1-हिसाब
“मै पूछता हूँ कि गरीबऊ के वहाँ कौन जा रहा है,” पिताजी ने खाट पर पड़े-पड़े जानना चाहा।
शादी-व्याह, अवा-गवा, न्योता-निमंत्रण का हिसाब-किताब बड़कऊ रखते थे। बोले -“अभी बताता हूँ। पहले देखने तो दो कि हमारे यहाँ उनके घर से कोई आया भी था या नहीं।” उन्होंने ताक पर रखे डायरी को झाड़कर पन्ने उलटना शुरू किया।
“अरे उनकी बारात नहीं अंतिम-यात्रा है,” पिताजी की साँसें फूल गई।
“तो कोई बात नहीं। रामू चला जायेगा। मै तो व्यस्त हूँ।”
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2-दादी
रश्मि अपने भाषण की प्रैक्टिस कर रही थी। साथ में थी उसकी बेस्ट फ्रेंड – उसकी दादी! वह बोलती, फिर दादी से उस पर डिस्कस करती। अचानक उसे कुछ याद आया। वह बोली- ‘दादी, आप कुछ बोलिए।’
दादी अचकचा गई, ‘मैं! मैं क्या बोलूँ!
’‘कुछ भी। वही जो हमे रोज सुनाती हो’, रश्मि बोली।
दादी के लिए यह बिल्कुल नई बात थी। वह कुछ सोचने लगी। रश्मि ने जिद किया तो दादी बोली, ‘अच्छा जाओ, डेस्क से घोषणा करो।’
वह जाकर बोली, ‘आज हमारी दादी…।’
दादी ने उसे रोकते हुए कहा, ‘नहीं, … दादी नहीं। नाम से…!
’”क्यों, दादी कहने से नहीं चलेगा?”
नहीं…। क्या है कि बहुत साल हो गए अपना नाम सुने!’
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3-उड़ान
वह शाम को घर पहुंचकर कपड़े बदल रहा था। तभी पत्नी ने कहा -“एक अर्जेंट जरूरत आन पड़ी….चाय पत्ती एक भी चम्मच नहीं है।”
वह तमतमा गया -“यार समय से बता दिया करो। शाम तक थक जाता हूँ…अब फिर से जाऊँ…?”
तभी बेटी ने आकर कहा – -“पापा आप आराम कर लीजिए। मै ले आती हूँ।”
“अरे नहीं…तुम नहीं..।”
“आप थके हैं….आराम कर लेते।”
“अच्छा नहीं लगेगा…।”
“किसे….आपको?”
“नहीं…बहुत संकीर्ण विचार के लोग हैं..।”
“ये तो उनकी समस्या है। आप अपनी बताइए।”
“देखो इस लड़की को…,” उसने पत्नी को देखा।
“ठीक तो कह रही है,” पत्नी बोली।
“आयं…अच्छा जाओ।” उसने पैसे बढ़ाए और बेटी मुस्कराती हुई घर से निकली। पति-पत्नी ने बेटी को जाते हुए देखा तो दोनो वैसे ही खुश हुए जैसे चिड़िया अपने चूजे की पहली बार उड़ान पर खुश होती है।
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4-चाह
रमई राम मजदूरी करके लौटा था। उसका पाँच साल का बेटा टीकू दौड़कर उससे लिपट गया। उसने जेब से दो टॉफियाँ निकालीं और टीकू की ओर बढ़ाईं। बेटे ने उसका हाथ दूर हटाते हुए कहा, “मुझे सेब खाना है।”
रमई बोला, “सेब…सेब, तो नहीं है…कल ले आऊँगा।”
“नहीं, मुझे तो अभी चाहिए।” टीकू फर्श पर लोट गया और रोने लगा। रमई उसे गोद में उठाकर घर के अंदर आ गया। बोला, “ बेटा, अब तो रात हो गई है। अभी सेब कहाँ मिलेगा? कल जरूर ले आऊँगा।”
उसने टीकू को फिर से टॉफी पकड़ाई। लेकिन इस बार भी बेटे ने उसका हाथ झटक दिया। टॉफियाँ फर्श पर बिखर गईं। रमई को गुस्सा आ गया। दाँत भींचते हुए ऊँची आवाज में बोला, “समझ में नहीं आता? बोल रहा हूँ कल ले आऊँगा तो..।”
टीकू सहम गया। ’ऊं-ऊं’ कर सुबकने लगा।
“आज दोपहर किसी को सेब खाते देखा है। तभी से सेब की रट लगाए है।” पत्नी बेटे के पास बैठकर उसे चुप कराने लगी।
अगली शाम लौटते हुए रमई बस स्टैंड की तरफ से निकला। फल के ठेले वहीं लगते हैं। एक ठेले वाले से पूछा, “सेब कैसे दिए?”
“दो सौ…एक सौ अस्सी…एक सौ पचास… असली कश्मीरी हैं। कौन-सा दूँ?” ठेले वाला बोला।
रमई का दिल बैठ गया। दो सौ रुपया किलो। बाप रे! कौन-सा अमरफल है! उसने हौले से साइकिल को पैडल मारा और चल दिया। ठेले वाले ने आवाज दी, “अरे, कितने लोगे? कुछ कम कर दूँगा।”
रमई ने जैसे सुना ही नहीं। उसने पलटकर नहीं देखा। आगे किराने की दुकान पर रुका। पूछा, “सेब वाली टॉफी है क्या?”
दुकानदार बोला, “नहीं जी, मैंगो वाली है।”
उसने टॉफियाँ ले लीं। सोचा टीकू अब तक तो सेब को भूल गया होगा। मैंगो टॉफी से खुश हो जाएगा।
टीकू को जैसे ही उसे पता चला कि आज भी सेब नहीं लाए, वह एड़ियाँ रगड़-रगड़कर रोने लगा।
पत्नी ने कहा, “ले आए होते। कितने दिनों बाद तो उसने कुछ माँगा है।”
वह हताशा से देखते हुए बोला, “दो सौ रुपये किलो था…।”
पत्नी बोली, “एक पाव ही ले लेते।”
रमई का दिल कचोटने लगा। उसके दिमाग में तो ये बात आई ही नहीं।
अगले दिन रमई ने भाव नहीं पूछा। आधा किलो सेब ले लिए। आज रमई बहुत खुश था। वह घर पहुँचा। रमई ने सेब बेटे के सामने रख दिये। टीकू ने सेब देखते ही मुँह बना लिया। बोला, “मुझे नहीं खाना।”
रमई प्यार से बोला, “अरे, अभी तक गुस्सा है बेटा!” वह उसे दुलारने लगा।
टीकू बोला, “मुझे केला चाहिए।”
“अरे, दो दिन से तुम कह रहे थे कि सेब चाहिए, और अब केला…।”
टीकू बोला, “हाँ, मुझे केला भी खाना है।”
रमई का माथा भन्ना गया। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं।
अगले दिन वह केला लेकर आया। टीकू दौड़कर उससे लिपट गया।
रमई बोला, “आज तुम्हें सेब-केला दोनों खाना पड़ेगा। यह देखो…।” उसने बेटे को गोद में उठा लिया।
टीकू ने केले को देखा भी नहीं और हुलसकर बोला, “बाबा, आज तो मैंने खूब सारे झरबेरी खाए हैं। मुझे झरबेरी बहुत पसंद हैं।”
रमई थोड़े गुस्से से और थोड़ी हैरत से उसे देख रहा था। लेकिन दरवाजे पर खड़ी पत्नी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी। रमई से भी बिना मुस्कराए रहा नहीं गया।
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5-हार
जेठ की दुपहरी में बीच सड़क पर किसी के सैंडल का तल्ला निकला होगा तो मेरा कष्ट समझ सकता है। लेकिन मेरे साथ अच्छी बात यह थी कि मुझे दूसरी तरफ बैठा मोची दिख गया था। वह एक फल वाले ठेले के बगल में बैठ कर छांव ढूंढ़ने का प्रयास कर रहा था। मैने कहा – ‘‘इसे गोंद से चिपका दो।’’
उसने प्रश्न किया – ‘‘सिल दूँ?’’
मैने कहा, ‘‘नहीं भाई, लुक बिगड़ जाएगा।’’
उसने अंगुली से इशारा करते हुए कहा – ‘‘वहाँ चले जाइये। हो जाएगा।’’ मै तिलमिलाकर रह गया। जरा -सा काम है। जब मै कह रहा हूँ कि चिपका दो तो वह सिलने पर आमादा है। ऐसी हालत में वहां जाना एक सजा था। मैने पूछा – ‘‘क्यों? तुम नहीं कर सकते?’’
उसने पुनः अंगुली दिखाई – ‘‘बता तो रहा हूँ कि वहाँ चिपक जाएगा।’’
मैने ध्यान से देखा। उसके पास दो पॉलिश की डिब्बी थी – एक काली, दूसरी लाल, एक निहाई, कैंची और कुछ चमरौधे बस। मैने प्रश्न किया -‘‘तुम्हारे पास गोंद नहीं है क्या?’’
उसने मुझे केवल देखा।
‘‘कितने में मिलेगा?’’
‘‘आप वहीं बनवा लीजिए।’’
‘‘ऐसे ही दुकान लगाए हो? जब सामान नहीं रहेगा, तोता कैसे कमाओगे। पचास रुपये में मिल जाएगा?’’
उसने हामी में सिर हिला दिया। मैने उसे पैसे दिए, तो वह गोंद लेने चला गया। मेरे अंदर कई सवाल उठ रहे थे। गुस्सा भी आ रहा था। वह आया तो मैने पूछा – ‘‘कितना कमाए आज?’’
‘‘ उन्नीस रुपया।’’
‘‘इतने से घर चल जाता है?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘अनाज कैसे खरीदते हो?’’
‘‘खरीदना नहीं पड़ता। राशन कार्ड पर मिल जाता है।’’
‘‘सब्जी तो खरीदना पड़ता होगा?’’
‘‘आलू दस रुपये किलो है। एक दिन लाता हूँ दो दिन चलता है।’’
‘बच्चों को पढ़ाते हो या नहीं? फीस कैसे देते हो?’’
‘‘फीस नहीं देना पड़ता। सरकारी में हैं। खाना भी मिलता है।’’
वह मुझे हर दाँव पर पछाड़ रहा था। उसके पास जरा- सा भी गुस्सा या असंतोष नहीं था। उसे देखकर मै झुँझला रहा था। मैने पूछा – ‘‘कभी फल वगैरह खाते हो?’’ इस बार मै जानता था कि उसका उत्तर नकारात्मक होगा। वह बोला – ‘‘फल तो भाई साहब रोज ही खिलाते हैं।’’ उसने फलवाले को देखा और उसने हामी भरी। उसने कहा – ‘‘हो गया,’’ और सैंडल आगे कर दिया।
वह शांत था और मै उद्विग्न। मैने पूछा – ‘‘कितना दूँ?’’
वह बोला – ‘‘जो मर्जी।’’
मुझे लगा उसने मुझे धोबी पाट दे मारा और मै चित्त था।
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6-काँटा
बारहों महीने वे व्यस्त रहते। मै सुबह उन्हें खेत में जाते देखता और शाम को खेत से आते। कभी वे खुरपा-खुरपी, कभी हंसिया, कभी कुदाल, कभी फावड़ा आदि लेकर जाते। एक दिन मैने पूछ लिया -“कितना जोतते हैं?”
“पाँच… पाँच बीघे,” वे बोले।
“तब तो खाने की कमी नहीं होती होगी,” मैने पूछा।
“हाँ, नहीं होती,” वे बोले।
“बेचना पड़ता होगा?” मैने पूछा।
“नहीं। बेचने भर का नहीं होता,” वह सहजता से बोले।
लेकिन मैं चकित था। मैंने पूछा -“पाँच बीघे का अनाज खा जाते हैं?”
वे बोले -“अरे गल्ले पर है। खेत मेरा नहीं है।”
“आपका कितना बीघा है?”
उन्होंने ने हाथ से कुछ नहीं का इशारा किया। मैंने पूछा-“भाई-पाटीदार के पास भी नहीं होगा?”
वे बोले -“नहीं, किसी के पास नहीं है।”
“लेकिन खेती सब करते हैं…. सब किसान हैं,” मैने कहा।
वे मुस्कराए और बोले -“हाँ।”
“तब तो अनुदान-सहयता कुछ नहीं मिलता होगा?”
“कहाँ से मिलेगा? जब किसी के नाम पर एक धुर भी नहीं है।”
“दादा-परदादा से ही ऐसे…”
“हाँ। दादा-परदादा का भी खेत नहीं था।”
“लेकिन गाँव के दूसरे लोगो के पास तो पाँच-पाँच दस-दस बीघा है।”
“उन्हें भगवान ने दिया है।”
“मतलब आपको भगवान ने नहीं दिया?”
“हाँ, ऐसा ही है।”
मै उनको और खँगालने लगा। मैंने पूछा -“भगवान ने आपको क्यों नहीं दिया?”
“अब नहीं दिया तो नहीं दिया। क्यों नहीं दिया ये वही जाने,” वे मुस्कुरा कर बोले।
“अच्छा आपको लगता है कि भगवान ही सबको देता है? देता है तो भेदभाव क्यों?” मैंने उन्हे टटोला।
इस बार वे झल्लाए, “भगवान के नाम पर संतोष तो करने दीजिए…कहाँ सिर फोड़ लूँ… ।” मैं समझ गया कि कांटा बहुत गहराई में है।
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