना मुझे साब जैसा बड़ा आदमी। मैं अमीर कपूत की बजाए  गरीब सपूत बनना ज्यादा ठीक समझता हूँ ।’ इधर ‘सदुपयोग’(ऊषालाल) की बेटी विवाह के पश्चात् जब पीहर आती है तो यहाँ की खस्ता हालत देखकर शगुन में मिले रुपये माँ को सौंप देती है। ‘छत्रछाया’(रामकुमार घोटड़) में पिता की मृत्यु के पश्चात् खाली जगह पर जहां पिता ने कभी पेड़ लगाया था, उसे काटने की बजाए  बेटा बगल में एक और पेड़ लगाकर माँ की भावनाओं का आदर करता है। ‘माँ का कमरा’(श्याम सुन्दर अग्रवाल) का बेटा माँ को शहर लाता है और उसे रहने के लिए सामान्य सी खोली न देकर सर्व सुविधायुक्त कमरा मुहैया करवाता है। यह देख माँ सुखद आश्चर्य से भर जाती है। ‘कुंदन’(पवन शर्मा) की पत्नी पुश्तैनी मकान को बचाने की चिन्ता में पति को रात भर करवटें बदलते देख अपने गहने बेच देने का प्रस्ताव रखती है; गहने जो स्त्रियों को बहुत प्रिय होते हैं , यहाँ परिवार की खुशी के सम्मुख कोई मायने नहीं रखते ।

   कुछ लघुकथाओं में संवेदनाओं का विस्तार रिश्तों की सीमा को पार कर जाता है। अर्थात यहाँ कथाकार की नज़र व्यापक मानवीय मूल्यों पर है जो कि श्लाघनीय है। ‘अपने पराए’(कीर्ति गांधी) में वृद्ध पिता को घर में ठिठुरता छोड़कर बेटा-बहू गरीबों की बस्ती में कम्बल बाँटने जाते हैं। बाबूजी की हालत देखकर घर का पुराना नौकर उनके बेटे के कमरे से मुलायम रजाई लाकर ओढ़ा देता है। बाबूजी सुकून से भर उठते हैं। उन्हें लगता है कि रामू पराया होकर भी कितना अपना है। कमल कपूर की लघुकथा ‘दुपट्टे बदले थे उन्होंने’ में विदा के समय जब माँ वीरा को पता चलता है कि बेटी को देने के लिए खरीदी गईं चूड़ियाँ चोरी हो गईं हैं तो वह हताश हो जाती है। ऐसे में उसकी सहेली तत्काल अपने हाथ की चूड़ियाँ उतारकर दे देती है। इस लघुकथा से हमें पंजाब की एक ऐसी प्रथा का ज्ञान होता है जो समाज में उच्च मानवीय मूल्य स्थापित करती है। इस प्रथा के अनुसार जो सहेलियाँ दुपट्टे बदलती हैं वे ज़िन्दगी भर दुःख-सुख में एक दूसरे का साथ निभाती हैं।   

  कविता मुखर की ‘कशमकश’ में संवेदनाओं का विस्तार पशु तक होता है। जब से यह ज्ञात हुआ है कि पालतू जानवरों को खाना खिलाने से वे मनुष्य की सारी बलाएँ अपने ऊपर ले लेते हैं, कथानायिका बहुत बेचैन है क्योंकि वह रोज एक मासूम बछड़े को रोटी देती है और नहीं चाहती है कि उसकी बलाएं उस निरीह और निर्दोष जानवर को लगे। रामकुमार आत्रेय की ‘ज़िद’ लघुकथा में एक चिड़िया बार-बार पंखे पर अपना घोसला बना लेती है। पति गिराने लगता है तो पत्नी रोक देती है, कहती है,-इसकी ज़िद घर बनाने के लिए है। हमें इसका सम्मान करना चाहिए ।’ के.पी.सक्सेना दूसरे की लघुकथा ‘मंदबुद्धि’ में बालदिवस पर मंदबुद्धि बालकों के लिए आयोजित एक दौड़ का दृश्य है। दौड़ पूरे जोश के साथ चल रही है कि सबसे आगे रहने वाला बच्चा गिर पड़ता है। उसके ऐन पीछे वाला बच्चा खुशी से आगे नहीं निकल जाता वरन रुककर उसे उठा लेता है, धूल साफ़ करता है। पीछे रहने वाले बच्चे भी आ जाते हैं। गिरे हुए बच्चे को रोता देख वे भी रुक जाते हैं। लेखक कहना चाहता है कि बच्चे चाहे मंदबुद्धि हों मगर मानवीय संवेदनाओं में कहीं आगे हैं। प्रकाश तातेड़ की लघुकथा ‘सहानुभूति’ में बूट पालिश करने वाले गरीब लड़कों के परस्पर सहयोग की अच्छी मिसाल दी गयी है ।

   लघुकथाओं के संसार में से ऐसी और भी रचनाओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में मानवीय संवदनाओं की अभिव्यक्ति हुई हो। संक्षेप में बात करें तो अखिलेश पलारिया की ‘क़द’ में बहन की निगाहों में उपेक्षित गरीब छोटे भाई का क़द एकाएक तब बढ़ जाता है जब वह बहन के गुर्दे ख़राब होने की बात सुनकर बेहिचक अपना एक गुर्दा दान कर देता है। ‘लाश का फोटो’(नरेन्द्रकुमार गौड़) में फोटोग्राफर नैतिकतावश लाश का फोटो खींचने के पैसे नहीं लेता। ‘सोच’(आरती बंसल) में अपने यहाँ पति द्वारा अनाथ बच्ची की परवरिश करने के प्रस्ताव को बर्दाश्त न कर सकने वाली कॉलेज प्रवक्ता नीलिमा यह देखकर हैरान रह जाती है कि साधारण चाय वाला अपने गाँव के ऐसे लड़के को पालने की जिम्मेदारी उठा रहा है जिसके माँ-बाप हादसे के शिकार हो चुके हैं। जब ससुराल में बहू को नया नाम देने की बात चलती है(पहचान:सुरेश तन्मय) तब ननद एतराज जताती है। कहती है, भाभी अपना सब कुछ छोड़कर यहाँ केवल नाम भर लेकर आयी है, उसे भी आप लोग छीन रहे हो। ‘सूर्योदय पश्चिम में’(माणक तुलसीराम गौड़) के शर्मा दम्पति वृद्धाश्रम जाकर किसी वृद्ध स्त्री-पुरुष को गोद लेने की गुज़ारिश करते हैं ताकि उनके जीवन में जो माँ-बाप का अभाव है उसकी पूर्ति हो सके। ‘पहला संगीत’(अखिल रायजादा) में जब कथानायक भिखारी बच्चे का जन्म दिन जानकर अपने नए गिटार से ‘हैप्पी बर्थ डे टू यू’ की धुन निकालता है तो ट्रेन के सहयात्री आश्चर्य में पड़ जाते हैं। परन्तु इस धुन पर बच्चे को नाचता हुआ देखना संगीतकार के लिए संसार की सबसे बड़ी खुशी है। इसी प्रकार ‘भूख’(अशोक भाटिया) में अन्य यात्रियों की तरह पैसे दान न करके कथानायक भिखारी को अपने पास बैठाकर खाना खिलाता है। सहयात्री हँसते हैं परन्तु भिखारी इस आत्मीयता से तृप्त होकर कहता है, ‘आज तक मुझे इतना किसी ने नहीं दिया ।’ ‘फुहार’(कमल चोपड़ा) में दंगाइयों के पाँव उस वक्त थम जाते हैं जब स्कूल से लौटे मासूम मुस्लिम बच्चे को कान पकड़कर बार-बार सॉरी बोलते देख पंडितजी उसे उठाकर गले लगा लेते हैं। सुबह इस बच्चे की गेंद से सूर्य को अर्ध्य देते हुए पंडित जी का लोटा गिर गया था। अब बच्चा कह रहा है कि जब आप पूजा कर रहे होंगे तब मैं गेंद नहीं खेलूंगा, और पंडित जी कह रहे हैं कि जब तू गेंद खेलेगा उस वक्त मैं अर्ध्य नहीं दूंगा। इस लघुकथा को पढ़कर किसका मन नहीं भीगेगा भला। काश ! वास्तव में ऐसा हो पाता। ‘असमय मौत’(सदाशिव कौतुक) के बुजुर्ग से अपने बेटों की करतूत सुनने पर सहयात्री महिला इतनी द्रवित हो जाती है कि वह उन्हें अपने घर ले जाने को तैयार हो जाती है, कहती है मैं आपकी बेटी समान हूँ। आप मुझे अपनी बेटी ही समझिए। ‘रिश्तों की नींव’(जगदीश राय कुलरिया) में कम उम्र के कामगार लड़के के हाथों जब कीमती शीशा टूट जाता है तो वह मालिक के कोप की कल्पना कर बेहद डर जाता है। परन्तु मालिक डाँटने-डपटने की बजाए  उससे सहानुभूति से पेश आता है और हाथ से निकल रहे खून को देखकर उसे डॉक्टर के पास ले जाता है। ‘बाबू’(संध्या तिवारी) भेदभाव की शिकार हो रही बच्ची पिंकी के अंतस का रेशा-रेशा उधेड़कर सामने रख देती है, फलतः माँ को अपनी गलती का एहसास होता है और वह उसे पुराने नाम बाबू से पुकारते हुए सीने से लगा लेती है। ‘जीने का सलीका’(सुधीर द्विवेदी) में निराशा में डूबे मिहिर को ऊपरी तौर पर अल्हड़ और हँसमुख किन्तु भीतर से दुखी कामवाली लडकी जीने का सलीका सिखा जाती है। ‘बात बहुत छोटी सी थी’(मधुदीप) में माँ को उपेक्षा की दृष्टि से देखने वाला छोटा भाई बड़े भाई के एक छोटे से दृष्टांत से परिवर्तित होकर माँ के पाँव छू लेता है। ‘गांधीगीरी’(मुन्नूलाल) का बड़ा भाई छोटे को प्रताड़ित करता रहता है परन्तु छोटा विरोध करने की बजाए  चुप रहता है। इस पर भी बड़ा तंज कसता है कि तेरी गांधीगीरी मेरे सामने नहीं चलेगी। यह सुनकर छोटा कहता है-मैं क्या जानूं गांधीगीरी। दरअसल माँ ने कहा था न कि बड़े भाई से उज्र न करना कभी, वह बाप के सामान होता   है ।’ यह सुनकर बड़ा भाई पानी-पानी हो जाता है। इधर ‘आदतें’(वसुधा गाडगिल) की भटकी हुई बहू सास का मातृवत व्यवहार देखकर संभल जाती है।  

  बलराम अग्रवाल की ‘गो-भोजन कथा’, सतीश दुबे की ‘लास्ट लेसन’, ‘बर्थ डे गिफ्ट’, कमल चोपड़ा की ‘बांह-बेली’, भूपिंदर सिंह की ‘रोटी का टुकड़ा’, प्रताप सिंह सोढ़ी की ‘दर्द का रिश्ता’, प्रबोध कुमार गोविल की ‘माँ’ जैसी बहुचर्चित लघुकथाएँ संवेदनाओं से लबरेज हैं जिनका जिक्र यहाँ बहुत जरूरी है। कुछ और लघुकथाओं का यहाँ पर केवल नामोल्लेख किया जा रहा है जिनमें किसी न किसी रूप में संवेदनात्मक छुअन या मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के दर्शन होते हैं। ‘अपने-अपने’(कुणाल शर्मा), ‘पश्चाताप’(चंद्रेशकुमार छतलानी), ‘खाली हाथ’(सीमा जैन), ‘जीत’(विभा रश्मि), ‘असली निबंध’(वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज), ‘आत्म संतुष्टि’(अंजना गर्ग), ‘विवादग्रस्त(सतीश राठी), ‘पापा जब बच्चे थे’(अशोक भाटिया), ‘सेहरा’(कुमार नरेंद्र), ‘सपने, स्वर और ध्वनियाँ’(अमृत लाल मदान), ‘ढहती दीवारें’(शशि बंसल), ‘खून का रिश्ता’(राधेश्याम भारतीय), ‘कड़ी’(पुष्प जमुआर), ‘बुनियाद’(नीरज सुधांशु), ‘ममता’(ज्योत्सना सिंह), ‘आंसुओं की भाषा’(चन्द्रदत्त शर्मा), ‘वारिस’(आशा खत्री लता), ‘साहसिक क़दम’(मिथिलेशकुमारी मिश्र), ‘पिता, पत्नी और पुत्र’(अशोक वर्मा), ‘लौटते हुए’(अशोक जैन), ‘टीस ऐसी भी’(रामदेव धुरंधर), बावड़ी का दुःख (कृष्णकुमार आशु) आदि ।

   यह बात देखी गई है कि शिल्प कितना ही सुघड़ हो, भाषा कितनी ही प्रांजल हो, यदि लघुकथा में मानवीय संवेदनाएँ नहीं हैं तो वह अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ पाती है। एक सार्थक लघुकथा में कथ्य, भाषा, शिल्प और संवेदना का कलात्मक संतुलन आवश्यक है। ऐसी ही लघुकथाएँ आगे चलकर कालजयी सिद्ध होतीं हैं ।

                             -0-

           -माधव नागदा(लालमादड़ी)-313301(राज), मोब-9829588494


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