सुकेश साहनी समकालीन धारा के प्रमुख लघुकथाकार है। इन्होनें विविध संदर्भों पर साधिकार लेखन किया है। इनकी लघुकथाओं की शिल्पगत नवीनता और कथ्य की ताज़गी ने पाठकों को सदैव आकर्षित किया है। सुकेश साहनी ने अपने अनुभवों की व्यापकता के आधार पर अपने लेखन की निरंतरता, ऊर्जा और सार्थकता को अक्षुण्ण रखा है।
सुकेश साहनी रचित लघुकथाएँ जीवनानुभूत साहित्य कही जा सकती हैं। जीवन से जुड़े प्रत्येक पहलू को सूक्ष्मता से छूकर इन्होनें अपनी लघुकथाओं में अभिव्यक्त किया है। इनकी लघुकथाओं में समग्र भाव से जीवन- अनुभवों का वैविध्य है और वे अनुभव हमारे आसपास के ही जाने-पहचाने चरित्रों, घटनाओं और संदर्भों के बिम्बों से रूपायिकत किए गए हैं। सुकेश साहनी सूक्ष्म अंर्तवृत्तियों के चिंतन के माध्यम से मानव समाज व जीवन से जुड़ी समस्याओं का चित्रण करने में सिद्धहस्त हैं, जिनकी ओर अन्य लेखकों का ध्यान प्रायः बहुत ही कम गया है। इनकी लघुकथाएँ अपने समय का प्रामाणिक संलेख कही जा सकती हैं। इनकी लघुकथाओं की वेदना का क्षेत्र अनंत है। सरलता, सहजता, स्वाभाविकता इनकी रचनाओं की विशेषता है। बिना बनावट के सहज शैली में सृजित इन रचनाओं का विशिष्ट सौन्दर्य है जिनमें जीवन की संश्लिष्टता के विविध आयामों में अर्थ तलाशती रचनात्मक प्रतिबद्धता के दर्शन होते हैं।
जीवन की कोई समस्या या कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जिस पर इन्होनें अपनी कलम न चलाई हो। इनकी लघुकथाओं में विषय वैविध्य के दर्शन होते हैं जिनमें रिश्तों पर बढ़ता अर्थतंत्र का दबाव, स्वार्थ में लिप्त भ्रष्ट राजनीति, सांप्रदायिकता, नैतिक रूढ़ियों और मान्यताओ का विघटन, रिश्तों का विखंडन, महानगरीय जीवन का संत्रास, सिसकती मानवीयता, आंतरिक द्वंद्वों से जूझता मानव व भ्रष्ट तंत्र आदि जीवन की अनेक स्थितिओं का सूक्ष्म अंकन अत्यंत कुशलता से हुआ है। इनकी रचनाओं में किसी भी स्तर पर एकरसता और दुर्बोधता आभासित नहीं होती। इनमें जितनी भी अनुभूतियाँ उभरी हैं, सबका स्तर भिन्न-भिन्न है। भोगे हुए क्षणों को मुखरित करना, उसे ही कुशाग्र बनाना उनकी लघुकथाओं का उद्देश्य रहता है। आइए, इनकी सात उत्कृष्ट लघुकथाओं पर चर्चा करते हैं।
- बैल
“इसके दिमाग़ में गोबर भरा है गोबर!” विमला ने मिक्की की किताब को मेज़ पर पटका और पति को सुनाते हुए पिनपिनाई,”मुझसे और अधिक सिर नहीं खपाया जाता इसके साथ। मिसेज़ आनन्द का बण्टी भी तो पाँच साल का ही है, उस दिन किटी पार्टी में उन्होंने सबके सामने उससे कुछ क्वेश्चन पूछे…वह ऐसे फटाफट अंग्रेज़ी बोला कि हम सब देखती रह गईं। एक अपने बच्चे हैं…”
“मिक्की! इधर आओ।”
वह किसी अपराधी की भांति अपने पिता के पास आ कर खड़ा हुआ।
”हाऊ इज़ फूड गुड फॉर अस? जवाब दो, बोलो!”
“इट मेक्स अस स्ट्राँग, एक्टिव एण्ड हैल्प्स अस टू…टू…टूऊ-ऊ…”
“क्या टू-टू लगा रखी है! एक बार में क्यों नहीं बोलता?” उसने आँखें निकालीं, “एण्ड हैल्प्स अस टू ग्रो।”
“इट मेक्स अस अस्ट्राँग…!” वह रुआँसा हो गया।
“अस्ट्राँग!! यह क्या होता है, बोलो…’स्ट्रॉग’… तुम्हारा ध्यान किधर रहता है…हँय?” उसने मिक्की के कान उमेठ दिए।
“इट मेक्स स्ट्राँग…” उसकी आँखों से आँसू छलक पड़।
“यू-एस… ‘अस’ कहाँ गया। खा गए।” तड़ाक् से एक थप्पड़ उसक गालों पर जड़ता हुआ वह दहाड़ा, ”मैं आज तुम्हे छोड़ूँगा नहीं…”
“फूड स्ट्राँग अस…”
“क्या?” वह मिक्की को बालों से झिंझोड़ते हुए चीखा।
“पापा! प्लीज़, मारो नहीं… अभी बताता हूँ…बताता हूँ… स्ट्राँग… फूड… अस…इट…हाऊ…इज़…” वह फूट-फूटकर रोने लगा।
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-: समीक्षा :-
साहित्य जीवन का स्पंदन है। चूँकि साहित्य का उद्गम समाज से होता है तो साहित्य का विषय जीवन होता है। इसलिए लेखक में एक जीवन दृष्टि होना नितांत आवश्यक है। यूँ तो प्रत्येक जन में जीवन दृष्टि विद्यमान होती है परन्तु लेखक की दृष्टि अधिक स्वच्छ, व्यापक और सूक्ष्म होती है जिससे वह जीवन को अधिक शुद्ध, वास्तविक रूप देखते हुए व्यापकता व गहराई से उसका अध्यन करता है तथा उसमें उन सूक्ष्मताओं को भी देख सकता है जो प्राय सामान्यजन द्वारा पहचानी अथवा पकड़ी नहीं जा सकती। समग्रतः जीवन दृष्टि से अभिप्राय जीवन में प्रकृत संवेदनों, मौलिक अर्थ-समुच्यों तथा अनाविल प्रभाव छायातर्पों की तरफ लेखक की संवेदनशीलता तथा सचेतना का पूरी तरह खुला होना है। कथा साहित्य में न तो घटनाएँ नई हैं, न ही मानवीय सबंध, न ही विचार नए हैं और न ही भावों का आवेग तथा आन्तरिक उद्वेग अछूता है। किन्तु सुकेश साहनी के इन सबको देखने और सोचने-समझने की जीवन दृष्टि से इनकी लघुकथाओं में चहुँ ओर यथार्थता तथा नवीनता के दर्शन होते है। प्रस्तुत रचना ‘बैल’ की कथाचेतना भी आसपास के परिवेश से प्रेरित तथा विचार बिन्दु वास्तविकता से उपजी है।
लघुकथा का शीर्षक ‘बैल’ एक प्रतीकात्मक शीर्षक है जिसकी व्याख्या लघुकथा के कथ्य से उभर कर सामने आती है। माँ-बाप द्वारा पाँच वर्षीय मिक्की को हठपूर्वक अंग्रेज़ी सिखाने के संदर्भ में प्रयुक्त शीर्षक अपने अभिधार्थ, प्रतीकार्थ एवँ व्यंजनार्थ के द्वारा लघुकथा के कथ्य को कलात्मकता से प्रतिबिंबित करता है। गाय प्रजाति के नर दो प्रकार के होते हैं, साँड व बैल। साँड प्रकृतिक तौर पर आक्रमक होते हैं व उनमें प्रजनन (सृजन) की क्षमता होती है। बैल, जिसे जवान होते ही ‘स्टेराइल’ (बधिया) कर दिया जाता है जिससे वह प्रजनन करने योग्य नहीं रहता अर्थात् वह सृजन करने योग्य नहीं रह जाता। वह जीवन पर्यान्त कोल्हू का बैल बन कर रह जाता है। कोल्हू का ‘बैल’ अर्थात आँखों पर पट्टी बाँध कर बनी बनाई लकीर का अंधानुसरण करते रहना। यह लकीर कभी जाति, कभी धर्म, कभी लिंग तो कभी क्षेत्र के रूप में सामने आती है। इन लकीरों पर चलते हुए वोट देना, दूसरी जाति पर हमला, दूसरे धर्मों के प्रति द्वेष की भावना, विपरीत लिंग को निकृष्ठ मान कर व उस अत्याचार करना तथा दूसरों के अधिकारों के हनन जैसे दुष्परिणाम इसके प्रतिफलन स्वरूप सामने आते हैं। ‘बैल’ दूसरों की बनाई राह पर ही चलते हैं, परंपराओं की गिट्टियाँ तोड़कर और रूढ़ियों के काँटे बीनकर स्वयं के लिए नई राह का निर्माण करने का जोखिम और साहस वे जीवन पर्यांत नहीं जुटा पाते।
यह लघुकथा कथोपकथन शैली में रचित है। पात्रों के बीच भाषा के माध्यम से होने वाले भाव-विचार-विनिमय को कथोपथन कहते हैं। कथोपकथन पात्रों के चरित्र के परिचय और कथानक को सजीवता से आगे बढ़ाने का सशक्त माध्यम है। कथोपकथन से कथावस्तु को लक्षित उद्देश्य तक पहुँचाने, वर्णित घटना के देशकाल की जानकारी, प्रयुक्त भाषा शैली तथा रचना के उद्देश्य की सफल अभिव्यक्ति जैसे कई उद्देश्यों की पूर्ति एक साथ होती है।
पात्रों के संवाद से तथा प्रयुक्त भाषा से पाठक को इस बात का भान हो जाता है कि अमुक पात्र किस कोटि, वर्ग तथा देशकाल, संस्कारों और शिक्षा-दीक्षा का प्रतिनिधित्व करता है। इस संदर्भ में डॉ॰ जगन्नाथ प्रसाद का कथन सराहनीय है, “यदि देश काल और संस्कृति विशेष का कोई प्राणी किसी से भी किसी प्रकार की बातचीत करता है तो उसकी बातचीत की प्रांजलता और विदग्धता, शब्द और वाक्यों के प्रयोग, भाषा और पदावली से हमें प्रत्यक्ष मालूम होता है कि व्यक्ति किस कोटि, वर्ग, देश और काल का है। कथोपकथन से अन्य सभी तत्वों का सीधा सबंध होता है। कथोपकथन जहाँ एक ओर कथा के प्रसार का मुख्य साधन होता है, वहीं चरित्रोद्घाटन का भी; साथ ही देश काल का भी पर्याप्त बोध करा देता है। लघुकथा में विमला के संवाद, “इसके दिमाग़ में गोबर भरा है गोबर!” … उस दिन किटी पार्टी में उन्होंने सबके सामने उससे कुछ क्वेश्चन पूछे…वह ऐसे फटाफट अंग्रेज़ी बोला कि हम सब देखती रह गईं। एक अपने बच्चे हैं… ” से संकेत मिलता है कि यह परिवार हालिया ही कथित संभ्रांत समाज के सम्पर्क में आया हैं। अमूमन संभ्रांत समाज की ओर उन्मुख नए लोग ही बच्चों के अंग्रेज़ी ज्ञान को लेकर अधिक चिंतित और दबाव में दिखाई देते हैं। पात्रों की बदलती हुई मनःस्थितियों एवँ अन्र्तद्वन्द्वों का खुलकर चित्रण वास्तव में कथोपकथन के माध्यम से अनावृत होते हैं। समय, स्थिती और परिवेश के अनुकूल संवाद कहानी को सोद्देश्यता के चरम तक पहुँचाते है। उद्धरण दृष्टव्यः “अस्ट्राँग!! यह क्या होता है, बोलो…‘स्ट्राँग’… तुम्हारा ध्यान किधर रहता है…हँय?” उसने मिक्की के कान उमेठ दिए। यहाँ शब्द ‘हँय’ का प्रयोग एकदम स्थिती और परिवेश के अनुकूल है, गुस्से में कान उमेठते हुए इस ‘हँय’ शब्द का उच्चारण बिल्कुल स्वभाविक जान पड़ता है। सारगर्भित और छोटे-छोटे वाक्य संवाद योजना में अभिलषणीय है। पात्रों के व्यक्तित्व को स्पष्ट करते हुए उनके चरित्र से सबंधित गोपनीय तत्वों का रहस्योद्घाटन भी कथोपकथन के माध्यम से सम्पन्न होता है। कथोपकथन के माध्यम से ही पात्र स्वयं अपना आंतिरक तथा बाह्या रूप पाठकों को देता है, जिससे स्वभाविकता के दर्शन होते हैं। यथाः ‘मिसेज़ आनन्द का बण्टी भी तो पाँच साल का ही है, उस दिन किटी पार्टी में उन्होंने सबके सामने उससे कुछ क्वेश्चन पूछे…वह ऐसे फटाफट अंग्रेज़ी बोला कि हम सब देखती रह गईं। एक अपने बच्चे हैं…’ विमला का संवाद उसके अहं को पहुँची ठेस को अनावृत करता है। उसे अपने बच्चे की कमज़ोरी से ड्डयादा बण्टी के फटाफट अंग्रेज़ी बोलने से अधिक कष्ट है।
कोई भी रचना तभी सफल मानी जा सकती है जब उसकी भाषा परिवेश तथा पात्रों के अनुकूल हो। लघुकथा के सीमित आकार में भाषा सौंदर्य के पूर्ण निर्वाहन में भावानुकूल, पात्रोचित संवादों की सृष्टि सुकेश साहनी की सृजनात्मक प्रतिभा का सबूत है। कम से कम और अर्थपूर्ण संक्षिप्त संवादों के द्वारा व्यापक अर्थ देने वाली भाषा सूक्ष्म और जटिल अनुभवों को संप्रेषित करते हुए विषय का वर्णन और चरित्रों का प्रकाशन करने में सिद्धहस्त रही है। संक्षिप्त संवादों द्वारा विभिन्न अर्थ उत्पन्न करने की क्षमता उनकी भाषागत विशेषता है। इस लघुकथा की भाषा की सबसे बड़ी विशिष्टता है डॉट्स का संतुलित उपयोग। तनाव और अमूर्त भावों की पकड़ के लिए भाषा में डॉट्स का प्रयोग होता है। यह प्रयोग कभी तो अनुमेय छोड़ने के लिए तो कभी अमर्यादित व अप्रिय कथन से बचने के लिए होता है। द्वंद्व, निराशा, अवसाद, खीज आदि स्थितियों में डॉट्स की भाषा का प्रयोग आकर्षक व सार्थक सिद्ध होता है, जिसका प्रयोग इस लघुकथा में कुशलतापूर्वक किया गया है यथाः “इट मेक्स अस स्ट्राँग, एक्टिव एण्ड हैल्प्स अस टू…टू…टूऊ-ऊ…”
“इट मेक्स अस अस्ट्राँग…!” वह रुआँसा हो गया।
“पापा! प्लीज़, मारो नहीं… अभी बताता हूँ…बताता हूँ… स्ट्राँग… फूड… अस…इट…हाऊ…इज़…” वह फूट-फूटकर रोने लगा।
यह लघुकथा यथार्थ से इतनी जुड़ी हुई है कि पाठक स्वयं इसका रस आस्वादक बनकर मिक्की के प्रति सहानुभूतिपूर्ण हो उठता है। लघुकथा की अपेक्षा यदि इसे ‘यथार्थ चित्र’ भी कह दिया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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- ईश्वर
पेट में जैसे कोई आरी चला रहा हैं… दर्द से बिलबिला रहा हूँ….। पत्नी के ठंडे, काँपते हाथ सिर को सहला रहे हैं। उसकी आँखों से टपकते आँसुओं की गरमाहट अपने गालों पर महसूस करता हूँ। उसने दो दिन का निर्जल उपवास रखा है। माँग रही है कैंसरग्रस्त पति का जीवन ईश्वर से। …ईश्वर? …आँखों पर ज़ोर डालकर देखता हूँ, धुंध के उस पार वह कहीं दिखाई नहीं देता…।
घर में जागरण है। फिल्मी गीतों की तर्ज़ पर भजनों का धूम-धड़ाका है। हाल पूछने वालों ने बेहाल कर रखा है। थोड़ी-थोड़ी देर बाद कोई न कोई आकर तसल्ली दे रहा है, “सब ठीक हो जाएगा, ईश्वर का नाम लो।”…ईश्वर?…फिल्मी धुनों पर आँखों के आगे थिरकते हीरो-हीरोइनों के बीच वह कहीं दिखाई नहीं देता…
नीम बेहोशी के पार से घंटियों की हल्की आवाज़ सुनाई देती है। ऊपरी बलाओं से मुझे मुक्ति दिलाने के कोेई सिद्ध पुरूष आया हुआ है…। नशे की झील में डूबते हुए पत्नी की प्रार्थना को जैसे पूरे शरीर से सुन रहा हूँ, “इनकी रक्षा करो, ईश्वर!”…ईश्वर?…मंत्रोच्चारण एवँ झाड़-फूँक से उठते हुए धुएँ के बीच वह कहीं दिखाई नहीं देता…
शमशान से मेरी अस्थियाँ चुनकर नदी में विसर्जित की जा चुकी हैं। पत्नी की आँखों के आँसू सूख गए हैं। मेरी मृत्यु से रिक्त हुए पद पर वह नौकरी कर रही है। घर में साड़ी के पल्लू को कमर में खोंसे, वह काम में जुटी रहती है। मेरे बूढ़े माँ-बाप के लिए बेटा और बच्चों के लिए बाप भी बनी हुई है। पूजा पाठ (ईश्वर) के लिए अब उसे समय नहीं मिलता। …ईश्वर? …वह उसकी आँखों से झाँक रहा है!
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-: समीक्षा :-
स्त्री-पुरुष तत्व का सम्मिलन ही सृष्टि का उन्मेष है। समाज की गति स्त्री-पुरुष की समानांतर धारा में ही क्रियाशील रहती है। स्त्री बिना पुरुष अधूरा है, पुरुष के बिना स्त्री अधूरी है। युग्मित रूप से संचालित होना ही इस सृष्टि की परिभाषा है। सृष्टि का जो सर्वोत्तम, समुन्नत विकास मानव सभ्यता में परिलक्षित होता है उसके पाश्र्व में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व निर्णायक भूमिका में स्त्री व पुरुष ही पति-पत्नी के रूप में रहे है। समपर्ण स्त्री का संस्कारजन्य एवँ स्वाभाविक गुण है जिससे वह अपने दाम्पत्य जीवन को सुव्यवस्थित ढंग से निभाने में समर्थ होती है। स्त्री अपने परिवार की धुरी है। भले ही परिवार का घोषित मुखिया पुरुष हो किन्तु परिवार के पालन-पोषण व परिचालन में स्त्री की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। बिना स्त्री के प्रमुख सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक व धार्मिक प्रसंगों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। स्त्री इन प्रसंगों की अधिष्ठात्री रही है। भारतीय समाज अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा में अटूट विश्वास रखता है, इसलिए यह भी सत्य है कि परम अधिष्ठान पर विराजमान स्वयं शिव भी शक्ति के बिना शव ही हैं। दाम्पत्य जीवन के माधुर्य का प्रेमपूर्ण चित्र विद्यानिवास मिश्र ने अपने इन शब्दों में किया है,“दाम्पत्य सम्बंध में बसंत का उद्दाम या वर्षा का उद्दाम निर्बांध रूप ही नहीं है, वह शरद की शुभ्रता भी है और परस्पर सबंध की ऐसी अतल गहराई है जिसमें बातचीत के लिए इशारों की ज़रूरत नहीं होती। पास न भी रहे तो एक-दूसरे के रहने का अहसास ही काड्ढी है। जैसे शरद् रात में चंद्रमा और रात एक-दूसरे में घुलमिल जाते है, हंस और स्फटिक के समान निर्मल सरोवर एक दूसरे में मिल जाते हैं, वैसे ही दाम्पत्य सबंध विश्वास का अनंत प्रसार बन जाता है।”
‘ईश्वर’ लघुकथा कैंसर के कारण मरणासन्न अवस्था में पड़े पति और इस त्रासदी को भोगती व सच से परिचित होते हुए भी सच को न मानने का हौसला करने वाली पत्नी की मार्मिक लघुकथा है। पति के ठीक होने के लिए कभी उपवास, कभी जागरण तो कभी झाड़-फूँक का सहारा लेकर अपने दिल को झूठी तसल्ली देती पत्नी और तिल-तिल मरते हुए भी ईश्वर को तलाशते पति का चित्रण अत्यंत कुशलता से उकेरा गया है। सुकेश साहनी के शिल्प का सबसे सशक्त पक्ष है शब्दों की मितव्यतता। अल्प शब्दों में भी प्रभावशाली ढंग से बात कह जाना सुकेश साहनी की सशक्त प्रवृति है। शब्द मितव्ययता का उदाहरण कैंसरग्रस्त पति के हालात का चित्र अत्यंत अल्प शब्दों में अत्यंत कुशलता से किया है, यथाः ‘पेट में जैसे कोई आरी चला रहा हैं… दर्द से बिलबिला रहा हूँ….।’ इसी प्रकार ईश्वर के नाम पर हो रहे बाज़ारीकरण को भी कम परन्तु यथोचित शब्दों में बयान किया गया हैः ‘फिल्मी गीतों की तर्ज़ पर भजनों का धूम-धड़ाका है। ’ ….फिल्मी धुनों पर आँखों के आगे थिरकते हीरो-हीरोइनों के बीच वह कहीं दिखाई नहीं देता….।’
इस लघुकथा की सुंदरता है इसका अंत- जिसमें घटना और कार्य व्यपार के स्थान पर मानव संघर्ष, शाश्वत अन्तद्र्वन्द्व व उसकी समग्र आंतरिकता को व्यंजित किया गया है। लघुकथा के अंत में आश्चर्यचकितवृत्ति के साथ-साथ स्वाभावकिता का संतुलित सुमेल इसका वैशिष्ट्य है, निम्नस्थ उद्धरण इस स्थिती पर अधिक प्रकाश डालता हैः ‘पत्नी की आँखों के आँसू सूख गए हैं। मेरी मृत्यु से रिक्त हुए पद पर वह नौकरी कर रही है। घर में साड़ी के पल्लू को कमर में खोंसे, वह काम में जुटी रहती है। मेरे बूढ़े माँ-बाप के लिए बेटा और बच्चों के लिए बाप भी बनी हुई है।’ अंततः पत्नी ने सत्य को स्वीकार कर लिया और स्थितियों से संघर्ष आरम्भ कर दिया। बूढ़े सास-ससुर की सेवा और बच्चों के लिए छाया बनी पत्नी की आँखों में ईश्वर दिखाई देना भारतीय परंपरा में प्रचलित यद् गृह रमते नारी लक्ष्मीस्तद् गृहवासिनी। देवताः कोटिश वत्स। न व्याजन्ति गृहं हितत्।। अवधारणा को बल प्रदान करता है।
यह लघुकथा स्वैरकल्पना शिल्प में रचित है। स्वैरकल्पना शब्द स्वैर$कल्पना के योग से निर्मित है। ‘स्वैर’ शब्द का अर्थ है मनमाना अचारण करने वाला, स्वच्छन्द, स्वेच्छाधारी, अनियन्त्रित आदि। व्युत्पति के की दृष्टि से ‘कल्पना’ का शाब्दिक अर्थ ‘सृष्टि करना’ है। कल्पना लेखक की सृजन शक्ति है। इस प्रकार स्वैरकल्पना शब्द का सम्मिलित अर्थ है सृजेता की स्वच्छन्द अथवा अनियन्त्रित उत्प्रेक्षा या कल्पना। स्वैरकल्पना शिल्प मानव जीवन की आंतरिक जटिलताओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। यह काल के सुंकुचित होते दायरों को विस्तृत स्वरूप प्रदान करने वाला शिल्प है। सृजनशील कल्पना इस शैली का मापदंड है। इसकी सबसे बड़ी उपयोगिता निजी प्रत्यक्ष अनुभूति की अनिवार्यता को नगण्य बनाना है। कथांश द्रष्टव्य हैः ‘शमशान से मेरी अस्थियाँ चुनकर नदी में विसर्जित की जा चुकी हैं। पत्नी की आँखों के आँसू सूख गए हैं।’ यहाँ यथार्थ को अभिव्यक्त करने व अनुभूति की खोज के लिए सवैरकल्पना अथवा परिकल्पना और उड़ान को माध्यम बनाया गया है। स्वैरकल्पना में कुछ हद तक अतिश्योक्ति तत्व भी विद्यामान होता जिससे उसमें स्वतंत्रता की विपुल संभावना होती है और यही इस शिल्प की विशिष्टता भी है।
सुकेश साहनी की लघुकथाओं की भाषा नदी के धारा के समान अबाध गति से प्रवाहित होती है जो गंतव्य पर पहुँच कर ही दम लेती है। उनकी भाषा में सूक्ष्म से सूक्ष्म अंतद्र्वंद और जटिलता को सरलता से सुलझाव का सामथ्र्य है। उनकी भाषा परिवेश और संबधों के आत्मीय परिवेश को कुशलतापूर्वक चित्रित करने में पूर्णत सक्षम है यथाः ‘नशे की झील में डूबते हुए पत्नी की प्रार्थना को जैसे पूरे शरीर से सुन रहा हूँ, “इनकी रक्षा करो, ईश्वर!”….ईश्वर?….मंत्रोच्चारण एवँ झाड़-फूँक से उठते हुए धुएँ के बीच वह कहीं दिखाई नहीं देता…।’ भाषा में परिवेश और पात्रों के अनुरूप समाज में प्रचलित बोलचाल की सहज भाषा का प्रयोग किया गया है। सुकेश साहनी की लघुकथाओं की लोकप्रियता का एक कारण विद्वता के कृत्रिम प्रदर्शन से दूरी और भाषा की सुबद्धता और सहजता भी है।
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- मृत्यु का कारण
“क्या हुआ, बेटी?” बूढ़ी आँखों में हैरानी थी।
“कैसी अजीब आवाज़ें निकाल रहे हैं,” बहू ने तिनमिना कर कहा, “गुड़िया डरकर रोने लगी है, कितनी मुश्किल से सुलाया था उसको!”
“अच्छा!” उन्हें हैरानी हुई, “नींद में पता ही नहीं चला, ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ!”
पैर में बंधे ट्रेक्शन की वजह से वह ख़ुद को बहुत असहाय पा रहे थे। उन्हें गाँव की खुली हवा में साँस लेने की आदत थी। महानगरों के डिब्बेनुमा मकानों में उनका दम घुटता था। पिछले दिनों गाँव में हैडपम्प पर नहाते हुए उनका पैर फ़िसल गया था और कूल्हे की हड्डी टूट गई थी। खबर मिलने पर बेटा उन्हें इलाज के लिए शहर ले आया था। डाक्टरों की राय थी कि आप्रेशन कर दिया जाए ताकि वे जल्दी ही चलने फिरने लगे। दूसरे विकल्प के रूप में ट्रेक्शन था, जिसमें छः महीने तक एक ही पोजीशन में लेटे रहने के बावजूद इस उम्र में हड्डी जुड़ने की संभावना काफी कम थी, बेडसोल और पेट संबंधी विकारों का खतरा अलग से था। सभी बातों पर ग़ौर करने के बाद बेटे ने आप्रेशन कराने का फैसला किया तो बहू ने रौद्र रूप धारण कर लिया था, “अपनी सारी बचत इनके इलाज पर लगा दोगे तो गुड़िया की शादी पर किससे भीख माँगोगे? पड़े-पड़े जुड़ जाएगी इनकी हड्डी, फिर जल्दी ठीक होकर इन्होंने कौन सा खेतों में हल चलाना है।”
अंततः उनके पैर में ट्रेक्शन बाँध दिया गया था।
सोचते-सोचते फिर उनकी आँख लग गई और वे ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे लेने लगे।
“हे भगवान!” बिस्तर पर करवटें बदलते हुए बहू भुनभुनाई।
“उधर ध्यान मत दो, सोने की कोशिश करो।” पति ने सलाह दी।
“दिन भर काम में खटते रहो,” वह बड़बड़ाई, “जब दो घड़ी आराम का समय होता है तो ये शुरु हो जाते हैं। कुछ करो, नहीं तो मैं पागल हो जाऊँगी।”
झल्लाकर वह उठा, दनदनाता हुआ वह पिता के पास पहुँचा और उन्हें झकझोर कर उठा दिया।
बेटे की इस अप्रत्याशित हरकत से वे भौंचक्के रह गए। टेªक्शन लगे पैर में कूल्हे के पास असहनीय पीड़ा हुई और उनके मुख से चीख़ निकल गई।
“खर्राटे लेना बंद कीजिए,” पीड़ा से विकृत उनके चेहरे की परवाह किए बिना वह चिल्लाया, “आपकी वजह से घर में सबकी नींद हराम हो गई है।”
बेटे से ऐसे व्यवहार की वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे। थोड़ी देर तक उनकी समझ में कुछ नहीं आया, पर सच्चाई का आभास होते ही उनकी आँखें ही नहीं पूरा शरीर डबडब करने लगा। आँखों की कोरों से कुछ आँसू निकले और दाढ़ी में गुम हो गए।
उस रात फिर उनके खर्राटे किसी को सुनाई नहीं दिए। सुबह उनका शरीर बिस्तर पर निश्चल पड़ा था। फटी-फटी चुनौती-सी देती आँखें छत पर टिकी हुई थीं।
पिता के दाह-संस्कार के बाद मृत्यु पंजीयन रजिस्टर में शहरी बेटे ने मृत्यु का कारण लिखाया- ‘ओल्ड ऐज’।
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-: समीक्षा :-
पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण करते शहरी जीवन, संयुक्त परिवार विघटन स्वरूप उपजे आपसी संबंधों की स्वार्थ प्रवृति, नैतिक पतन से विकसित मानसिकता, आर्थिक दबाव व बदलते परिवेश में परिवार से मिली अवहेलना और उपेक्षा से वृद्ध पिता के एकाकीपन की भयावहता और निराशा की व्यथा का मार्मिक चित्रण है लघुकथा ‘मृत्यु का कारण।’ यथार्थतः तथाकथित आधुनिकता की विचार दृष्टि ने जीवन मूल्यों का इस कदर हृास किया है जिससे मानवीय मूल्य तेज़ी से रसातल की और उन्मुख हैं। औद्योगिकरण व नगरीकरण के बदलते परिवेश में मानवीय सबंध अपने मौलिक परिवेश से कटते जा रहे हैं। बदलते सामाजिक परिदृश्य में अर्थ और अर्थव्यवस्था का प्रमुख हाथ है। बड़े वृद्धों के प्रति पहले वाला सम्मान दिखाई नही देता। कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानों जीवन की धुरी अर्थ पर आ टिकी है। अर्थ ही जीवन का नियन्ता बन गया है। उसी के आधार पर व्यक्ति का महत्त्व आंका जाता है। अट्टालिकाओं से लेकर झौंपड़ियों तक अर्थ ही मानो सारी व्यवस्था को संभाले है। रक्त सबंधों तक में अर्थ की भूमिका दिखाई पड़ती है। आज जबकि मनुष्य की दृष्टि अर्थोन्मुखी व अर्थ केन्द्रित हो गई है और पारम्परिक मूल्यों को दरकिनार किया जा रहा है तो ऐसे में परिवार विघटन एवँ आत्मीय संबंधो में टूटन व तनाव तो निश्चित ही है। संयुक्त परिवार की टूटन ने परिवर्तित परिस्थितियों में सबसे अधिक सम्बंधों की परम्परागत मर्यादा को प्रभावित किया है। फलतः वृद्धों का आदर सम्मान लुप्त प्रायः होता चला जा रहा है। बदलते परिवेश में वृद्ध वर्ग अपने आपको अकेला महसूस करता है यथा वह अपने ही परिवार में विस्थापित हैं।
नगरीय संबंधो के ऊपरी दिखावे से आत्मीय संबंधो की ऊष्मा पाने को प्रेरित बेटा गोधूलि बेला में सूर्यास्त की ओर अग्रसर वृद्ध पिता की गाँव में दुर्घटना से कूल्हे की हड्डी टूटने के कारण उन्हें बेशक उपचार हेतु शहर तो ले आया था परन्तु आर्थिक दबाव के चलते वह संबंधो को जीने की बजाए उन्हें ढोने को विवश है। आज के उपयोगितावादी तथा उपभोक्तावादी समाज में वृद्धावस्था की सबसे बड़ी विभीषिका है, व्यक्ति का अनुपयोगी हो जाना। यह अनुपयोगिता उसे अपने उस परिवार, जिसका वह कभी सर्वोच्च सदस्य था और जहाँ उसके अधिकार सर्वमान्य थे, में काफी हद तक उपेक्षित और पराया बना देती है। जिससे उसके सम्मुख सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने की समस्या आ जाती है। कथांश द्रष्टव्य हैः “अपनी सारी बचत इनके इलाज पर लगा दोगे तो गुड़िया की शादी पर किससे भीख माँगोगे? पड़े-पड़े जुड़ जाएगी इनकी हड्डी, फिर जल्दी ठीक होकर इन्होंने कौन सा खेतों में हल चलाना है।” अंततः उनके पैर में ट्रेक्शन बाँध दिया गया था। अनुपयोगिता का यह अहसास बुर्ज़ुग पिता को उनके खर्राटों तक के रूप में करवाया गया।
विकास के पथ पर द्रुत गति से अग्रसर आधुनिक समाज में तेज़ी से अनेकों परिवर्तन हो रहे हैं। विकास की इस अंधी दौड़ में बड़े-बड़े मॉल, कारखानों, भवनों तथा मशीनों का निर्माण तो बेशक हो रहा है किन्तु इस निर्माण की सतह के नीचे से मानव का विकृत रूप सामने आया है। गलाकाट स्पर्धा और अंधी दौड़ में आदर्शों, संस्कारों, मर्यादाओं के विध्वंस में जीवन की समूची आंतरिक संरचना बालू की दीवार की भांति ढहती जा रही है। मानवीय संवेदना से असंपृक्त उदासीन एकाकीपन की भावना से ग्रस्त परिवार की उपेक्षा का शिकार, शारीरिक पीड़ा से त्रस्त वृद्ध पिता की नियती बस खिड़की भर आकाश ही बन कर रह गई। वह सहानुभूति तथा सम्मान के दो शब्दों को तरस गया है। सभी बातों पर ग़ौर करने के बाद बेटे ने आप्रेशन कराने का फैसला किया इस पंक्तियों के माध्यम से अर्थ के कसते हुए पंजे में सिसकती मानवीय विवशताओं के संसार का चित्रण अत्यंत कलात्मकता से उकेरा गया है। पुत्र की विवशता और घुटन का प्रभावी चित्रण हुआ है। यह लघुकथा मानवीय रिश्तों में आर्थिक पहलू को सामने रखती है। अर्थ रिश्तों के टांकों को किस तरह तोड़ देता है इसे प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है। पुत्र का अप्रत्याशित दुव्र्यवहार वृद्ध पिता को अंदर तक तोड़ देता हैः सच्चाई का आभास होते ही उनकी आँखें ही नहीं पूरा शरीर डबडब करने लगा। आँखों की कोरों से कुछ आँसू निकले और दाढ़ी में गुम हो गए। समाज की एक उपयोगी इकाई से अनाधिकृत व्यक्ति बन जाने के पीड़ाजनक सफ़र, अपने ही परिवार के द्वारा उपेक्षापूर्ण रवैए के साथ ही वृद्धों की पीड़ा तथा व्यथा को रेखांकित करती यह लघुकथा एक सशक्त लघुकथा है जो पाठकीय चेतना को झंकझोर के रख देती है व चिंतन के लिए बहुत से प्रश्न छोड़ जाती है। सुकेश साहनी की दृष्टि समाज सुधारक की दृष्टि नहीं है बल्कि एक चिंतक की दृष्टि है जो किसी वस्तु के एक संभावित पक्षों की विवेचना कर देता है, अपना निष्कर्ष नहीं देता।
भाषा जीवन के स्पंदन को आकार देने का साधन है। लेखक के विचार चिंतन, भाव और अनुभूति की अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से ही होती है। ‘रसज्ञरंजन‘ में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी लिखते हैं कि लेखक को ऐसी भाषा में लिखना चाहिए जिसे सब कोई सहज में समझ ले और अर्थ को हृदयगंम कर सके। उदात्त गरिमामय शैली के स्थान पर सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से सरल-स्वच्छ शैली के वे पुरजोर समर्थक रहे हैं। वैसे भी जो कुछ लिखा जाता है इसी अभिप्राय से लिखा जाता है कि हृदयगत भाव दूसरे समझ जाए। यदि इस उद्देश्य ही की सफलता नहीं हुई तो लिखना ही व्यर्थ हुआ। लेखन में उन्हीं शब्दों का प्रयोग विधिमान्य माना जाता है जो सही अर्थ के द्योतक हैं, चाहे वह किसी दूसरी भाषा से उधार लिए हुए ही क्यों ना हो। उचित शब्द योजना से रचना में यथार्थतता रहती है और रचनाकार स्वभाविकता से दूर नहीं जाता। सुकेश साहनी की भाषा सजीव और वस्तु तथ्य है, इनकी भाषा रचना में न अधिक उलझाव है और न भारीपन और न अधिक व्यर्थ शब्दजाल। जनसामान्य की व्यथा-कथा को आम जन तक पहुँचाने के लिए सरल व जनसामान्य की भाषा का प्रयोग किया गया है। भाषा में परिवेश और पात्रों के अनुरूप प्रचलित देशी-विदेशी शब्दों का प्रयोग किया गया है, यथाः ‘ट्रेक्शन’, ‘ऑॅपरेशन’ व ‘बेडसोल’ आदि शब्दों का प्रयोग भाषा की सहजता बनाने के लिए दक्षतापूर्वक किया गया है।
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- प्रतिमाएँ
उनका काफ़िला जैसे ही बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के नज़दीक पहुंचा, भीड़ ने उनको घेर लिया। उन नंग-धड़ंग अस्थिपंजर-से लोगों के चेहरे गुस्से से तमतमा रहे थे। भीड़ का नेतृत्व कर रहा युवक मुट्ठियाँ हवा में लहराते हुए चीख रहा था,“मुख्यमंत्री….मुर्दाबाद! रोटी, कपड़ा दे न सके जो, वो सरकार निकम्मी है! प्रधानमंत्री!….हाय! हाय!” मुख्यमंत्री ने जलती हुई नज़रों से वहाँ के ज़िलाधिकारी को देखा। आनन-फानन में प्रधानमंत्री के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के हवाई निरीक्षण के लिए हेलीकॉप्टर का प्रबन्ध कर दिया गया। वहाँ की स्थिति संभालने के लिए मुख्यमंत्री वहीं रुक गए।
हवाई निरीक्षण से लौटने पर प्रधानमंत्री दंग रह गए। अब वहाँ असीम शांति छाई हुई थी। भीड़ का नेतृत्व कर रहे युवक की विशाल प्रतिमा चैराहे के बीचों-बीच लगा दी गई थी। प्रतिमा की आँखें बंद थीं, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे। अपनी मूर्ति के नीचे वह लगभग उसी मुद्रा में खड़ा हुआ था। नंग-धड़ंग लोगों की भीड़ उस प्रतिमा के पीछे एक कतार के रूप में इस तरह खड़ी हुई थी मानो अपनी बारी की प्रतीक्षा में हो। उनके रुग्ण चेहरों पर अभी भी असमंजस के भाव थे।
प्रधानमंत्री सोच में पड़ गए थे। जब से उन्होंने इस प्रदेश की धरती पर कदम रखा था, जगह-जगह स्थानीय नेताओं की आदमकद प्रतिमाएँ देखकर हैरान थे। सभी प्रतिमाओं की स्थापना एवँ अनावरण मुख्यमंत्री के कर कमलों से किए जाने की बात मोटे-मोटे अक्षरों में शिलालेखों पर खुदी हुई थी। तब वे लाख माथापच्ची के बावजूद इन प्रतिमाओं का रहस्य नहीं समझ पाए थे, पर अब इस घटना के बाद प्रतिमाओं को स्थापित करने के पीछे का मकसद एकदम स्पष्ट हो गया था। राजधानी लौटते हुए प्रधानमंत्री बहुत चिंतित दिखाई दे रहे थे।
दो घंटे बाद ही मुख्यमंत्री को देश की राजधानी से सूचित किया गया-“आपको जानकर हर्ष होगा कि पार्टी ने देश के सबसे महत्त्वपूर्ण एवँ विशाल प्रदेश की राजधानी में आपकी भव्य, विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। प्रतिमा का अनावरण पार्टी-अध्यक्ष एवँ देश के प्रधनमंत्री के कर-कमलों से किया जाएगा। बधाई!”
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-: समीक्षा :-
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य अवमूल्यन की ओर अग्रसर है। आज राजनीति का अर्थ केवल सत्ता प्राप्ति और उसे बनाए रखने भर तक सीमित हो कर रह गया है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी उपायों को अपनाया जाना राजनीति का धर्म सा बन गया है। स्वार्थपरक राजनीति के हथकण्डों, राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, षडयंत्र व अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अपनी लकीर के समानांतर दूसरी लकीर को काट कर छोटा करने की अर्थपूर्ण कथा है ‘प्रतिमाएँ’। बाढ़ग्रस्त प्रदेश का दौरा करने आए प्रधानमंत्री का प्रदेश में मुख्यमंत्री द्वारा स्थापित प्रतिमायों के बारे में रहस्योद्घाटन उस समय होता है जब वह दौरे से लौटने के बाद मुख्यमंत्री का विरोध कर रहे युवक की प्रतिमा देखता है। राजधानी पहुँचते ही मुख्यमंत्री को यह संदेश पहुँचाया जाता, “आपको जानकर हर्ष होगा कि पार्टी ने देश के सबसे महत्त्वपूर्ण एवँ विशाल प्रदेश की राजधानी में आपकी भव्य, विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। प्रतिमा का अनावरण पार्टी-अध्यक्ष एवँ देश के प्रधनमंत्री के कर-कमलों से किया जाएगा। बधाई!” अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मुख्यमंत्री की बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत प्रधानमंत्री उसके पर काटने के लिए राजधानी में उसकी प्रतिमा स्थापित करवाता है। अर्थात् सक्रिय राजनीति से बाहर कर उसे निष्क्रिय राजनैतिक संवैधानिक पद पर नियुक्त करने की कुटिल चाल चलता है। इस तरह से ‘प्रतिमाएँ’ कुंठा और महत्वाकांक्षा दोनों की अलग-अलग विद्रूपता और विसंगति है, जो राजनीति में अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए दरबारी षडयंत्र का सजीव चित्र प्रस्तुत करती है।
यह लघुकथा प्रतीकात्मक शैली में लिखी गई है। थोड़े में अधिक कहने की अपनी प्रवृति के कारण मनुष्य अपने भावों को सम्प्रेषित करने के लिए प्राचीन काल से ही संकेतों का प्रयोग करता आया है। साहित्य में प्रत्यक्ष वस्तु के द्वारा परोक्ष वस्तु को स्पष्ट करनेवाला भाषात्मक प्रयोग प्रतीक से अभिहित किया जाता है यानि प्रतीक के माध्यम से रचना में परोक्ष की अभिव्यक्ति होती है। लेखक अपने सूक्ष्म अतीन्द्रिय, अमूर्त तथा जटिल अनुभवों को सहज सम्प्रेषणीय बनाने के लिए प्रतीक शैली का सहारा लेता है। वे प्रतीक उन विचारों और अनुभूतियों को भी अंतरदृष्टि प्रदान करते हैं जो धुंधली और अस्पष्ट होने के कारण सहज सम्प्रेषणीय नहीं होती। अपना मूल अर्थ खोकर ये प्रयुक्त प्रतीक नए अर्थों से ही सम्पकृत हो उठते हैं। कथांश देखें “भीड़ का नेतृत्व कर रहे युवक की विशाल प्रतिमा चौराहे के बीचों-बीच लगा दी गई थी। प्रतिमा की आँखें बंद थीं, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे। अपनी मूर्ति के नीचे वह लगभग उसी मुद्रा में खड़ा हुआ था।” यहाँ आँखें बंद, भिंचे होंठ, छोटे कान व प्रतिमा सब प्रतीकार्थ है। ज़ुल्म के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद न करना (भिंचे होंठ), देखे को अनदेखा करना (आँखें बंद) व पीड़ितों की न सुनना (छोटे कान) के पुरस्कार- स्वरूप कोई लाभ का पद पाना (प्रतिमा) आदि अर्थों में देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री द्वारा मुख्यमंत्री की विशालकाय प्रतिमा की स्थापना में प्रतिमा को वृहद अर्थों में राष्ट्रपति या राज्यपाल के रूप में भी देखा जा सकता है अर्थात रबड़ स्टैम्प बन के रह जाना है।
किसी भी लघुकथा को प्रभावपूर्ण एवँ आकर्षक बनाने में शीर्षक की विशेष भूमिका होती है। शीर्षक लघुकथा के प्रति पाठक के कौतूहल को जागृत करता है। ‘प्रतिमाएँ’ शीर्षक की विशेषता है कि यह अपने में समाविष्ट व अर्थपूर्ण है जो कथा के सार को व्यक्त कर रहा है। शीर्षक घटना प्रधान न होकर विचार प्रधान है जो लेखकीय कौशल का परिचायक है। लघुकथा यदि भांति-भांति के फूलों से भरा हुआ उद्यान है तो शीर्षक उन फूलों से तैयार किया हुआ सुवासित इत्र है जिसकी एक बूँद से लघुकथा का कथ्य, प्रतिपाद्य और उद्देश्य एक संकेत के रूप में पाठक ग्रहण कर लेता है।
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- मेंढकों के बीच
वर्षों पहले मैंने अपने बेटे को एक कहानी सुनाई थी, जो कुछ इस तरह थीः
एक बार की बात है, रात के अंधेरे में एक गाय फिसलकर नाले में जा गिरी।
सुबह उसके इर्द-गिर्द बहुत से मेंढक जमा हो गए।
“आखिर गाय नाले में गिरी कैसे?” उनमें से एक मेंढक टरटराया, “हमें इस पर गहराई से विचार करना चाहिए।”
“मुझे तो दाल में कुछ काला लगता है!” दूसरे ने कहा।
“कुछ भी कहो…” तीसरा मेंढक बोला, “अगर पुण्य कमाना है तो इसे बाहर निकालना होगा।”
“मरने दो!” चौथा टर्राया, “हमारी नाक के नीचे रोज ही सैकड़ों गाएँ-बछड़े काटे जाते हैं, तब हम क्या कर लेते हैं?”
“हमने तो चूड़ियाँ पहन रखी हैं।” पाँचवें मेंढक की टर्र-टर्र।
“भाइयो!” वहाँ खड़े एक बुज़ुर्ग ने उन सबको शान्त करते हुए कहा, “अगर ये गाय न होकर कुत्ता-बिल्ली होता तो क्या हमें इसे मर जाने देना था?”
एकबारगी वहाँ चुप्पी छा गई। वे सब उस बुज़ुर्ग को शक़ भरी नजरों से घूरने लगे। अगले ही क्षण वे सबके सब उस पर टूट पड़े। उन्होंने उसे लहूलुहान कर नाले में धकेल दिया। इस घटना से मेंढकों में भगदड़ मच गई। वे सब सुरक्षित स्थलों में दुबक गए। घटनास्थल पर सन्नाटा छा गया।
“फिर क्या हुआ?” मुझे चुप देखकर बच्चे ने पूछा था।
“फिर?…वहाँ से गुज़र रहे एक आदमी ने रस्सी की मदद से गाय को नाले सें बाहर निकाल दिया। अपनी जमात से बाहर वाले का ऐसा करना मेंढकों के गले नहीं उतरा। उनको इसमें भी कोई साज़िश दिखाई देने लगी। यह बात कानोंकान पूरी मेंढक बिरादरी में फैल गई। वे समवेत स्वर में जोर-जोर से टर्राने लगे।”
कहकर मैं चुप हो गया था।
“अब मेंढक क्यों टर्रा रहे थे, पापा?”
“अब वे इस बहस में उलझे हुए थे कि गाय को बाहर निकालने वाला हिन्दू था कि मुसलमान।”
“फिर…”
“फिर क्या? उनका टरटराना आज भी जारी है।”
बच्चा सोच में पड़ गया था। थोड़ी देर बाद उसने पूछा था, “पापा, आपको तो पता ही होगा कि वह आदमी कौन था?”
“बेटा, मुझे इतना ही पता है कि वह एक अच्छा आदमी था!” मैंने उसकी भोली आँखों में झाँकते हुए कहा था, “वह हिन्दू था या मुसलमान, यह जानने की कोशिश मैंने नहीं की। क्योंकि तुम्हारे दादा जी ने मुझे बचपन में ही सावधान कर दिया था कि जिस दिन मैं इस चक्कर में पड़ूँगा, उसी दिन आदमी से मेंढक में बदल जाऊँगा।”
इसके बाद मेरे बेटे ने मुझसे इस बारे में कोई सवाल नहीं किया था और मुझसे चिपककर सो गया था।
मुझे नहीं मालूम कि यह कहानी मेरे बच्चे के मतलब की थी या नहीं,उसकी समझ में आई थी या नहीं, पर इतना ज़रूर है कि उस दिन के बाद वह ‘मेंढकों’ से ज़रा दूर ही रहता है।
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-: समीक्षा :-
‘मेंढकों के बीच’ लघुकथा में एक गाय के नाले में फिसलकर गिरने की साधारण घटना को दो समुदायों के बीच टकराहट बना देने वाली संकीर्ण, दकियानूसी तथा घृणित मानसिकता के रेशे-रेशे को उघाड़ कर सांप्रदायिकता की तह तक पहुँचने का प्रयास किया गया है। डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर के अनुसार, ‘र्म के फूल पर बैठा राजनीति का परजीवी कीट सांप्रदायिकता का विष पैदा करता है।’ वैमनस्य, स्वार्थ व द्वेष जैसे मानसिक कचरे पर उगा इसका पौधा अफवाहों जैसी विषैली हवा में तेज़ी से फलता, फूलता और फैलता है तथा अपने विषैले फलों से आपसी सदभावना व प्रेम भाव को समूल नष्ट कर देता है। वस्तुतः धर्म की आड़ में अपराध का राजनीतिकरण या यूँ कहें कि राजनीति का अपराधीकरण ही इसका मूल है। क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए जब धर्म के नाम पर उसके अनुयायिओं को उभारा जाता है तब सांप्रदायिकता का उदय होता है। वर्तमान में जिस तरह सांप्रदायिकता का ध्रुवीकरण हुआ है वह मानवीयता में आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए चिंता का विषय तथा समस्त मानवीय विचारधाराओं के लिए गंभीर चुनौती है। इस लघुकथा में सांप्रदायिकता की समस्या पर गंभीरता से चिंतन किया गया है जिससे यह उभर कर सामने आया कि इसके मूल में स्वार्थसिद्धी के लिए धर्म और राजनीति की साँठ-गाँठ है। यह साँठ-गाँठ राष्ट्रीय भावनाओं की रक्षा, सदभावना या मानवीयता की रक्षा के लिए न होकर अपने-अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए ही है। वास्तव में धर्म का प्रयोग अब वोट बैंक बढ़ाने और उसे सुरक्षित रखने हेतु ही किया जाता है। तुष्टिकरण की राजनीति में सब कुछ राजनीतिक दाँवपेंच बनकर रह गया है। कथांश दृष्टव्य हैः
“कुछ भी कहो…” तीसरा मेंढक बोला, “अगर पुण्य कमाना है तो इसे बाहर निकालना होगा।”
“मरने दो!” चौथा टर्राया, “हमारी नाक के नीचे रोज ही सैकड़ों गाएँ-बछड़े काटे जाते हैं, तब हम क्या कर लेते हैं?”
‘मेंढकों’ का धर्म, पुण्य अथवा सदभाव से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि शांति और सदभाव उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं। सद्भाव खंडित करने और फिर उसको स्थापित करने के नाम पर मंच में आने के नाम पर ही तो वे सांप्रदयिकता की आग में धर्मांध अनुयायियों को ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर अपने स्वार्थ की रोटी सेंकते हैं।
प्रतीकात्मकता सुकेश साहनी की लघुकथाओं का वैशिष्ट्य है। सुकेश साहनी अपनी लघुकथाओं में प्रतीकों का प्रयोग अत्यंत सतर्कता से करते है, जिससे प्रतीक उनकी कथाओं में सहज ही रच-बस जाते हैं। लघुकथा सरीखी तन्वंगी विधा में प्रतीकों का वैसे भी बहुत महत्व है। प्रतीक जहाँ कथानक के कलेवर को संक्षिप्त करते हैं वहीं उसकी अर्थवत्ता में विशालता और समृद्धता प्रदान करते हैं। यूँ भी विचार प्रधान वर्णन के कारण लघुकथा में नीरसता आ जाने की संभावना होती है, जिससे यह सम्प्रेषण में व्यवधान बन जाता है। अतः प्रतीकों की योजना द्वारा वर्णन और स्फीति से बचते हुए लेखक अपने अभिप्रेत को कलात्मकता से व्यंजित कर पाने में सफल रहता है। इस लघुकथा में ‘मेढकों’ का प्रयोग प्रतीकार्थ हुआ है। मेढक के साथ कुएँ का अन्योन्याश्रित सबंध है, जिसके सुमेल से शब्द बना है ‘कूपमंडूक’। जिसका अर्थ है बहुत ही छोटे क्षेत्र में रहना तथा बाहरी जगत के बारे अनभिज्ञता। यदि इसे कुछ विस्तृत फलक पर देखें तो यह प्रतीक है उन कट्टरपंथिओं का जो संकीर्ण सोच के चलते अपने धर्म के समक्ष दूसरे धर्म व उसकी मान्यताओं को हेय समझते हैं। दूसरे धर्मों की तुलना में अपने धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने हेतु छल-छद्म, शास्त्र धर्म व राजनीति का घिनौना प्रयोग करने से नहीं हिचकते। ‘मेंढक’ लिजलिजी व लंबी जीभ वाला जीव होता है। यहाँ लंबी जीभ से अर्थ है अनर्गल प्रलाप करते रहने वाला प्राणी। ‘मेढकों’ की एक अन्य विशेषता है कि यह जीव बरसात के मौसम में ही निकलते और टर्राते हैं। यहाँ बरसात का अर्थ मौकापरस्ती से लिया जा सकता है। निम्नस्थ उद्धरण विचारणीय हैः
“वहाँ से गुज़र रहे एक आदमी ने रस्सी की मदद से गाय को नाले सें बाहर निकाल दिया। अपनी जमात से बाहर वाले का ऐसा करना मेंढकों के गले नहीं उतरा। उनको इसमें भी कोई साजिश दिखाई देने लगी। यह बात कानोंकान पूरी मेंढक बिरादरी में फैल गई। वे समवेत स्वर में जोर-जोर से टर्राने लगे।” इन पंक्तियों में ‘अपनी जमात से बाहर वाले का ऐसा करना मेंढकों के गले नहीं उतरा। उनको इसमें भी कोई साज़िश दिखाई देने लगी।’ मेढकों के लिए टर्राने की पृष्ठभूमि का स्पष्ट चित्रण हुआ है। ऐसी मौकापरस्ती की बरसात में जहाँ धर्म की आड़ में संकीर्ण भावनाओं का विकास होता है वहीं राष्ट्रीय भावनाओं की आहुति चढ़ती है, जिससे अमूल्य जन धन की हानि उठानी पड़ती है। इसकी परिणति सांप्रदायिक दंगो के रूप में हमारे सामने आती है।
‘मेंढकों के बीच’ एक प्रतीकात्मक शीर्षक है। प्रतीकात्मक शीर्षक लेखक के अभिप्रेत के वाहक बनकर आते हैं। किसी एक विशेष विचार-बिन्दु को लेखक प्रतीकात्मक शीर्षक द्वारा व्यंजित करता है। परन्तु इस प्रतीकात्मकता की सार्थकता वहीं है जहाँ लघुकथा के समग्र कार्य-व्यपार, प्रभाव तथा शीर्षक में एक संगति हो। अन्यथा यह प्रतीकात्मकता मात्र एक छूछा कौतुक बन कर रह जाती है, जिससे लघुकथा की प्रभावोत्पादकता पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
लघुकथा के अंत में “बेटा, मुझे इतना ही पता है कि वह एक अच्छा आदमी था,” मैंने उसकी भोली आँखों में झाँकते हुए कहा था, “वह हिन्दू था या मुसलमान, यह जानने की कोशिश मैंने नहीं की क्योंकि तुम्हारे दादा जी ने मुझे बचपन में ही सावधान कर दिया था कि जिस दिन मैं इस चक्कर में पड़ूँगा उसी दिन आदमी से मेंढक में बदल जाऊँगा।” इन पंक्तियों के माध्यम से जन सामान्य को असामाजिक शक्तियों के कलुषित प्रयोजनों को समझने और उनकी कुत्सित योजनाओं का हिस्सा न बनने का सार्थक और सकारात्मक संदेश दिया है।
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- स्कूल
“तुम्हें बताया न, गाड़ी छह घण्टे लेट है।” स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा, “छह घण्टे से पहले तो आ नहीं जाएगी, अब जाओ… कल से नाक में दम कर रखा है तुमने।”
“बाबूजी, गुस्सा न हों।”, वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली, “मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए तीन दिन हो गए हैं… उसे कल ही आ जाना था। पहली दफा घर से अकेला बाहर निकला है…”
“पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?” औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।
“मति मारी गई थी मेरी।” वह रुआँसी हो गई, “…बच्चे के पिता नहीं हैं। मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्च चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से ज़िद्द कर रहा था कि कुछ काम करेगा। टोकरी-भर चने लेकर घर से निकला…”
“घबराओ मत… आ जाएगा!” उसने तसल्ली दी।
“बाबूजी, वह बहुत भोला है। उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती…मेरे पास ही सोता है। हे भगवान!… दो रातें उसने कैसी काटी होंगी? इतनी ठण्ड में उसके पास ऊनी कपड़े भी नहीं है…” वह सिसकने लगी।
स्टेशन मास्टर फिर अपने काम में लग गया था। वह बेचैनी से प्लेटफॉर्म पर घूमने लगी। इस गाँव के छोटे-से स्टेशन पर चारों ओर सन्नाटा और अन्धकारा छाया हुआ था।
उसने मन-ही-मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी ख़ुद से दूर नहीं होने देगी।
आख़िर पैसेन्जर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई। वह साँस रोके, आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।
एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा-तनी हुई गर्दन…बड़ी-बड़ी आत्मविश्वास से भरी आँखें… कसे हुए जबड़े…होंठों पर बारीक मुस्कान…
“माँ, तुम्हे इतनी रात गए यहाँ नहीं आना चाहिए था।” अपने बेटे की गम्भीर, चिन्ता भरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
वह हैरान रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था- इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया?
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-: समीक्षा :-
‘स्कूल’ लघुकथा अपने आप में एक ‘स्कूल’ है। एक घटना से प्राप्त अनुभव कैसे अनुभूति में परिवर्तित होकर सार्वकालिन और सार्वभौमिक उत्कृष्ट रचना में ढलता है, यह इस ‘स्कूल’ से सीखा जा सकता है। सुकेश साहनी ‘मेरी लघुकथा-यात्रा’ में ‘स्कूल’ की पृष्भूमि में घटित मूल घटना का वर्णन करते हुए बताते हैं कि चन्दौसी रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में उन्होनें कॉलेज के कुछ लड़कों को देखा जो जुआ खेल रहे थे और अश्लील चुटकुले सुना रहे थे। वहीं इस सबके बीच इस माहौल से बेखबर एक स्कूली लड़का अपना होमवर्क पूरा करने में जुटा था। उस लड़के से बातचीत में पता चला कि वह पास के गाँव से रोज़ पढ़ने आता है। घर में केवल उसकी माँ है और पिता मुम्बई में नौकरी करता है जो साल में एक बार ही घर आता है। जुआ खेलते और ढींगामस्ती करते कॉलेज के लड़कों के बीच कच्ची उम्र के उस लड़के के संतुलित व्यवहार ने साहनी को सोचने पर विवश किया और उसी क्षण उन्हें अहसास हो गया कि उन्हें किसी लघुकथा के लिए कच्चा माल मिल गया है।
हमारे दैनंदिन जीवन में बहुत सी घटनाएँ घटती हैं, जो अपना प्रभाव छोड़ती हैं। यह प्रभाव विषयगत और विषयीगत दोनों प्रकार का से होता है। यानि कुछ घटनाएँ इतनी कमज़ोर होती हैं जिनका प्रभाव घटना घटते के साथ समाप्त हो जाता है। और कई भोक्ता ही ऐसे पाषाण हृदय और संवेदनहीन होते है जिन पर घटना का कोई प्रभाव ही नहीं होता। जिन पर यह प्रभाव नहीं पड़ता उसे अनुभव भी नहीं होता। अनुभव के बारे में योगराज प्रभाकर का विचार है कि, “अनुभव रचना सृजन के लिए प्राणवायु का कार्य करता है। रचना कर्म आत्मिक प्रक्रिया है- आत्मान्वेषण के द्वारा प्राप्त अनुभूतियों की रचनाकर्म में अभिव्यक्ति रहती है।” बेशक दूसरों के अनुभव के आधार पर भी वस्तु परिज्ञान संभव है परन्तु सच्ची सृजनात्मकता लेखक के स्वयं के अनुभवों पर ही टिकी रहती है। अनुभव सीधे-सीधे रचना में नहीं उतर जाते क्योंकि यह भोक्ता की वैयक्तिकता से प्रभावित होने के कारण राग द्वेष, मेरे-तेरे की एकांगिकता से युक्त होते है। इसके साथ ही इनमें संवेदनापरक तात्कालिकताओं आदि का समावेश भी होता है। व्यक्तिगत होने के कारण अनुभव पूर्वग्रहग्रस्त भी हो जाते। इन्हीं के चलते इनमें अपरिपक्वता की गंध रह जाती है। मुक्तिबोध के अनुसार, “अनुभव कच्चे माल की तरह है, जिनसे रचना बनती है, किन्तु जो स्वयं ही रचना नहीं हो सकते।” यदि इस कच्चे वैयक्तिक अनुभव को सीधे रचना में उतार दिया जाए तो वह रचना कलाकृति न बन कर रचनाकार की वैयक्तिकता का कच्चा चिट्ठा होकर रह जाएगी।
अनुभव किसी घटना का दूसरा स्तर है। पहले स्तर पर घटित घटना भोक्ता पर अर्थ रहित प्रहार करती है, जिसके परिणाम स्वरूप भोक्ता में संवेदना उत्पन्न होता है। इस स्तर पर वह घटना से पृथक नहीं हो सकता और उसमें लीन रहता है। इसके बाद दूसरा स्तर आता है, जब घटना का अर्थ पश्चात प्रतीति जगता है। यह अर्थ या पश्चात प्रतीति ही अनुभव है। इस स्तर पर भोक्ता स्वयं को घटना से पृथक कर चुका होता है। घटना से अपने आपको पृथक करना अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि जब तक वह घटना में अनुरत रहता है तब तक उसे अर्थ प्रतीति नहीं होती। घटना से पृथकता दो प्रकार की होती है; एक, घटना व्यापार से ही पूर्णतः पृथक हो जाना, जो घटना के बीच में से ही या घटना समापति के पश्चात संभव है। दूसरा, प्रत्यक्ष में घटना में अनुरत होते हुए भी मानसिक स्तर पर उससे विरक्त हो जाना और इस प्रकार घटना के समानान्तर उसकी अर्थ-प्रतीति भी करते रहना। इसे श्री गुरु ग्रंथ साहिब से उदघृत इस महावाक्य से भी समझा जा सकता है, “अंजन माहि निरंजनि रहीए, जोग जुगति इव पाइऐ।।” (Remaining unblemished in the midst of filth of the world- this is the way to attain yoga) ‘मानसिक विरक्ति’ को गजानन माधव मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’ से उदघृत ‘केवल तटस्थ व्यक्ति ही तदाकार हो सकता है, समझे?’ वाक्य से अधिक सहजता से समझा जा सकता है। यही सच्चे अर्थों में ‘असंलग्न संलग्नता’ होती है। इस असंलग्नता के समानानुपात में ही अनुभव में प्रखरता रहती है। रचनाधर्मिता के लिए यह तटस्थता उसकी बहुत बड़ी ताकत है। घटना को आत्म से अलग कर वस्तु-रूप में देख पाना अनुभव प्राप्त करने की अनिवार्य शर्त है।
अनुभव को सिद्ध करने के पश्चात उसे रचना में लाने के लिए आवश्यक है कि उसे परिपक्व बना लिया जाए। अर्थात व्यापक प्रभाव संप्रेषण हेतु उसे अनुभूति के स्तर पर संशोधित किया जाए। दूसरे शब्दों में उसका उदात्तीकरण किया जाए। जैनेन्द्र के अनुसार ‘स्व’ से ‘सर्व’ की ओर उन्मुख होना ही सृजन है। मुक्तिबोध इस बारे में लिखते हैं,“जो फैण्टैसी अनुभव की व्यक्तिगत पीड़ा से पृथक होकर अर्थात उनसे तटस्थ होकर अनुभव के भीतर ही संवेदनाओं द्वारा उत्सर्जित और प्रक्षेपित होगी, वह एक अर्थ में वैयक्तिक होते हुए भी दूसरे अर्थ में नितान्त निर्वैयक्तिक होगी।” अनुभूति स्तर पर अनुभव अपनी व्यक्तिबद्धता छोड़कर सबका अनुभव बन जाते हैं, यही उदात्तीकरण है। चूँकि यह सबका अनुभव-अंग बन जाती है, इसलिए इसका प्रभाव-संप्रेषण सीमित दिक्काल से स्वतंत्र होता है अर्थात यह सार्वकालिक और सार्वभौमिक होता है। मुक्तिबोध कला के ‘तीसरे क्षण’ के बारे में लिखते हुए कहते है,“तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैण्टैसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरम्भ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता। शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया के भीतर जो प्रवाह बहता रहता है वह समस्त व्यक्तित्व और जीवन का प्रवाह होता है। प्रवाह में वह फैण्टैसी अनवरत रूप में विकसित-परिवर्तित होती हुई आगे बढ़ती जाती है। इस प्रकार फैण्टैसी अपने मूल रूप को बहुत कुछ त्यागती हुई नवीन रूप धारण करती है। जिस फैण्टैसी को शब्दबद्ध करने का प्रयत्न किया जा रहा है वह फैण्टैसी अपने मूल रूप से इतनी दूर चली जाती है कि यह कहना कठिन है कि फैण्टैसी का यह नया रूप अपने मूल रूप की प्रतिकृति है।” सुकेश साहनी भी इस तथ्य से सहमत होते दिखते हैं। ‘मेरी लघुकथा-यात्रा’ में सुकेश साहनी बताते हैं,“यदि इस लघुकथा की मूल घटना से तुलना करें तो पता चलता है कि रचना-प्रक्रिया के दौरान इसमें घटना-स्थल, क्रम, पात्र आदि बिल्कुल बदल गए हैं। ऐसा लघुकथा के लिए अनिवार्य आकारगत लघुता एवँ समापन-बिंदु को ध्यान में रखते हुए अधिक प्रभावी प्रस्तुति के लिए किया गया है।”
इस लघुकथा में असाधारण चित्रात्मकता के दर्शन होते हैं। रात के अँधेरे में सुनसान स्टेशन पर पैसेन्जर ट्रेन के आगमन पर जब उसमें से उस औरत का बेटा उतरता है, का वर्णन इस प्रकार किया गया है- ‘एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा-तनी हुई गर्दन…बड़ी-बड़ी आत्मविश्वास से भरी आँखें… कसे हुए जबड़े…होंठों पर बारीक मुस्कान…’ यहाँ शब्द ‘एक आकृति’ पर ग़ौर करें। रुकी हुई ट्रेन के इंजन की रौशनी उस आँखें फाड़े खड़ी औरत की आँखो में पड़ रही होगी, जिस वजह से उसे बेटे की छाया-आकृति (silhouette) ही दिखाई दे रही है। फिर उस आकृति के नज़दीक आने पर उसकी तनी हुई गर्दन, आँखों में आत्मविश्वास, कसे हुए जबड़ों व होंठों पर मुस्कान के वर्णन से भी सुकेश साहनी के लेखकीय कौशल के दर्शन होते हैं। बेटे का गम्भीर व चिंता भरे स्वर में,“माँ, तुम्हे इतनी रात गए यहाँ नहीं आना चाहिए था।” इस लघुकथा को नई ऊँचाइयों पर ले जाता है। इस लघुकथा में ज़िन्दगी के स्कूल में मिले थपेड़े रूपी सबक से बेटे के अपनी उम्र से पहले ही प्रौढ़ हो जाने की विभीषका की और भी संकेत किया गया है।
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- ग्लोबल विलेज
आज नगर पंचायत के सदस्य और अध्यक्ष पद हेतु उम्मीदवारों को चुनाव चिह्न आबंटित किए जाने थे। मेरी डयूटी निर्वाचन अधिकारी के रूप में लगी थी। मैं और मेरे दोनों सहायक प्रारम्भिक तैयारियों में जुटे हुए थे! तभी सदस्य पद का एक उम्मीदवार मेरे नज़दीक आकर फुसफुसाया, ‘‘सर! मुझे ‘कार’ दे दें, मैं कलेक्टर साहब का रिश्तेदार हूँ।’’
मुझे उसका इस तरह नज़दीक आकर फुसफुसाना अपमानजनक लगा। मैंने सर्द आँखों से उसकी ओर देखा तो वह पीछे हट गया।
“सभी ध्यान से सुने,’’ मैंने वहाँ खड़े सभी उम्मीदवारों को सुनाते हुए जोर से कहा, ‘‘चुनाव चिह्नों का आबंटन चुनाव आयोग द्वारा जारी निर्देशों के अनुसार ही होगा।”
पहले वार्ड के तीनों उम्मीदवारों की पहली पसन्द ‘कार’ ही थी। हमें लाटरी (पर्ची) डालकर फैसला करना पड़ा। जिनको कार नहीं मिली, वे बहुत मायूस नजर आ रहे थे। उन्हें अपनी दूसरी या तीसरी पसन्द जीप या मोटरसाइकिल से संतोष करना पड़ा। प्रतीक चिह्नों के आवण्टन की प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी, यह स्पष्ट होता जा रहा था कि उम्मीदवार हवाई जहाज, पानी का जहाज़, हैलीकाप्टर, कार, जीप, मोटरसाइकिल, फोन, टीवी, कैमरा जैसे चिह्न ही प्राप्त करना चाहते थे। सबसे ज्यादा मारामारी ‘कार’ के लिए थी। अधिकतर मामलों में लाटरी द्वारा ही चुनाव चिह्न आबंटित किए जा सके।
सभी उम्मीदवारों को चिह्न आबंटित करने के पश्चात हमें डमीमत-पत्र तैयार करने थे। आबंटित चिह्नों को बड़ी-बड़ी शीटस् से काट-काटकर उम्मीदवारों के नाम आगे चिपकाया जा रहा था। कार्य पूर्ण हो जाने के पश्चात जब मेरी नजर मेज पर पड़े बचे-खुचे उन चुनाव चिह्ननों पर पड़ी, जिनमें किसी भी प्रत्याशी ने रुचि नहीं दिखाई थी, तो मैं सोच में पड गया।
मुझे लगा उगता सूरज, फसल काटता किसान, कुआँ, हल, बैल, खुरपी, फावड़ा, कुदाल, कुल्हाड़ी, टेªक्टर, किताब, चश्मा, तराज़ू जैसे चुनाव चिह्न अभी भी आशा भरी नज़रों से उम्मीदवारों की बाट जोह रहे हैं।
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-: समीक्षा :-
स्थूल रूप से इस लघुकथा के माध्यम से लेखक की अपनी विरासत के प्रति चिंता परिलक्षित होती है। क्योंकि इतने बड़े पद पर बैठे होने के बावजूद भी लेखक (जोकि लघुकथा का केन्द्रीय पात्र भी है) पूरी तरह से अपनी मिट्टी से जुड़ा हुआ दिखाई देता है। अपने विरासत से उदासीन समाज की मानसिकता के प्रति लेखक की चिंता इस लघुकथा से साड्ढ-साड्ढ ज़ाहिर होती है। लेखक ने अपनी बात कहने के लिए जन-प्रतिनिधियों और उनकी मानसिकता को आधार बनाया है। इस लघुकथा में आज के नेताओं के जनमानस और उनकी समस्याओं से पूर्णतः अनभिज्ञ होने पर लेखक की अभ्यन्तर वेदना बहुत ही मुखर होकर उभरी है। कृषि, भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है और गाँव भारत की आत्मा। अतः किसान, कुआँ, हल, बैल, खुरपी, फावड़ा, कुदाल, कुल्हाड़ी, ट्रेक्टर आदि ग्रामीण और कृषि जगत से सीधा सम्बन्ध रखते हैं। कृषि का सीधा सम्बन्ध ग्रामीण जगत से है, और इन दोनों की वर्तमान स्थिति किसी से छुपी हुई नहीं है। किन्तु जिन्हें इस वर्ग का स्वर बनकर इनके भले के लिए कार्य करने का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है दुर्भाग्य से वे समाज के उस तथाकथित संभ्रांत वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो वास्तविकता से पूर्णतः अनभिज्ञ हैं। यह वर्ग निश्चित तौर पर अपने विलास साधनों से आगे न कुछ देख ही सकता है न सोच ही नहीं सकता।
योगराज प्रभाकर के शब्दों में, ‘लघुकथा में ‘जो कहा गया’ है वह तो महत्वपूर्ण होता ही है, किन्तु ‘जो नहीं कहा गया’ वह अधिक महत्वपूर्ण होता है।’ स्थूल रूप से प्रथमदृश्या यह लघुकथा भले ही कुछ और कह रही हो किन्तु सूक्ष्म रूप से निरीक्षण किया जाए तो निर्दिष्ट उप्पाध्य विषय स्थानीय न रहकर वैश्विक हो जाता है। सर्वप्रथम मैं लघुकथा के शीर्षक पर बात करना चाहूँगा। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं शीर्षक चयन में सुकेश साहनी से बेहतर रचनाकार आज की तारीख में शायद ही कोई और होगा, उनकी इस विशिष्टता का मैं सदैव प्रशंसक रहा हूँ। इस लघुकथा का शीर्षक अति उपहासात्मक है। इस शीर्षक के नेपथ्य में किसी अति चिन्ताप्रद व्यापक परिदृश्य की स्पष्ट झलक परिलक्षित होती है। वस्तुतः यह शीर्षक भारतीय संदर्भ में वैश्विक गाँव के संप्रत्यय की धज्जियाँ उड़ाता हुआ प्रतीत होता है। इस लघुकथा में पारम्परिक कृषि यंत्र बनाम विलासमई वस्तुयों जैसे कि विमान, जहाज़, चैपहिया और दोपहिया वाहन, टी.वी, फोन अथवा कैमरा आदि के बिम्ब सूक्ष्म रूप से उस वैश्विक मंडीकरण की एक विरचित अर्थव्यवस्था की तरफ इंगित कर रहे हैं। यह बाज़ारवाद की ऐसी तिरोहित विश्व व्यवस्था है जो तीसरी दुनिया की सम्प्रभुता, उपजीविका, स्थानीय अभिज्ञान के साथ साथ पारम्परिक उत्कृष्टता पर भी सांघातिक प्रहार करने की कवायद में कार्यरत है। यहाँ कलेक्टर साहिब के कथित रिश्तेदार उस बिचोलिया वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने निहित स्वार्थों की पूर्ती हेतु कठपुतली बनकर अपने आकाओं के हर आदेश की पालना को तत्पर रहते हैं। ‘कलेक्टर साहिब’ एक चित्ताकर्षक रूपक है जो सार्वत्रिक दलाल वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है।
इस रचना में आकार की संक्षिप्तता, सन्देश में सूक्ष्मता तथा कथ्य व संयमता के तीनो बिंदु पूर्णतः तुष्ट हुए हैं। भाषा परिष्कृत किन्तु भाषा पांडित्य प्रदर्शन से कदाचित रहित है। सादगी से कही हुई बात स्पष्टता के मापदंड पर भी पूरी तरह सफल रही है। लघुकथा के प्रारंभ से अंत तक सुकेश साहनी इस बात के प्रति पूरी तरह जागरुक रहे कि उन्हें ‘क्या कहना है’, ‘क्यों कहना है’ और कैसे कहना’ है। आख़िरकार एक दीर्घजीवी लघुकथा ऐसी ही तो होती है।
-0-रवि प्रभाकर, बी. 29/23, एस.डी.एस.ई. स्कूल के सामने, आर्य समाज, पटियाला- 147 001 (पंजाब)