अपना देश
सत्यनारायण नाटे
सत्यनारायण नाटे की लघुकथा ‘अपना देश’ गरीबी और दुर्गन्ध का एक प्रभावशाली चित्र उपस्थित करती है। यह बेबसी व लाचारी का सशक्त चित्रण प्रस्तुत करती है। एक भिखमंगे के माध्यम से रचनाकार ने पूरे देश के कलेवर को रोगमय, व्रणमय दिखाया है–दुर्गन्धभरा, पीव देता। बीमारी लाइलाज है जबतक शरीर चले तब तक चले–असहायावस्था के दारुण्य का संवेद्य चित्रण स्थिति को, कथ्य को, भाव को सुसंप्रेष्य बना देता है। इस लघुकथा के शीर्षक से बहुतों का मतभेद हो सकता है –आखिरकार यह शीर्षक देकर रचनाकार ने क्या कहना चाहा है, बहुत स्पष्ट नहीं होता। बात है भिखमंगे की और शीर्षक है ‘अपना देश’ । कहीं भिखमंगा ही तो अपना देश नहीं है? क्या भिखमंगा सांकेतिक अर्थ देता है? बात बहुत कुछ समझ में नहीं आती। सृजनात्मक दृष्टि से रचना बहुत प्रभावशाली नहीं बन पाती। इसलिए इसे द्वितीय कोटि में ही रखा जा सकता है।
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वापसी
सुकेश साहनी
सुकेश साहनी की लघुकथा ‘वापसी’ एक बहुत सुन्दर,बहुत उत्कृष्ट रचना है। सृजनात्मक का समस्त सुषमा–सौरभ इस सर्जना में समाहित है, समाविष्ट है। ‘वापसी’ शीर्षक भी बड़ा सटीक है, बड़ा उपयुक्त–ईमानदारी की वापसी (Good Sence), चरित्र–सिद्धान्त–आदर्शों की वापसी, विवेक–वैभव की वापसी।
एक अभियंता की अतीत ईमानदारी से उसकी वर्तमान बेईमानी की तुलना की गई है–उसके दोनों रूपों–भावों की पुष्टि की गई है–इससे उत्पन्न जो अंतर्मथन, उद्वेलन, आत्म–ग्लानि है वह बड़ी सुंदरता से, साहित्यिकता से, मर्मस्पर्शता से प्रस्तुत किया गया है। आदर्श और यथार्थ के केन्द्र को, सदाचार और भ्रष्टाचार के अन्तर्द्वन्द्व को बड़ी खूबी से, बड़े प्रभावशाली ढंग से रखा गया है। वर्तमान के स्खलन या पतन में अपने गौरवशाली अतीत का स्मरण विवेक के उदय का, चैतन्य के विस्फोट का कारण बनता है। अतीत की विरुदावली पथभ्रष्ट मानव को पुन: मार्ग पर लाने का उपक्रम करती है–पटरी से गिरी गाड़ी फिर पटरी पर आ जाती है और वांछित दिशा में सर्व–शक्ति से दौड़ने लगती है। कभी–कभी जीवन की कोई साधारण घटना या अनुभव ही जीवन में ऐतिहासिक मोड़ Turning pointया सिद्ध होता है। जीवन का रूपान्तरण–भावान्तरण–कायाकल्प हो जाता है– Ressurrection जीवन पुन: उज्जीवित हो उठता है अपने संपूर्ण भाव–वैभव के साथ। आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण, आत्मग्लानि व पश्चात्ताप से मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन, चमत्कारित तब्दीलियाँ उपस्थित हो जाती है।
ईमानदारी के प्रत्यावर्तन की यह कहानी, सदाचरण की वापसी की यह कथा, आदर्शों के पुनरागमन व पुनर्स्थापन का यह आख्यान घोर नैराश्यांधकार में सहसा सूर्योदय की संभावना का संधान कर लेती है जिससे जीवन का दैन्य–नैराश्य, जीवन की दिग्भ्रांति और मूल्यभ्रष्टता और आशा और विश्वास आस्था व मूल्यबोध में परिवर्तित हो जाती है। यह रचना सर्वतोभावेन तृप्तिकर है, तुष्टिदायिनी है। रचना के महत् उद्देश्य की सत्पूर्ति करती यह रचना, सृजनात्मकता के स्वच्छ सौरभ–सुवास से संग्रथित यह सर्जना वस्तुत: उत्कृष्ट पदाधिकारिणी है। निश्चय ही यह प्रथम कोटि में उच्च स्थान की अधिकारिणी है
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पोस्टर
अखिलेन्द्र पाल सिंह
अखिलेन्द्र पाल सिंह की ‘पोस्टर’ शीर्षक लघुकथा एक गरीब बंधुआ मजदूर की और एक ज़मीदार या क्रुद्ध सामंत की मानसिकता को बड़े जीवन्त, सशक्त व प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है। बीस सूत्री कार्यक्रम के पोस्टर को देखकर मज़दूर के दिमाग में भावी स्वर्णिम सपनों के द्वार अचानक खुल जाते हैं–वह सपनों से आकान्त स्वप्नलोक में विचरण करता अपने वर्तमान दु:ख–दैन्य–दारिद्रय को पूर्णत: बिसर जाता है जब तक कि सामंतवादी आक्रोश का क्रूर डंडा उसके सर पर दनादन गिरकर उसे लहूलुहान नहीं कर देता। उसके सपने चूर–चूर हो जाते हैं–उसका कल्पित घरौंदा धराशाई हो जाता है, उसका काल्पनिक स्वर्ग ध्वस्त हो जाता है। स्वर्ग के फूलों के सिंहासन पर समासीन मज़बूर नरक के खौलते तेल के कड़ाह में डाल दिया जाता है–उसका अंतर हाहाकार–चीत्कार से भर उठता है, उसके मन में उठे अनगिनत प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं, भविष्य का दरवाजा बंद–सा लगता है, वर्तमान की कष्टकारा से मुक्ति असंभव लगती है और वह अपने वर्तमान से, अपनी नियति से, स्थिति–परिस्थिति से समझौता कर पुन: अपनी बेबसी, लाचारी का यातना भरा अभिशप्त जीवन–क्रम चुपचाप दूर बिखरे कथित–विपन्न मन से शुरू कर देता है। मजदूर के अंतर में उठे भावों के ज्वारभाटे को, उसकी क्षणिक स्वर्णिम स्वप्निल स्वर्गिक अनुभूति और फिर उसकी स्थायी लम्बायमान नारकीय जीवन की यातना को, उसकी पीड़ा–कथा को रचनाकार ने बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। रचना काफी अच्छी बन पड़ी है।
सुकेश साहनी, अखिलेन्द्र पाल सिंह, सुबोध कुमार गोविल की लघुकथाओं को देखकर लगता है कि श्रेष्ठ सृजनात्मकता के संप्रभाव में पड़कर लघुकथा भी सर्जना के समुत्कर्ष को सहज ही सम्प्राप्त कर लेती है और दीर्घायु, प्रभावकारी एवं श्रेष्ठ रचना सुखदायी बन जाती है।
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फिसलन
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘फिसलन’ वर्तमान मानव जीवन के चारित्रिक विघटन व विखंडन की कहानी बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करती है। हम जो कई स्तरों पर जीने के लिए विवश हो गए हैं या कहा जाए कि हम या तो अपनी आंतरिक कमज़ोरी या परिस्थिति के दबाव से जो विभिन्न धरातलों पर जीने के अभ्यासी,Double think ,double do –उसी का मर्मस्पर्शी अंकन इस लघुकथा में प्रस्तुत है। शराब की बुराई पर भीषण भाषण देने वाला,शराब की हानियों पर लंबी चौड़ी वक्तृता देने वाला, शराबखोरी के दुष्प्रभावों पर बड़ा ही प्रभावशाली प्रवचन देने वाला व्यक्तित्व (महेश तिवारी) स्वयं शराब पीकर नशे में चूर अपना होश हवास खोकर नाली में कर्दम कीच में लोट रहा है–मंच पर शराबखोरी के विरुद्ध ज़ोरदार भाषण और मंच के बाद स्वयं शराबखोरी। क्या ही विडंबना, विसंगति, विद्रूपता? इस विडंबना, इस दारुण स्थिति को रचनाकार ने बड़ी जीवंत–सशक्त वाणी दी है जिससे यह विडंबनात्मक स्थिति, उसकी दारुणता जीवंत हो पाठक के मनमानस की अभिभूत कर देते हैं और अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं। रचना प्रथम कोटि की है।
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मेरी का प्रतीक
जमाल अहमद वस्तवी
‘मेरी का प्रतीक’ शीर्षक से लिखी जमाल अहमद वस्तवी की लघुकथा गरीबों के जीवन की दर्दनाक दास्तान प्रस्तुत करती है, दारिद्र्यपूर्ण साधनहीनता का मर्मवेधी कारुणिक आख्यान। गरीबी में ही उदारता के सुमन खिलते हैं, विपन्न्ता में ही मानवीय भावों के सुवास प्रस्फुटित होते हैं और साधन–सम्पन्नता व समृद्धि में स्वार्थपरायणता के, संकीर्णता के कीड़े रेंगने लगते हैं, स्वार्थपरता की जोंकें पैदा हो जाती हैं। सम्पन्नता और विपन्नता के इस विषम–विरोधी भावप्रभाव को, संस्कार और मानसिकता को रचनाकार ने बड़े कौशल से, बड़ी सृजनात्मक समृद्धि के साथ प्रस्तुत किया है।
दूसरों की सेवा–सहायता करनेवाली गरीब औरत को जब स्वयं सहायता की ज़रूरत पड़ती है तो सभी कन्नी काट लेते हैं–वह निरी अकेली, निपट असहाय रह जाती है–अकेले अपनी विकट स्थिति का अपार धीरता के साथ सामना करती है–अपार क्षमाशीलता के साथ। एक प्रकार से मातृत्व–भावना से ओतप्रोत होकर नारी जाति को ही मेरी के रूप में देखने वाली रचनाकार की यह दृष्टि वास्तव में बड़ी सूक्ष्म, बड़ी उदार है–वह मेरी जो मसीहा की माँ थी, वह मेरी जिसकी कुक्षि से मानवता का संरक्षक, इंसानियत का मुक्तिदाता पैदा हुआ था।
मूल्यवान गंभीर कथ्य और सुन्दर सटीक साहित्यिक शीर्षक इस लघुकथा को साहित्य में स्थायी स्थान दिलाने के लिए विवश करते हैं। इस तरह की लघुकथाएँ यदि लिखी जाने लगी तो निश्चय ही लघुकथा के आलोचकों का मुँह बंद हो जाएगा और यह विधा एक सशक्त विधा के रूप में गौरवमान, पद–प्रतिष्ठा अर्जित कर सकेगी। रचना प्रथम कोटि में उच्च पद की अधिकारिणी है।
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संरक्षक
कुलदीप जैन
कुलदीप जैन की लघुकथा ‘सरंक्षक’ भी बड़ी सशक्त रचना है–स्थायी सृजानात्मक सौरभ से सुरभित समृद्ध। इस लघुकथा में प्यार व सहानुभूति की संजीवनी शक्ति का मार्मिक रहस्योद्घाटन किया गया है। निराश हताश जीवन के घटाटोप घनघोर अंधकार में प्यार–सहानुभूति के मात्र दो शब्द या उसकी मौन मुखर अभिव्यक्ति प्रकाश की ज्योतिष्मता विद्युन्नाभा की तरह तेजोद्दीप्त व भास्वर हो जाती है। जीवन में टूटे हुए सब तरह से बिखरे–विखंडित निराश–हताश प्राणी को प्यार–आत्मीयता–सहानुभूति का स्वल्प संस्पर्श एक सुप्रभावी, एक जीवनदायी रसरसायन , एक स्वास्थ्यवर्धक , एक कष्टहर क्लांतिहर वेदना निग्रहरस। कम से कम शब्दों में पूरी पृष्ठभूमि का, पूरी मानसिकता व पूरी स्थिति–परिस्थिति–मन:स्थिति का सुप्रभावी सुअंकन सर्जना की सिद्धि है, रचनाकार का वैभव वैशिष्ट्य है–बधाई। रचना शाश्वतभाव से, मानवगरिमा से, मानवजीवन की खुशबू से ओतप्रोत है।
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अपना अक्स
राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’
राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’ की लघुकथा ‘अपना अक्स’ अभाव की पीड़ा का,दैन्य की दुरवस्था को, विपन्नता की स्थिति में उपजे हुए सहानुभूति के भाव को उजागर करती है। दैन्य की दु:स्थिति दोनों को पारस्परिक स्नेह–सूत्र में आबद्ध कर देती है–दो अजनबी विपन्न आपस में अचानक मैत्री भाव विकसित कर लेते है–कहते हैं– आपत्ति में, संकट में निहायत अजनबी भी अपने हो जाते हैं, विपत्ति में बेगाने भी अपने आत्मीय बन जाते हैं। इसी भाव का संवहन यह लघुकथा करती नज़र आती है। जो स्वयं दु:खी को अच्छी तरह समझ सकता है–जाके पैर न फटे बेवाई सो क्या जाने पीर पराई’। दु:ख में संवेदना का विस्तार होता है, हृदय का प्रसार, भावना का विस्तार। संताप और अभाव की आंच में ही प्रेम–सहानुभूति का, करुणा–कारुण्य का अमृत–गाढ़ा तैयार होता है।
स्वयं अभाव की पीड़ा झेलता हुआ, बेरोज़गारी की मार से क्षतविक्षत नायक ही विपन्न–बुभुक्षित बालक की पीड़ा व दीनता का एहसास ज्यादा गहराई व तलखी से कर सकता है। रचना अच्छी बन पड़ी है–दिल को छूने की सामथ्र्य है इसमें। कोटि द्वितीय।
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