पहले मैं लघुकथाओं को कोई विशेष महत्त्व नहीं देता था–उन्हें मैं ‘दोयम दर्ज़े का साहित्य’ मानता था, या कहूँ साहित्य मानता ही न था–बोध कथा, नीति कथा, अखबारी रिपोर्टिंग,हास्य–व्यंग्य चुटकुले की श्रेणी में उन्हें रखता था। सोचता था इनके रचनाकार ‘दोयम श्रेणी के रचनाकार’ होते हैं या रचनाकार होते ही नहीं। उनकी दृष्टि सीमित होती है, क्षमता स्वल्प। स्वल्प क्षमता स्वल्प। स्वल्प क्षमता और सीमित दृष्टि वाले रचनाकार ही इस क्षेत्र में जाने–अनजाने प्रवेश पा लेते हैं और इस विधा का इस्तेमाल अपनी स्वल्प सर्जनात्मक ऊर्जा के प्रवाह–प्रकटन के लिए गाहे–बगाहे करते हैं। रचनाकार द्वारा इस विधा का चुनाव ही यह घोषित कर देता है। कि रचनाकार अपनी सामर्थ्य से पूर्ण परिचित है, उसके पास सृजनात्मक ऊर्जा या दृष्टि का अभाव है–वह काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, ललित निबंध जैसे उत्तम कोटि के साहित्य की संरचना करने में असमर्थ है इसीलिए वह निराश हताश पराजित–पराभूत मन से सर्वाधिक सुगम विधा लघुकथा को चुनता है। लघुकथा का रचनाकार वह श्रद्धा, सम्मान, वह पद–प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पाता जो कवि, नाटककार उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार सामान्यत: समाज में, साहित्य में, सभी जनों के बीच प्राप्त कर लेता है।
पत्र–पत्रिकाओं में मैं लघुकथाओं को अंतिम स्थिति में ही पढ़ता था। जब सब कुछ खतम हो जाता और पढ़ने को और कुछ नहीं रहता तब आधे–अधूरे मन से, बल्कि मजबूरी से विवश हो लघुकथाओं को पढ़ना शुरू करता था। उनमें कभी–कभी कुछ चमत्कृत कर देने वाली किसी–किसी की लघुकथाएँ भी होती थीं। ज्यादातर लघुकथाएँ हास्य–व्यंग्य या चुटकुले की कोटि की होती या अखबारी खबर या रिपोटिंग की कोटि की–जो जुगनू की क्षणिक रुग्ण रोशनी की तरह विस्मृति के अंधँकूप में सदा के लिए लुप्त हो जातीं। ज्यादातर लघुकथाएँ मनमानस पर कोई स्थायी भाव या टिकाऊ प्रभाव पैदा ही न कर पातीं और सहज ही विस्मृत हो जातीं। हाँ, उन्हीं में कुछ ऐसी भी लघुकथाएँ मिलतीं जिनसे अंतर उद्भासित हो उठता, चेतना झंकृत हो उठती, अंतरात्मा व्यथित–आंदोलित हो जाती और सच्ची सृजनात्कता के जीवन्त सहवास की रसोपलब्धि हो जाती। तब सोचता कि लघुकथा एक सशक्त सृंजनात्मक विधा हो सकती है–श्रेष्ठ रचनाकार के हाथों में पड़ या सृजनात्मकता के समुत्कर्ष–संप्रवाह में प्रवाहित हो लघुकथा श्रेष्ठ सृजनात्मकता की संवाहिका बन सकती है। लघुकथाओं की यदि एक ओर कटु कठोर, रुक्ष शुष्क सीमा रेखाएँ हैं तो दूसरी ओर उनकी मृदुल मधुर मोहन मनहर संभावनाएँ भी हैं–वे भी कविता, कहानी, ललित निबंध के निकट आ सकती हैं– उनमें भी काव्य की भाव–सघनता, आनुभूतिक तीव्रता, कहानी का सरस सार सूत्रात्मक प्रवाह, ललित निबंध का सम्मोहन व लालिल्य ऊर्जा व चैतन्य का समुत्कर्ष आ सकता है। कुछ लघुकथाओं से गुज़रते हुए मुझे अहसास हुआ, आभास मिला कि लघुकथाओं में अपार संभावनाएँ छिपी है जिसका सम्यक् शोधन–संधान, दोहन–मंथन सशक्त, प्राणवान व अनुभव सिद्ध सृजनाकार ही कर पाएगा।
तो अब जब डॉ0 सतीशराज पुष्करणा के चलते लघुकथाओं के सिद्धांत व प्रयोग में ,उसकी सर्जना–समीक्षण में रुचि गहरी होती गई है तो लघुकथाओं के प्रति मेरी आद्य आशाहीन उदासीनता आसवती–प्रकाशवती अभिरुचि में तब्दील होती जा रही है।
अब मैं देख रहा हूँ कि लघुकथा विधा के रूप में यदि जीवंत सशक्त नहीं हो पा रही है तो यह उस विधा का दोष नहीं है या, उसकी आकारगत सीमा का दोष नहीं है. यह उसका Native Defect या disadvantage , यह दोष है, उसके सर्जक का, उसके रचनाकार का, उसके प्रणेता का, विधाता का। रचनाकार का अंतर यदि सूखा है, रसहीन–अनुर्वर रश्मि–शून्य है तो उसकी रचना कैसे भरपूर होगी, उसकी सर्जना कैसे शक्तिशाली जीवन्त होगी, सरस रसदार होगी? तो दोष सिर्फ़ रचनाकार का है, केवल रचनाकार का है। रचनाकार अपने को श्रेष्ठ रचना के योग्य बना नहीं पाता–वह वांछित पात्रता का अर्जन नहीं करता–वह वेदना के ताप में तपता नहीं, साधना की आँच में पकता नहीं, वह सृजनात्मकता की गंगा में नहाता नहीं, उसका अंतर उद्भासित नहीं होता, उसे जीवन की ऊँचाई, गहराई–विस्तार के दर्शन नहीं होते, उसे जीवन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म तरंगों कंपनों से मुठभेड़ नहीं होती,जीवन की अनेक अमृत रूप् छवियाँ अनदेखी रह जाती है, जीवन के अनेक वर्ण गंध अनाघ्रात अस्पृष्ट रह जाते हैं, जीवन के अनेक गीत संगीत, जीवन की अनेक राग–रागिनियाँ, जीवन के अनेक छंद–लय ताल, स्वर ,सुर, तान, ध्वनि अजात अलक्षित, अश्रुत–अश्रव्य रह जाते है, जीवन का अनंत वैभव कोष अछूता रह जाता है, अनेक रसरासायन अननुभूत–अनास्वादित। जीवन की विविधामयी बहुरंगमयी पुस्तक के अनेक पृष्ठ अनपढ़े अनदेखे–अनबूझे रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में वह क्या खाक रचना कर पाएगा, वह क्या खाक सर्जना कर पाएगा?
रचना और सृजन के लिए बड़ी लंबी तैयारी और साधना की ज़रूरत पड़ती है, बड़ी तपस्या और तपन की जरूरत पड़ती है–ग्रीष्म की दारुण तपन के बाद ही सर्जना की सावनी समां बेधती है–सर्जन का पावन सावन सम्पूर्ण हर्षोंल्लास समेत सर्जक के अन्तराकाश में समवतीर्ण हो उठता है।
उपनिषद् के ॠषि,महात्मा बुद्ध, कन्फ्यूशियस, ताओ लाओत्से, ईसप, ईसा मसीह, ख़लील जिब्रान, मुल्ला नसरुद्दीन, मुल्ला दाउद, रामकृष्ण परमहंस आदि यदि लघुकथा जैसी चीजों के माध्यम से अपने तेज, ऊर्जा और चैतन्य का सर्वोत्तम दिग्दर्शन करा पाए तो इसका श्रेय किसको जाता है? निश्चय ही उनके सर्जनात्मक ऊर्जस्वी तेजस्वी व्यक्तित्व को, उनके तप स्वाध्याय, उनके साधना–संधान को। तेजस्विता ऊर्जस्विता ऐसा पारस पत्थर है जो लोहे को भी सोना बना देता है, बूँद में सिंधु भर देता है, कलियों में बसंत खिला देता है, लघु में विराट् समाहित कर देता है, कण में असीम,क्षण में अनन्त, दूर्वादल में विराटवन का समावेश, कतिपय सिक्ता कणों में विशाल मरुभूमि के दर्शन, प्रस्तर खंडों में विंध्य–हिमाचल के रूप गौरव प्रतिष्ठित करा देता है–तो व्यक्तित्व के तेजस्वी संप्रभाव से सर्जना शाश्वतोपलब्धि कर लेता है, विस्मरण के अंध खोह को पार कर शाश्वत आलोक–लोक में संप्रतिष्ठ हो जाते हैं।
आज यदि लघुकथा दोयम दर्ज़े की साहित्यिक विधा या शैली मानी जाती है तो निश्चित रूप से दोष लघुकथा में लगे रचनाकारों–सर्जको का है। वे यदि तेज सम्प्राप्त करें, ऊर्जा हासिल करें, चैतन्य की सिद्धि करें तो निश्चय ही यह विधा भी उसी तरह संप्रतिष्ठ होगी जैसी कोई अन्य साहित्यिक विधा। तो अंतत: सिद्ध हो जाता है कि विधा का कोई दोष नहीं, दोष है प्रयोगकर्ता का। दोहा–चौपाई जैसा छन्द जिस सम्मोहक समुत्कर्ष पर समासीन हुआ उसका सारा श्रेय तुलसी के महातपी, महातेजस्वी व्यक्तित्व को जाता है, उनकी सुदीर्घ एवं लक्ष्योन्मुखी साधना को जाता है। बिहारी के दोहे जितने तेजोदीप्त होते उतने अन्यों के दोहे तेजतर्रार नहीं होते, निराला ने मुक्त छंद को जो जीवंत लयात्मकता, बिम्ब वैभव, भावोदात्य दिया, वह किसी दूसरे से संभव न हुआ।
अंग्रेजी में शेक्सपियर ने ‘सोनेट’ को जो नमनीयता, लोच, प्राणों का जो सहज प्रवाह दिया, कीट्स ने ‘ओड’ को जो निबिड़ सघनता व काव्य वैभव दिया, पोप ने ‘हीरोइक काप्लेट’ को जो समुत्कर्षण, तेजोदीप्ति, परिष्कृति दी, वाल्ट हिटमैन ने ‘फ़्रीवर्स’ ‘जो काव्य संपदा, भावावेग समर्पित किया वह किसी दूसरे रचनाकार कलाकार से संभव न हो सका। तो बाण वही है पर राम के हाथों वह राम बाण बन जाता है, अस्त्र वही है पर शिव के हाथों वह पाशुपतास्त्र और ब्रह्मास्त्र बन जाता है।
तो आज जरूरत है व्यक्तित्व–वर्धन की, संवर्धन की, तेज अर्जन की, ऊर्जा–संग्रहण व चैतन्य–संवहन की। तभी लघुकथा विधा में अमित संभावनाएँ उदित हो सकती हैं, विराट शक्ति समाहित हो सकती है, अणु बम, नाइट्रोजन बम, हाइड्रोजन बम की शक्ति आ सकती है। वैसी स्थिति में लघुकथाएँ साहित्य की शाश्वत निधि, कालजयी सारस्वत संसिद्धि हो सकती है।
लघुकथा आज के युग की महती आवश्यकता हो सकती है। जब जीवन ज्यादा व्यस्त–विकट,कर्मसंकुल, जब जीवन नाना प्रकार के घात–प्रतिघातों से आहत–प्रत्याहत, नाना प्रकार के प्रहारों से क्षत–विक्षत, क्लांत–विपन्न होता जा रहा है। नाना प्रकार की दौड़–धूप भागम–भाग,आपाधापी, कशमकश व जद्दोजहद से जीर्ण–शीर्ण, उद्विग्न–खिन्न होता जा रहा है तब हम लघुकथाओं के माध्यम से उस जीवन–मरू को नखलिस्तान प्रदान कर सकते हैं। जीवन के नैराश्यनिशीथ में आशा के दीप व आस्था के संदीप जला सकते हैं। भ्रम–भ्रांति के घनघोर जंगल में चांदनी खिला सकते हैं, दिशाहीनता के आकाश में ध्रुवतारा दिखा सकते हैं, जीवन के श्मशान में संजीवनी ला सकते हैं, लघुकथाओं के माध्यम से तंत्रों–मंत्रों–यंत्रों की रचना कर जीवन को भूत–प्रेत–पिशाचों से यानी संपूर्ण प्रेत बाधा से मुक्ति दिला सकते हैं। लघुकथाओं के माध्यम से कीटाणु नाशकों का निर्माण कर जीवन को कीटाणुओं से मुक्ति दिला सकते हैं, लड़खड़ाते जीवन को लघुकथा का टॉनिक पिला उसे सरपट दौड़ा सकते हैं यानी लघुकथा के माध्यम से हम हर तरह का Pain killer, Healing balm ,Syrup,Tablet,Capsule ,Injectionबना सकते हैं यहाँ तक कि Surgery को विकसित कर अवांछित अंग को काट सकते हैं ,पुरातन अंग को हटाकर नवीन अंग का प्रत्यारोपण कर सकते हैं यानी लघुकथा को Physocian व Surgeon दोनों रूपों में इस्तेमाल कर सकते हैं –जीवन को सर्वथा स्वस्थ ,कीटाणुमुक्त ,रोगमुक्त नीरोग बनाने के लिए ।
जीवन को स्वस्थ–रोगमुक्त, जीवन को गतिशील प्रवहमान, जीवन को विवर्धित पुष्ट समृद्ध बनाना ही तो सर्जना का अंतिम लक्ष्य है, उसकी चरम चाहना है और नवीनतम आधुनिकतम साहित्यिक विधा के रूप में लघुकथाएँ सारे काम बखूबी कर सकती हैं बशर्तें कि लघुकथाकार पहले स्वयं तपने के लिए तैयार हो जाएँ। वृह्त् सिद्धि के लिए वृहत साधना की जरूरत पड़ती है। अपने सृजन को सर्वतोभावेन संपूर्णत: समग्रत: सशक्त बलवान, वीर्यवान, तेजस्वी–ऊर्जस्वी बनाने के लिए सुदीर्घ साधना की जरूरत पड़ेगी–अपने को हिमालयी या भावभूतिक (भवभूतिक) धैर्य के साथ तपाना होगा तभी लघुकथा एक सशक्त रोगनाशक जीवनदायिनी विधा के रूप में प्रयुक्त हो सकेगी अन्यथा इसके अभाव में लघुकथा का निर्जीव, निष्प्राण, निस्पंद होना, उसका रुग्ण अल्पायु होना बिलकुल सहज स्वाभाविक है, बिल्कुल न्यायसंगत, औचित्यपूर्ण।
लघुकथाओं के मूल्यांकन–क्रम में कुछ लघुकथाओं का रसास्वादन
अपने इस प्रारम्भिक प्राक्कथन के बाद अब मैं आज की कुछ लघुकथाओं का अवलोकन–आस्वादन–मूल्यांकन करना चाहूँगा। मैं कोई पेशेवर समीक्षक–आलोचक नहीं, कोई सिद्ध सर्जक भी नहीं, कोई अधिकारिक सूत्रदाता या कोई सर्व–संप्रभुता संपन्न, सिद्धांतदाता भी नहीं। मैं तो केवल एक जिज्ञासु बौद्धिक हूँ, सत्य का संधाता, साहित्य–रस–रसिक–रसज्ञ, जीवन–रस खोजी मर्मज्ञ। जहाँ–जहाँ जीवन पाता हूँ, जीवन की ऊष्मा, जीवन का ओज, जीवन की ऊर्जा, जीवन का तप तेज, जीवन का सृजन सौंदर्य, जीवन का मोहन माधुर्य, यानी जहाँ जिधर जीवन के बहु आलोक वैभव के दर्शन होते हैं, वहाँ उधर ही सम्मोहित आकर्षित हो दौड़ पड़ता हूँ, इसलिए साहित्य और सर्जना, संगीत और साधना,शोधन और संधान मुझे प्रिय हैं, उन में मेरा मन रमता है, आनन्दित–आह्लादित होता है।
जहाँ जीवन है, जहाँ जीवन का अमित वैभव–प्रवाह है, वहीं साहित्य है, सर्जना है, संगीत है, सृष्टि है–साहित्य का महत्त्व भी उसी अनुपात से है जिस अनुपात से वहाँ जीवन तरंगित, स्पंदित, लहरायित, तरंगायित, सृजनोद्यत,प्रवहमान है। मैं साहित्य को सर्जना की दृष्टि से, जीवन को सृष्टि के रूप में देखता हूँ। यदि इस दृष्टि से साहित्य सर्जना खरी उतर गई तो निश्चय ही वह स्वागतयोग्य है, अभिनंदनीय है अन्यथा केवल शब्दों के जोड़–तोड़ या भाषा की बनावट से साहित्य का स्वर्गिक सुमन नहीं खिलता, सर्जना का अमृत मधु तैयार नहीं होता।
मैं इन लघुकथाओं को सर्जना की दृष्टि से देखूँगा–रचना की दृष्टि से स्वादित मूल्यांकित करूँगा।
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1-दर्पण
अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’
पहली रचना ‘दर्पण है और रचनाकार अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’। रचना बड़ी छोटी है–प्राय: सूत्रात्मक–लघुकथा की सामान्य काया से भी छोटी, निहायत संक्षिप्त। सिर्फ़ दो ईटों का संवाद है, एक प्रश्न, एक प्रश्न एक उत्तर–बस रचना पूरी। पर इस संक्षिप्ति में ही पूरी बात कह दी गई है, पूरा कथ्य समावेशित कर दिया गया है, पूरा भाव समा गया है। भाव गहरा है, सार्वभौमिक–सार्वकालिक है। रचना का यह प्रधान गुण है–शाश्वतता का उपस्थापन–जीवन के सारभूत तत्वों का संस्थापन–इस मानी में अपने नपे–तुले शब्दों, अपनी सटीक संवादशैली, अपनी शाश्वत भाव धारा व सहज संप्रेषणीयता के कारण यह रचना आकर्षित करती है, एक विशिष्ट पद की अधिकारिणी बन जाती है, त्याग–तपस्या की अंधकुक्षि से ही दृश्यमान ऐश्वर्य के फूल खिलते हैं, वृक्ष अदृश्य धरती से ही रसदोहन कर अमृत फल–फूल देता है–नींव की अदृश्य ईंट के बल पर ही भव्य अट्टालिका खड़ी होती है, उसी के बल पर ऊँची मीनारें और गुम्बदें शोभा पाती हैं, इतराती–इठलाती हैं इस बेहतरीन कथा को यदि शिल्प की कुछ और अधिक स्थिर बनावट व सृजनात्मक ऊर्जा–प्रेरणा का कुछ गहनतर गंभीरता संस्पर्श प्राप्त होता तो रचना प्रथम कोटि की हो सकती थी पर अपनी वर्तमान स्थिति में वह दोयम दर्ज़े की ही रह गई।
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2-निर्णायक कदम
चन्द्रभूषण सिंह ‘चन्द्र’
दूसरी रचना ‘निर्णायक कदम’ के रचनाकार चन्द्रभूषण सिंह ‘चन्द्र’ हैं। यह रचना कर्ज में डूबे देवचरण के दुख दर्द की कहानी है। उसकी मन:स्थिति, उसके अंतर्मथन का जीवंन अंकन किया गया है। संवेदना का जागरण प्रारंभ से ही हो जाता है और उसकी धारा अंत तक प्रवहमान रहती है–बल्कि अंत में तो अत्यधिक गहन गंभीर होकर चरम स्थिति प्राप्त कर लेती है। संवेदना के बाहुल्य,संवेदना के संचार व गहराई से इस रचना में काव्य के कुछ गुण,गीत की कुछ विशेषता आ जाते हैं। एक गहन कारुण्य का भाव जाग्रत हो जाता है, असहायता की एक गहरी अनुभूति होती है। रचना में शाश्वतता के गुण वर्तमान हैं। शीर्षक भी ठीक ही कहा जाएगा पर इससे भी ज्यादा तीखा ध्वन्यात्मक व्यंग्यात्मक शीर्षक चुना जा सकता था जो भावानुरूप तथा ज्यादा मर्मस्पर्शी हो रेखा को छू सकता था। रचना उच्च द्वितीय श्रेणी में रखी जा सकती है–प्रथम श्रेणी को भी छू सकती है।
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3-भारत
परस दासोत
तीसरी रचना का शीर्षक ‘भारत’ है और रचनाकार पारस दासोत। ऐसे भारत एक साधनहीन, दीनहीन मलिन स्कूली छात्र का नाम है पर ‘भारत’ अपने देश का भी भार ढो सकता है इसका सांकेतिक व प्रतीकात्मक अर्थ भी लगाया जा सकता है जो संभवत: रचनाकार का भी इष्ट अभीष्ट हो सकता है। वैसे रचना कोई बहुत प्रभावोत्पादक नहीं है पर जिस भाव या विचार का यह संवहन संप्रेषण करती है वह निश्चित रूप से अत्यन्त मूल्यवान है, कीमती है। कथ्य मूल्यवान है, संदेश कीमती है। किसी भी उपलब्धि के लिए गरीबी बाधक नहीं हो सकती। प्रतिभा की विजय, मेधा का विस्फोट गरीबी में भी संभव है, बल्कि ज्यादा संभव है। सम्पन्नता व समृद्धि जीवन में सतही खुशहाली ला सकती है, पर जीवन की गहरी सच्चाई से साक्षात्कार के लिए विपन्नता का वरदान आवश्यक हो जाता है। प्रतीकार्थ में कहा जा सकता है कि भारत सर्वाधिक साधनहीन व विपन्न होते हुए भी जीवन की दौड़ में सर्वथा विजयी होता है, संस्कृति के क्षेत्र में सर्वदा स्वर्णपदक प्राप्त करता है। रचना में सृजनात्मक रस मिठास की कमी खटकती है इसलिए इसे द्वितीय कोटि में ही स्थान मिल पाएगा।
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4-माँ
प्रबोध कुमार गोविल
चौथी लघुकथा ‘माँ’ शीर्षक से प्रस्तुत है रचनाकार है, प्रबोधकुमार गोविल। प्रबोध कुमार गोविल की यह रचना मानव के सनातन भावों में सबसे विराट भाव–मातृत्व भाव का बड़ा ही तीखा अंकन करती है। अंतिम अंश तो बड़ा ही हृदयभावक,मर्मस्पर्शी है। मातृत्व- भाव की विशाल उदारता से ओत–प्रोत पाठक भी मातृत्व के उस रस विस्तार में ममतामयी मां केअपार रस पारावार में तरंगायित होने लगता है, डूबने–उतराने, ऊभ–चूभ होने लगता है–एक अजीब अकथनीय सौंदर्य मिठास, ममत्व–माधुर्य से भर उठता है। सचमुच मातृत्व जीवन का सर्वाधिक सुंदर रूप है, भाव है। मातृत्व मानवता की उत्कृष्टतम दिव्यतम छवि है जो देवत्व को छू लेती है, ईश्वर को स्पर्शित करती है। मातृत्व एक पूर्ण रस, पूर्ण रसास्वादन है, इस भाव के उदित होते ही, इस महाभाव के अवतरित–प्रसरित–विस्तरित होते ही जीवन के सारे अभाव, कष्ट–क्लेश, वेदना–व्यथा काफूर हो जाते हैं और मानव दीनता में भी पूर्ण समृद्धि की अनुभूति करने लगता है। रचना हर तरह से अच्छी बन पड़ी है। इसमें साहित्य के शाश्वत आकर्षण–सम्मोहन विद्यमान हैं–शाश्वत अपील के अमृत अंश है जो अच्छी रचना की पहली व अंतिम शर्त हो सकती है। सार्वभौमिक सत्य को कथ्य बनाकर उसे संवेदना की धीमी स्थिर आंच में पकाकर गोविल ने रचना को जीवनदायी मधुर पेय के रूप में उपस्थित कर दिया है। रचना निश्चित रूप से प्रथम कोटि की है।
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5-धमकी
रामयतन प्रसाद यादव
पाँचवी रचना रामयतन प्रसाद यादव की ‘धमकी’ है। रचनाकार ने दहेज प्रथा की दारुण विभीषिकाओं से करुणा–विगलित हो इस रचना की रचना की है। कम से कम शब्दों में सारी स्थिति, घटना व पात्रों का यथार्थ परक प्रभावशाली जीवन अंकन करके रचनाकार ने पाठकों को भी उस स्थिति–अनुभूति में अनायास सम्मिलित कर लिया है और उस स्थिति से उत्पन्न विवशता का, कारुण्य का आस्वादक बना दिया है। दहेज के चलते, अपनी बच्ची के भविष्य की सुरक्षा के लिए गरीब साधनहीन रिक्शा चालक दम्पत्ति ब्लडबैंक में अपना खून बेचने को बाध्य–विवश हो जाते हैं। इस तरह दहेज का राक्षस, दामाद की लिप्सा–लोलुपता, लड़की के माता पिता से खून की मांग करता है, उन्हें आंशिक शहादत के लिए मजबूर कर देता है। आज दहेज की बलिवेदी पर कितने मूल्यवान जीवनों की क्रूरतापूर्वक कुर्बानी हो रही है–इस मर्मवेधी तथ्य को रचनाकार ने बड़ी सघन व तीव्र संवेदन–शीलता से उजागर किया है फिर भी रचना प्रथम कोटि की नहीं बन पड़ी है, सृजनात्मक ऊर्जा या प्रेरणा का वेग व प्रवाह उतना गहन व तेज नहीं हो पाया है इसलिए इसे निश्चित रूप से द्वितीय कोटि में स्थान मिलेगा।
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