मैं सूरज हूँ कोई मंज़र निराला छोड़ जाऊँगा,
उफ़क़ पर जाते जाते भी उजाला छोड़ जाऊँगा । ( अज्ञात )
लघुकथा कलश के उपसम्पादक , कुशल समीक्षक , सरल , सहज , विनम्र स्वभाव के सबके अतिप्रिय युवा लघुकथाकार रवि प्रभाकर सर ने अपने नाम को यथार्थ में चरितार्थ करते हुए लघुकथा विधा सम्बन्धी ज्ञान रूपी किरणें बिखेर न जाने कितने अंधेरे कोनों को प्रकाशित किया , धुंध मिटाई । जैसे सूरज प्रकाश देते समय अपने देने का अहम नहीं पालता , एहसान नहीं जताता और न कोई भेदभाव करता है वैसे ही रवि प्रभाकर सर ने भी कभी किसी लघुकथाकार को निराश नहीं किया । मार्गदर्शन देते समय रचनाकार पर अपने विचार कभी नहीं थोपे , न ही किसी की कथा में सुधार ही किया , कहने का तात्पर्य है कि उनका उद्देश्य सिखाते समय यह होता था कि बन्दा स्वयं चलना सीखे । वे केवल सुझाव रूपी मार्ग सुझाते थे और तथ्यात्मक त्रुटियों की ओर इशारा कर देते थे । सुधारना स्वयं रचनाकार को ही होता था । कभी नहीं विचारा कि फलां कौन है , कितना नवोदित है । उनके असमय जाने से जिन्होंने अभी चलना ही सीखा था केवल वे रचनाकार ही नहीं बल्कि जो कई कदम आगे बढ़ चुके थे वे भी स्वयं को असहाय पा रहे हैं । सबकी आँखें अभी तलक नम हैं । उनकी विनम्रता सदा कहती रही कि मैं स्वयं आप सभी से सीख रहा हूँ , अभी अभ्यासी ही हूँ ।
आत्ममुग्धता और मठाधीशी ( जबकि जिस तरह से उनके गम्भीर कार्य थे , सीखने की चाह रखने वालों का विश्वास था , साहित्य की गहरी समझ थी , उनके लिए मठ स्थापित कर अपने पीछे रेला चलाना आसान काम था ) से कोसों दूर वे कभी किसी नाम के प्रभाव में आये ही नहीं । उन्हें कथा पर जो कहना होता , निष्पक्ष होकर स्पष्ट कहते । इसका आदरणीय योगराज प्रभाकर सर से बेहतर कोई और उदाहरण हो नहीं सकता जो स्वयं लघुकथा लिखते समय कथा को न जाने कितने साँचों में तपाकर पाठक के सामने प्रस्तुत करते हैं । साहित्य की गहरी समझ रखने वाले रवि सर की समीक्षकीय दृष्टि को यदि उनकी कथा में भी कुछ चुभता सा लगता तो वे भूल जाते कि मैं अपने भाई से मुख़ातिब हूँ । वे उस समय उनमें केवल एक लघुकथाकार देखते और खुलकर अपनी बात रखते । उनके तर्क इतने सटीक होते कि सामने वाले को अंततः निरुत्तर होना पड़ता ।
रवि प्रभाकर सर से जब भी चर्चा होती तो सदा कहते , “मैं किसी वरिष्ठ की प्रशंसा या आत्म प्रचार के लिए कुछ नहीं करता , कुछ नहीं लिखता । मुझे स्वयं के रचनाकर्म में सन्तुष्टि चाहिए । यदि मेरे भीतर का लघुकथाकार सन्तुष्ट है , और उस कथा के लिए मैंने अपना अभीष्ट दिया है तो यही मेरे लिए सबसे बड़ी प्रशंसा है । “वे लघुकथा विधा के प्रति पूर्णतः समर्पित थे ।
वे जब भी कोई अच्छी लघुकथा पढ़ते तो बिना क्षण गंवाये कथाकार को फ़ोन कर व्यक्तिगत बधाई देते और सम्बंधित सुझाव भी । उनका कहना था इस तरह से रचनाकार का हौसला बढ़ता है और वह और बेहतर करने को प्रयासरत होता है ।
रवि प्रभाकर सर की लघुकथाएँ भी लीक से हटकर होतीं। शीर्षक चयन के लिए अति की हद तक सतर्क रहते । जब तक सन्तुष्ट न हो जाते , तब तक उस पर विचार करते रहते । शीर्षक सहित कथा मुक़म्मल होने के बाद पाँच छह लोगों को भेजते , उनकी राय जानने का प्रयास करते यदि किसी का सुझाव पसन्द आता तो अमल में भी लाते ।
आप लघुकथाकारों के लिए मार्गदर्शक और गुरु थे। आपकी समीक्षाएँ अद्वितीय होती थीं । आप संख्या पर नहीं गुणवत्ता पर विश्वास करते थे और यही मुझसे कहते थे सदा । जुनून था आपके भीतर लघुकथाओं को लेकर , घण्टों बात कर सकते थे आप लघुकथा पर । आपको सतही काम जरा भी पसन्द नहीं था । लघुकथा में आप सुकेश साहनी सर को अपना आदर्श मानते थे । वे आपके सबसे अधिक पसंदीदा लघुकथाकार थे और समीक्षक के रूप में पुरुषोत्तम दुबे सर जिन्हें वे ‘डेशिंग दुबे’ कहकर पुकारते थे से अधिक प्रभावित थे । पारिवारिक स्तर पर बात करें तो योगराज राज उनकी सम्पूर्ण दुनिया थे । उनकी जान बसती थी उनमें । वे उन्हें भाई नहीं पिता मानते थे , इस नाते उनमें ईश्वरीय रूप देखते थे ।
आपका व्यक्तित्व गाम्भीर्यपूर्ण था , विचार और व्यवहार सुलझे हुए थे । आप जैसी विनम्रता किसी गुणीजन में नहीं देखी । वे हर एक के मार्गदर्शन को तैयार रहते थे सदा । उन जैसा विनम्र , मार्गदर्शक व्यक्तित्व इस क्षेत्र में न आज तक हुआ है और न शायद ही होगा । किसी भी विधा में जानना , सिद्धहस्त होना , अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुआ , ढेरों पुरस्कार मिलना अलग बात है , दूसरों के लिए समय निकालना , उसे सिखाना , उनकी रचनाओं पर खुलकर बोलना , व्यक्तिगत रूप से फ़ोन कर चर्चा करना ये साधारण मानव के गुण नहीं है । इसके लिए बहुत बड़ा जिगर चाहिए । उनकी बहुत सारी लघुकथाएँ अप्रकाशित रह गईं । बहुत से कच्चे प्लाट भी , एक दो साल में वे अपना संकलन ले ही आते । भविष्य में वे समीक्षा के क्षेत्र में भी एक दैदीप्यमान नक्षत्र बन जाते । वे समीक्षक रूप में एक प्रकाश पुंज थे , जिसकी मात्र कुछ किरणें ही विसरित हुईं । उनकी प्रतिभा का तो सबने उदीयमान रूप ही देखा बस , असल प्रकाश तो वे अपने भीतर ही समेटकर ले गए । साहित्य जगत को उनके जाने से जो क्षति हुई उसे न शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है और न तत्काल आकलन ही किया जा सकता है । जब – जब लघुकथा पर गहन विचार विमर्श होगा , उनके समकालीनों बात होगी तब – तब वे याद आएँगे और याद आएगा अल्प समय में विधा के लिए दिया गया उनका समर्पित योगदान । ‘लघुकथा कलश’ पुस्तक का आवरण पृष्ठ हो , भीतरी साजसज्जा हो , वर्तनीगत शुद्धियों की बात हो , सम्पूर्ण पुस्तक में रवि प्रभाकर सर की अथक मेहनत की स्पष्ट छाप दिखाई देती । कहाँ मिलेंगे एक ही व्यक्ति में इतने गुण ? वो विरले ही थे तभी विरले कार्य कर गए ।
कहते हैं मृत्यु आने से पहले दस्तक देती है , संकेत करती है , जिसे समझ नहीं पाता मनुष्य । 22 मई से दस बारह रोज़ पहले अंतिम व्हाट्सअप स्टेटस शेयर किया था आपने जिसका सार था कि *जो लोग भावुक होते हैं , मन के सच्चे होते हैं , ऐसे लोग ईश्वर को पसन्द आते हैं और उन्हें ईश्वर जल्दी अपने पास बुला लेते हैं* ये चित्रात्मक स्टेटस था जिसके नीचे उन्होंने प्रश्नात्मक रूप में लिखा था ” *समझे ?”* उस वक़्त भाई के ग़म में इतना डूबी थी कि ये तो सोचा कि ऐसा क्यों लिखा है , लेकिन पूछा नहीं । काश कि पूछ लेती … व्हाट्सअप के प्रोफाइल में अंतिम अबाउट स्टेटस अब भी मुस्कुरा रहा है , ” माइल्स टू गो बिफोर आई स्लीप ” उनकी साहित्यिक यात्रा की लंबी दूरी बीच में ही रुक गई इसके साथ ही उनकी सारी ख़्वाहिशें भी … वे स्वयं भी आकाशीय दुनिया में कहीं न कहीं इस बात से व्यथित होंगे कि ज़िंदगी की भागदौड़ और नियति ने उनकी सबसे बड़ी इच्छा साहित्य सेवा करने के लिए बहुत कम मोहलत दी ।
स्वप्न में भी न सोचा था कि ऐसा दिन भी आएगा जब अपने गुरु , मार्गदर्शक और मित्र के लिए श्रद्धांजलि स्वरूप शब्द पुष्प समर्पित करने पड़ेंगे । उनकी बातें , साहित्य सेवा के लिए किए गए उनके अवदान पर शब्द कम पड़ जाएँगे लेकिन बात ख़त्म नहीं होगी । सूरज का डूब जाना और डूबते-डूबते भी क्षितिज को अपनी शीतल प्रकाश की लालिमा से रंग जाना ये विश्वास छोड़ जाता है कि उनकी कलम भले सो गई है , परन्तु सोने से पहले अनेक लघुकथाकार रूपी लहर को इस तरह तरंगित कर गई है जो कभी नहीं थमेगी , कभी नहीं रुकेगी , वो उठती रहेगी , चलती रहेगी उनके हाथों जिन्हें कभी उन्होंने अपनी मार्गदर्शन रूपी पतवार थमाई थी …
सूरज हूँ ज़िंदगी की रमक़ छोड़ जाऊँगा
मैं डूब भी गया तो शफ़क़ छोड़ जाऊँगा …*इकबाल साजिद*
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