
एक ताबीज़ वाला गाँव-गाँव, बस्ती-बस्ती, शहर-कस्बों में घूम-घूमकर ताबीज़ बेचता। धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्धि इतनी हो गई कि उसके पहुँचने से पहले उसके आने की ख़बर फैल जाती।
ताबीज़ वाले का दावा था उसका बनाया ताबीज़ बाँधने के बाद कोई शराब पीना तो दूर नाम भी नहीं लेता। चमत्कार को नमस्कार कौन नहीं करता? इस दावे में सब अपने सुखों की कुँजी खोजने लगे। सुख को जीने की परिकल्पना ही कभी-कभी थोड़ा-बहुत दुख हर लेती है।
अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं होता। ताबीज़ पाने के लिए औरतों का हुजूम लगा रहता। जो स्वयं बाहर निकल सकती थीं स्वयं खरीदती, जिनको चारदीवारी से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी वो चोरी-छिपे किसी सखी-सहेली, ननद-भाभी, बहन आदि से मँगवाती। कोई-कोई सबसे छिपाकर खरीदती तो कोई सबके सामने। सबके दुख एक जैसे थे, सबके इलाज भी एक जैसे ही थे।
ताबीज़ का कोई एक दाम निर्धारित नहीं था। जिसका जितना सामर्थ्य होता दे देता। दस रुपये से लेकर सौ-पाँचसौ सब अपनी हैसियत अनुसार देते। बूढ़ी-बूढ़ी डोकरियों से लेकर नई-नवेली दुल्हनें तक सब ताबीज़ पाने को लालायित थी।
सबके घरों में एक जैसे दृश्य थे। भूख से बिलबिलाते बच्चे। नशे में टुन्न पतियों से मार खाती पत्नियाँ। ऐसा ही एक पात्र थी सरस्वती। या कोई और नाम हो तो भी कोई अंतर नहीं, क्योंकि कथा एक जैसी ही थी। नाम से उसमें कोई फ़र्क नहीं आता। जब सरस्वती के ससुराल में ताबीज़ वाला आया वह घर के बड़ों के लिहाज़ से बाहर न आ सकी। खुले दरवाज़ों के बीच वो ऐसी क़ैद थी कि हवा डर-डरके उसके पास से गुजरती।
देव संयोग था कि जब सरस्वती मायके आई हुई थी; ताबीज़ वाले का भी उसके गाँव में आना हुआ। परन्तु मर्यादाओं के बंधन इतने पक्के थे कि सरस्वती किसी को यह कहने कि हिम्मत न जुटा सकी कि उसे भी ताबीज़ चाहिए। ऊहापोह में रात हो गई। वो रातभर सोचती रही; अभी नहीं तो कभी नहीं। यह अवसर नहीं चूकना उसे।
सुबह मुँह अँधेरे उठ कुछ मुड़े-तुड़े नोट ब्लाउज में रखे। एक पानी का लोटा लिया हाथ में और बिना कोई पदचाप की ध्वनि किये घर से निकल आई। जिस तरफ गाँव से बाहर ताबीज़ वाले ने अपना तंबू लगाया था; सिर पर पाँव रखे आ गई। परन्तु हाय री किस्मत। ताबीज़ वाला तो जा चुका था। सूरज किसी अँधेरी खोह से बेरौनक -सा निकल रहा था।