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Channel: लघुकथा
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पुल

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(अनुवाद; सुकेश साहनी)

मैं कठोर और ठंडा था। मैं एक पुल था। मैं एक अथाह कुंड पर पसरा था। मेरे पाँव की अँगुलियाँ एक छोर पर। मैं भुरभुरी मिट्टी में अपने दाँत कसकर गड़ाए था। मेरे कोट के सिरे मेरे अगल–बगल फड़फड़ा रहे थे। दूर नीचे बर्फ़ीली जलधारा गड़–गड़ करती बह रही थी। कोई सैलानी इस अगम्य ऊँचाई पर नहीं निकलता था, पुल कभी तक किसी नक्शे पर विहित नहीं हुआ था। मैं केवल प्रतीक्षा ही तो कर सकता था। एक बार बन जाने के बाद,जबतक वह गिरे नहीं, किसी पुल के पुल होने का अंत नहीं हो सकता।

एक दिन शाम होते की बात है, यह पहली शाम थी या हजारवीं? मैं कह नहीं सकता,मेरे विचार हमेशा गड्ड–मड्ड और हमेशा चक्कर में रहते थे। एक गर्मी शाम होते की बात है, जलधारा का निनाद और गहरा हो चला था कि मैंने मानव कदमों की आहट सुनी। मेरी ओर,मेरी ओर। अपने आपको तानो, पुल तैयार हो जाओ,बिना रेलिंग की शहतीर,सँभालो उस यात्री को, जिसे तुम्हारे सुपुर्द किया गया है। उसके कदम बहकते हों तो चुपचाप उन्हें साधो, लेकिन वह लड़खड़ाता हो तो अपने आपको चौकन्ना कर लो और एक पहाड़ी देवता की तरह उसे उस पार उतार दो।

वह आया, उसने अपनी छड़ी को लोहे की नोंक से मुझे ठकठकाया, फिर उसने उसके सहारे मेरे कोट के सिरों को उठाया। और उन्हें मेरे ऊपर तरतीब से रख दिया। उसने अपनी छड़ी की नोंक मेरे झाड़नुमा बालों में धँसा दी और देर तक उसे वहीं रखे रहा, बेशक इस बीच वह अपने चारों ओर दूर तक आँखें फाड़कर देखता रहा था। लेकिन फिर मैं पहाड़ और घाटी पर विचारों में उसका पीछा कर ही रहा था कि वह अपने दोनों पाँवों के बल मेरे शरीर के बीचो–बीच कूदा।

मैं भंयकर पीड़ा से थर्रा उठा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा था। कौन था वह? बच्चा? सपना? बटोही? आत्महत्या? प्रलोभक? विनाशक? और मैं उसे देखने के लिए मुड़ा। पुल का मुड़ना! मैं पूरी तरह मुड़ा भी नहीं था कि मेरे गिरने की शुरुआत हो गई। मैं गिरा, और एक क्षण में उन नुकीली चट्टानों ने मुझे चीर–फाड़कर रख दिया, जो तेज बहते पानी में से हमेशा चुपचाप मुझे ताकती रहती थीं।


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