गढ़वाली अनुवाद: डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’
लगभग चौथा स्टेशन तकैं कम्पार्टमेंट बिटिन सब्बि जातरि उतरि गे छा। रै ग्याँ मि अर बढ़दा जाड्डै वजै सि जरा जरा देर म कौंपदि, डरीं आँख्यूँ वळि वा नौनी। कम्पार्टमेंट म अचानक एकुलांस कि वजै सि भौत सि स्याणि मेरा मन म ऐंन।
कथा अच्छु होन्दू कि ! मेरी घौरवळी यूँ दिनु मैत म रौणी हुन्दी…बीमार…अस्पताळ म हुन्दी…या फिर…। यूँ स्याणियों क बस मा ह्वेकि मि अपड़ी सीट बिटि उठिक वींका नजदीक बैठी ग्यों।
गाड़ी अगला स्टेशन पर रुकि। एक…द्वी…तीन नया जातरि भितर ऐ गिन, पूरा कम्पार्टमेंट कु एक चक्कर लगायि अर एक-एक करि क ऊं मनैं द्वी जातरि हमारा समणि वळि बर्थ पर ऐ गेनि।
“कख जाण?” गाड़ी चलदु इ एक न पूछि।
“शामली।” मिन बोलि।
“या?” सभ्यता कु अपडु लबादु उतारि क दूसरा न पूछी।
“येयि…या…।” मि थिथ्यायों।
“मि घौरवळि छौं यूँकी।” स्थिति कु अंदाज करिक नौनी न बोलि। अपड़ा दैणा हाथ न वीं न मेरू पाखडु जोर सि पकड़ी दे।
“ऐसी कि तैसी…तेरी…अर तेरा ये घौरवळा की।” दूसरा न झड़ाक सि एक थप्पड़ मि पर मारिक वा नौनी झपटी दे।
“बचै द्या…बचै द्या…इन चुप न बैठा…!” मेरा पाखड़ा तैं कसिक पकड़ी क वा भयंकर डरी गे अर दुःखी ह्वे गे। चण्डाळ सि दिखेण वळा ऊँ गुण्डों न जोर से खैंची क वीं तैं मेरी काँख बिटि लूछी दे। मेरा देखदु-देखदु छटपटान्दि-चिल्लांदि वीं नौनी तैं कम्पार्टमेंट म वु दूसरी तरफाँ लिगी गेन।
“नौनी तैं छोड़ी द्या!” उख बिटि अचानक धमकौंदि आवाज ऐ।
यु पक्का वीं तरफ बैठ्यूँ तीसरू जातरि छौ। वीं घनघोर रात तैं दनादन चीरदि गाड़ी क भित्तर वे की धमकि कि दगड़ा इ हाथापाई और मारपीट सुरू हूण क अंदाज मि तैं लगि गे। काफी देर तक वु दौर चन्नु रै। कई स्टेशन ऐनि अर निकळि गेन। आखिर म डब्बा म खालिपन महसूस करिक मिन पिसाब क बाना उठण कि हिम्मत करि। जैकि बाथरूम कु दरवाजु खोली—तीसरा जातरि कु नांगी सरीर वुख पड़ियूँ छौ…ल्वे न लथपथ…जगा-जगा फटट्यूँ मुक! मेरा औण कि आवाज न एक घड़ी वे का आँखा खुलींन…नजर मिल्दु ई आँखों क पार चिरदा आँखा। ‘मन्न-मिटण कि तिलभर भी हिम्मत तुम अपड़ा भीतर सँजौंदा त नौनी बची जांदी …अर गुण्डा…!’ बुल्दि बुल्दु, मेरा मुक पर थूकदा…थू-थू करदा आँखा। उफ्फ!
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