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समकालीन लघुकथा में संघर्ष चेतना

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समकालीन लघुकथा में गद्य-साहित्य के विविध रूपों की तरह पीड़ित शोषित एवं दमित जन की उपस्थिति एवं उसकी संघर्ष चेतना के प्रति गहरे रचनात्मक सरोकार लघुकथा को एक गद्य रूप ही नहीं रहने देते बल्कि उसे अधिक व्यापक, एवं विश्वसनीय बना देते हैं। इधर की लघुकथाएँ  राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिदृश्य तथा इनमें सक्रिय रूप में संघर्षरत व्यक्ति को प्रस्तुत करती है।

वर्तमान सामाजिक जीवन की जटिलता, उसके अन्तर्विरोधों उसकी समस्याओं और भ्रष्ट व्यवस्था के कुचक्र में दबे, पिसे, कुचले हुए व्यक्ति के संघर्ष को अपनी सूक्ष्म अर्न्तदृष्टि से आज की लघुकथाएँ  परिवर्तनशीलता एवं वर्तमान से क्रान्ति में नवीनता के रेशे खोज निकालती है। युगीन जटिल परिस्थितियों की संघर्षपूर्ण अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में यह लघुकथा की जीवंतता का प्रमाण है। लघुकथा शोषित, पीड़ित, दमित और अपमानित सामान्यजन की छटपटाहट से आगे जाकर उनके संघर्ष की पक्षधरता बखूबी कर पा रही है। समकालीन लघुकथा अमानवीयता, संवेदनहीनता, क्रूर व्यावसायिकता प्रभुवर्ग की अनैनिकता और शोषण का विरोध कर रही है परिणामतः लघुकथा अमानवीयता, संवेदनहीनता, क्रूर व्यावसायिकता प्रभुवर्ग की अनैनिकता और शोषण का विरोध कर रही है परिणामतः लघुकथा में उभरी इस संघर्ष चेतना को देखते हुए लघुकथा की सार्थकता निर्विवाद हो जाती है।

परिवर्तन की प्रक्रिया में अवरोध बनी शक्तियों का विरोध करते हुए बदलाव की सहायक शक्ति के रूप में लघुकथा विकृतियों के मूल स्रोतों को पकड़ने और उनसे निबटने के कारण, सृजनात्मकता के सन्दर्भ में लघुकथा का एक कारगर हथियार होना प्रमाणित हो जाता है।

लघुकथाकार अपनी लघुकथा की अन्तर्वस्तु में मौजूदा व्यवस्था में पीड़ित, शोषित एवं दमित सामान्यजन के मुक्ति-संघर्ष के विविध रूपों एवं विषयों को चुनता है और उसे कथा रूप में व्यक्त करता है।

डार्विन की थ्योरी ‘सरवाइवल ऑफ द फिट टेस्ट‘ और स्ट्रग्गल फॉर द एग्जिसटेन्स के अनुसार ही लघुकथाओं के पात्र अपने अस्तित्व को बनाये बचाये रखने के लिए ही संघर्ष करने के लिये विवश है। ये पात्र बाहर और  भीतर दोनों तरह से संघर्षरत हैं। अपनी तमाम परेशानियों, संकटों, झंझटों और दुश्वारियों, रुकावटों के बावजूद मनुष्य की कसौटी पर हारें और टूटे नहीं है।

अशोक भाटिया की लघुकथा ‘शुरूआत‘ का रामदित्ता, ‘भीतर कर सच‘ की रमा ‘श्रद्धा‘ की दयावती …….. ये ऐसे ही विशेष संघर्षशील पात्र हैं, जो अपनी उलझनों और परेशानियों से जूझ रहे हैं। वे अभी विजयी नहीं हुए हैं, पर पराजित भी नहीं हुए हैं और निरन्तर संघर्षरत हैं।

सुकेश साहनी की लघुकथा ‘डरे हुए लोग’ में बूढ़ा किसान और युवक दोनों डर के बावजूद अपने आपको बचाने के लिये संघर्ष कर हैं तो ‘स्कूल‘ लघुकथा की ग्रामीण महिला और उसका बेटा दोनों एक दूसरे की सुरक्षा के लिये चिन्तित हैं और जीवकोपार्जन के लिए भी संघर्ष करने को बाध्य हैं। ‘हारते हुए’ का सीताराम तंगहाली के बावजूद बेटे के बेहतर भविष्य के लिये संघर्ष करता नजर आता है।

सतीश दुबे की लघुकथा ‘भीड में खोया आदमी‘ का युवक और ‘फैसला’ का चोर दोनो पात्र पागल नही हैं। पर संघर्ष करते करते विक्षिप्तावस्था तक पहुँच चुके हैं।

बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ के पात्र मिसरी और बदरू अपनी जमीन बचाने के लिये और ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु‘ के रेल यात्री का मानसिक संघर्ष और ‘और जैक मर गया‘ के पात्र गोखरू का अपनी जीविका के लिये किये गये संघर्ष की भयावह स्थितियों को मानवीय संवेदना के स्तर पर उकेरा गया है।

मधुदीप की लघुकथा ‘नियति‘ का झल्ली वाला ‘अस्तित्वहीन नहीं‘ का रिक्शा वाला और ‘ऐलान-ए-बगावत’ का गौड पात्र अपने साथ हो रहे शोषण के विरुद्ध बाकायदा बगावत पर उतर जाते हैं।

सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘सहानुभूति’ का रामू दादा और ‘बेबस विद्रोह‘ की नौकरानी अपने साथ हो रहे अन्याय और जुल्म के खिलाफ निरन्तर संघर्ष कर रहे हैं। और विद्रोह करने को विवश हैं। लघुकथा के पात्रों को अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। पेट भरने की मजबूरी का सम्पन्न वर्ग फायदा उठाता है। ‘पेट सबके है’ (भगीरथ)

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथा ‘ऊँचाई’ में संघर्षरत पुत्र अपने पिता के त्याग स्नेह और संघर्ष को देखकर विस्मित रह जाता है तो ‘गंगा स्नान’ की वृद्ध महिला का जीवन संघर्ष मानवीय संवेदना और उच्च मानवीय मूल्यों को स्थापित करने में सफल सिद्ध होता है।

सही लड़ाई (सुरेन्द्र सुकुमार), शातिर (श्रीनाथ), कारण (मोहर सिंह यादव), पहरा (अशोक गुप्ता), उसकी आजादी (संजीव), नागरिक (जगदीश कश्यप), जूते की जात (विक्रम सोनी), ऊपर का आसमान (असगर वजाहत) नींव (हीरालाल नागर) आदि लघुकथाओं में जूझते, लड़ते, टकराते हुए पात्र अपनी स्थितियों से निबटने के लिए पूरी तरह सजग और सचेत हैं। ये लघुकथाएँ  संघर्षरत पात्रों के द्वन्द्व को उभारती हैं। इनमें जीवन में होने वाली छोटी-छोटी घटनाओं के व्यापक प्रभाव का आकलन सहज और सार्थक रूप में हुआ है। पात्रों की सजगता और चेतना को सृजनात्मकता के स्तर पर मूर्त किया गया है। इन लघुकथाओं के पात्र अपनी सारी संवेदनाओं, पीड़ाओं और मानसिक अवसाद के बावजूद अपनी उन स्थितियों व कठिनाइयों से पार पाने की कोशिश में है।

नागरिक (रमेश बत्तरा), रक्षक-भक्षक (चित्रा मुद्गल) और वह वही था (शंकर पुणतांबेकर), सड़क (कृष्ण कमलेश), सरकारी गाय (आलोक मेहरोत्रा), पूर्ववत (अशोक वर्मा), अफसर (भगीरथ), बदमाश (महावीर प्रसाद जैन), बिजली प्रबन्ध (रमेश श्रीवास्तव), डैथ सर्टिफिकेट (गभीर सिंह पालनी), जस्टीफिकेशन (धीरेन्द्र शर्मा), देश-भक्ति (प्रेम जनमेजय), कमशीन (यशपाल वैद), जानकारी (महावीर काला) आदि लघुकथाओं में रचनाकरों की सबसे बड़ी कोशिश यह है कि परिवेशगत सच्चाइयों को निर्ममता से व्यक्त किया जाए। यह निर्मम दृष्टि जीवन की मानवघाती कुरूपताओं पर अधिक है।

लघुकथाकार जिस व्यवस्था की स्थापना चाहता है उसके लिए वह मौजूदा भ्रष्ट व्यवस्था के साथ संघर्ष और संकल्प की सूक्ष्म कथा लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करता है। ये लघुकथा तल्ख सच्चाई के जरिये व्यवस्था के नापाक, खोखले एवं गलिज इरादों और भीतरी नंगेपन की प्रतीती कराती है। इन लघुकथाओं में सामाजिक अन्तर्विरोधों प्रपंच, वैषम्य और तज्जनय त्रास का तटस्थ चित्रण इन लघुकथाओं में हुआ है।

लड़ाई (रमेश बत्तरा), ठकुरैती (सन्तोष सरस), चेतना (मधुकांत), माध्यम (बलराम), मान अपमान (हसन जमाल), नियन्ता (मोहन राजेश), जागरूक (कृष्णानन्द कृष्ण), अब क्या देंगे? (कमलेश भारतीय) आदि लघुकथाओं में मानवीयता के प्रति सकारात्मक दृष्टि लघुकथा जैसी सशक्त विद्या के माध्यम से समकालीन जन जीवन को समझने, जाँचने और परखने में हमारी मदद ही नहीं करती बल्कि संघर्ष के लिए प्रेरित भी करती है। लघुकथा में आये इन निम्नमध्य वर्ग के पात्रों की अत्यधिक पैसा या ऊँचे पद जैसी कोई बडी महत्त्वाकांक्षा नहीं है उनका सारी लड़ाई उनका सारा संघर्ष रोटी कपड़े का प्रबन्ध और सिर छुपाने के लिये थोड़ी सी जगह हासिल कर लेने तक ही सीमित है।

इन लघुकथाओं में जो चरित्र रचे गए हैं वे अपने क्रूर समय के विद्रूप और परिवेश से संघर्ष करते हैं और चरित्र के संघर्ष से कथा रूप लेती है तथा उसी संघर्ष के साथ उसके वजूद का विकास होता है। इन चरित्रों को रूढ़ियों, पाखंडों और रूढ़ियों को तोड़कर बाहर निकाल कर बेहतर मानवीय आयामों से जोड़ा गया है। लघुकथा का आकार छोटा होने के कारण इसमें संपूर्ण-संघर्ष यात्रा का विस्तृत विवरण नहीं आ पाता लेकिन संघर्ष के प्रमुख और चरम क्षणों का चित्रण तो लघुकथा में आता ही है।

आग (भगीरथ), गुस्सा खाया आदमी (सुरेन्द्र मंथन), संकेत (रामनिवास मानव), दे सकोगे (महेन्द्रसिंह महलान), लाठी (बलराम अग्रवाल), भगवान की मर्जी (सतीश दुबे), श्रम (तरसेम गुजराल), बनैले सूअर (विक्रम सोनी) आदि लघुकथाओं में सामाजिक अन्तर्विरोधों से उत्पन्न मानवीय संकट के प्रति संघर्ष चेतना को सूक्ष्म मानवीय संवेदना के सन्दर्भ में पकड़ने की कोशिश की गई है। व्यवस्था विरोध का स्वर इन लघुकथाओं में स्पष्ट रूप से उभरा है।  इनमें भ्रष्ट व्यवस्था की साजिशों के बीच आदमी की पीड़ा और संघर्ष को अभिव्यक्त किया गया है।

तेवर (रामकिशोर सिंह), कुत्ता (कमल गुप्त), शुरूआत (शशिप्रभा शास्त्री), अब नाहिं (हरनाम शर्मा), जागृति के बढ़ते चरण (सतीशराज पुष्करणा), व्यवस्था के पैतरे (रतिलाल शाहीन) आदि लघुकथाओं में भ्रष्ट व्यस्था की त्रासदी और मानसिकता का चित्रण वेलाग और बेबाक ढ़ंग से हुआ है।

संकेत (अनिल जनविजय), साँपों के बीच (जगदीश कश्यप), नींव (हरि जोशी), सीख (सुरेन्द्र सुकुमार), मेरा गुनाह (शहनशाह आलम), ठाकुमर हंसुआ भात (चाँद मुगेरी), विरोध (रामकिशोर सिंह) आदि लघुकथाओं में उभरी संघर्ष चेतना की मूल चिन्ता मानवीय मूल्यों को लेकर ही है। अपनी इस संघर्ष यात्रा के क्रम में ये लघुकथाएँ व्यवस्था के अन्दरूनी सत्य को नंगा कर उसका जबरदस्त विरोध भी करती है।

अकारण नहीं है कि व्यवस्था के नापाक, गलीज और खूनी इरादों को परत-दर-परत नंगा करने के लिए लघुकथा अनेक सृजनात्मक स्वरों का हथियार बनी है। लघुकथाकार एक शिद्दत के साथ सामान्यजन की पैरवी कर पा रहा है।

इनके अतिरिक्त भी अनेक लघुकथाएँ हैं जो आदमी की यन्त्रणा और उनमें झेलते, सड़ते और लड़ते हुए लोगों के आक्रोश, उनकी समस्याओं और उनके संघर्ष को सलीके से हमारे सामने रखती है।

ऐसा नहीं है कि हिन्दी लघुकथाओं के पात्र पागल या नासमझा हैं। वे मालिक वर्ग की ज्यादतियों और शोषण करने वाली शक्तियों के चेहरों को बखूबी पहचानते हैं और वे उनके द्वारा फैलाये गये जालों को काट सकने की शक्ति भी रखते हैं। पर कहीं कानून तो कहीं अर्थ-तन्त्र के पंजों में जकड़े रह कर छटपटाने को विवश हैं। कई रचनाओं में ऐसे पात्र खुलकर विरोध करते, लड़ते, जूझते और पत्थर उठा कर मारते नजर आते हैं।

मौजूदा व्यवस्था की जटिलताओं और गड़बड़ियों को नए सन्दर्भों में अभिव्यक्ति देने वाली कई कुछ लघुकथाओं की मूल संवेदना विवश आदमी की कसमसाहट से जुड़ी वर्तमान जीवन स्थितियों का विरोध करना है।

हम कह सकते है कि समकालीन लघुकथा जीवनानुभवों और नई सामाजिक पुनर्रचना की संघर्ष-चेतना को संवेदनात्मक धरातल पर उकेरती है।

-0-कमल चोपड़ा, 1600/114, त्रिनगर,दिल्ली-110035

मो.: 9999945679

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