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वांछित प्रभाव छोड़ती है लघुकथा

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इतिहास के झरोखे से देखें तो लघुकथा प्राचीन विधा है। इसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। लघुकथा सीधे अपने कथानक की प्रकृति के अनुसार सटीक भाषा शैली से अपने अंत पर पहुँच कर वांछित प्रभाव छोड़ती है। लघुकथा कलेवर में छोटी होते हुए भी अपनी अभिव्यक्ति, भाव से पाठकों के मन को छू लेती है। 

 जैन धर्म की ऐतिहासिक और उपदेशात्मक कथाएँ, बौद्ध धर्म की जातक कथाएँ पंचतंत्र और हितोपदेश की कथाएँ , लघुकथाओं की श्रेणी में ही आती थी।

वर्तमान युवा पीढ़ी प्रत्येक बात या मान्यता को तर्क की कसौटी पर कसकर देखना, परखना चाहती है। साथ ही उपदेश व आदर्श की बोझलता से भी मुक्ति पाना चाहती है। अतः आज की लघुकथाएँ प्राचीन लघुकथाओं से सर्वथा भिन्न है। इनका लक्ष्य तो व्यक्ति को व्यवस्था के विकृत रूप से परिचित कराना है और उसे ‘सही’ करने के प्रति व्यक्ति को कुछ सोचने के लिए बाध्य करना है। 

आज लघुकथा एक सशक्त और सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली विधा के रूप में अपना स्थान बना चुकी है। 

लघुकथा नाम से स्पष्ट है, कि उसका आकार लघु होना चाहिए साथ ही आनंददायक कथाभिव्यक्ति भी होना चाहिए। 

पिछले कुछ वर्षो में लघुकथा के क्षेत्र में हुई गतिविधियों के प्रभाव की सघनता और उसकी व्यापकता में निरंतर वृद्धि हुई है फेसबुक समूहों के आने से लघुकथाकारों और पाठकों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है।

समकालीन लघुकथा कथा कथन की अप्रतिम विधा है। इसके प्रत्येक चरण में मौलिकता और नवीनता है। इसमें उगते सूरज की रक्ताभा है तो डूबते सूरज की पीताभा भी है। इसमें संकट का यथार्थ चित्रण है। समकालीन लघुकथा निराशा, चुनौती और संघर्ष भरे जीवन में आशा,सद्भाव और सफलता की भावना के साथ आमजन के साथ विद्यमान है।

आज लघुकथा व्यक्ति की अभिव्यक्ति को प्रतीकों और बिंम्बो के माध्यम से कलात्मक स्पर्श देकर जन-जन तक 

पहुँचा रही है। 

गम्भीर और तीखे द्वंद्व-दंश वाली लघुकथा पाठक को अधिक दायित्वपूर्ण और सोचने, समझने और विचारने को विवश कर रही हैं। 

वर्तमान में लघुकथाएँ “देखन में छोटी लागे घाव करें गंभीर” को पूर्णतः चरितार्थ कर रही हैं।

लघुकथा मेरी पसंदीदा विधा है बहुत सी लघुकथाएँ हैं, जो मुझे पसंद है। पेट का कछुआ, मकड़ी, नवजन्मा, रंग, कपों की कहानी अनेकों कथाएँ हैं जो दिल के करीब हैं। 

अपनी पसंद की जिन दो लघुकथाओं की मैं चर्चा करना चाहूँगी, वे हैं सुकेश साहनी जी की ‘कुत्ते वाले घर’ और श्याम सुंदर अग्रवाल जी की ‘माँ का कमरा’ है। 

कुत्ते वाले घर अपने शीर्षक के अनुरूप एक सटीक लघुकथा है। उच्च वर्ग की कोठियां कुत्ते वाले घर के नाम से जानी जाती हैं। कुत्ते पालना आजकल प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। एक से एक ऊंची नस्ल के कुत्ते पालना उच्च वर्ग अपनी शान समझता है। इस कथा में धन के घमंड में मनुष्य की निष्ठुरता को बड़ी ही कुशलता से दिखाया गया है। घर में सम्पन्न होने के बावजूद किसी अन्य व्यक्ति की मेहनत की कमाई को मार लेने की प्रवृत्ति को बखूबी दर्शाया गया है। आज समाज में बहुत से ऐसे व्यक्ति दिखाई दे जाते हैं जो आदतन सिर्फ कुछ पैसे बचाने के लिए किसी गरीब मेहनती व्यक्ति का पेट काटने से नहीं चूकते। हाॅकर पर झूठा इल्जाम लगाना उसे सताना व्यक्ति की रुग्ण मानसिकता को दर्शाता । 

अखबार बांटने वाला हॉकर अखबार के खरीददार के पास अखबार खरीददारी का पेमेंट लेने उसके विशाल बंगले के दरवाजे तक वहाँ के कुत्ते की जोखिम को ताड़कर कुत्ते से बचते बचाते पहुंचता है और दरवाजे से लगी कालबेल का बटन हिम्मत करके दबाता है। जिसके उत्तर में बंगले का मालिक खुद दरवाजा खोलता है और चोरी चुपके से दरवाजे तक आ पहुंचे  हॉकर  पर वह चोर होने का इल्जाम लगा देता है। और ऊंचे स्वर में उसे गलियां सुनाता है। इतना ही नहीं उस पर तोहमत लगाता है कि अखबार की नागा आए दिन करता है और बिल पूरे दिनों का बनाकर लाया है। फलतः वह पैसे काटकर अपनी इच्छानुसार उसको रुपये देता है । हॉकर जब वहाँ से लौटने को होता है तो उसकी दृष्टि दूसरी कोठी के गेट पर पड़ती है जहाँ कुत्ते से सावधान की तख्ती लगी हुई होती है। उसकी इच्छा होती है कि वह तख्ती को वहाँ से उखाड़कर उस बंगले में रह रहे कुत्तानुमा आदमी की कोठी पर लगा दे जिसने भौंक भौंककर आदमी होने के अर्थ को खारिज कर कुत्ते के स्वभाव का चोला पहनकर उसे डांटा डपटा है। 

उच्च वर्ग में भाषा और व्यवहार का एसिड हाॅकर जैसे सेवाभावी गरीबों पर बरसता है पाश कालोनी का यह व्यवहार कुत्तई नेमप्लेट से जा चिपकता है। 

 और इसकी परिणति हॉकर द्वारा दूसरे घर का कुत्ते से सावधान वाला बोर्ड उतारकर उस व्यक्ति के घर पर लगाना न सिर्फ अखबार वाले की मानसिक स्थिति को दर्शाता है अपितु समाज को आगाह करता है कि हमें जानवरों से नहीं अपितु दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों से बचने की आवश्यकता है।

वास्तव में ऐसे कुटिल गृहस्वामी कुत्ते ही है। या यूँ कहे कुत्ते के साथ रहते हुए व्यवहार में कुत्ता पन झलकने लगता है। कुछ हद तक संगति का असर होना स्वाभाविक भी है। ऐसे लोगों से गरीबों को बचकर रहना चाहिए, जहाँ गरीब का सच आदमी की कुत्तई वाली गुर्राहट के आगे भयभीत है। 

 पाठक की नजर में पाश का नंगापन तो जाहिर होता है पर भिंचे होंठो के बावजूद ईमानदार गरीबी आँसुओं में बह जाती हैं उच्च वर्ग का खोखलापन सामने आता है। 

माँ का कमरा लघुकथा माँ और बेटे के मध्य एक सकारात्मक संदेश देती लघुकथा है, कि आज भी ऐसे बेटे हैं जो अपनी वृद्धा माँ को वह सम्मान एवं प्यार देते हैं। जिसकी वास्तव में अधिकारी है। अन्यथा तो आज प्रायः वृद्ध माता पिता एवं बेटे के मध्य नकारात्मक संदेश देती ही अधिकांश लघुकथाएँ लिखी जा रहीं हैं। नवीनता लिए यह लघुकथा अपने विषय के कारण तो आकर्षित करती ही है। इसका शीर्षक भाषा शैली इसके श्रेष्ठ होने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

कहा जाता है, बेटे अपने माता पिता की जिम्मेदारी नहीं निभाते। माँ का कमरा में बेटा अपनी माँ शहर ले आता है। नौकर बरामदे के साथ वाले कमरे में उनका सामान रख देता है। कमरे में डबल-बैड, टी.वी.,टेप रिकॉर्डर आदि सब सुविधाएं हैं। जब बेटा ऑफिस से आता है तो माँ कहती है बेटा मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देना। क्योंकि प्रायः यही धारणा होती है कि शहर में बहू बेटे के पास रहने से दुर्गति होती है और तो और नौकरानी की तरह रहना पड़ता है तथा रहने के लिए भी नौकरों का कमरा दिया जाता है। इसके विपरीत जब बेटा कहता है कि यही उसका कमरा है। तो वह आश्चर्य चकित रह जाती हैं। 

माँ का कमरा लघुकथा में तमाम आशंकाओं को चीरकर सुविधाओं और रिश्तों से भरे सपने वाला कमरा माँ के लिए खुल जाता है। छोटे से पुश्तैनी मकान से निकलकर शहर में बेटे के घर में नौकरों के कमरे में रह लेने तक का समझौता किए माँ का मन बेटे की बात पर भीग जाता है। पुत्रत्व का बोध भौतिक सुविधाओं तक अटका नहीं है वह माँ को रिश्तों का संसार भी सौंपता है। पोते पोती का और बहन के आने पर माँ के साथ सोने का पुत्र हृदय में पलती मातृ आस्था और जीवन भर कष्टों में पलकर पुत्र को सींचने की त्याग भावना का यह मेल आलिंगन और आंसुओं के साथ ही रिश्तों की जमीन को हरा कर देते हैं। 

  माँ का सपना खिल जाता है जो उसने देखा सोचा तक न था। इस लघुकथा में पड़ोसन का नकारवादी यथार्थ, बेटे की जिद, आशंकाओं से सिकुड़ती मन:स्थितियाँ और आश्चर्य बोध कथा को वहाँ तक खींच ले जाती हैं जहाँ माँ का अकेलापन पोते पोती और बेटी के आगमन के सारे रिश्तों से जीवन की नई अनुगूँज पा लेता है। 

आज की पीढ़ी के सभी बेटे अगर इसी तरह का व्यवहार करते तो वृद्धाश्रमों की जरूरत ही क्यों पड़ती? क्यों उन्हें घुट- घुटकर जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होना पड़ता? 

कुत्ते वाले घर/ सुकेश साहनी

आलीशान कोठी के गेट को खोलने के लिए उसने हाथ बढ़ाया ही था कि उसे इलाके के अपने से पहले वाले हाॅकर द्वारा दी गई हिदायत याद आ गई। वह सतर्क हो गया। उसने पंजों के बल पर उचककर कोठी के कंपाउंड में नजर दौड़ाई…उसे कहीं कोई कुत्ता दिखाई नहीं दिया। उसने जानबूझकर गेट खड़़खड़ाया, सोचा अगर कुत्ता कहीं होगा तो खड़खड़ाहट सुनकर भौंकेगा ही, लेकिन उसे वहाँ कुत्ते की उपस्थिति का कोई चिन्ह नजर नहीं आया। वह कुछ आश्वस्त हुआ फिर भी एहतियातन उसने बहुत दबे कदमों से बरामदे तक का रास्ता पार किया और फिर हिम्मत करके कॉलबेल का बटन दबा दिया। 

दरवाजा खुला, कोठी के मालिक सामने खड़े थे। उसने अखबार का बिल उनकी और बढ़ा दिया। 

“क्या अखबार बेचने का काम सब चोर- उचक्कों ने संभाल लिया है?” एकाएक उन्होंने बिल को घूरते हुए उससे कहा। 

“जी!” उसकी समझ में कुछ नहीं आया। 

“जी…जी मत करो…” उन्होंने आँखें निकाल कर कहा पच्चीस दिन भी अखबार नहीं पढ़ा और बिल दो महीने का! हराम के पैसे समझे हैं क्या?”

“नहीं साहब, आपको गलतफहमी हो रही है मुझे आपके यहाँ अखबार डालते हुए पूरे दो महीने हो गए…आप मेरी डायरी देख लीजिए…”

“मैं तुम लोगों की नस- नस से वाकिफ हूँ…ये नौटंकी कहीं और दिखाना समझे ? अपने पच्चीस दिन के पैसे पकड़ो और दफा हो जाओ… आगे से यहाँ अखबार डालने की जरूरत नहीं है। कहते हुए उन्होंने कुछ नोट उसके मुँह पर Moh दिए। 

“साहब जबान संभाल कर बात कीजिए… अपनी मेहनत के पैसे माँग रहा हूँ, कोई खैरात नहीं…”उसे गुस्सा आ गया । 

“अबे तेरी ये मजाल!” उन्होंने हाथापाई की तैयारी की, अपने कुर्ते की आस्तीनें ऊपर चढ़ा लीं और चिल्लाए, “अरे ओ रामू…शंकर…पकड़ लो साले मादर…को। यही हरामी बरामदे का पंखा चुरा कर ले गया है…”

वह डर गया गुस्से के बावजूद उसकी आँखों में आँसू आ गए। वह तेजी से कोठी के बाहर आ गया। गुस्से से उसकी मुट्ठियाँ भिंची हुई थी। सामने की दूसरी कोठी के गेट पर कुत्ते से सावधान की तख्ती लगी हुई थी। उसकी इच्छा हुई कि वहाँ से तख्ती को उखाड़ कर इस कुत्ते की पर लगा दे।

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माँ का कमरा /श्याम सुन्दर अग्रवाल

छोटे से पुश्तैनी मकान में रह रह रही बुजुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला “माँ मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहाँ तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।”

पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहु- बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह करमो गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरोंवाला कमरा दिया है रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं न वक्त से रोटी, न चाय कुत्ते से भी बुरी जून है।”

 अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। उसकी जिद के आगे बसंती की एक न चली “जो होगा देखा जाएगा” कि सोच के साथ अपने थोड़े से सामान के साथ वह कार में बैठ गई। 

लंबे सफर के बाद का एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी। 

“एक जरूरी काम है माँ, मुझे अभी जाना होगा” बेटा उसको नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल। 

बसंती कोठी देखने लगी तीन कमरों में डबल- बेड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा- सैट था एक कमरा बहू- बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए- उसने सोचा, पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुजर हो जाएगी बस, बखूबी बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए उसे और क्या चाहिए। 

 नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था। डबल- बैड बिछा था, गुसलखाना भी साथ था टी.वी.भी पड़ा था। और टेपरिकॉर्डर भी दो कुर्सियां भी पड़ी थी। बसंती सोचने लगी काश उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई बहुत नरम गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डाँटने न लगे- सोचकर वह उठ खड़ी हुई। 

शाम को जब बेटा घर आया बसंती बोली “बेटा मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता”

 बेटा हैरान हुआ “माँ तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है न नौकर ने।”

बसंती आश्चर्यचकित रह गई “मेरा कमरा! यह मेरा कमरा!! डबल- बैडवाला…”

” हाँ माँ जब दीदी आती है तो तेरे पास ही सोना पसंद करती है और तेरे पोता पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी.देख, भजन सुन कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन मेले बेटे ने कहा तो बसंती की आंखों में आंसू आ गए। 

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