डॉ.सरस्वती माथुर
हिंदी साहित्य में लघुकथा लेखन की सुदीर्घ परंपरा है । आज के इस दौर में जीवन की विसंगतियाँ ,मानवीय संवेदनाओं ,रिश्तों के कंपन को चित्रित करने में लघुकथा सटीक सिद्ध हुई है। अवधनारायण मुद्गगल ने इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी कि आज की लघुकथाएँ सीधे जनसामान्य की ज़िंदगी के बीच से प्रस्फुटित हुई है ।आज जब कथाएँ नए आयामों की तलाश छोड़ती जा रही हैं तो आम आदमी के नाम पर आम आदमी का जनाज़ा बनती जा रही है , ऐसे में भटकाव के उस गैप को भरने के लिए लघुकथा नये तेवर अख़्तियार करके तेज़ी से सामने आई है । ये तेवर कथ्य के भी हैं और तथ्य के भी ।लघुकथा अपने आपको ज़िंदगी के किन्हीं मूल्यों से उतना नहीं जोड़ती,जितनी सीधे जिंदगी से जोड़ती है। यही कारण है कि आकार छोटा होते हुए भी इसका प्रभाव बहुत व्यापक है।सोच के नये आयाम बदलते परिवेश के सरोकारों और जीवन में हर क्षण जो घटता ही रहता है उसका सही प्रतिनिधित्व आज की लघुकथाएँ ही कर रही हैं ।
लघुकथाओं में जीवन के विभिन्न पहलुओं के समावेश के साथ व्यंग्य में लघुकथा ने गति के अद्भुत स्तंभ गाड़े हैं ।व्यंग्य अपने आप में बेहद घातक अस्त्र है ।यदि इसका इस्तेमाल परिवेश में सही आकलन को ध्यान में रख कर किया जाये तो यह समूची क्रांति की आँधी के साथ नई समाज रचना ,नई मानसिकता और नई वैचारिकता को जन्म दें सकता है।
आज की लघुकथा को सिर्फ़ ज़िंदगी के सच और मामूली आदमी के दर्द के साथ साथ दोगली राजनैतिक व्यवस्था को भी झेलना पड़ रहा है । इसलिए आज के रचनाधर्मी लघुकथाकार के लिये ज़रूरी हो गया है कि वो झूठ का मुखौटा उतार कर सच्चाई का चेहरा दिखाए ।आज के लघुकथाकार इस दिशा में सक्रिय भी हैं।ऐसे ही दो लघुकथाकार हैं,जिनकी लघुकथाएँ आज की ज़िंदगी से ही नहीं बल्कि लघुकथा लेखन की प्रगतिशील धारा से भी जुड़ी हुई है – येवो हैं -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जिनकी लघुकथा ‘उपचार’ आज की प्रशासनिक सत्तात्मक व्यवस्था पर एक गहरी चोट है ।
यह लघुकथा ‘उपचार’आज की राजनीति की सच्चाइयों का एक खुला दस्तावेज़ है । रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी द्वारा रचित यह लघुकथा राजनीति में कुर्सी की दौड व मुखौटा ओढ़े नेताओं की ओछी मानसिकता का नक़ाब उतारती है ।इस लघुकथा की भाषा पारदर्शी और संश्लिष्ट तो है ही पर इसमें सटीक संवेदनशील दृष्टि के भी दर्शन होते हैं । यदि लघुकथा के अंत से शुरू करें तो देखिए समूचा परिदृश्य जी उठता है –‘डॉक्टरों ने राहत की साँस ली -चार लोगों ने भारी भरकम नेता जी को कुर्सी पर बिठा दिया ,उनकी चेतना लौट आई ।” यही उपचार तो आजकल हो रहा है । नेतागण चुनाव जीत जाने के बाद कोमा में चले जाते हैं और जनता की हालत उस बेताल की सी हो जाती है ,जो विक्रमादित्य के कंधे पर लटका रहता है, प्रश्न करता है और सही उतर ना मिलने पर उड़ जाता है ।
मेरी पसंद की दूसरी लघुकथा है प्रबोध गोविल जी की –‘कर्म और भाग्य’ आज के परिदृश्य को देखते हुए यह लघुकथा बहुत ही सटीक व सामयिक है । कौए का रोटी से संवाद करना तदनुरूप एक दिशाबोध कराता है ।प्रस्तुत लघुकथा को दो दृष्टियों से परखा जा सकता हैं एक कर्म के साथ मानवीयता और आत्मविश्वास और दूसरा अंहकार ,बेईमानी ,क्रोध के साथ अविश्वास -माध्यम है कौवा जो कर्म तो करता है पर अंहकार को चोंच में लिये फिरता है ।दूसरी तरफ़ भिखारी ज़रूर आत्मविश्वास बनाये रहता है कि मैने कर्म किया यदि भाग्य ने साथ दिया तो भोजन अवश्य मिलेगा । इसलिये धैर्य रखना होगा ।
हमारी लघुकथाएँ -लोकसंस्कृति और लोकपरंपराओं के विभिन्न सूत्रों को जोड़ कर जब एक मज़बूत गाँठ बनाती है तो धीरे से एक सिरा पकड़ कर जब हम गाँठ को खोलते हैं तो हमें रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ व प्रबोध गोविल जैसे लघुकथाकारो द्वारा लिखी लघुकथाएँ नज़र आती हैं, जो हमारे समाज का आइना होती हैं । समाज का जैसा चेहरा होता है वैसा ही अक्स दिखाने वाले इन दोनों मेरी पसंद के लघुकथाकारों का प्रयास सराहनीय है ।
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1-उपचार- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
नेताजी कई दिन से बीमार थे। अस्पताल में कई बड़े डाक्टर परिचर्या में लगे हुए थे दवाइयाँ भी बदल बदल कर दी जा रही थीं ।नेता जी की मूर्च्छा फिर भी न टूट पाई। चिंता बढ़ती जा रही थी । गण व्याकुल हो उठे । प्रमुख गण को एक उपाय सूझा । वह दौड़ा- दौड़ा एक दुकान पर गया ।वहाँ प्रांतीय अध्यक्ष की कुर्सी मरम्मत के लिए आई थी । वह घंटे भर के लिए कुर्सी माँग लाया ।चार लोगों ने भारी भरकम नेता जी को कुर्सी पर बिठा दिया ।उनकी चेतना लौट आई।
डॉक्टरों ने राहत की साँस ली ।
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2-कर्म और भाग्य. प्रबोध कुमार गोविल
एक जगह किसी विशाल दावत की तैयारियाँ चल रही थीं। शाम को हज़ारों मेहमान भोजन के लिए आने वाले थे। इसलिए दोपहर से ही विविध व्यंजन बन रहे थे।
पेड़ पर बैठे कौवे को और क्या चाहिए । उड़कर एक रोटी झपट लाया। रोटी गरम थी। तुरंत खा न सका, किन्तु छोड़ी भी नहीं, पैरों में दाब ली और उसके ठंडी होने का इंतज़ार करने लगा।
समय काटने के लिए कौवा रोटी से बात करने लगा। बोला–‘क्यों री,तू हमेशा गोल ही क्यों होती है?’
रोटी ने कहा–‘मुझे दुनिया के हर आदमी के पास जाना होता है न, पहिये की तरह गोल होने से यात्रा में आसानी रहती है।’
‘झूठी, तू मेरे पास कहाँ आई? मैं ही उठाकर तुझे लाया!’ कौवे ने क्रोध से कहा।
‘तुझे आदमी कौन कहता है रे?’रोटी लापरवाही से बोली।
कौवा गुस्से से काँपने लगा। उसके पैरों के थरथराने से रोटी फिसलकर पेड़ के नीचे बैठे एक भिखारी के कटोरे में जा गिरी।
वैताल ने विक्रमादित्य को यह कहानी सुनाकर कहा–‘राजन,कहते हैं कि दुनिया में भाग्य से ज़्यादा कर्म प्रबल होता है, किन्तु रोटी उस कौवे को नहीं मिली जो कर्म करके उसे लाया था, जबकि भाग्य के सहारे बैठे भिखारी को बिना प्रयास के ही मिल गई । यदि इस प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी तुमने नहीं दिया, तो तुम्हारा सिर टुकड़े–टुकड़े हो जाएगा।’
विक्रमादित्य बोला–‘भिखारी केवल भाग्य के भरोसे नहीं था, वह भी परिश्रम करके दावत के स्थान पर आया था और धैर्यपूर्वक शाम की प्रतीक्षा कर रहा था। उार कौवे ने कर्म ज़रूर किया था पर कर्म के साथ–साथ सभी दुर्गुण उसमें थे–क्रोध, अहंकार, बेईमानी। ऐसे में रोटी ने उसका साथ छोड़ कर ठीक ही किया।’
वैताल ने ऊबकर कहा–‘राजन, तुम्हारा मौन भंग हो गया है,इसलिए मुझे जाना होगा, लेकिन यह सिलसिला अब किसी तरह ख़त्म करो, जंगल और पेड़ रोज़ कट रहे हैं, मैं भला वहाँ कब तक रह सकूँगा?’
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