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लघुकथा सृजन और रचना कौशल

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विगत दिनों मूर्धन्य लघुकथाकार श्री सुकेश साहनी जी के लघुकथा विषयक आलेखों का महत्वपूर्ण संकलन प्रकाश में आया है। ‘लघुकथा सृजन और रचना-कौशल’ शीर्षक इस संकलन में लघुकथा के सन्दर्भ में विभिन्न अवसरों पर लिखे गये साहनी जी के 19 आलेख शामिल हैं। लघुकथा पर चर्चा की दृष्टि से ये आलेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
पुस्तक में शामिल पहला आलेख 1998 एवं 2012 में प्रकाशित साहनी जी के सुप्रसिद्ध लघुकथा संग्रह- ‘ठंडी रजाई’ की भूमिका के तौर पर लिखा गया है। दूसरा आलेख कोटकपूरा, पंजाब में आयोजित लघुकथा सम्मेलन में पढ़ा गया आलेख है। इसके बाद पाँच आलेख साहनी जी द्वारा संपादित महत्वपूर्ण लघुकथा संकलनों क्रमशः स्त्री-पुरुष संबन्धों की लघुकथाएँ (1992/2018), महानगर की लघुकथाएँ (1993/2019), खलील जिब्रान की लघुकथाएँ (1995/2017), देह-व्यापार पर केन्द्रित लघुकथाएँ (1997) एवं बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ (2009 में रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी के साथ संपादित) के संपादकीय हैं। पुस्तक में शामिल नौ आलेख क्रमशः वर्ष 2007, 2009, 2010, 2011, 2012, 2014, 2016, 2017 एवं 2019 में आयोजित कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिताओं में बतौर निर्णायक टिप्पणियों के रूप में लिखे गये आलेख हैं। शेष तीन आलेख क्रमशः राजेन्द्र यादव, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु एवं डॉ. श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ की लघुकथाओं पर समीक्षात्मक आलेख हैं। इस प्रकार विभिन्न अवसरों पर साहनी जी ने पाठकों, श्रोताओं और साथी लघुकथाकारों से अपनी बात कहने के लिए जो महत्वपूर्ण संवाद किया है, वह इस पुस्तक में एक साथ संकलित होकर सामने आया है।
माना जाता है कि श्री सुकेश साहनी जी लघुकथा पर अपनी बात कहने के लिए मुख्यतः अपनी रचनाओं को ही माध्यम बनाते हैं, अलग से शास्त्रीय, समालोचनात्मक या समीक्षात्मक आलेख अथवा पुस्तकें लिखने का कार्य वह प्रायः नहीं करते। ऐसे में इन संवादपरक आलेखों के माध्यम से लघुकथा जगत को उनके विचारों के साथ उनकी लघुकथा विषयक मान्यताओं को बहुत स्पष्ट रूप से जानने एवं समझने का अवसर मिलता है।
‘लघुकथा: रचना प्रक्रिया’ शीर्षक आलेख में, जोकि उनके लघुकथा संग्रह ‘ठंडी रजाई’ की भूमिका में लेखक ने अपनी लघुकथा सृजन की रचना प्रक्रिया पर बात की है। जीवनानुभव किस प्रकार एक रचना का आधार बनते हैं, इसे उदाहरण देकर समझाया गया है। साहनी जी का मानना है, ‘‘लेखक के भीतर किसी रचना के लिए आवश्यक कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही लेखक की रचना-प्रक्रिया है। लघुकथा की रचना-प्रक्रिया में उपन्यास एवं कहानी की भाँति बरसों भी लग सकते हैं।’’
‘कोटकपूरा लघुकथा लेखक सम्मेलन’ में पढ़े गये आलेख ‘कहानी का बीज रूप नहीं है लघुकथा’ में साहनी जी ने लघुकथा को कहानी का बीजरूप मानने की धारणा से असहमति तो प्रकट की ही है, उन्होंने लघुकथा में विषय को लेकर बनी भ्रम की स्थिति को भी साफ करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार जिन विषयों पर कहानी लिखी जा सकती है, उन पर लघुकथा भी लिखी जा सकती है। लघुकथा में लेखक विषय के मूल स्वर को पकड़ता है, जिसका तात्पर्य रचना में सम्बन्धित विषय और कथ्य के मूल (सूक्ष्म) स्वर से है। साहनी जी ने इसी बिन्दु को लघुकथा को कहानी से अलग करने वाला बताया है।
साहनी जी ने विभिन्न एकल विषयों पर रचित लघुकथाओं के कई संकलन संपादित किये हैं। उन्होंने इन संकलनों में एक-एक विषय के विभिन्न पक्षों पर सशक्त लघुकथाओं को संकलित करते हुए विभिन्न स्थितियों के विश्लेषण का नोट लिया है। अपने नोट को संकलनों के संपादकीय आलेखों में सहेजते हुए इसी विश्लेषण को रेखांकित किया है। इस दृष्टि से स्त्री-पुरुष संबन्धों की लघुकथाएँ, महानगर की लघुकथाएँ, खलील जिब्रान की लघुकथाएँ, देह-व्यापार पर केन्द्रित लघुकथाएँ एवं बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ संकलनों के संपादकीय आलेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन आलेखों में चयनित लघुकथाओं के कथ्यों और विषयों के मूल स्वर को रेखांकित करते हुए लघुकथा की ताकत को समझने-समझाने का प्रयास शामिल है।
देश की सुप्रसिद्ध कथा पत्रिका ‘कथादेश’ कई वर्षांे से अखिल भारतीय स्तर की महत्वपूर्ण लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित कर रही है। श्री सुकेश साहनी जी इस प्रतियोगिता से बतौर प्रेरक एवं निर्णायक काफी निकट से जुड़े रहे हैं। हर वर्ष निर्णायक के रूप में प्रतियोगिता की पुरस्कृत लघुकथाओं पर उनकी विश्लेषणपरक आलेखबद्ध टिप्पणी आती रही हैं। क्रमशः वर्ष 2007, 2009, 2010, 2011, 2012, 2014, 2016, 2017 एवं 2019 की प्रतियोगिता में पुरस्कृत लघुकथाओं से जुड़े आलेखों में पुरस्कृत लघुकथाओं पर साहनी जी ने अपनी बात बहुत स्पष्ट रूप में सामने रखी है। एक ओर इन लघुकथाओं के रचनात्मक पक्ष को स्पष्ट किया गया है तो उनके आलोचनात्मक बिन्दुओं पर भी बात हुई है। इन आलेखों में प्रतियोगी लघुकथाकारों के लेखन में निहित संभावनाओं को उजागर किया गया है तो उन बिन्दुओं पर भी चर्चा की गई है, जहाँ लेखकों को सतर्क रहने की आवश्यकता है। ऐसी टिप्पणियों से निश्चित रूप से प्रतियोगिता में शामिल लघुकथाकारों के साथ अन्यों को भी काफी कुछ सीखने को मिलता है।
कथाकार राजेन्द्र यादव जी ने भी कुछ ऐसी कथा रचनाएँ लिखी हैं, जिन्हें लघुकथा के दायरे में रखा जाता है। सुकेश जी ने अपने आलेख ‘राजेन्द्र यादव की लघुकथाएँ’ में यादव जी की नौ लघुकथाओं की बेबाक पड़ताल की है। निष्कर्षतः उन्होंने पाया है कि ‘अपने पार’ राजेन्द्र यादव की श्रेष्ठ लघुकथा है किन्तु इस लघुकथा जैसा प्रभाव वह अपनी अन्य लघुकथाओं में नहीं छोड़ पाये हैं। संभवतः यादव जी ने लघुकथा को उतनी गम्भीरता से नहीं लिया, जितना उन जैसे स्थापित साहित्यकार को लेना चाहिए था।
‘रामेश्वर काम्बोज की अर्थगर्भी लघुकथाएँ’ शीर्षक आलेख में सुकेश जी ने ‘पड़ाव और पड़ताल’ लघुकथा संकलन शृंखला के खण्ड सात में शामिल रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी की 11 प्रतिनिधि लघुकथाओं की पड़ताल बतौर लिखा गया आलेख है। हिमांशु जी की ये लघुकथाएँ हैं- धर्मनिरपेक्ष, ऊँचाई, गंगा स्नान, खुश्बू, पिघलती हुई बर्फ, छोटे-बड़े सपने, कालचिड़ी, ऐजेण्डा, नवजन्मा, कटे हुए पंख एवं कमीज। हिमांशु जी रचनात्मकता के स्तर पर बेहद सजग लघुकथाकार हैं। इस आलेख में सुकेश जी ने लघुकथा के लिए आवश्यक अनुशासन और कथ्य की रचनात्मकता के सन्दर्भ में हिमांशु जी की लघुकथाओं का बहुत ही सहज विश्लेषण प्रस्तुत किया है। लघुकथाओं के कथ्यों और विषयों के विश्लेषण के साथ भाषा के प्रयोग एवं शीर्षक चयन में सजगता को रेखांकित किया गया है।
पंजाबी के साथ हिन्दी में भी लघुकथा के लिए समर्पित लघुकथाकारों में डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति जी का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। लघुकथा सृजन के साथ अनुवाद, लघुकथा सम्मेलनों एवं पंजाबी लघुकथा की पत्रिका मिन्नी के संपादन-प्रकाशन में भी उनका अभूतपूर्व योगदान है। दीप्ति जी के सुप्रसिद्ध लघुकथा संग्रह ‘गैर हाजिर रिश्ता’ की भूमिका के तौर पर ‘डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति की लघुकथाएँ’ शीर्षक आलेख में साहनी जी ने उनकी लघुकथाओं में निहित रचनात्मकता पर प्रकाश डाला है। कानून पसंद, सोग की ट्यून, संवाद, उदास दिल, दादी, असली बात, रीसेल वैल्यू, खो रहे पल आदि अनेक लघुकथाओं को उनकी विशिष्टताओं के लिए उद्धृत करते हुए साहनी जी ने दीप्ति जी की लघुकथाओं में कथ्य की अनुगूँज का पाठकों के सन्दर्भ में बहुत स्पष्ट विश्लेषण किया है।
सुकेश साहनी जी के ये आलेख निश्चित रूप से लघुकथा के बंधनमुक्त रूप-स्वरूप, स्वाभाविकता और निश्चिंतता के साथ आगे बढ़ाने की बात करते दिखाई देते हैं। उन्होंने लघुकथा सर्जन को नियमों से बाँधने की बजाय उसके अनुशासन को समझने पर जोर दिया है। विषय और कथ्य के मूल स्वर और लघुकथा के समापन बिन्दु पर विशेष ध्यान देने पर बल दिया है। विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यह पुस्तक नये लघुकथाकारों का मार्गदशन करने में सफल होगी।
-121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कालौनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004


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