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मधुदीप की लघुकथाओं में प्रयोगधर्मी प्रवृत्तियाँ

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सामान्यतः साहित्य में स्थापित परम्पराओं को लाँघकर किया गया सोद्देश्य सृजन-कर्म प्रयोगधर्मी साहित्य की श्रेणी में आता है। यहाँ स्थापित परम्परा से आशय विधागत स्थापनाओं और मानकों की रूढ़ स्वीकार्यता से है। स्थापित परम्पराएँ साहित्य के सभी संभागों- भाषा-शैली, विषय-वस्तु, कथ्य, रूपाकार, प्रस्तुतीकरण, वैचारिक धारणाओं, अनुभूतियों की प्रकृति, संप्रेषण की गति, तकनीक एवं अन्य प्रवृत्तियों में होती हैं। यहाँ तक कि विधागत अभिधारणाओं में भी कुछ स्थापित परम्पराएँ होती हैं। प्रयोगधर्मी साहित्यकार न केवल इन्हें लाँघता है अपितु इनकी अनुशासनगत सीमाओं का विस्तार करता है। साहित्य के किसी एक या एकाधिक संभाग की नव्यताएँ नयी स्थापनाओं और नये मानकों का आधार बनती हैं और एक तरह से समकालीनता के सन्दर्भ को भी अद्यतन करती हुई रचनात्मक प्रभाव का कारण बनती हैं। साहित्य में सामान्यतः बड़े परिवर्तनों और नयी विधाओं के उद्भव में प्रयोगधर्मिता की महवपूर्ण भूमिका होती है। साहित्य को प्रवाहमान बनाये रखने के लिए निरंतर प्रयोग आवश्यक होते हैं।

हिन्दी में समकालीन लघुकथा के उद्भव के पीछे अन्यान्य कारणों के साथ एक प्रेरक तत्त्व के रूप में प्रयोगधर्मिता की सक्रियता भी रही है। व्यापक दृष्टि से मुझे तो ‘समकालीन लघुकथा’ की संकल्पना ही एक प्रयोग जैसी दिखाई देती है; किन्तु बीसवीं सदी के अंत, अपितु इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त तक लघुकथा के रूपाकार के साथ उसके अन्य संभागों में भी लगभग सुनिश्चित-सी परम्पराएँ स्थापित हो गई दिखाई देती हैं। कुछ लघुकथाकारों द्वारा गतिशीलता बनाए रखने के प्रयासों के बावजूद सामान्य रूप में लघुकथा एक दायरे में सिमट गई  दिखाई देती है। ऐसे में 2010 के बाद सोशल मीडिया के साथ कुछ अन्य सक्रियताओं का लघुकथा को आगे ले जाने की छटपटाहट दर्शाना बेहद महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इन तमाम प्रयासों को तीन श्रेणियों में विभाजित करके देखा जा सकता है- पहला- इण्टरनेट पर लघुकथा विषयक विविध मंचों द्वारा कार्य, दूसरा- लघुपत्रिकाओं द्वारा लघुकथा पर फोकस व संकलनों-संग्रहों के साथ समीक्षा-समालोचनात्मक पुस्तकों का प्रकाशन और तीसरा- पड़ाव और पड़ताल शृंखला का प्रकाशन। ‘पड़ाव और पड़ताल’ शृंखला के माध्यम से इसके संयोजक और अधिकांश खण्डों के संपादक श्री मधुदीप जी ने एक नए तरह का कार्य किया। एक ओर उन्होंने प्रभावशाली और समकालीनता को आगे बढ़ाने वाली लघुकथाओं का चयन प्रस्तुत किया, दूसरी ओर उन्होंने समालोचना का वातावरण बनाया। इसके महत्वपूर्ण परिणाम सामने आये- लघुकथाओं के साथ उनके समीक्षात्मक-समालोचनात्मक तथ्य एक साथ सामने होने से नये लघुकथाकारों में श्रेष्ठ लघुकथाओं की समझ विकसित हुई, एक प्रतिष्ठित अवसर की उपलब्धता से उनमें प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा हुई, साथ ही कुछ प्रतिबद्ध लघुकथा समालोचकों की पहचान हुई। इस प्रकार मधुदीप जी ने एक अलग तरह से लघुकथा जगत को ऊर्जावान बनाने का प्रयास किया। उनका यह सम्पूर्ण कार्य निसन्देह लघुकथा में एक बड़े प्रयोग जैसा है और मधुदीप जी के अन्दर विद्यमान प्रयोगधर्मी प्रवृत्ति का प्रमाण भी। शायद उनकी यह प्रयोगधर्मिता ही उन्हें लघुकथा सृजन में एक विशिष्ट ऊर्जा के प्रयोग की ओर भी खींचकर ले गई  और एक बड़ी संख्या में प्रयोगधर्मी लघुकथाओं का सृजन उनकी कलम से कराने में सफल रही।

मोटे तौर पर जब मधुदीप जी की प्रयोगधर्मी लघुकथाओं की बात सामने आती है तो उनकी अनेक लघुकथाएँ विषय वस्तु, पात्रों और कथ्यों में विद्यमान ऊर्जा के आधार पर प्रयोगधर्मी प्रवृत्तियों से युक्त प्रतीत होती हैं। किन्तु मधुदीप जी की अनेक लघुकथाओं में ऊर्जा और प्रभाव का एक विशेष स्तर दिखाई देता है, जो सामान्यतः अन्य लेखकों की लघुकथा में दिखाई नहीं देता, क्या उसे भी ‘प्रयोग’ माना जाना चाहिए? यद्यपि इस प्रश्न का उत्तर बहुत सहज प्रतीत नहीं होता, तदापि रचना में अर्न्तनिहित ऊर्जा और प्रभाव का विशेष स्तर रचना और उसकी मूल्यवत्ता को कोई विशिष्ट दिशा प्रदान करने में या किसी रुढ़ि को तोड़ने में सक्षम होता है तो निश्चित रूप से ऊर्जा और प्रभाव के उस विशेष स्तर को एक प्रयोग के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए और रचना को प्रयोगधर्मी माना जाना चाहिए। इस दृष्टि से मधुदीप जी की अनेक लघुकथाओं में विद्यमान उनकी प्रयोगधर्मी दृष्टि लघुकथा को नये आयामों की ओर ले जाती है। एकतंत्र, किस्सा इतना ही है, पिंजरे में टाइगर, विषपायी, सन्नाटों का प्रकाश पर्व, नमिता सिंह, समय का पहिया घूम रहा है, वानप्रस्थ, ऑल आउट, असमंजस, विकल्प, डायरी का एक पन्ना, धर्म, महानायक, समय बहुत बेरहम होता है, हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ, अबाउट टर्न, नजदीक, बहुत नजदीक, हड़कंप, पत्नी मुस्कुरा रही है, मेड इन चाइना, आलू के दाम, अन्तरात्मा, महानगर का प्रेम-संवाद, चैटकथा एवं कई अन्य लघुकथाओं में प्रयोगधर्मी तत्त्व आसानी से मिल जायेंगे। मसालेदार भोजन की तीखी गंध, उजबक की कदमताल, चिड़िया की आँख कहीं और थी, तुम बहरे क्यों हो गये हो, आदि जैसी कई लघुकथाओं के शीर्षक भी प्रयोग जैसे दिखाई देते हैं।

     मधुदीप जी की लघुकथाओं में स्थित प्रयोगधर्मी प्रवृत्तियों की पहचान करने के लिए यहाँ हम उनकी कुछ प्रमुख लघुकथाओं पर दृष्टि डालते हैं।

खंडित जनादेश पर केन्द्रित लघुकथा ‘एकतंत्र’ एक उत्कृष्ट प्रयोगधर्मी रचना है। इसमें प्रयुक्त सटीक प्रतीक एक ओर राजनैतिक दलों और उनकी विचारधाराओं को प्रतिबिम्बित करते हैं तो दूसरी ओर उनकी आकांक्षाओं और क्षमताओं को। इस प्रतीकात्मकता को समेटे काव्यात्मक शैली, शब्दचित्रात्मक भाषा और भावों- तीनों का संयुक्त प्रवाह बहुत सहजता, स्वाभाविकता  और प्रभावपूर्ण ढंग से साथ कथा को आगे बढ़ाता है। कथा का परिवेश चुनावी वातावरण का सटीक बिम्ब प्रस्तुत कर रहा है। झण्डे राजनैतिक दलों और रंग उनकी विचारधाराओं के प्रतीक हैं। जनता को इनमें से न तो कोई एक झण्डा स्वीकार्य है, न ही कोई एक रंग! किन्तु जनता का यह निर्णय बूढ़े लोकतंत्र की चिन्ता का कारण बन जाता है। वह देख रहा है कि सारे रंग मिलकर किस तरह स्याह काले रंग के द्वारा सोख लिये जा रहे हैं। सपष्टतः खण्डित जनादेश भ्रष्टतंत्र को जन्म देता है, जो लोकतंत्र की आँखों की रोशनी छीन लेता है। इस लघुकथा में एक ओर ऊर्जा के विशिष्टीकरण का प्रयोग है, जिसके माध्यम से लोकतंत्र का संचालन करने वाली तमाम राजनैतिक शक्तियों को एक बिन्दु में समेटकर एक काले धब्बे में रूपायित करके लोकतंत्र को भ्रष्टतंत्र के ब्लैकहोल में समाता दर्शाया गया है। वास्तविकता यह है कि लोकतंत्र में जनता राजनैतिक शक्तियों के हाथों का खिलौना बनकर जब खाँचों में बँट जाती है तो लोकतंत्र का स्वस्थ रह पाना संभव नहीं रहता। इस लघुकथा में दूसरा प्रयोग जटिल स्थिति को परिवेश प्रधान कथावस्तु के रूप में निर्वाध कथा में सहज सलीके से प्रस्तुत करने का है, जो आसान कार्य नहीं था। तीसरा प्रयोग काव्यात्मक शैली एवं शब्दचित्रात्मक भाषा के माध्यम से एक उबाऊ और नीरस संदर्भ को रुचिकर कथा में परिवर्तित कर पाने की शक्ति का है। कथा को शीर्षक पर निर्भर किये बिना शीर्षक को बहुत आकर्षक और प्रभावोत्पादक बनाने में सफलता मिली है।

‘किस्सा इतना ही है’ यूँ तो एक सामान्य लघुकथा है, जिसमें सड़क दुर्घटना में घायल की मदद करने में आने वाली परेशानियों से रू-ब-रू होते व्यक्ति की व्यथा का शब्दचित्र लघुकथा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। किन्तु इसमें एक ही व्यक्ति सूत्रधार, लेखक और मुख्य पात्र तीन भूमिकाएँ एक साथ निभाता दिखाई देता है और वह स्वयं को पाठकों से कनेक्ट करने का अद्भुत प्रयास करता है। यह प्रयोग एक सामान्य लघुकथा में पाठक को उसकी रुचि के साथ खींच लाता है। पहले पैराग्राफ में जो सूत्रधार है, दूसरे पैराग्राफ में वही लेखक में बदल जाता है और तीसरे पैराग्राफ में वह कथा के मुख्य पात्र की भूमिका में दिखाई देता है। आखिरी दो पैराग्राफों में लेखक और मुख्य पात्र एक-दूसरें में आत्मसात् होते दिखाई देते हैं। इन सब स्थितियों के बावजूद कथा बहुत सहज रूप में अपनी यात्रा तय करती है। इस तरह की प्रयोगधर्मी दृष्टि मधुदीप जी की कुछ और लघुकथाओं में भी दिखाई देती है।

माना जाता है कि ‘पिंजरे में टाइगर’ लघुकथा मधुदीप जी ने फिल्म स्टार मिथुन चक्रवर्ती को ध्यान में रखकर लिखी है। मुझे लगता है कि यह लघुकथा भले मिथुन चक्रवर्ती के जीवन से प्रेरित हो, किन्तु है एक प्रयोग; जिसमें एक नक्सली के प्राकृतिक जीवन का उपयोग फिल्म में करने करने की प्रक्रिया को सोद्देश्य दर्शाया गया है। रचनात्मक उद्देश्य नक्सली और समरूप समस्याओं के रोचक हल की ओर ले जाना हो सकता है। मेरी दृष्टि में यह एक रचनात्मक विचार का प्रयोग है। दूसरी बात, यह एक कहानी के प्लॉट पर रची गई  लघुकथा है किन्तु कहीं से भी लघुकथा की विधागत कसौटी का उल्लंघन करती प्रतीत नहीं होती। दूसरे शब्दों में यह एक विधा के प्लॉट पर दूसरी विधा के सृजन का प्रयोग भी है। इस तरह के प्रयोग कुछ भयावह समस्याओं के समाधानों की ओर संकेत करते हैं।

‘विषपायी’ की जुबैदा के माध्यम से अंतर्धर्मीय प्रेम में निडरता, साहस, दूरदर्शिता और निर्णय क्षमता का जो सम्मिलन प्रस्तुत किया गया है, वह असाधारण होने के कारण एक वैचारिक प्रयोग जैसा है। यह प्रयोग ही इस लघुकथा को स्मरणीय बनाता है। जुबैदा का निर्णय सटीक और साहसिक होने के साथ कितने आत्मविश्वास और तीव्रता से लिया गया है, इसे उसके तेजी से उठने और मजबूत कदमों से दरवाजे से बाहर निकल जाने में प्रतिबिम्बित होता देखा जा सकता है, जिसमें एक प्रकार की विशिष्ट ऊर्जा का समावेश भी देखा जा सकता है। उसकी निडरता उसकी प्रेम-स्वीकारोक्ति में झलकती है। निखिल और उसके पिता रामचन्द्र के संवादों में निहित वैचारिकता भी कथा में किए गये प्रयोग को प्रभावी बनाते हैं।

मध्यम वर्ग के बुजुर्गों के जीवन में अकेलेपन का दंश अपनी जड़ें जमाता जा रहा है। बच्चे प्रायः विदेशों या दूरस्थ शहरों में जा बसते हैं या फिर अपनी व्यस्तताओं में डूबे रहते हैं, पति-पत्नी दोनों में से किसी एक के चल बसने के बाद दूसरे के जीवन में अकेलापन  दुःख, नीरसता, ऊब और अवसाद का कारण बन जाता है। सामान्यतः लघुकथाओं में ऐसे कई दृश्यों और उनसे जनित कथ्यों से हम रू-ब-रू होते हैं। एक लेखक, विशेषतः लघुकथाकार के लिए अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि वह जीवन को स्थिरता एवं निराशा से बाहर निकालने वाले नये-नये सकारात्मक कथ्य प्रस्तुत करते हुए जीवन को प्रवाहमान बनाये रखने वाले विचारों का संचार करे। ‘सन्नाटों का प्रकाश पर्व’ में मधुदीप जी ने यही किया है। वास्तविकता यह है कि उनकी दृष्टि ऊर्जा का ऐसा स्रोत है, जो सदैव विशिष्टीकरण और वैचारिक नव्यता की ओर गतिमान रहती है।

प्रयोगधर्मिता की दृष्टि से मधुदीप जी की लघुकथा ‘नमिता सिंह’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस लघुकथा में कई तरह के प्रयोग हैं। पहला प्रयोग एक फिल्मी गीत के मुखड़े का दो जगह उपयोग करना है। दूसरा प्रयोग इसी फिल्मी गीत के मुखड़े के उपयोग से शिल्प में किया गया है- कुण्डलिया छन्द की तरह इस लघुकथा का आरम्भ गीत के जिस मुखड़ेे हुआ है, लघुकथा का अन्त भी उसी मुखड़े से हुआ है। इन दोनों प्रयोगों को सौंदर्यबोधक माना जा सकता है। तीसरी स्थिति इस लघुकथा के अन्दर यह है कि यदि पहले और अंतिम पैराग्राफ, जिनमें फिल्मी गीत के मुखड़े का उपयोग किया गया है, को लघुकथा से हटा दिया जाये तो भी लघुकथा अपने अस्तित्व में पूर्ण दिखाई देती है। ऐसे में उन दोनों पैराग्राफों की आवश्यकता क्या है, यह प्रश्न हमें कुछ आगे जाने के लिए विवश करता है। इस लघुकथा में प्रयोगधर्मी प्रवृत्ति का वास्तविक रूप इसी में निहित है।

फिल्मी गीत का मुखड़ा पहले पैराग्राफ के आरम्भ में तो अन्तिम पैराग्राफ के अन्त में है। गीत के मुखड़े का उपयोग एक ही पात्र के सन्दर्भ में किया गया है और पाठकों को संबोधित है। मुख्य पात्र से जोड़कर देखते हुए उसके व्यक्तित्व को जैसे चाहे समझने का या तो दायित्व पाठकों पर छोड़ दिया गया है या फिर उन्हें अधिकार दिया गया है। अन्तर केवल इतना है कि पहले पैराग्राफ में लेखक अपनी उपस्थित के दौरान फिल्मी गीत के मुखड़े के माध्यम से मुख्य पात्र की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करके उसके व्यक्तित्व के बारे में कोई राय बनाने से पहले आगे की कथा पढ़ या सुन लेने का आग्रह करता है। अन्तिम पैराग्राफ में लेखक पुनः पाठकों से मुखातिब होकर फिल्मी गीत के उसी मुखड़े को दोहराता हुआ उनसे जो चाहें अपनी राय बनाने का संकेत कर अपनी बात को विराम देता है। लेकिन यहाँ पर लेखक की दृष्टि में व्यंग्यात्मक इठलाहट है। उसकी दृष्टि में व्यंग्यात्मक इठलाहट उस आत्मविश्वास की प्रतीक है, जो कथा की मुख्य पात्र नमिता सिंह के जीवन से जुड़ी घटनाओं से उभरती उसकी साहसिकता से ऊर्जावान होता है। इस प्रकार रचना के प्रभाव का तीव्र संप्रेषण भी संभव होता है।

पहले पैराग्राफ में मुखड़े का प्रयोग लोगों की उस मानसिक प्रवृत्ति को सम्बोधित करने की दृष्टि से किया गया है, जो सिनेमाघरों में सुन्दर और आधुनिकतम ड्रैसकोड का अनुसरण करती अभिनेत्रियों पर फिल्माये जाने वाले रोमांटिक गानों पर सीटियाँ बजाने लग जाते हैं या फिर उन गानों के मुखड़ों को सतही या द्विअर्थी मनोरंजक जुमलों के रूप में उछालने लग जाते हैं। इस सतही जुमलेबाज मानसिकता को सम्बोधित करते लेखक के मन में कहीं न कहीं साहसिकता (बोल्डनैस) के नाम पर महिलाओं में अंग प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति और उससे जनित मनोरंजक परिवेश का खाका भी घूम रहा है। इसीलिए वह पाठकों से आग्रह करता है कि उनकी रचना की प्रमुख पात्र, जो संभवतः अपने नौकरीपेशा परिवेश से सामंजस्य बैठाते हुए भी अपने स्वाभिमान-सम्मान के प्रति न तो लापरवाह है और न ही साहसिकता के किसी इतर अर्थ के व्यामोह की शिकार, के बारे में कोई धारणा बनाने से पहले उसके जीवन की एक ही दिन में घटित तीनों घटनाओं पर विचार अवश्य कर लें। यद्यपि यहाँ लेखक ने उसकी वेश-भूषा और लुक के बारे में स्पष्ट शब्दों में कुछ भी खोला नहीं है तदापि नेपथ्य से झाँकती स्थितियों से जो संकेत विकीर्णित हो रहे हैं, उनसे यही प्रतीत होता है कि नमिता सिंह साहसिकता (बोल्डनैस) के वास्तविक अर्थ को भली भाँति समझती है। स्पष्ट है कि लेखक का यह आग्रह अकारण नहीं है। वह जानता है कि उसके पात्र में निहित चरित्र समस्या के मूल पर चोट करने और उसके निदान का प्रभावपूर्ण संकेत देने में सक्षम है, जो अन्ततः सतही जुमलेबाज मानसिकता में बदलाव का प्रेरक हो सकता है। इस प्रकार रचना की प्रभावशीलता को बढ़ाने में उसका संगत योगदान है।

अंतिम पैराग्राफ के अंत में जब लेखक पुनः इस मुखड़े को दोहराता है तो वह नमिता सिंह के सम्पूर्ण सामाजिक सौंदर्यबोद्ध के सन्दर्भ में पात्र-पाठक रिश्ते में बदलाव के विश्वास से परिपूर्ण होकर खड़ा दिखाई देता है। निश्चित रूप से यहाँ नमिता सिंह के सम्पूर्ण सामाजिक सौंदर्यबोद्ध में एक समर्थ, आत्मसम्मान की भावना से परिपूर्ण सामाजिक सरोकारों से लब्ध चरित्र का समावेश प्रदर्शित हो चुका है, जिसे कोई भी सामाजिक जीवन मूल्यों में विश्वास करने वाला व्यक्ति नकार नहीं सकता। यहाँ लेखक का आत्मविश्वासी सम्बोधन, जो उसकी व्यंग्यात्मक इठलाहट में झलकता है, भी इसी कारण है। उसे पता है कि उसने पहले पैराग्राफ में पाठकों से जो आग्रह किया था, वह व्यर्थ नहीं गया है।

इन पैराग्राफों में एक शैलीगत प्रयोग भी दिखाई देता है। रचना के मध्य भाग की तरह इन दोनों संदर्भित पैराग्राफों में भी लेखक मौजूद है। सूक्ष्मता से देखें तो इन दोनों पैराग्राफों में वह शेष लघुकथा में उपस्थिति से भिन्न तरह से उपस्थित है। शेष लघुकथा, जो स्वयं में पूर्ण रचना दिखाई देती है, में लेखक नरेटर के रूप में उपस्थित है। जबकि इन दोनों पैराग्राफों में वह पाठकों को सम्बोधित करने के उद्देश्य से सामने आता है। उसकी यह उपस्थिति उस एन्कर जैसी है, जो किसी ऐसे कार्यक्रम या रिपोर्ट को प्रस्तुत कर रहा है, जिसमें कोई नरेटर या रिपोर्टर पहले से मौजूद हो। लघुकथा के इन दोनों पैराग्राफों में लेखक का यह ऐसा प्रयोग है, जिसका उद्देश्य लघुकथा के प्रभाव को समझने के लिए पाठकों को सम्बोधित (एड्रैस) करना प्रतीत होता है। चूँकि यह हस्तक्षेप जैसा न होकर रचना के अभिन्न अंग की तरह है तथा लेखक अपने लिए स्पेस बनाकर उपस्थित हुआ है, इसलिए अनुचित प्रतीत नहीं होता।

लघुकथा ‘समय का पहिया घूम रहा है’ भी महत्वपूर्ण प्रयोगधर्मी लघुकथा है। यद्यपि कुछ लोगों ने इसे विवादित बताने का प्रयास किया है किन्तु वैसी टिप्पणियों को मैं लघुकथा को ठीक से समझे बिना निर्णय देने जैसा कहूँगा। मोटे तौर पर देखने में यह लघुकथा एक एकांकी जैसी दिखाई देती है किन्तु एकांकी के कुछ टूल्स के उपयोग के माध्यम से इसे एक प्रयोग तो माना जा सकता है, एकांकी नहीं। इस लघुकथा में मुख्य कथा को एकांकी के पैटर्न पर चार भागों में बाँटा गया है। प्रत्येक भाग में मंच और पर्दे को परिवेश में शामिल करते हुए कथात्मक संवादों के माध्यम से कथा के चारों भागों को एक अंतःसूत्र में पिरोया गया है। इस प्रकार एकांकी के टूल्स के प्रयोग के बावजूद यह एकांकी नहीं है। इस प्रयोग के माध्यम से लघुकथा में कालांतर की समस्या का एक सहज हल प्रस्तुत किया गया है। लगभग पौने चार सौ वर्षों के कालखण्ड को इस लघुकथा में समेटकर एक ऐतिहासिक क्षण (घटना यानी गुलामी) के दोहराव की संभावना व्यक्त की गई  है। यद्यपि लघुकथा के इस वैचारिक दृष्टिकोंण से लोकतांत्रिक राष्ट्र की सार्वभौमिकता में निहित शक्तियों के दृष्टिगत असहमति का आधार हो सकता है तदापि एक नये शिल्प और तकनीक के रूप में इस लघुकथा और इसमें किए गये प्रयोग के लिए मधुदीप जी की सराहना होनी ही चाहिए।

लघुकथा ‘वानप्रस्थ’ में वैचारिक प्रयोग है। सामान्य जीवन में प्रायः बुजुर्ग अपनी बढ़ती आयु एवं गिरते स्वास्थ्य के बावजूद घर-परिवार और व्यवसाय पर से अपना नियंत्रण नहीं छोड़ना चाहते। हमारे राजनैतिक तंत्र में तो स्थिति और भी खराब है। इसके पीछे स्वार्थ और लालच के साथ असुरक्षा की भावना भी हो सकती है। इस लघुकथा में प्राचीन भारतीय परम्परा में विद्यमान ‘वानप्रस्थ’ के प्रयोग के माध्यम से एक संदेश देने का सार्थक प्रयास किया गया है। अपनी जिम्मेवारियों को पूरा करके बुजुर्गों को अपने उत्तराधिकारियों पर विश्वास करके उन्हें सर्वस्व सौंपकर अपना जीवन अपनी तरह से जीना चाहिए। यद्यपि यह तभी संभव है, जब व्यक्ति को अपने जीवन को इस प्रकार प्रबन्धित करे कि अपनी जिम्मेवारियों के निर्वहन के साथ अपने बुढ़ापे को भी स्वतंत्र रूप से जीने के लिए आवश्यक अर्थ प्रबंध कर सके और असुरक्षा की भावना से मुक्त होकर स्वयं के लिए कोई बड़ा निर्णय ले सके। कुछ मित्रों को यह दृष्टिगत प्रयोग पारिवारिक-सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति विद्रोह जैसा लग सकता है किन्तु वास्तव में यह नयी पीढ़ियों की निर्णय क्षमता में विश्वास और उनके स्वतंत्र जीवन-व्यापार के लिए निर्वाध रास्ता देने जैसा है।

लघुकथा ‘ऑल आउट’ में एक ओर समान्तर गतिविधियों जैसा प्रयोग है। दूसरी ओर स्त्री-पुरुष के मध्य समानता के सन्दर्भ में जीवन में आ रहे परिवर्तनों के प्रति पुरुष के अस्वीकार के परिणाम की तुलना क्रिकेट टीम के ऑल आउट से करना भी एक प्रकार की शैलीगत नव्यता के प्रयोग जैसा है। जब पति-पत्नी दोनों कामकाजी हों तो पत्नी के साथ पति का घरेलू कार्यों में सहयोग आवश्यक हो जाता है। लघुकथा ‘ऑल आउट’ में पति इस स्थिति को समझना नहीं चाहता जबकि पत्नी हर हाल में समझा देना चाहती है। पुरुष का अपने अन्दर बंद होने लग जाना उसके अन्दर एक प्रकार की निराशा का प्रतीक अवश्य है किन्तु यह निराशा समस्या का समाधान नहीं है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में आ रहे परिवर्तनों को अस्वीकार करके पुरुष जीवन की मूल्यवत्ता से आउट ही होगा।

मधुदीप जी कभी सूत्रधार के रूप में, कभी एक पात्र के रूप में तो कभी सीधे लेखक के रूप में प्रायः अपनी लघुकथाओं में घुस जाते हैं। संभव है कुछ मित्रों को यह ‘लेखकीय प्रवेश (हस्तक्षेप)’ जैसा लगता हो किन्तु वास्तव में यह उनकी प्रयोगधर्मिता है। मैं समझता हूँ लेखकीय प्रवेश तब होता है जब सूत्रधार या किसी अन्य रूप में लेखक कथा में ऐसे तथ्यों को उद्घाटित करता है, जिनके उद्घाटित होने की कोई प्रामाणिक संभावना कथावस्तु में दिखाई नहीं देती या ‘सूत्रधार या संबंधित पात्र को इस तथ्य की जानकारी कैसे हुई’ जैसा प्रश्न खड़ा हो जाता है या फिर तकनीकी तौर पर उद्घाटित तथ्य की सहज प्रासंगिकता प्रश्नांकित होती है। मधुदीप जी अपने प्रयोगों में विभिन्न प्रकार से अपनी उपस्थिति के लिए स्पेस बनाते हैं और अपनी प्रासंगिक सक्रियता दर्शाते हैं। ऐसे में वह एक प्रत्यक्ष या छाया पात्र की तरह अपनी उपस्थिति को प्रायः न्यायसंगत सिद्ध करने में सफल हो जाते हैं, यहाँ तक कि एकाधिक रूपों का निर्वाह करते हुए भी। ‘असमंजस’ लघुकथा में भी उनकी उपस्थिति एक प्रयोग जैसी ही है। इस लघुकथा में मधुदीप जी का लेखक ‘मैं’ पात्र के साथ आत्मसात हो जाता है और इसी रूप में मित्र पात्र अनिल, जो कथा का मुख्य पात्र है, के समस्यागत प्रश्नों पर जवाब से स्वयं बचकर पाठकों को रू-ब-रू कर देता है। यह ‘बचना’ कथा की रचना प्रक्रिया का हिस्सा है। इस प्रक्रिया में लेखक अपने लिए स्पेस बनाता है। प्रश्नों से पाठकों को रू-ब-रू करने की वास्तविकता यह है कि उन प्रश्नों के जवाब पाठकों के पास भी नहीं हैं। हम सब अनुत्तरित प्रश्नों से घिरे हुए हैं। इस प्रकार वे प्रश्न और उनका पाठकों के समक्ष रखा जाना स्वयं में एक प्रयोग है, जो परिस्थितियों से रचनात्मक चिंतन की मुठभेड़ कराता है और संप्रेषण को सहज बनाता है।

स्वयं को या अपने पात्रों को पाटकों से कनेक्ट करके लघुकथा कहने की मधुदीप जी की अपनी तकनीक है। कई लघुकथाओं में यह प्रयोग किया है। ‘विकल्प’ लघुकथा में भी ‘मैं’ पात्र को पाठकों से कनेक्ट करके उसकी समस्या को उनसे साझा करने का प्रयोग किया गया है। इस प्रयोग के माध्यम से समस्या का सामान्यीकरण किया गया है और रचना में लेखक-पाठक रिश्ते में निकटता और अपनापन पैदा करके पाठकों की रुचि को जगाने और संप्रेषण को सहज-सरल बनाने का प्रयास भी शामिल है। इस कथा में पाठकों से बार-बार रू-ब-रू होने से रचना के प्रभाव में वृद्धि और किस्सागोई में नव्यता भी झलकती है।

कथा साहित्य में वास्स्तविक तथ्यों की प्रस्तुति को स्वीकृति देने से बचा जाता है किन्तु मधुदीप जी ऐसी परम्पराओं को अपनी ऊर्जा और धारणा दोनों से ही तोड़ने में सक्रिय रहते हैं। कोई विरोध करेगा या समर्थन- इसकी चिंता वह नहीं करते। ‘डायरी का एक पन्ना’ लघुकथा में डायरी के प्रयोग के साथ पाठकों से कनेक्ट करते हुए वह तथ्यों को वास्तवित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। अपने संकल्प से जीवन की नीरसता और स्थिरता को तोड़ने का प्रयास करते ‘मैं’ पात्र के रूप में वे स्वयं ही दिखाई देते हैं। लघुकथा के अंत में कथा का प्रमुख पात्र यानी ‘मैं’ जिस पुस्तक की तीस लघुकथाएँ पढ़ लेने की चर्चा करता है, उसका नाम (पीले पंखों वाली तितलियाँ) वास्तविक दुनियाँ से लिया गया है। उनके इस प्रयोगधर्मी सृजन में तथ्यों के वास्तविक दुनियाँ के समीप होने के बावजूद कथा अपने कथागुणों से भटकती नहीं है। यह मधुदीप जी की कथाधर्म में निपुणता का प्रमाण है।

‘धर्म’ लघुकथा में शिल्पगत और वैचारिक- दोनों तरह के प्रयोग हैं। कई जगह काव्यात्मक विशेषताओं का प्रयोग है, जैसे तुकान्तबोधक और लयात्मक भाव प्रवाह। कथा का आरम्भ ‘यह एक खुशनुमा सुबह थी।’ और अन्त ‘यह एक खौफनाक रात थी।’ वाक्य से होता है। यह भावात्मक तुकान्त है। कई अन्य स्थानों पर काउन्टर पार्ट जैसी स्थितियों का प्रयोग भी सौदर्यबोध के साथ रचना के प्रभाव को भी बढ़ाता है। कथा का प्रमुख पात्र ‘वह’ धर्म निरपेक्ष आमजन है। किन्तु सभी प्रमुख धर्मों के प्रतिनिधि अपने-अपने धर्म के लिए उसका उपयोग करना चाहते हैं। वह इससे बहुत परेशान होता है। जब बात उसकी सहनशीलता से बाहर हो जाती है तो वह एक-एक करके सभी धर्मों को क्रमशः जीवन के विभिन्न पड़ावों पर त्याग देता है। इससे उसे सुकून मिलता है। अन्ततः जब वह अपनी खुशियों में डूबकर निश्चिंत जीवन व्यतीत कर रहा होता है, उसे पता चलता है कि उसके शहर के विभिन्न हिस्से सांप्रदायिकता की आग में जल रहे हैं। वह स्वयं को जिस साम्प्रदायिक सोच से मुक्त करने में सफल रहा, शहर और समाज को उसकी गिरफ्त में आने से नहीं रोक सका। उसे भय है कि कहीं इस सांप्रदायिकता की आग में वह और उसका परिवार भी न झुलस जाये। हमारे समाज में धार्मिक उन्माद की प्रतिक्रिया इतनी तीव्र होती है कि आमजन उससे विलग रहकर भी उसकी आग में झुलसने से स्वयं को बचा नहीं पाता। वह जब भी खुश होना चाहता है, उन्मादजनित भयाक्रान्तता उसे डराने लगती है। एक जटिल विषय की उलझी लटों में एक सहज-सटीक और सामयिक कथ्य का प्रयोग प्रभावित करने वाला है।

‘महानायक’ लघुकथा देखने में बहुत सामान्य-सी कथा है किन्तु इसके कथ्य में एक विशेष चिन्तन-दृष्टि है, जिसे एक प्रयोग के रूप में देखा जा सकता है। बेशक यह कथा अमिताभ बच्चन के जीवन से प्रेरित जैसी लगती है, किन्तु इसके केन्द्र में अभिनय की दुनियाँ की एक सामान्य समस्या है। अभिनय की दुनियाँ में एक निश्चित आयु के बाद नायक की भूमिका का मिलना संभव नहीं रह जाता। समस्या यह है कि उस निश्चित आयु के बाद नायक के रूप में प्रतिष्ठित अभिनेता क्या करे? इस समस्या का कारण यह है कि अभिनय की दुनियाँ में ‘अभिनय’ से अधिक ‘भूमिका’ को प्रतिष्ठा से जोड़ा जाता है। एक अभिनेता का अभिनय श्रेष्ठ हो और उसका आत्मविश्वास ऊर्जा से परिपूर्ण हो तो वह किसी भी भूमिका में दूसरों पर भारी पड़ सकता है। मैंने देखा है कि जब संघर्ष और विमर्श अपेक्षाओं की पीठ पर सवार होकर आगे बढ़ते हैं तो किसी न किसी बिन्दु पर पछाड़ खाकर गिर पड़ते हैं, वहीं आत्मविश्वास से भरी आस्थाओं के साथ किये गये संघर्ष और विमर्श अपना रास्ता निर्वाध तय करते हैं। अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता इसी रास्ते बुढ़ापे में भी महानायक बन जाते हैं, जिसके बारे में दूसरे अभिनेता सोचते भी नहीं। यही इस कथा की कथ्यगत सोच की नव्यता भी है और सार्थकता भी।

लघुकथा ‘समय बहुत बेरहम होता है’ में पाठकों से कनेक्ट करने की अपनी शैली का प्रयोग एक लम्बे कालान्तर को बहुत सहजता से लाँघ जाने के लिए किया गया है। ‘‘तो आइये पाठको! अब हम चालीस वर्ष के अतीत से वर्तमान में लौट आएँ।’’ वाक्य न भी लिखे गये होते तो भी लघुकथा की पूर्णता तो अक्षुण्य रहती किन्तु कालान्तर की खाई अवश्य दिखती रहती। इन वाक्यों के प्रयोग से कालान्तर पर एक ऐसा पुल बन गया है, जिससे होकर बिना किसी बाधा के इधर से उधर आना-जाना संभव है। इस कथा का आरम्भ और अन्त भी पाठकों से कनेक्ट करने के अन्दाज में किया गया है, जो नया-सा प्रतीत होता है।

‘हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ’ लघुकथा में एक टी.वी. विज्ञापन का संवाद ही प्रयोग जैसा नहीं है, पूरी विषय-वस्तु ही प्रयोग जैसी है। इस तरह के विषय, इस तरह की शब्दावली और ऐसे कथ्य को लेकर शायद ही कोई लघुकथा रची गई  हो। यदि कहा जाये कि एक कविता की आत्मा को लघुकथा के शरीर में स्थापित किया गया है तो गलत नहीं होगा। ‘‘मैं जिन्दगी से खुलकर बातें करना चाहता हूँ। सिर्फ बातें करना ही नहीं चाहता, जिन्दगी से अपनी बातें मनवाना भी चाहता हूँ।’’ यह कोई साधारण बात नहीं है। जिन्दगी जीते हुए व्यक्ति घर-परिवार, समाज के लिए जीते हुए स्वयं के लिए जीने का अवसर भूल जाता है। किन्तु स्वयं के लिए जीने की व्यक्ति के अन्दर की इच्छा कभी मरती नहीं है। इस इच्छा को लघुकथा के केन्द्र में रखना अपने आप में महत्वपूर्ण है। दूसरों के लिए जीने और स्वयं के लिए जीने- दोनों ही स्थितियों में सामंजस्य आवश्यक होता है।

एक अहसास भर से जीवन किस तरह विपरीत दिशा में पलट जाता है, इसे ‘अबाउट टर्न’ लघुकथा में अभिव्यक्त किया गया है। इस लघुकथा में मिलिट्री के तकनीकी पद ‘अबाउट टर्न’ का प्रयोग बेहद सार्थक रूप में किया गया है। यह प्रयोग लघुकथा को प्रभावशाली भी बनाता है। गोया जीवन-अहसासों के सेनानायक की आवाज से ध्वनित आदेश पर ही रामप्रसाद जी के पाँव पार्क से निकलकर ‘अनुभव घर’ वृद्धाश्रम की ओर मुड़ जाते हैं। जीवन की प्रत्येक सीमा पर तनाव भी होता है, संघर्ष भी होता है किन्तु अपनों से मिला तिरस्कार और अधिकार-वंचना जिन अहसासों को जन्म देती है, उनसे ध्वनित ‘अबाउट टर्न’ की गूँज को अनसुना करना बहुत कठिन होता है।

‘महानगर का प्रेम-संवाद’ और ‘चैटकथा’ लघुकथाओं में आधुनिक चैट शैली के प्रयोग के साथ नयी पीढ़ी की नयी संस्कृति को केन्द्र में रखा गया है। इन लघुकथाओं की विषय-वस्तु और कथ्य जीवन में आ रहे व्यापक परिवर्तनों की ओर संकेत करते हैं।

प्रतीकों और बिम्बों से शक्ति अर्जित करके साहस बढ़ाने में उपयोग का प्रयोग है लघुकथा ‘नजदीक, बहुत नजदीक’ में। हॉकी की खिलाड़ी और हॉस्टल की दबंग एक लड़की को देर शाम कस्बे से अपने गाँव जाने के लिए साहस जुटाना मुश्किल-सा लगता है। किन्तु पहले वह अपने व्यक्तिगत साहस का स्मरण करती है, फिर भी साहस कम पड़ जाता है तो वह रजिया सुलताना को याद कर अपना साहस बढ़ाती है, फिर झाँसी की रानी को याद करती है और अन्त में भारत की बेटी के रूप में अपने साहस का स्मरण करती है। ऐसा करते-करते वह गाँव पहुँच जाती है। तू रजिया सुलताना है…, तू झाँसी की रानी है…, तू भारत की बेटी है… जैसे संवादों का अद्भुत प्रयोग लघुकथा को सौंदर्यबोधक के साथ प्रभावशाली भी बनाता है।

सामान्यतः हमारे देश की राजनीति में चुनावी उम्मीदवारों का फैसला राजनैतिक दलों के कथित हाईकमान द्वारा किया जाता है और जनता को उन्हीं में किसी को अपना प्रतिनिधि चुनना होता है। मधुदीप जी अपनी लघुकथा ‘हड़कंप’ में इस परंपरा को तोड़ने का प्रयोगधर्मी सन्देश देते हैं। उनकी लघुकथा में पूरे गाँव का फैसला है, उस उम्मीदवार को वोट देना, जिसके परिवार से कोई सदस्य देश की सरहद पर तैनात रहा हो। यह संदेश प्रयोगधर्मी इसलिए है कि यह राजनैतिक दलों द्वारा उम्मीदवारों को जनता पर थोपने की रूढ़ प्रवृत्ति को तोड़ने का संकल्प देता है। इस तरह के प्रयोगधर्मी सन्देश देने में लघुकथा व्यापक स्तर पर सफल हो सके तो निश्चित रूप से देश में बड़ा बदलाव आ सकता है। रचनात्मक प्रभाव का संचार करता यह सार्थक प्रयोग है।

प्रायः बच्चों के प्रेम-प्रसंग के समाचार माता-पिता को चिंता में डालकर आक्रोश से भर देते हैं। ऐसे समाचारों पर माता-पिता की पहली प्रतिक्रिया विरोध की ही होती है, भले वह स्वयं उसी स्थिति से गुजर चुके हों। मधुदीप जी का लेखक इस बारे में अलग दृष्टि रखता है। कथा में बेटे के किसी से प्रेम करने का अनुमानित समाचार सुनकर माता-पिता को अपनी प्रेम कहानी का स्मरण हो आता है और प्रसन्न होकर माँ मुस्कुराती है, पिता गुनगुना उठता है- ‘‘हर दिल जो प्यार करेगा…।’’ निसंदेह रूढ़ि को तोड़ती नई दृष्टि का यह एक सकारात्मक प्रयोग है।

लघुकथा ‘मेड इन चाइना’ में राष्ट्रीय भावना से भरे एक भारतीय के चाइना की बनी वस्तुओं के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोंण को दर्शाना महत्वपूर्ण है। भारत में स्थानीय स्तर पर बनने वाले रोजमर्रा के उपयोग वाले उत्पादों पर भी विदेशी, विशेषतः चाइनीज बाजार के कब्जे से भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का संकेत इस कथा में स्पष्ट दिखाई देता है। अर्थव्यवस्था से जुड़े विषय पर सिकुड़ते स्थानीय दस्तकारी के बाजार की स्थिति का प्रयोग लघुकथा में निसंदेह सार्थक हस्तक्षेप करता है।

‘आलू के दाम’ लघुकथा में देश की सीमाओं पर तनावपूर्ण हालातों का रोजमर्रा की आवश्यकता वाली चीजों की कीमतों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों और उससे आम नागरिकों को होने वाली परेशानियों पर एक प्रभावी टिप्पणी है। इस तरह की टिप्पणी लघुकथा को उसके सामान्य ट्रैक से अलग ले जाने की प्रवृत्ति दर्शाती है, इसलिए निश्चित रूप से इसे एक प्रयोग की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।

एक वैज्ञानिक शोध का प्रयोग लघुकथा ‘अन्तरात्मा’ में किया गया है। एक सॉफ्टवेयर के माध्यम से मानवीय चिंतन की सत्यता के परीक्षण का प्रस्ताव लघुकथा का कथ्य बनकर उभरता है। देश में एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है, जो विपरीत हालात पैदा करके उन्हें न्यायसंगत ठहराने का प्रयास करता है और उन्हें गलत कहने वाली राष्ट्रधर्मी ताकतों को दबाव में लेने का प्रयास करता है। लेखक की चिंता यह है कि देश में विपरीत हालात पैदा करते आन्दोलनों की वास्तविकता का क्या किसी वैज्ञानिक पद्धति से परीक्षण किया जायेगा! और क्या यह संभव है? साहित्य में वैज्ञानिक शोध के प्रयोग के साथ यह एक व्यंजनात्मक दृष्टि की नव्यता का प्रयोग भी है।

प्रयोगधर्मी तत्त्वों को समझने तक सीमित अध्ययन के आधार पर इन 20-25 लघुकथाओं में प्रयोगधर्मिता के कई तत्त्व दिखाई देते हैं। इनमें शिल्प से जुड़ी चीजें हैं, विचार से जुड़ी चीजें हैं, रूढ़ियों और परम्पराओं को तोड़कर नयी जमीन तलाशती दृष्टि है, पारम्परिक चीजों को नये कोंणों से देखने की प्रवृत्ति है, नयी जीवन शैली से जुड़े प्रयोग हैं, कुछ उबाऊ विषयों को लघुकथा के केन्द्र में लाकर रुचिकर बनाने के संकल्प हैं। किन्तु प्रयोगधर्मिता के स्तर पर दो-तीन चीजें बहुत अलग किस्म की हैं, जिन्हें मधुदीप जी के मौलिक प्रयोग के तौर पर जाना जा सकता है। पाठकों को सम्बोधित (एड्रेस) करते हुए उनसे कनेक्ट करने की तकनीक, जो लघुकथा में पाठकों की एकाग्रता की दृष्टि से अद्भुत प्रयोग है, मधुदीप जी से पहले लघुकथा में नहीं देखी गई । मधुदीप जी जिस प्रकार लघुकथा में अपने लेखक या अन्य रूप (जो एक छाया पात्र जैसा दिखाई देता है) के लिए स्पेस बनाकर पाठकों से रू-ब-रू होते हैं, पाठक प्रायः एकाग्र भाव से उन्हें सुनता दिखाई देता है। इस प्रयोग का दूसरा प़क्ष यह है कि कल्पना से वास्तविक तक की यात्रा, जिसका कथा साहित्य में तय होना बेहद महत्त्वपूर्ण होता है, बहुत सहजता के साथ तय हो जाती है।

मधुदीप जी के व्यक्तिगत अनुभवों और अहसासों के साथ न चाहते हुए भी साहित्य से एक लम्बे समय तक दूर रहने की पीड़ा और समय की प्रतीक्षा की व्यग्रता ने उनके अन्दर एक अक्षय ऊर्जा के भण्डार का निर्माण किया है। यह ऊर्जा आन्तरिक प्रवाह के दबाव के साथ रचनात्मक सरोकारों के अनुशासन व सन्तुलन के बाह्य दबाव के कारण असीम शक्ति-संपन्न बनकर उनकी अनेक लघुकथाओं में प्रस्फुटित होती है। लघुकथा में अन्यत्र ऐसी ऊर्जा बहुत कम दिखाई देती है। यह भी सर्वदा एक विशिष्ट प्रयोग जैसी ही है, क्योंकि लघुकथा में इसका अपना प्रभाव उभरकर सामने आता है। लघुकथाओं में ऊर्जा के इस विशिष्टीकरण कर कोई संज्ञागत पहचान नामांकित करना भले थोड़ा मुश्किल हो, उसकी अनुभूति दूर से महसूस की जा सकती है। मधुदीप जी के अन्य कई प्रयोग भी उनकी इसी ऊर्जा से दीप्तिमान होते महसूस होते हैं। कई कथाओं में यह ऊर्जा कथा-सौंदर्य और कथ्यों की धार का स्रोत भी बनी है। यह प्रयोग ऊर्जा को लघुकथा के केन्द्र में स्थापित करने जैसा और अनूठा है। विषपायी, सन्नाटों का प्रकाश पर्व, वानप्रस्थ, डायरी का एक पन्ना, ऑल आउट, हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ आदि अनेक लघुकथाओं में इसे देखा जा सकता है।

एक ही व्यक्ति (स्वयं) से कई भूमिकाओं, यथा सूत्रधार, लेखक और कथा के प्रमुख पात्र का निर्वाह करवा लेने की अनूठी क्षमता और प्रयोग भी मधुदीप जी के लघुकथा-सृजन में देखने को मिलते हैं।

साहित्य में प्रयोगों का एक उद्देश्य समय के साथ मानवीय जीवन में आने वाले परिवर्तनों को आत्मसात करना होता है ताकि साहित्य अपने समय एवं परिवेश के साथ जुड़ सके। उसका दूसरा उद्देश्य साहित्य के विभिन्न रूपों को आगे बढ़ते समय यानी समकालीनता के सन्दर्भ में अद्यतन करना होता है। इन प्रयासों में सौंदर्य और प्रभाव से जुड़ी नव्यताएँ देखने को मिलती हैं। मधुदीप जी की लघुकथा में प्रयोग यद्यपि सौंदर्यबोधक भी होते हैं किन्तु उनमें रचनात्मक प्रभाव प्रमुखता प्राप्त करता है। मुझे पूरा विश्वास है कि उनके प्रयोग लघुकथा में रचनात्मक प्रभाव के नये आयाम प्रस्तुत करने में सफल होंगे।

-121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004


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