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लघुकथाएँ(पुण्य स्मरण)

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(1935-2022)

1-झंकार

आज फिर साधना मैडम का मुँह लटका हुआ था।

यह बात शीला मैडम के परिपक्व अनुभव–ज्ञान से छिपी न रही। वे साधना से कुछ पूछना ही चाहती थीं, तभी स्कूल की बेल गूँज उठी।

तीसरा पीरियड दोनों का ही खाली था। शीला ने प्यार से साधना को साथ बिठाया और परेशानी की वजह पूछी।

साधना भी शीला को को ‘सीनियर’ तथा बड़ा होने के नाते सम्मान देती थी। वक्त–जरूरत सही राय देने के लिए राय देने के लिए गार्जियन–सा मानती थी।

इतनी सहानुभूति पाकर साधना, मन हल्का करने लगी। वही सब पुरानी बातें–‘‘स्कूल से खटकर घर पहुँचते ही खटने लगी। छोटे बच्चे को देखो। सास–ससुर–पत्नी की हाजिरी में जुट जाओ। जरा–सी कहीं भी कोर–कसर रह जाए, तो पति पुरखों तक की खबर लेने को तुल जाएँगे। कभी सोचती हूँ, किन जानवरों से पाला पड़ा? आज तो मैंने खाना भी नहीं खाया।’’

‘‘वाह, खूब! ऐसे कैसे काम चलेगा, मैडम! पहले भी मैंने तुम्हें समझाया था। परवाह ही मत करो किसी की। डरो मत, डटकरके खाओ। हाँ, थोड़ा नखरा भी दिखाओ, कहो, मैंने तो कुछ भी नहीं खाया है, इसी के मारे….’’

बातों–बातों में फिर घंटा बज गया।

आधी छुट्टी में फिर दोनों सहेलियाँ मिलीं।

शीला अपनी राय देने में कुछ ज्यादा ही जोश दिखा रही थी।

‘‘मेरी बात समझी कि नहीं?’’

‘‘हूँ।’’ साधना अब भी उदास थी।

शीला फिर उसी जोश से बोली–‘‘मैंने कहा ना, फिक्र ही मत करो। एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो। पति बोलते हैं, तो बोलने दो। समझो कुत्ता भौंक रहा है। मस्त रहो…’’ शब्द बीच में रुक गए।

झन्न! शीला मैडम की कनपटी झनझना उठी थी, चाँटे से झुमका झूल रहा था।

‘‘मेरे पति को कुत्ता कहा?’’ साधना का स्वर तीखा था।

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2-मुर्गे

लोग–बाग बड़े मजे से मुर्गों का तमाशा देख रहे हैं।

दोनों मुर्गे कितनी देर से लगातार लड़ रहे हैं। चंदू दोनों बाँहों को आसमान में उछाल–उछालकर बार–बार अपने मुर्गे को प्रोत्साहित करता है–‘‘ओ….हे ओ।’’

लोग उसकी इतनी तेज डरावनी–सी लगनेवाली आवाज से दो–एक पल के लिए चौंकते हैं, मगर फिर से अपनी दृष्टि मैदान में लड़ते हुए मुर्गो पर बिछा देते हैं।

चंदू का मुर्गा आपे से बाहर होकर कांडे के मुर्गे पर पिल ही तो पड़ा। कांडे का मुर्गा बचाव करता हुआ पीछे हटने लगा। तब चंदू ने स्वयं आगे बढ़कर ‘हट भी, हट भी, अबे हट बे’ कहकर कांडे के मुर्गे को भगा दिया। अपने मुर्गे को गोद में उठाकर ‘पुच्च–पुच्च करते हुए अपनी जेब से पिस्ता निकालकर खिलाने लगा, ‘‘खा–खा बेटे, शाबाश….’’ शब्द चंदू के मुँह में ही थे कि सहसा कांडे ने उसकी पीठ पर एक जबरदस्त घूँसा दे जमाया, ‘‘साले, इस तरह जीतते हैं? अभी मेरा मुर्गा दुबारा वार करता….बेईमान मादर…।’’

कांडे के इस अप्रत्याशित वार से सजग होने में चंदू को चंद सेकेंड लगे। मस्ती और जीत के उल्लास में से, उसने अपने को जैसे झटका–सा देकर बाहर निकाला। कांडे की तरफ सख्त निगाहों से देखा और ललकारा, ‘‘तो तू ही आजमाकर देख ले….खाक वार करता हिजड़े का मुर्गा।’’ कहते–कहते उसने अपने मु‍र्गे को जमीन पर छोड़ दिया।

कांडे ने भी बाँहें चढ़ा लीं।

दो मुर्गो के अलावा और भी बहुत–से मु‍र्गे थे, जो अब दो नए मुर्गो के लड़ने का तमाशा देख रहे थे।

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3-रहनुमा

वह बौना था। दूसरों की बनिस्बत इस बात को खुद समझता था। बच्चों को स्कूल, गाँव के मेहमानों को बस–अड्डे पहुँचाता। बदले में न–न करता हुआ जो मिलता, ले लेता। दूसरों के फायदे की बातें करता रहता…..अजी मेरा क्या है…

एक बार राजा राह भटककर वहाँ पहुँच गया, बोला, ‘‘मैं आप सबकी कुशलता जानने आया हूँ। कोई समस्या?’’

‘‘समस्या नहीं, समस्याएँ महाराज! पर पहले आपकी समस्या। पहले मैं आपको महल तक छोड़ आऊँ।’’ बौने ने पूरा मुआमला समझते हुए कहा।

‘‘नहीं, पहले आप लोग कहिए?’’ राजा को सभी की ओर देखते हुए पूछना पड़ा, मगर बौने ने ही सबका प्रतिनिधित्व किया।

‘‘सबसे बड़ी समस्या यही है कि हम लोग आप तक अपनी फरियाद नहीं पहुँचा सकते। महल का रास्ता बहुत लंबा है। जो छोटा रास्ता है, साँपों और जहरीली झाड़ियों से भरा हुआ है।’’

‘‘ठीक है। इस वक्त तुम मुझे लंबे रास्ते से ही ले चलो। वहाँ चलकर तुम- हम समाधान निकालेंगे।’’

महल पहुँचकर, राजा ने बौने को महल में बड़े ठाठ–बाट से रखा। समय गुजरने पर उसे योजना मंत्री बनाया।

पहली योजना के तहत जितना धन मिला, बौने ने सारा धन लगाकर लंबे रास्ते में भी जहरीली जहरीली झाड़ियाँ लगवा दीं। दुर्गंधयुक्त दम घोंटने वाले द्रव्यों का छिड़काव करवा दिया।

बौने के चेहरे से पूर्ववत् भोलापन झलकता था। वह अब भी इस तथ्य को नहीं भूला था कि गाँव में, अब भी उससे ज्यादा पढ़े–लिखे योग्य व्यक्ति मौजूद है।

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4-मुआयना

–तो आप हैं इंचार्ज साहब, यह काली–काली बैट्रियाँ कमरे में कितनी भद्दी लग रही हैं। इन्हें बाहर खिड़की के पास रखवाइए।

–चोरी हो जाने का डर है।

–हूँ चोरी! कोई मजाक है। तब मैं अपनी जेब से रकम भर दूँगा।

फिर मुआयना।

–मुझे तुम्हारा तार मिला। तो करवा दी चोरी। वाह मैंने कहा था, रकम भर दूँगा। खूब, तुम सबने मिलकर सचमुच बैट्रियाँ चोरी करवा दीं। हर रोज एक आदमी की पेशी होगी।

दसवें रोज।

–तुम लोगों को अब क्या पुलिस की पेशियाँ करवाऊँ। आखिर स्टाफ बच्चों के समान होता है। यह लो सात सौ रुपए। खरीद लाओ नई बैट्रियाँ। लिख दूँगा, दूसरे दफ्तर वाले बिना बताए ले गए थे। मिल गई। वार्निंग ईशू कर दी।

मुआयना खत्म हुआ। साहब का टी0 ए0- डी0 ए0 छब्बीस सौ से कुछ ऊपर बैठा था।

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5-आश्वस्त

“तो अब मैं चलूँ? “

“ठीक है, परसों अपने कागज ले जाइएगा।”

“काम हो जाएगा ना? “

“आप घुमा फिराकर यही बात और कितनी बार पूछेंगे।”

“आप बुरा मत मानिए साहब, बस जरा….”

“यकीन नहीं होता, यही ना…”

“विश्वास तो सभी पर रखना पड़ता है, पर…”

“कह तो दिया- आपका काम हो जाएगा। अब आप ही बताइए आपको कैसे विश्वास दिलाऊँ? “

“बस, आप जरा…पचास का यह नोट रख लीजिए।”

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^-ग़म

शहर के जाने माने पत्रकार बल बलादुर सिंह ने अखबार के लिए एक दिलेराना (बोल्ड) लेख लिखा।

इन दिनों, माफियाओं ने अँधेर मचा रखा था। यह लोग दलित वर्ग की ज़मीनें हड़पने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रहे थे। सामंत ग़रीब स्त्रियों की इज्ज़त लूट रहे थे।

बल बलादुर सिंह ने ऐसी घटनाओं का ब्यौरा आँकड़ों सहित लिख डाला। जिन माफियाओं ने आग लगवाई थी, और जिन लोगों ने औरतों को बेइज्ज़त किया था, उन सबके नाम भी लिख डाले थे।

किंतु यह सब लिख चुकने के बाद, बल बलादुर घबरा गए। इसलिए अपना नाम लिखने की बजाए उन्होंने एक सामान्य–फ़र्जी नाम चुन लिया। रामचंद सोनगरा। बस्ती का नाम सच्चा। लेखक का नाम झूठा।

लेख छपते ही तहलका मच गया। फर्जी नाम का जीवित प्राणी रामचंद सोनगरा गुंडों के कहर का शिकार हुआ। वह बहुतेरा कहता रहा कि उसने ये लेख नहीं लिखा। पर पिटाई–ठुकाई होती रही। तब उसने कहा, कर लो, क्या कर लोगे। मैंने ही लिखा है। जान से मार डालोगे। मार डालो। इसमें झूठ क्या है।

इतने में कुछ लोगों और पुलिस का हस्तक्षेप हुआ। रामचंद सोनगरा को अस्पताल में दाखिल कराया गया। उसके बहुत चोटें लगी थीं। स्थानीय नेताओं के प्रभाव से कुछ गिरफ्तारियाँ भी हुई थीं।

दूसरे दिन के समाचार पत्र में यह विवरण पढ़कर बल बलादुर सिंह को खुशी हुई।

शहर के पिछड़े वर्ग के समर्थन में कुछ और लोग आए। एक समिति का गठन हुआ। सभी ने एक मत से रामचंद सोनगरा को उस समिति का अध्यक्ष चुना।

अन्याय,अत्याचारों के विरुद्ध किए जाने वाले क्रिया–कलाप की सूचनाएँ आने लगीं। संगोष्ठियाँ होने लगीं। दलितों की बहुत सारी ज़मीनें मुक्त करा ली गईं । वे सार्वजनिक नलों से पानी भरने लगे। यह सब रामचंद के कुशल नेतृत्व में हो रहा था।

आठ माह बाद राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों की घोषणा हुई, दलित मुक्ति संघर्ष के लिए रामचंद सोनगरा को 51,हजार रुपये का पुरस्कार मिला।

पढ़कर बल बलादुर सिंह ने माथा पीट लिया।

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6-गन्दी बातें

डरकर उठ बैठा। माथे पर हाथ चला गया–गीला–गीला…तो क्या खून? नहीं–नहीं, पसीना।

किसी ने मेरी चादर खींची थी। बिल्ली थी शायद, जो अब भाग गई थी। माँ पास नहीं थी। दिल जोर से धड़कने लगा। पेशाब।

सहमता हुआ धीरे–धीरे बाथरूम की तरफ बढ़ गया।

‘‘जाने–जाँ!’’ कमरे से पापा की आवाज।

इसके साथ ही माँ की हँसी। कई बार।

उफ्,रात की बाते : सारा दिन सोचता रहा….जाने–जाँ।

शाम को खेलकर खुशी–खुशी घर लौटा।

सामने माँ थी। ‘जाने–जाँ’ कहते हुए मैं माँ से लिपटने लगा।

माँ ने मुझे पीछे धकेल दिया। वे मुझे न जाने क्या सोचते हुए घूर रही थीं।

मैं किसी तरह से माँ को मना लेना चाहता था, ‘‘अच्छी माँ, जाने–जाँ क्या होता है?’’

पलक झपकते ही एक करारा चाँटा मेरे गाल पर पड़ा।

मैं सिसकता हुआ, वापस मुड़ गया।

‘‘कल से तेरा खेल बंद! अभी चार साल का हुआ नहीं, लड़कों से गंदी बातें सीखने लगा है।’’

तो क्या पापा माँ से गन्दी बातें करते हैं?

तब माँ हँस क्यों रही थी? और अब?

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