1-आज़ादी
शताब्दियों के इंतज़ार और असंख्य माँओं की गोद सूनी होने, अनगिनत सुहागिनों से इंद्रधनुष रूठने और न जाने कितने बिना ईद के रोज़ों के बाद, अंतत: ‘वह’ आ ही गई। भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की अँधेरी रात में ‘उसके’ स्वागत में मानो शशि-रवि स्वयं ज़मीन पर उतर आए थे। शुभ्र वस्त्रधारी, जिनके चमचमाते जूतों पर शायद ही कभी मिट्टी का कण लगा था, वे ढोल-ताशों की आकाश छूती आवाज़ों के साथ ‘उसे’ पालकी में बिठाकर जुलूस की शक्ल में झूमते-नाचते ज्यों ही चौराहे तक पहुँचे तो अनायास ‘उसकी’ नज़र बाईं तरफ़ गई। गहन अँधकार में अनंतकाल से बाट जोह रही असंख्य सूखी आँखों के आशाओं के दीपकों में दीवाली ही हो गई। ‘उसने’ स्निग्ध दृष्टि से उन लोगों की ओर देखा और पालकी से उतरकर कीचड़ सने ध्वान्त मार्ग की तरफ़ जैसे ही क़दम बढ़ाया तो ढोल-ताशों की आवाज़ एकदम बंद हो गई। वातावरण में एक खौफ़नाक-सी नीरवता पसर गई।
“यह क्या? आप किधर जा रही हो?” एक शुभ्र वस्त्रधारी के माथे पर सिलवटें उभरी।
“किधर…? भई, जिन लोगों ने सदियों से तप किया, जिनके असीम तप में तपकर मैं यहाँ आई। अपने उन्हीं चाहनेवालों के बीच जा रही हूँ।” ‘वह’ हर्षमिश्रित पर दृढ़ स्वर में बोली।
‘उसके’ इरादे भाँपकर, करबद्ध बुज़ुर्ग सफ़ेदपोश आगे बढ़ा और अंधकार में खड़े लोगों को संबोधित करते हुए विनम्र स्वर बोला, “भाईयो और बहनों! आज का शुभ दिन आप लोगों की कुर्बानियों का ही फल है और इसपर आप लोगों का ही अधिकार है। परन्तु मेरा एक निवेदन है….।”
वह गला खँखारते पुन: बोला, “यह आज ही आईं हैं। आप लोग तो जानते ही हो कि आपकी तरफ़ अँधेरा बहुत घना है। आज रात हमें इनकी सेवा का अवसर प्रदान करें। दो पहर की ही तो बात है, सुबह जैसे ही रोशनी की पहली किरण फूटेगी हम स्वयं इन्हें आप लोगों को सौंप जाएँगे। तब तक आप इनके स्वागत की तैयारियाँ करें।”
उन लोगों ने सहमति में सिर हिलाया और आशा भरे नयनों से ‘उसकी’ ओर देखा। उनकी आँखों में मूक सहमति को पढ़कर वह अनमने पालकी की तरफ़ बढ़ने लगी। सफ़ेदपोश के माथे की सिलवटें सपाट हो गई और होंठों पर कुटिल मुस्कान फैल गई। उसने अपने शुभ्र वस्त्रधारी साथियों को संकेत किया…. ढोल-ताशे मदमस्त हाथिओं की तरह चिंघाढ़ने लगे। ‘उसके’ पुन: पालकी में बैठते ही शुभ्र वस्त्रधारी, उज्ज्वल पक्की सड़क के रास्ते रौशन इमारतों की तरफ़ बढ़ गए।
… और वह सभी लोग आज भी अँधेरा मिटने और रोशनी होने का इंतज़ार ही कर रहे हैं।
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2-चौपाया
चौपाये की लगाम चारों सवारों के हाथ में थी, जो उसे अलग-अलग दिशा में हाँक रहे थे। बौखलाया हुआ चौपाया, दिशाहीन-सा इधर-उधर दौड़ रहा था। सिर पर राजमुकुट पहने, विशाल क़दकाठी के रौबीले व्यक्ति ने चौपाये की लगाम कसी और उसे पूर्व दिशा में जंगल की ओर मोड़ दिया। चौपाया ज्यों-ही पूर्व दिशा की तरफ़ अग्रसर हुआ तभी सफ़ेद किश्ती टोपी पहने कई मुँह वाले सवार ने प्रलाप शुरू कर दिया। आवाज़ों को मुकुटधारी तक पहुँचने से पहले ही उन्हें माइक्रोफ़ोन थामें भोंपू-से चेहरेवाले सवार ने पकड़ लिया और उनका गला दबा दिया। निष्प्राण आवाज़ें शून्य में विलीन हो गईं। मुकुटधारी ने मुस्कुरा कर उसकी ओर देखते हुए अपने कुछ शब्द उसके मुँह में उड़ेल दिए। फिर अपनी जेब से चाँदी की चाबी निकालकर उसकी पीठ के पीछे बने छेद में भर दी। चाबी की ऊर्जा से लबालब भोंपू-सा, उड़ेले शब्दों का सप्तम स्वर में अनुनाद करने लगा, जिसे सुनकर मुकुटधारी का क़द कुछ और लंबा हो गया।
‘ज्यूडीशियल विग‘ पहने काले कोटधारी ने चौपाये की लगाम कसी और उसे पश्चिम दिशा में धुँआ उगलती विशाल इमारत की ओर मोड़ दिया। जहाँ शोर मचाती अनियंत्रित भीड़ इमारत में प्रवेश करने के लिए गुत्थमगुत्था हो रही थी। इसी जद्दोजेहद में कई तो भीड़ के ही पैरों तले रौंदे गए। प्रवेशद्वार पर जीभ लपलपाते सूट-बूट पहने आदमक़द लोग, भीड़ में से लोगों को चुन-चुनकर निगलते जा रहे थे। चौपाये के पदचाप सुनकर भीड़ की आँखों के दीये जल उठे और वह एकटक चौपाये की तरफ़ देखने लगे। आदमक़द वालों के सामने जाते ही मुकुटधारी सिकुड़कर बौना हो गया और भीड़ को नज़र ही नहीं आया। तेज़ हवा के झोंके-सा दौड़ता चौपाया भीड़ के क़रीब से निकल गया। भीड़ के दीये फड़फड़ा कर बुझ गए, पुन:अंधकार छा गया। शोर मचाती भीड़ फिर से गुत्थमगुत्था होने लगी।
लगाम का नियंत्रण अब सफ़ेद टोपीवाले के हाथों में था, जिसने बदहवास दौड़ते चौपाये का रुख़ कीचड़ से गड्डमड्ड स्लम बस्ती की ओर किया। जहाँ चीथड़े लपेटे बैठे पिचके पेटवालों की सर्द आहें उनके चूल्हों से भी ठंडी थी। बस्ती में प्रवेश करते ही सभी सवारों के चेहरों पर जुगुप्सा के भाव उभर आए। भोंपू-से ने अपना कैमरा और माइक्रोफ़ोन ऑफ़ कर दिए। मुकुटधारी ने नाक पर रुमाल रखते हुए कुछ चमचमाते सिक्के उन लोगों की ओर उछाले। अचानक-से मोटी तोंदो वाले खादीधारी प्रगट हो गए, जिन्होंने उछाले सिक्के हवा में ही लपक लिए। फिर अपनी जेबों से कुछ कौड़िया व खोटे सिक्के निकालकर बस्तीवालों की तरफ़ फेंकते हुए हाथ हवा में लहराकर जयघोष करने का संकेत किया। खोटे सिक्के देखकर सिसक रहे लोगों के निष्प्राण-से शरीरों में कुछ हरकत हुई और वे जयघोष करने लगे। भोंपू-से ने झट से कैमरा ऑन करते हुए माइक्रोफ़ोन का वॉल्यूम बढ़ा दिया। जयघोष की नादों से मुकुटधारी का क़द फिर से आसमान छूने लगा।
विपरीत दिशा से आती चीख़-पुकार की आवाज़ों से भोंपू-से के कान खड़े हो गए। अपना कैमरा आवाज़ों वाली दिशा में फ़ोकस करते हुए उसने चौपाये को उधर हाँक दिया। थोड़ी दूरी पर कुछखूँखारसांढ़, दो-तीन बकरियों को घेरे खड़े थे। ग़ुर्रातेसाढ़ों के भय से थर्राती बकरियों के ‘मेंsss…मेंsss…मेंsss.. ‘के स्वर उनके कंठ में ही अटके हुए थे। चौपाये पर सवार मुकुटधारी को देखकर बकरियों की साँस में कुछ साँस आई। चौपाया जैसे-ही नज़दीक पहुँचा, तो मुकुटधारी ने साढ़ों के सींगों पर हाथ फेरा। मुकुटधारी का स्पर्श पाते ही साढ़ों की भौंहे तन गईं और उन्होंने पूरे जोश सेग़ुर्रातेहुए सींग बकरियों के पेट में घुसा कर उन्हें ऊपर उठा लिया। बकरियों की आँखें खुली की खुली रह गईं। सफ़ेदटोपीवाले का प्रलाप फिर शुरू हो गया। जिसे अनसुना कर चौपाये को उस दिशा में मोड़ दिया, जिधर से सिसकियों की आवाज़े आ रहीं थी। पास जाकर देखा तो उपवन में बुरी तरह मसली अधखिली कली सिसक रही थी। कुछ मुस्टंडे सीना चौड़ा किए अट्टहास करते हुए साथवालीक्यारी में उगी सहमी-सिसकतीअधखिली कलियों कीतरफ़बढ़ रहे थे। उपवन के माली, पैरों में पड़ी चाँदी की बेड़ियों के भार से हिल भी नहीं पा रहे थे। सफ़ेदटोपीवाला उन मुस्टंडों की ‘चुटिया ‘और ‘दाढ़ी ‘के गणित में उलझा हुआ था। काले कोटधारी ने अपनी आँखों पर काली पट्टी बाँध ली। भोंपू-से ने कैमरा और माइक्रोफ़ोन ऑफ़ कर दिया औरदोनों हाथ कानों पर रखकर, मुँह ज़ोर से भींच लिया। मुकुटधारी ने चौपाये को दूसरी दिशा में हाँक लिया।
बदहवास चौपाया अब चौराहे पर आ खड़ा हुआ। किसी भी सवार को समझ नहीं आ रहा था कि किस दिशा में जाना है। चारों तरफ़ से आ रहे दर्दभरे चीत्कार के स्वरों से उनके कानों के पर्दे फटने को हो गए। तभी चौराहे के बीचों-बीच एक बड़ा-सा चमचमाता सिक्का लुढ़कता हुआ आया, जिसकी चमक से सभी की आँखेंचौंधियागईं और खनक से अन्य सभी स्वर दब गए। सभी सवारों ने चौपाये की लगाम समवेत लुढ़कते सिक्केवाली दिशा में कस दी। …..चौपाया अब पूरी एकाग्रता से सिक्के के पीछे-पीछे चल दिया।
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3-डूबा तारा
“ओ मौंटी! अब आ भी जा बाहर, मुझे भी नहाना है।” बाबूजी बाथरूम की ओर देखते हुए चिल्लाकर बोले।
“देख लो अपने लाड़ले को! रिसेप्शन पर साथ जाने से साफ़ इनकार कर दिया। “सब्ज़ी काटती हुई पत्नी को कहा
“नहा लेने दो उसे, अभी साढ़े छह ही तो बजे हैं। रिसेप्शन का टाईम तो वैसे भी आठ बजे का है न।” पत्नी थोड़ी रूखे स्वर में बोली!
“मैं तो कहता हूँ कि तू ही चल मेरे साथ। कोई ज़्यादा टाईम तो लगेगा नहीं, बस शगुन पकड़ाकर वापस आ जाएँगे।”
“देखो। मैं नहीं जाने की वहाँ। किसी भी ब्याह-शादी में जाओ वहाँ बड़ी-बूढ़ी औरतें घेर कर बस यही पूछने बैठ जाती है कि बिट्टो की बातचीत चलाई कहीं कि नहीं? मुझे तो अब बहुत शर्मिंदगी होती है।”
“देखो, अपनों की बातों का बुरा नहीं मनाया करते… ” बाबूजी ने समझाते हुए कहा
“अरे! जिनसे हमारी बोलचाल तक नहीं है वो भी स्वाद लेने के लिए आ जाती है। बिट्टो को एम.ए. किए भी अब तीन साल हो गए हैं, कोई अच्छा-सा लड़का देखकर उसके भी हाथ पीले क्यों नहीं कर देती? ” पत्नी की आवाज़ में थोड़ी तल्खी थी।
“मैंने तो इसके ब्याह के लिए सारा इंतज़ाम भी करके रखा हुआ है। इसके संजोग ही ठंडे है तो क्या किया जा सकता है।” बाबूजी ठंडी आह भरते हुए बोले
“भाभी! मैंने तो बिट्टो को कई बार कहा है कि वो शादियों में आया जाया करे, पर वो किसी की सुने तब न। पिछले महीने ज़िद करके ले गई थी इसे मौसी के बेटे की शादी में। पर ये लड़की तो वहाँ बुत्त ही बनी बैठी रही। उसी शादी में बबली बन-ठन कर सबसे आगे घूम रही थी। बस! वहीं लड़के वालों को नज़र में चढ़ गई और देखो, हो गई न चट मंगनी और पट शादी? ” बुआ भी कुछ उखड़ी हुई सी बोली
“पिता जी! आपने तो सैंकड़ों शादियाँ करवा दी हैं, पर अपनी पोती की ही कुंडली क्यों नहीं पढ़ पा रहे आप?” पत्नी चारपाई पर बैठे ससुर को शिकायत भरे लहज़े में बोली
“तू फ़िक्र न कर बहू! जब समय आएगा तो सब कुछ अपने आप हो जाएगा और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। और रही बात बबली की शादी की तो आजकल तारा डूबा हुआ है, तारा डूबा होने के वक़्त भी भला शादी होती है कहीं? देख लेना ये शादी कभी कामयाब नहीं होगी।”
ससुर की बात सुनकर पत्नी के चेहरे की त्यौरियाँ कुछ कम हुईं, फिर राहत भरे स्वर में बाबूजी से बोली- “सुनो जी! मौंटी को रहने दो। मैं ही चलती हूँ आपके साथ।”
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4-फुहारें
“गुड़िया! टाइम तो देखना ज़रा कितना हुआ हैं? “
“ओ हो मम्मा! आधे घंटे से पंद्रह बार टाइम पूछ चुके हो! साढ़े सात बजने वाले हैं।” गुड़िया ने झुँझलाते हुए कहा
“रोज़ तो सवा पाँच तक आ जाते हैं तुम्हारे पापा। आज क्यों इतनी देर हो गई? मुन्ना! ज़रा फ़ोन कर शायद अब लग जाए।” वह बेचैनी से बोली
“मम्मी अब भी स्विच ऑफ़ आ रहा है, लगता हैं बैटरी ख़त्म हो गई होगी।”
“तू ज़्यादा बहाने मत बना। मैं बाहर देखकर आती हूँ, शायद आ ही रहे हों।”
“ओ बहू! आ जाएगा, शायद कोई काम आ गया होगा। तू क्यों इस बरसात में बार-बार भीग रही हो? सर्दी लग गई तो बीमार हो जाओगी और अगर इतनी ही चिन्ता है तो सुबह-सुबह झगड़ती ही क्यों हो उससे? ” सासूमाँ की आवाज़ को अनसुना सा कर वो बाहर निकल गई।
“मेरी ही मति मारी जाती है जो सुबह-सुबह इनसे छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने लग जाती हूँ। आज तो नाश्ता तक नहीं करके गए। हे देवी माँ! सही-सलामत घर आ जाएँ, आगे से सुबह-सुबह कुछ नहीं बोलूँगी इन्हें।” बाहर खड़ी धीरे-धीरे बड़बड़ा रही थी कि सामने से पतिदेव स्कूटर को खींचकर आते हुए दिखे।
‘क्या हुआ जी! ये स्कूटर खींचकर क्यों ला रहे हो? ख़राब हो गया है क्या या पैट्रोल ख़त्म हो गया है? ” पति को आता देख वो अधीरता से उसकी तरफ़ लपकी
“अन्दर तो आने दे भागवान! भीगे कपड़े उतार लूँ, फिर बताता हूँ।”
“मुन्ना! ओ मुन्ना! जा पापा से स्कूटर पकड़ जाकर। गुड़िया! कपड़े निकाल पापा के।” आँगन में दाख़िल होते ही पत्नी लगभग चिल्लाते हुए बोली।
“आज ऑफ़िस में कोई ज़रूरी काम था तो निकलते हुए थोड़ा लेट हो गया। रास्तें में नत्थू हलवाई की गर्म कचौड़ियों की खूशबू आई तो सोचा तुझे कचौड़ियां बहुत पसंद है न, बस वो ही लेने के लिए रुक गया था।”
“पापा! स्कूटर तो हाफ़ किक में स्टार्ट हो गया, पैट्रोल भी फुल है। तो आप इसे यूँ खींचकर क्यों ला रहे थे?” बाहर से बेटे की आवाज़ आई।
“अरे तुम्हें पता ही चला …? ” पत्नी के माथे पर पर कई प्रश्न उभर आए।
तौलिये के सर सिर पोंछते हुए पति ने उसकी बात को अनसुना करते हुए मुस्कुराते हुए कहा,
“तुम्हें याद है! जब हमारी नई-नई शादी हुई थी तो कैसे हम पैदल ही बरसात में भीगते हुए नत्थू की दुकान पर कचौड़ी खाने जाया करते थे।”
“हाँ! मगर …… “
“बस, आज वही पुराना समय याद सा गया था।” पत्नी की आँखों में झाँकते हुए धीरे-से उसने कहा।
” तुम आराम से बैठो जी! मैं अभीचाय बना के लाती हूँ!” कचौड़ी का लिफ़ाफ़ा उठाती हुई अधेड़ पत्नी किसी नई-नवेली दुल्हन की तरह शर्माते हुए रसोई भर की तरफ़ भागी।
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5-कठघरे
लंका के उत्तरी द्वार के निकट समुद्र के किनारे जहाँ थोड़ी देर पहले रावण वध के हर्षोल्लास व लंका विजयोत्सव के गगनस्पर्शी जयघोष का गर्जन सुबेल पर्वत की ऊँची चोटियों को छू रहा था, वहाँ अब निस्तब्धता फैली हुई थी। उन्मुक्त झूमती उत्ताल तरंगें एकदम शांत हो गईं थी। सागर मानो शोकाकुल हो उठा था। श्रीराम व्योमच्युत नक्षत्र की भांति निरानन्द, एक चट्टान पर विराजमान थे और उनका धनुष बाण पास ही ज़मीन पर पड़ा था। हनुमान, सुग्रीव, विभीषण सहित लंकाविजय में उनके समस्त सहयोगी श्वांस खींचे निस्पंद खड़े थे। उनके बिल्कुल सामने जनकसुता हाथ जोड़े खड़ीं थीं, जिनके नेत्रों से उसके अंदर का ज्वालामुखी आँसुओं की अविरल धारा के रूप में प्रवाहित हो रहा था।
“भ्राता! आपकी आज्ञानुसार चिता तैयार कर दी है।” रुंधे कण्ठ से लक्ष्मण ने धीमे स्वर में कहा।
श्रीराम ने धीरे से गर्दन उठाकर एक दृष्टि चुनी हुई लकड़ियों के ढेर की ओर डाली। अग्निदेव का आह्वान किया गया। अनलदेव अविलम्ब प्रकट हो गए और करबद्ध होकर श्रीराम से उन्हें बुलाने का प्रयोजन पूछा।
“हे विभावसु! परवश हो कर जानकी ने दूसरे के गृह में वास किया है। पुनः ग्रहण करने से पहले उसके चरित्र की पवित्रता की परीक्षा के लिए आपको असमय कष्ट दिया है।” श्रीराम ने दृढ़ स्वर में अग्निदेव से कहा।
यह सुनकर अग्निदेव हतप्रभ रह गए परन्तु श्रीराम के मुखमंडल की दमकती आभा और तेज देखकर भयभीत स्वर में बोले, “राघव! यह क्या कह रहे हैं आप… अग्नि-परीक्षा…! ज्योतिर्मय पुण्यश्लोका जनकतनया की अग्नि-परीक्षा!”
अग्निदेव ने करूण दृष्टि से सीता की ओर देखा और दीर्घ श्वास भरते हुए बोले, “अभी और कितनी परीक्षाएँ शेष हैं भूमिजा की! जन्म से ही जिसने माता का मुख तक नहीं देखा, आपको कदाचित् उस पीड़ा का किंचित भी आभास नहीं है दरशथनन्दन! क्योंकि आप पर तीन स्नेहिल माताओं के स्नेह की अमृत वर्षा होती रही है। और जिस आयु में नवयौवनाएँ आशानुरूप वर की कल्पना के संसार में डूबकर आनंद अनुभव करती हैं, उस आयु में, अपने पिता की शिव धनुष का प्रत्यंचा चढ़ाने की, प्रतिज्ञा के कारण दुश्चिंतता की अग्नि में जली इस देवी की अग्नि-परीक्षा!”
अग्निदेव ने कातर दृष्टि से श्रीराम की ओर देखा जो निश्चल और निस्पंद भाव से सिर झुकाए पाषाणवत बैठे थे परन्तु उनके मस्तक पर समुद्र की लहरों ताईं कुछ लकीरें अवश्य उभर आईं थी।
अग्निदेव ने पुनः कहना आरंभ किया, “जिस देवी ने एक क्षण में ही राजमहल के सुखों को त्याग कर आपके साथ दण्डकारण्य के दुर्गमपथ का चुनाव किया। अरण्य के कंटीले पथ पर चलते हुए पैरों में काँटे गड़ जाने पर भी प्रसन्न रही। कानन-कानन घूमते, कंकड़ीली ज़मीन पर सोते हुए प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मचर्या का पालन किया…।” अग्निदेव ने दृष्टि घुमाकर देखा तो लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव सहित सभी के नेत्र सजल थे।
अग्निदेव ने फिर कहना आरंभ किया, ‘जिस देवी ने दस माह तक अशोक वन में एक वस्त्रा व अलंकारविहीन रहते हुए कंद मूल खाकर जीवन निर्वहन किया। जो हर समय भयानक राक्षसियों में घिरी रही, जिसे कभी भय से और कभी सुख-सम्पदा का लालच दिखाकर लुभाने की हर क्षण चेष्टाएँ निरन्तर होती रहीं। जिसने अपनी तेजस्विता के प्रभाव से त्रैलोकविजयी रावण को भी सहमाकर अपने सतीत्व के दुरधर्ष सम्मान की रक्षा की… ऐसी देवी की अग्नि-परीक्षा…।’
‘अर्थात्…। ’ श्रीराम के कंठ से निकला स्वर मानो किसी गहन कुएँ से निकला हो।
‘हे रघुपति! आपको कदाचित् स्मरण नहीं, परन्तु शिव का धनुष भंग करने के पश्चात् आपने संकल्प करके देवी सीता का पाणिग्रहण करते समय सप्तपदी में मुझे साक्षी मानकर वचन दिया था कि आप सदैव इनके आत्मसम्मान की रक्षा करेंगे। आजीवन इन पर विश्वास बनाए रखेंगे। जिस जनकनन्दिनी के जन्म से ही यह संसार पवित्र हो गया और कल्पना में भी कोई कलंक जिसके निर्मल चरित्र को अपवित्र नहीं कर सकता, ऐसी देवी की परीक्षा लेने का साहस मुझमें तो कदापि नहीं है। मुझे क्षमा करें राघव।’ हाथ जोड़ते हुए अग्निदेव तत्क्षण अन्तर्ध्यान हो गए।
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6-कुकनूस
समुद्र की उतंग लहरों की स्वरलहरियों से गुंजायमान वातावरण में निश्चिंत भाव से चहकते ‘गुटर गूँ… गुटर गूँ…’ करते दाना चुग रहे कबूतरों की गर्दनें अनायास ही होटल ताज की ओर से आ रहे लोगों की दिशा में मुड़ गईं। आज फिर कुछ दरबान चमचमाती पॉलीथीन की थैलियाँ हाथ में लिए विदेशी पर्यटकों के साथ उनकी तरफ़ बढ़ रहे थे। ‘गुटर गूँ… गुटर गूँ…’ के धीमे स्वरों में अब संशय के भाव थे। ज्यों ही दरबानों ने थैलियों में से दाना निकालकर कबूतरों की ओर उछाला, वे सभी उड़कर साथ सटे पेड़ों और बिजली के खंभों की तारों पर बैठ गए। सेल्फ़ी लेने को बेताब महँगे सेलफ़ोन लिए विदेशी पर्याटकों के बाजू उनके मुँह की तरह लटक गए। ‘गुटर गूँ… गुटर गूँ…’ का स्वर अब बंद हो गया और वातावरण में नीरवता सी पसर गई। ‘पुच्च… पुच्च…पुच्च…’ करके दाना डालकर कबूतरों को आमंत्रित कर रहे दरबानों के चेहरों पर खीझ और निराशा स्पष्ट झलक रही थी।
तभी एकदम से कुछ हलचल हुई। कबूतरों के पंखों के फड़फड़ाने और उल्लास से भरे ‘गुटर गूँ’ के स्वरों से दरबान चैंक उठे। उन्हें समझते देर न लगी कि वह आज फिर आ गया है। उनकी नज़रें उधर मुड़ गई जिस तरफ़ कबूतर उड़ कर जा रहे थे। ढीली पतलून, पैबंदों से सजा ओवरसाइज़ कोट और सिर पर मैला-सा हैट। हाँ! वो ही था। धीरे-धीरे ‘अय…अय…अय…’ करते हुए पुराने-से कपड़े की थैली से दाना निकालकर कबूतरों की ओर बिखेर रहा था। गर्दनें मटका-मटका कर ‘गुटर गूँ… गुटर गूँ…’ करते दाना चुग रहे कबूतरों में से कुछ उसके कंधे और सिर पर जा बैठे, जैसे पूछ रहे हों कि इतने दिनों से कहाँ थे?
‘इस हरामी ने तो जीना हराम कर रखा है।’ कसैले स्वर में बड़ी-बड़ी मूँछों वाला दरबान अपने साथियों से मुखातिब होते हुए बोला।
‘शही कहते हो यार…। यही मौक़ा होता है इन फॉरेनर शे बख़्शीश लेने का…। पर ये शाला, शब गुड़गोबर कर देता है।’ छोटी-छोटी आँखों वाला गोरखा भी ग़ुस्से से भरा हुआ था।
‘अपने फॉरेनर गेस्ट कबूतरों संग सेल्फ़ी लेकर कितना ख़ुश हो जाते है… और हमें भी ख़ुश कर देते है… पर इस साले भिखमंगे की वजह से…। अभी पिछले हफ़्ते ही इसे वार्निंग दी थी कि जब हम इधर हों तो दिखाई न दिया करे…। लगता है आज इसे सबक़ सिखाना ही पड़ेगा।’ एक और दरबान का दाँतभीचा स्वर उभरा और वे सभी तेज़ी से उसकी ओर चल पड़े।
‘ओए! तुझे मना किया था ना… इस तरड्ढ मत आया कर।’ तेज़ क़दमों की आहट और ग़ुस्से भरी आवाज़ सुनकर वह सहम गया। कबूतर उड़कर पेड़ पर जा बैठे और ‘गुटर गूँ… गुटर गूँ…’ करने लगे। इस बार उनकी ‘गुटर गूँ’ में आक्रोश झलक रहा था।
‘जी… वो… मैं…।’
‘क्या बकरी जैशे मिमिया रहा है शाले।’ उसे सहमा देख गोरखा दरबान उसपर झपटा, जिससे उसका हैट दूर जा गिरा।
‘हमारे पेट पे लात मारता है, साले…।’ बड़ी-बड़ी मूँछों वाले दरबान ने उसके कोट का कॉलर पकड़कर एकदम से झटक दिया। जैसे ही कॉलर झटका तो कोट के अंदर से सैंकड़ों कबूतर फड़फड़ाते हुए निकले और आकाश की ओर उड़ गए। अशरीरी पतलून बेजान होकर ज़मीन पर जा गिरी। दरबान के हाथ में सिर्फ कोट ही रह गया और कपड़े की थैली से सारा दाना निकलकर ज़मीन पर बिखर चुका था।
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7-महँगी धूप
‘कम-से-कम अपने झुमके ही रख लेती’ सुनार की दुकान से बाहर निकलकर राकेश स्कूटर को किक मारते हुए शारदा से बोला
‘कोई बात नहीं जी। ऐसे वक़्त के लिए ही तो गहने बनवाए जाते हैं। वैसे भी कौन सी उम्र रही है गहने पहनने की, भगवान की दया से अब तो बच्चे बराबर के हो गए हैं। अपना घर बन जाए अब तो!‘ पर्स को कसकर पकड़ स्कूटर पर बैठती हुई शारदा ने कहा
अब तो हो ही जाएगा। पी.एफ., बेटियों की आरडी और अब ये गहने भी …! बेटियों की शादी कैसे करेंगे?‘ ठंडी साँस भरता राकेश धीरे-से बोला
‘आप चिंता मत करो जी! अभी उम्र ही क्या है बेटियों की! नीतू अगस्त में पंद्रहवें में लगेगी और मीतू दिसंबर में सत्रहवें में। उनकी शादी तक तो भगवान की कृपा से रोहन इंजीनियरिंग पूरी कर अच्छी नौकरी लग चुका होगा और आपकी रिटायरमेंट को तो अभी 11 साल बाक़ी हैं।’ शारदा अपना हाथ राकेश के कंधे पर रखते हुए आशा भरी आवाज़ में बोली
‘हाँ…। ख़ैर! अब तो घर में दम सा घुटने लगा है। तीन ही तो कमरे है और साथ में भाई साहिब की फैमिली। मैं तो किसी दफ्तर वाले को घर तक नहीं बुला सकता।’
‘सही कह रहे हो। दम तो वाक़ई घुटने लगा है। एक तो घर गली के आख़िरी कोने में है जहाँ न धूप न हवा। कभी छ पर चले ही जाओ तो जिठानी जी के माथे की त्यौरियां और उनके कमेंट्स…उफ़्फ़… बर्दाश्त के बाहर हो जाते हैं। मैं तो तरस गईं हूँ खुली धूप में बैठने को।’ राकेश ने मानो उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।
‘आइए राकेश बाबू! आपका ही इंतज़ार था।’ निर्माणाधीन हाऊसिंग कॉलोनी के गेट पर मज़दूरों को काम समझाता हुआ मैनेजर राकेश को आता देख गर्मजोशी से उनकी ओर लपका। ‘स्कूटर उधर खड़ा कर दीजिए। बस कुछ ही दिनों की बात है पार्किंग भी तैयार हो जाएगी।’
‘ओए! ये सामान हटाओ यहाँ से’ मज़दूर को इशारा करते हुए मैनेजर बोला।
‘आइए ऑफ़िस में बैठकर फारमेलिटीज़ कंप्लीट कर लेते हैं… पेमैंट तो लाए हैं न…?’
‘हाँ हाँ पेमेंट तो लाया हूँ। एक नज़़र फ़्लैट तो दिखा दें इसीलिए तो आज श्रीमती जी को साथ लाया हूँ।’
‘क्यों नहीं… क्यों नहीं! आइए उधर से चलते हैं। भाभी जी! ज़रा ध्यान से चढ़िएगा! बस कुछ ही दिनों में रेलिंग भी लग जाएगी।’ सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैनेजर बेफ़िक्री से बोला
‘फ़्लैट्स तो सारे बुक हो चुके हैं जी पर आपके जी.एम. साहिब के कहने पर यह फ़्लैट आपके लिए रिज़र्व रख दिया था। आप इत्मिनान से देखकर तसल्ली कर लें, मैं ठंडा मंगवाता हूँ।’ दो मंज़िल सीढ़ियाँ चढ़ कर आए राकेश और शारदा को हांफता देख मैनेजर बोला
‘राकेश! इधर देखें। ये किचन थोड़ा छोटा लग रहा है। ये बेडरूम… इसमें डबल बैड लगने के बाद जगह ही कहाँ बचेगी और ये आसपास की बिल्डिंगज़ तो लॉबी की सारी धूप और हवा रोक रही हैं।’ मैनेजर के जाते ही थकान भूल कर फ़्लैट का मुआयना करती हुई शारदा अधीरता से बोली
‘लीजिए ठंडा पीजिए!’ खाली फ़्लैट में मैनेजर की गूँजती आवाज़ से दोनों एकदम चौंक गए
‘भाई साहिब! टैरेस…।’ गिलास पकड़ते हुए शारदा ने पूछा
‘भाभी जी! टैरेस तो कॉमन है सभी फ़्लैट्स के लिए।’
‘सभी के लिए कॉमन! ये तो वही बात हो गई! राकेश धीरे-से शारदा के कान में फुसफुसाया
‘पार्क के पीछे वाली कॉलोनी भी हमारी ही कंपनी बना रही है। वहाँ कारपेट एरिया तो इससे अधिक है ही साथ ही एंटरी और टैरेस भी इंडीपैंडेंट है। आप वहाँ देख लीजिए।’ स्थिती भाँपते हुए मैनेजर ने तीर छोड़ा
‘उसका प्राइस?’ शारदा ने संकुचाते हुए पूछा
‘अजी प्राइस तो बहुत कम है जी। कंपनी तो आपकी सेवा के लिए ही है। बस इस फ़्लैट से सिर्फ़ आठ लाख ही अधिक देने होंगे।’ खीसें निपोरता मैनेजर बोला
‘मैनेजर सॉबऽऽ! गुप्ता जी आपको नीचे ऑफ़िस में बुला रहे हैं। ‘नीचे से कुछ सामान उठाकर आ रहे एक मज़दूर ने मैनेजर को कहा
‘मैं नीचे ऑफ़िस में ही हूँ, जो भी आपकी सलाह हो बता दीजिएगा।’ बाहर निकलते हुए मैनेजर बोला
‘आठ लाख! इतना तो हो ही नहीं पाएगा। तो अब क्या करें।’ राकेश की आवाज़ मानो बहुत गहरे कुएँ से आ रही थी
‘फ़्लैट बेशक छोटा है पर अपने घर से छोटा तो नहीं है न। छत पर जाने से किसी के साथ कोई चखचख भी नहीं। यहाँ तुम अपने किसी भी दफ्तर वाले को बड़े आराम से बुला सकते हो।’
‘पर तुम्हारी वो खुली धूप में बैठने की इच्छा…।’
‘अजी मेरा तो आधा दिन स्कूल में ही निकल जाता है। उसके बाद सेंटर पर ट्यूशन। नीतू, मीतू भी मेरे साथ चार बजे के बाद ही घर आती हैं और तुम शाम को छ: बजे के बाद। समय ही कहाँ मिलता है धूप में बैठने का।’
दोनों धीरे-धीरे सीढ़ीयां उतर ऑफ़िस की तरफ़ बढ़ने लगे।
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8-पापा
साढ़े तीन साल बाद अपने शहर के बस स्टैंड पर माँ व पापा को अचानक सामने देख सुधा स्तब्ध सी रह गई थी। और वो अतीत के झरोखों में खोती चली गई।
कितना बवाल मचा था घर में उसकी होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई को लेकर।
‘तेजवीर! तेरी मति मारी गई लगती है, जो छोरी नई इत्ती दूर भेज रियै सैं और वो भी अकेली नई। ‘लगभग चिल्लाते हुए ताऊ जी पापा को बोल रहे थे
‘और चढ़ाओ लड़की को सिर पर। मैंने तो उस वक़्त भी कहा था कि बाहरवीं पास कर ली है अब कोई अच्छा-सा लड़का देखकर विदा करो पर भाई साहिब को कॉलेज भेजना था अपनी लाड़ली को। ‘चाचा जी भी भला कहा पीछे रहते
‘कॉलेज तक तो फिर भी ठीक था भाई साहिब! सुबह जाकर कम-से-कम दोपहर तक घर तो आ जाती थी। पर अब दूसरे शहर और वो भी अकेली लड़की… राम! राम! ‘बुआ ने भी जलती में घी डाला
पापा एकदम से उठे और एक कोने में सहमी सी बैठी सुधा के सिर के हाथ पर रखकर बोले- ‘जा तू अपना सामान पैक कर। ‘
‘देख बेटी! तुझे भेज तो रहा हूँ पर एक बात का ध्यान रखना कि कोई भी ऐसा क़दम न उठाना जिसकी वजह से तेरे पापा को अपना सिर झुकाना पड़े। ‘रेलवे स्टेशन पर गाड़ी में बिठाने आए पापा के वो शब्द अपने सहपाठी जतिन से कोर्ट में शादी के वक़्त भी सुधा के दिमाग़ में कौंध रहे थे। शादी के बाद जतिन ने भी उसे कई बार गाँव चलने को कहा पर वो अपने परिवार और पापा के स्वभाव जानती थी कि वो लोग विजातीय विवाह को स्वीकार नहीं करेंगे।
‘चलो सुधा! मैं टिकट ले आया हूँ। बस अब चलने ही वाली है। ‘जतिन की आवाज़ कान में पड़ते ही उसकी तंद्रा एकदम से टूटी
‘जतिन… ये माँ और पापा…। ‘सुधा ने लड़खड़ाती आवाज़ में जतिन की ओर देखकर कहा
‘……………। ‘जतिन भौचक्का सा रह गया
‘अजी देखिए… जंवाई है… पहली बार मिल रहा है। ‘माँ ने धीरे-से पापा को कहा
‘जंवाई है! तो फिर पैर क्यों नहीं छूता। ‘पापा भर्रायी आवाज़ में बोले
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9-पराजित योद्धा
‘तीन हज़ार…? पर पर्ची पर तो बकाया चार हज़ार लिखा है!’ टैंट हाऊस से आए सरदार जी ने कुर्सिएँ और शामियाना टैम्पू में रखने के बाद पैसे गिनते हुए वंदना से कहा
‘ओ बस ठीक है अंकल जी ! अब कुछ तो डिस्काऊंट दोगे ही न आप। अच्छा और बताइए क्या पीओगे, चाय या ठण्डी लस्सी?’
‘पीणा पुआणा कुछ नी पुत्तर। पर देख! तेरे कहने से लाइटें एक दिन और लगी रहने दे रहा हूं । उपर से अब तू हज़ार रूपए भी कम दे रही है। कम से कम दो सौ रूपए टैम्पू का किराया तो दे दे।’
‘अै लो अंकल जी दो सौ, आप भी क्या याद रखोगे । अब खुश !’
टैंट हाऊस वालों के जाते ही बाबू जी के पास बैठे मौसा जी ने मुस्कुरा कर वंदना से कहा- ‘यहां भी बचा लिए बिटिया।’
होंठों पर गर्वीली मुस्कान लिए वंदना आंगन में पड़े बड़े से बोरे को घसीटते हुए स्टोर की तरफ ले जाने लगी।
‘इस बोरे में क्या है?’ रसोई में दूध उबालती माँ और साथ खड़ी मौसी के चेहरे पर प्रश्नचिन्ह उभरा
‘ रात केटरिंग वाले जो राशन वगैरह का सामान बचा गए थे न पैलेस में, दीदी वो सब बोरे में भरकर गाड़ी में रखवा लाई थी।’ बर्तन धो रही महरी ने बताया
‘डिंग-डांग’ डोरबेल की आवाज़ सुनते ही वंदना झट से स्टोर में से निकली और गेट पर रिक्शा-रेहड़ी वाले को देख उसे हाथ के इशारे से अंदर आने को कहा – ‘इस तरफ आ जाओ भैया !’
‘राधा ! तुम स्टोर में से मन्दिर वाले बिस्तर उठाकर लाओ, मैं तब तक बर्तन रखवाती हूं।’ वंदना ने बाहर आकर मेहरी को कहा
‘ये बिस्तर वगैरह कब समेटे तूने?’ बाबू जी हैरान होकर वंदना से पूछा
‘सुबह उठते ही समेट कर मन्दिर के सैक्रेटरी साहिब को फोन कर दिया था कि बिस्तरे और बर्तन मंगवा लें। कम से कम आज का किराया तो नहीं पड़ेगा न।’ बड़ा सा पतीला, जिसमें कई छोटे-छोटे से बर्तन थे को उठाते हुए वंदना ने जवाब दिया।
‘छोटी ! पूरी शादी वंदना ने बहुत अच्छे से संभाली। रस्मों के साथ-साथ मेहमानों का भी पूरा ध्यान रखा । केटरिंग, टैंट और पैलेस सभी का इंतज़ाम भी बहुत अच्छी तरह संभाला।’ मौसी वंदना की तारीफ के पुल बांधते हुए माँ से बोली। भिगौने में दूध उबल कर उपर तक आ रहा था।
वंदना एक एक बर्तन लिस्ट से मिला कर टिक करने के साथ ही मौसी की बातें सुनकर गर्व से फूली जा रही थी ।
‘सही कह रही हो जिज्जी ! देखो ना ! अब बहू से छोटी सी बात क्या हुई कि सौरभ उसका पिछलग्गु बन बहन की शादी में नहीं आया। वंदना ने सब कुछ ऐसा संभाला कि सौरभ की कमी तक महसूस नहीं होने दी। हमारी वंदना तो बेटों जैसी बेटी है….।’
टन्नन्न…… की आवाज से अचानक सभी चौंक गए। वंदना के हाथ से पतीला छिटक गया था और सभी बर्तन इधर उधर बिखर गऍं। और दूध उबल कर बाहर गिर रहा था।
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10-सहारा
‘रामचरन ! ये चांदनी और कनेर कैसे एक तरफ झुके पड़े हैं?’ सुबह की गुनगुनी धूप में लॉन् की आराम कुर्सी पर पसरे पत्नी से चाय का कप पकड़ते हुए साहब का ध्यान अनायास पौधों पर पड़ा ।
‘उ रात मा आंधी के मारे साब! दुई-एक दिन मा खुदैही ठीक हुई जहिएँ!’ क्यारी की गुड़ाई करते रामचरन ने जवाब दिया।
‘गैराज से बांस ले आओ और दोनों पौधों को सहारा लगा दो।’
‘हओ साहेब!’ खुरपा छोड़ रामचरन गैराज की तरफ बढ़ा
‘राम-राम कक्का!’ गैराज में ड्राइवर रघु कार की डिग्गी खोलते हुए बोला
‘जै राम जी की रग्घू! आज तो बड़ी जल्दी आय गए? बहुरिया ठीक तो है?’
‘हमें अभी अस्पताल जाई नाही मिला है काका! कल साम कौनो मसीन बिगड़ गई फैक्ट्री मा, ऊका सामान लाने मालिक भेजे थे हमका। ई सुसरी गाड़ी हु ऐसे बखत पर धोका कर दीस। बड़ी मुस्किल से मिस्त्री मिला रात में । इस कारन वापिसी मे देर होए गई, अब आय मिला है। बस सामान धरके जाहिए रहे हैं। तुम सुनाओ काकी का बुखार उतर गया?’ उनींदे से लाल हुई आंखे मलता हुआ रघु बोला ।
‘अरे बिटवा! हम गरीबन के बुखार तौ साहूकार के करज जैसन है जो चढ़त ही जात है । बड़े डागडर को ही दिखान होइ। दुई-एक दिन मा पगार मिल जाई तब ले जैहै।’ ठंडी आह भरते हुए रामचरन ने कहा
‘साहब से कह का देखो तनिक। बहुत नरम दिल हैं सायद कौनों जुगाड़ बन जाए।’ सामान उठा कर लॉन् की तरफ जाते हुए रघु हौले से बोला
‘बहुत टाइम लगा दिया पहुंचने में रघु। अब जल्दी से रेलवे स्टेशन जा कर वेटिंग रूम से इंजीनियर साहब को साथ लेकर फैक्ट्री पहुंचो। कल से काम बंद पड़ा है।’
‘नमस्ते सर! नमस्ते बीबी जी! सर मुझे तो अस्पताल जाना है। मेरी घरवाली…।’
‘ओह हां ! अभी अस्पताल में ही है वो ? अब तबीयत कैसी है उसकी? मैं फैक्ट्री मुनीम जी को फोन कर देता हूं तुम्हे कुछ रूपए दे देंगे । अच्छे से ध्यान रखना उसका और कोई जरूरत हो तो बेहिचक बता देना। अब जल्दी स्टेशन पहुंचो।’ अखबार का पन्ना पलटते हुए साहब ने कहा
‘मेहरबानी सर ।’ चेहरे पर कृतज्ञता के भाव लिए रघु उल्टे पांव लौट पड़ा।
पीछे क्यारी में बांस गाड़ने बैठै रामचरन की आंखों में चमक और हाथों में तेज़ी आ गई ।
‘आपने बहुत सिर पर चढ़ा रखा है नौकरों को । इनका तो ये आए दिन का रोना है। अभी पिछले हफ्ते ही तो आपने इसे रूपए दिए थे और अब फिर से । वैसे भी दो दिन बाद तो सैलरी देनी ही है।’ पास बैठी पत्नी थोड़ी तल्खी से बोली ।
‘समझा करो भाग्यवान! इनकी ज़़रूरतों की भट्ठी में पैसों का ईंधन डालते रहना चाहिए तभी ये लोग एहसानमंद और आश्रित बने रहते हैं । बिजनेस करने के लिए ये सब करना ही पड़ता है।’ खीसें निपोरते साहब की आवाज़ में शातिरता थी।
रामचरन के हाथ सहसा रूक गए एक दो पल कुछ सोचने के बाद उसने पौधों को सहारा देने के लिए गाड़े बांस निकाल फैंके और गहरी सांस भरकर फिर से गुड़ाई में जुट गया ।
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11-शेड्स ऑफ़ ब्लैक
‘आज मैं तुम्हारा अंत करके दुनियां को हमेशा-हमेशा के लिए तुमसे मुक्त कर दूँगा।’ धवल-श्वेत वस्त्रधारी ने काले लबादे वाले का गला पकड़ते हुए कहा I
‘अरे अरे! यह क्या कर रहे हो? मैंने ऐसा क्या कर दिया कि तुम मेरी जान लेने पर उतारू हो गए?’
‘समस्त मानव-जाति तुम्हारे कारण त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है, अत: आज तुम्हें मेरे हाथों मरना ही होगाI’ गले पर दबाव बढ़ाते हुए उसने कहा I
‘किन्तु इसमें मेरा क्या दोष है? मैं तो केवल वही कर रहा हूँ जो मेरा कर्तव्य हैI’
‘पाप को कर्तव्य बताते हो दुष्ट?’ उसके स्वर की कठोरता बहुगुणित हो रही थीI
‘ठीक है भाई ! तुम जीते और मैं हारा । बस मेरी एक आखिरी बिनती सुन लो।’ उसने याचना भरे स्वर में कहाI
‘नहीं ! आज मैं तुम्हारी कोई भी बात नहीं सुनूँगा।’
‘इतना तो मैं तुम्हारा स्वभाव जानता हूँ, मेरी बिनती सुने बिना तुम मेरा अंत नहीं करोगे।’ उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान थीI
‘ठीक है, बताओ क्या कहना चाहते हो?’
‘कभी सोचा है कि मेरे बगैर तुम्हारा क्या अस्तित्व है?’
‘अर्थात्?’
‘अर्थात्, यदि रावण था तभी राम थे, यदि कंस था तभी तो कृष्ण थे। यदि अंधकार होगा तभी तो प्रकाश की आवश्यकता होगी। यदि तुमने मुझे मार डाला तो तुम भी मेरी ही श्रेणी में ही गिने जाओगेI अत: याद रखो, जब तक मैं रहूँगा तभी तक इस दुनिया को तुम्हारी आवश्यकता रहेगी।’
यह सुनकर अच्छाई के हाथों की पकड़ ढीली हो रही थी पर बुराई की आँखों में विजयी चमक आ रही थीI
12-विजेता
‘बाल-दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित इस कम्पीटीशन में हमारा आज का सबसे पहला इंवेट है नर्सरी के बच्चों की लैमन-स्पून रेस।’ ग्राउंड में टंगे बैनर, जिसपर खेलते-कूदते बच्चों के चित्रों के साथ सुनहरे अक्षरों में ‘किंडरगार्टन क्लासेज़ स्पोटर्स कम्पीटिशन’ लिखा हुआ था, को रीझ से निहारते सहसा कानों से टकराई इस उद्घोषणा ने उसकी तंद्रा तोड़ दी।
जैसे ही रेस शुरू हुई चम्मच जिसपर नींबू रखा हुआ था बच्चे उसको मुँह में दबाए बड़ी सावधानी से लेकर आगे बढ़ने लगे और अभिभावक अपने-अपने बच्चों का हौसला बढ़ाने लगे। पर एक बच्चा उल्ट ही दिशा में चलने लगा तो उसकी मम्मी ज़ोर से चिल्लाई ‘बेटे अंजली! इस तरफ़ नहीं, उस तरफ़ जाओ। ‘
‘हाँ-हाँ अंजली! इधर नहीं, उधर जाओ। ‘जिधर दूसरे बच्चे बढ़ रहे थे उस ओर अँगुली से इशारा करता वो भी चिल्लाया।
अंजली के पापा ने अजीब-सी निगाहों से उसकी ओर घूरा।
‘शाबास वंश! शाबास! बस पहुँचने ही वाले हो, ध्यान से और आराम से चलो। ‘फिनिशिंग प्वांइट की ओर तेज़ी से बढ़ते अपने बेटे को देख वंश के माँ-बाप उत्साह से लबरेज़ थे।
‘वैल्डन वंश!’ जैसे ही वंश ने फिनशिंग प्वाइंट को छुआ तो वो ज़ोर से तालियाँ बजाते हुए ख़ुशी से चिल्लाया
‘ये कौन है? ‘ आँखों के इशारो से वंश के पापा ने पत्नी से पूछा
‘पता नहीं!’ मुँह बिचका कर इशारों में ही वंश की मम्मी ने जवाब दिया
इतने में ही के.जी. कक्षा की सैक रेस की उद्घोषणा हो गई और वह उस ओर बढ़ गया।
पैरों में बोरी डालकर भागते-गिरते बच्चों को देख बाक़ी अभिभावकों जैसे वो भी बच्चों को उनके नाम से पुकारता हुआ उनका हौसला बढ़ाने में लग गया।
‘कोई बात नहीं मनन! उठो और दुबारा कोशिश करो! शाबास!’
‘पीछे मुड़कर मत देखो गीतू बेटे! तेज़ और तेज़। ‘
अपने बच्चों का नाम लेकर पुकारने पर कई माँ-बाप सवालिया नज़रों से उसे देख रहे थे। पर वह सबसे बेख़बर भागते-कूदते बच्चों के साथ बच्चा बन उनको लगातार उत्साहित किए जा रहा था ।
‘वो कौन हैं? ‘एक अभिभावक ने उसकी ओर इशारा करते हुए पास बैठे टीचर से पूछा।
‘वो! वो तो अवी के पापा हैं! ‘
‘अवी कौन? ‘
‘अवी यू.के.जी. का स्टूडेंट है, बहुत होनहार है बेचारा! वोऽऽ बैठा है…। ‘
कई गर्दनें टीचर की अँगुली वाली दिशा में घूम गईं।
ग्राउंड के दूसरी ओर अपनी व्हील-चेयर पर बैठा अवी भी तालियाँ बजाकर अपने साथियों का हौसला बढ़ा रहा था।
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